पंजाब दरबार को लगता था कि पहले एंग्लो-सिख वॉर में उनकी हार का कारण उनकी कमजोरी नहीं बल्कि फ़ौज के दो कप्तानों का धोखा था. जो अंग्रेजों से जा मिले थे. इस बात में कुछ हद तक सच्चाई भी थी. लेकिन हार फिर भी हार थी. संधि स्वरूप पंजाब दरबार को जम्मू कश्मीर से हाथ धोना पड़ा था. इसलिए हार के ज़ख़्म ताज़ा थे.
इन ज़ख्मों पर नमक छिड़का गया मुल्तान में. कम्पनी बहादुर ने पंजाब इलाक़े में फ़्रेडरिक क्यूरी को बतौर कमिश्नर नियुक्त किया था. क्यूरी ने मांग रखी कि जिस तरह पंजाब दरबार को टैक्स जाता था. वैसा ही टैक्स कम्पनी बहादुर को भी दिया जाए. दीवान मुलराज ने इनकार कर दिया. इतना ही नहीं, दो अंग्रेज ऑफ़िसर जब मुल्तान किले पहुंचे तो वहां लोगों ने घेर कर उनकी हत्या कर दी. विद्रोह की शुरुआत हो चुकी थी. शेर सिंह और छत्तर सिंह विद्रोह को दबाने के लिए क्यूरी ने खैबर पख्तूनख्वा के उत्तर-पूर्व इलाक़े यानी हज़ारा से सेना बुलाई. जिसको लीड कर रहे थे. राजा शेर सिंह अटारीवाला. जो हज़ारा के गवर्नर छत्तर सिंह अटारीवाला के बेटे थे. यहां मुल्तान में शेर सिंह विद्रोह को दबाने की कोशिश कर रहे थे. वहां हज़ारा में कम्पनी बहादुर के कुछ अफ़सर छत्तर सिंह को ठिकाने लगाने की कोशिश में थे.

हज़ारा के गवर्नर छत्तर सिंह अटारीवाला (दाएं) और उनके बेटे राजा शेर सिंह (बाएं) ( तस्वीर: ब्रिटिश म्यूज़ियम)
जब शेर सिंह को इस बात की खबर लगी तो उन्होंने उल्टा कम्पनी के ख़िलाफ़ लड़ना शुरू कर दिया. दुश्मन को दुश्मन का साथ मिला सो हाथ मिला.कम्पनी बहादुर दोनों की दुश्मन थी. इसलिए दीवान मुलराज और राजा शेर सिंह ने हाथ मिला लिया.
14 सितम्बर 1848 के रोज़ शेर सिंह ने कम्पनी बहादुर के ख़िलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजाया. अब कम्पनी को दो दिक़्क़तें खड़ी हो गई. एक तो हज़ारा में छत्तर सिंह विद्रोह कर चुके थे. दूसरा मुल्तान भी हाथ से निकलता दिखाई दे रहा था. यानी उनके लिए लड़ाई के दो फ़्रंट खुल गए थे. बंगाल प्रेसीडेंसी की 35 हज़ार सेना 1845 तक पंजाब के नज़दीक तैनात थी. लेकिन फिर खर्च में कमी के वास्ते संख्या घटाकर 12 हज़ार कर दी गई थी.
कम्पनी बहादुर के लिए पहला टास्क था शेर सिंह और छत्तर सिंह को मिलने से रोकना. कम्पनी की एक टुकड़ी ने सिंधु नदी पर बसे एक महत्वपूर्ण पोर्ट अटोक पर कब्जा कर लिया. साथ ही मरगला हिल्स को कब्जे में लेकर हज़ारा को पंजाब से पूरी तरह काट दिया. छत्तर सिंह हज़ारा में ही फ़ंसे रह गए. रामनगर की लड़ाई शेर सिंह मुल्तान से उत्तर की ओर बढ़े. और चेनाब नदी पार कर वहीं डेरा डाल लिया. जैसे ही ये हुआ, कम्पनी बहादुर ने भी खुलकर युद्ध का ऐलान कर दिया. उन्होंने चेतावनी दी कि युद्ध के बाद वो महाराजा दिलीप सिंह को गद्दी से उतार देगी. और पंजाब पर कब्जा कर लेंगे. इसलिए जिस ज़मींदार ने विद्रोहियों का साथ दिया, उनकी ज़मीन भी छीन ली जाएगी.

रामनगर की लड़ाई (तस्वीर: commons)
राजा शेर सिंह से निपटने के लिए कम्पनी ने कमांडर इन चीफ़ 'सर ह्यू गॉफ़' को नियुक्त किया. मानसून आ चुका था. इसलिए गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने मानसून के बीत जाने तक रुकने का आदेश दिया. इस वक्त का फ़ायदा उठाकर शेर सिंह ने चेनाब के पास मजबूत पोजिशन बना ली. 21 नवंबर को गॉफ़ ने आर्मी की कमान संभाली. पहली लड़ाई चेनाब के बाएं छोर पे मौजूद रामनगर में हुई.
यहां कम्पनी बहादुर की सेना को पीछे खदेड़ दिया गया. 1 दिसंबर के रोज़ कैवेलरी डिविज़न के साथ मेजर जनरल जोसेफ थैकवेल ने मूव किया. उन्होंने रामनगर से चेनाब को पार किया. और शेर सिंह के साथ सदुल्लापुर में उनकी भिड़ंत हुई. इस चक्कर में रामनगर पर शेर सिंह की पोजिशन कमजोर हुई तो थैकवेल ने खाली पड़े इलाक़े को अपने कब्जे में लेना शुरू कर दिया.
थैकवेल को लगा था अगले दिन पूरी ताक़त से हमला कर वो शेर सिंह को पीछे खदेड़ देंगे. लेकिन शेर सिंह ने चतुराई दिखाते हुए उत्तर की ओर मूव किया. और चेनाब के पास अपना स्ट्रोंगहोल्ड बनाए रखा. इसके बाद अगले कुछ हफ़्तों तक दोनों सेनाओं ने अपनी पोजिशन बनाए रखी. शेर सिंह के पास ऊपरी पोजिशन का फ़ायदा था. इसलिए वो नीचे मूव कर इस एडवेंटेज को खोना नहीं चाहते थे. दूसरी तरफ़ गॉफ़ इंतज़ार कर रहे थे, मुल्तान से रिइंफ़ोर्समेंट के आने का. मुल्तान और हज़ारा में हालात बदले जनवरी के पहले हफ़्ते में मुल्तान से खबर आई कि कम्पनी ने उस पर कब्जा कर लिया है. हालांकि दीवान मुलराज अभी तक किले को बचाए हुए थे. गॉफ़ को लगा अब मुल्तान से सेना आएगी. लेकिन तभी अटोक से भी एक खबर आई. पहले हमने आपको बताया था कि अटोक पर कम्पनी के कब्जे के चलते ही शेर सिंह के पिता यानी छत्तर सिंह मूव नहीं कर पा रहे थे.

दीवान मुलराज चोपड़ा और दोस्त मुहम्मद ख़ां (तस्वीर: Commons)
जिस समय मुल्तान पर कब्जा हुआ. उसी दौरान अटोक में मुस्लिम सेना ने विद्रोह कर दिया. और अफ़ग़ानिस्तान के शासक दोस्त मुहम्मद खान से जा मिले. आधे दिल से ही सही दोस्त मुहम्मद, छत्तर सिंह का सपोर्ट कर रहे थे. अटोक खाली हुआ तो हज़ारा से छत्तर सिंह दक्षिण की तरफ़ बढ़े. गवर्नर जनरल डलहौज़ी ने गॉफ़ को आदेश दिया, मुल्तान से रिइंफ़ोर्समेंट आने का इंतज़ार मत करो. किसी भी क़ीमत पर छत्तर सिंह और शेर सिंह की सेना को एक होने से रोकना है.
इसके बाद आज ही के यानी 13 जनवरी 1849 के दिन दोनों सेनाओं के बीच जंग लड़ी गई. इसे चिलियांवाला की जंग के नाम से जाना जाता है. चिलियांवाला आज के हिसाब से पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब के मंडी बहाउद्दीन ज़िले में पड़ता है. 13 जनवरी की सुबह गॉफ़ अपनी सेना लेकर झेलम के किनारे रसूल की तरफ़ बढ़े. दोपहर तक गाफ़ अपनी सेना सहित चिलियांवाला पहुंच गए. गाफ़ का प्लान था कि सिख पोजिशन के उत्तर की ओर मूव कर अगले दिन उनके बाएं फ़्लैंक पर हमला किया जाए.
ऐसा इसलिए क्योंकि झेलम के किनारे क़रीब 6 मील लम्बे इलाक़े में सिख सेना फैली हुई थी. जिसके कारण फ़्लैंक में बीच-बीच में काफ़ी जगह थी. और ब्रिटिश सेना के लिए इस फ़्लैंक पर हमला करना सबसे मुफ़ीद था. लेकिन गॉफ़ ने चिलियांवाला के पास एक ऊंची पहाड़ी से देखा कि सिख सेना ने इस पोजिशन से आगे मूव कर लिया है. फ़ॉर्वर्ड प्रेस से फ़्लैंक अब कमजोर नहीं रह गया था. इसलिए गॉफ़ ने सामने से हमला करने का निर्णय लिया.
कुछ अंग्रेज इतिहासकार मानते हैं कि सिख सेना की संख्या 23 से 30 हज़ार के बीच थी. लेकिन इसमें संशय है. पहले ऐंग्लो-सिख वॉर के बाद खालसा सेना सिर्फ़ 12 हज़ार तक सीमित रह गई थी. इसलिए कुछ इतिहासकार ये भी दावा करते हैं कि चिलियांवाला में सिख सेना की संख्या 10 हज़ार से ज़्यादा न रही होगी. दोनों सेनाओं का फ़ॉर्मेशन सिख सेना के तीन हिस्से थे. बायीं तरफ़ शेर सिंह के नेतृत्व में एक घुड़सवार रेजिमेंट, 9 इंफेंट्री बटालियन और क़रीब 20 बंदूक़ें. शेर सिंह ने निचली पहाड़ियों और चोटियों पर पोजिशन ले रखी थी. सेंटर में लाल सिंह कमांड कर रहे थे. उनके कमांड के तहत दो कैवेलरी रेजिमेंट, 10 इंफेंट्री बटालियन और 17 बंदूक़ें थीं. इनके पीछे जंगल पड़ता था. जहां लाल सिंह की आधी से ज़्यादा सेना झाड़ियों से ढकी हुई थी. बायीं तरफ़ एक ब्रिगेड थी. जिसमें 1 कैवेलरी रेजिमेंट, चार इंफेंट्री बटालियन और 11 बंदूक़ें थीं.

मैप- चिलियांवाला की लड़ाई (तस्वीर: Commons)
पहले गॉफ़ का इरादा अगले दिन तक इंतज़ार करने का था. लेकिन जैसे ही उनकी सेना ने कैम्प लगाने की कोशिश की. पता चला नज़दीक ही सिख आर्टिलरी मौजूद है. छुपी हुई पोजिशन से सिख आर्टिलरी ने गोलीबारी शुरू की. और गॉफ़ को मजबूरन उसी दिन युद्ध में उतरना पड़ा. बाद में गॉफ़ ने अपने इस निर्णय के बारे में लिखा, “मुझे डर था सिख सेना रात में कैम्प में हमला कर देगी. इसलिए मुझे उसी दिन युद्ध में उतरना पड़ा.”
अब ज़रा गॉफ़ की सेना का हाल भी जान लेते हैं. गॉफ़ के पास दो इंफेंट्री डिविजन थीं. एक को लीड कर रहे थे मेजर जनरल वॉल्टर गिल्बर्ट. और एक को कॉलिन कैम्बल. हर डिविज़न में दो ब्रिगेड थी. हर ब्रिगेड में एक ब्रिटिश इंफेंट्री बटालियन और दो नेटिव बंगाली बटालियन. कुल मिलाकर 66 बंदूक़ें.
एक तीसरी डिविज़न भी थी. जिसे लीड कर रहे थे मेजर जनरल जोसेफ थैकवेल. थैकवेल की घुड़सवार डिविजन को दो ब्रिगेड में बांटा गया था. बाएं फ़्लैंक पर ब्रिगेडियर वाइट लीड कर रहे थे. और दाएं फ़्लैंक पर ब्रिगेडियर पोप. इसके अलावा गॉफ़ के पास आठ 18 पाउंडर गन. और चार 8 इंची हाविट्जर गन सेंटर में लगी थी. एक ब्रिगेड रिज़र्व में रखी हुई थी. जिसे ब्रिगेडियर पेनी लीड कर रहे थे. चिलियांवाला में लड़ाई की शुरुआत 3 बजे गॉफ़ ने अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया. बाएं फ़्लैंक पर कैम्बल की डिविज़न और उनकी दो ब्रिगेड शुरुआत से ही परेशानी में थीं. वहां जंगल का एरिया था. इसलिए लेफ़्ट से कैम्बल ने खुद कमान संभालते हुए,दूसरी ब्रिगेड को बेयोनेट (संगीन) से हमला करने को कहा. ये ब्रिगेड अभी-अभी भारत आई थी. इन्हें भारत के टेरेन में लड़ाई करने का अनुभव नहीं था. इसलिए इन्होंने तेज़ी से हमला तो किया. लेकिन घनी झाड़ियों में ट्रूप्स का आपसी कोऑर्डिनेशन टूट गया. सिख आर्टिलरी ने ग्रेपशॉट से हमला किया.
ग्रेप शॉट एक प्रकार का एम्यूनिशन होता है. जिसमें एक कैन्वस बैग में कम कैलिबर के छोटे राउंड को एक साथ दागा जाता है. एक गोले की तरह फ़ायर होने की बजाय ये अलग-अलग टुकड़ों में टूट जाते हैं. और अंगूर के दाने जैसे दिखाई देते हैं. इसीलिए नाम पड़ा ग्रेपशॉट. ग्रेपशॉट के हमले से अफ़रा तफ़री मची. बाएं फ़्लैंक की ब्रिगेड से क्वीन कलर छिन गए. क्वीन कलर यानी ब्रिटेन की रानी का फ़्लैग. तब हर डिविज़न दो झंडे लेकर चलती थी. एक ब्रिटेन की महारानी का. और एक अपनी रेजिमेंट का. इन्हें कलर कहा जाता था. और इनकी सुरक्षा के लिए एक अलग से कम्पनी बनाई जाती थी. कलर अगर दुश्मन सेना ने छीन लिया तो मतलब बड़ी बेइज़्ज़ती.

चिलियांवाला की जंग का दृश्य (तस्वीर : नेशनल आर्मी म्यूज़ियम UK)
क्वीन कलर छिनने के थोड़ी ही देर में बायीं ब्रिगेड के अधिकतर सैनिक मारे गए. और बाक़ियों को पीछे हटना पड़ा. कैम्बल जिसे ब्रिगेड को लीड कर रहे थे, उसकी हालत इतनी ख़राब नहीं थी. इन्होंने सिख आर्टिलरी और उनके एक हाथी को भी अपने कब्जे में ले लिया. यानी बाएं फ़्लैंक पर ब्रिटिश मज़बूत दिखाई दे रहे थे. इसका फ़ायदा कैवेलरी ने उठाया. मौक़ा देखकर घुड़सवार सेना ने तेज़ी से धावा बोला और ये लोग सिख सेंटर के ठीक पीछे पहुंच गए. हमला करने के लिए एकदम मुफ़ीद पोजिशन. लेकिन तब तक दाएं फ़्लैंक से ब्रिटिश सेना के लिए बुरी खबर आने लगी थी. वहां वॉल्टर गिल्बर्ट लड़ रहे थे. और ब्रिटिश टुकड़ी की हालत ख़राब होती जा रही थी. किसी तरह गिल्बर्ट ने अपनी दो ब्रिगेड के साथ सिख सेना को पीछे हटने पर मजबूर तो कर दिया. लेकिन ब्रिगेडियर पोप कैवेलरी के साथ हमला करते हुए जंगल और झाड़ियों में घुस गए.
इनका भी वही हाल हुआ जो बाएं फ़्लैंक पर हुआ था. घनी झाड़ियों में सेना तितर-बितर हो गई. घबरा के ब्रिगेडियर पोप ने सेना को पीछे हटने का आदेश दिया. तब सिख सेना ने मौक़ा पाकर चौतरफ़ा हमला बोल दिया. मजबूरी में रिज़र्व ब्रिगेड को बुलाया गया. तब जाकर इनकी जान बची. अब तक रात हो चुकी थी. सिखों को बाएं और दाएं फ़्लैंक पे भारी नुक़सान हुआ था. लेकिन उनका कोर सही सलामत था. गॉफ़ के बचे हुए फ़ॉर्मेशन बेअसर हो चुके थे. इसलिए उन्होंने पूरी सेना को पीछे हटने का आदेश दिया.
लड़ाई ख़त्म होने तक गॉफ़ की सेना के 757 सिपाही मारे जा चुके थे. 1651 घायल हुए थे और 104 ग़ायब थे. यानी कुल 2512 सिपाहियों का नुक़सान. इनमें से 1000 के आसपास ब्रिटिश थे, बाकी भारतीय. दूसरी तरफ़ सिख सेना के 4000 सिपाही मारे गए थे. दो बोतल ब्रांडी और जेब में दस रुपये रिज़ल्ट क्या रहा? ये बताना थोड़ा कॉम्प्लिकेटेड है. सिख सेना ने गॉफ़ को आगे बढ़ने से रोक दिया था. इसलिए सिख सेना ने इसे अपनी जीत करार दिया. अगले दिन दोनों सेना अपनी-अपनी पोजिशन में डटी रही. इसके बाद शेर सिंह अगली सुबह उत्तर की तरफ़ चले गए. वहीं ब्रिटिश सेना तीन दिन बाद वहां से हटी. टेक्निकली पहले शेर सिंह पीछे हटे थे. इसलिए ब्रिटिश सेना ने इसे अपनी जीत माना. हालांकि सच ये है कि अगर शेर सिंह रात में रुकने के बजाय ब्रिटिश सेना पर हमला कर देते. तो ज़्यादा सम्भावना उनकी जीत की ही थी. ये बात तब कम्पनी बहादुर ने भी स्वीकार की थी.

ह्यू गॉफ़ और चार्ल्स जेम्स नेपियर (तस्वीर: Commons)
दाएं फ़्लैंक पर हुए सत्यानाश के बाद ब्रिटिश सेना का मनोबल टूट चुका था.वो और लड़ने के मूड में बिलकुल नहीं थे. इस जंग के टेस्टिमनी लिखते हुए, एक ब्रिटिश आब्जर्वर ने लिखा,
“ये सिख बिलकुल शैतानों की तरह उग्रता से लड़े. शेरों की तरह फुर्तीले ऐसे लड़ाकों को मैंने और कहीं नहीं देखा. वे सीधे संगीनों पर दौड़े और संगीन अपने सीने पर ले ली. सीने पर संगीन घुसी थी, इसके बावजूद अपने दुश्मन पर हमला करते रहे”इस लड़ाई के चर्चे लंदन तक पहुंचे. और गॉफ़ को इस शर्मिंदगी के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन्हें सस्पेंड कर जनरल चार्ल्स नेपियर को कमांडर बना दिया गया. हालांकि इससे पहले की नेपियर लंदन से पहुंचते. 21 फ़रवरी को सिख और ब्रिटिश फ़ौज के बीच एक आख़िरी लड़ाई हुई. गुजरात की लड़ाई, जिसमें ब्रिटिश सेना की जीत हुई. दूसरे एंग्लो-सिख वॉर ख़त्म हुए कुछ ही दिन हुए थे. दोनों तरफ़ युद्ध बंदी थे. जिन्हें धीरे-धीरे वापस भेजा जा रहा था. इस दौरान पहली खेप में दो ब्रिटिश सैनिक वापस अपने कैम्प में पहुंचे. लेकिन उनके चेहरे पर ख़ुशी के बजाय मायूसी थी. लटके हुए चेहरे को देखकर कमांडर ने पूछा, क्यों मुंह लटका हुआ है?
पता चला कि ब्रिटिश फ़ौज के सैनिकों की सिख कैम्प में खूब आवभगत की जा रही थी. खाना मांगो तो खाना. और पीने को मांगो तो ब्रांडी मिल रही थी. यहां तक कि जब उन्हें छोड़ा गया, तो उन्हें दो बोतल ब्रांडी और जेब में दस रुपये देकर भेजा गया था. 'आज रणजीत सिंह मर गया' 14 मार्च को शेर सिंह और उनके पिता छत्तर सिंह ने आत्म समर्पण कर दिया. शॉल से चेहरा ढक के दोनों रावलपिंडी स्थित ब्रिटिश कैम्प तक पहुंचे थे. यहां जनरल गिल्बर्ट ने उनके हथियार लिए. इसके बाद हजारों सिख सैनिकों ने भी अपने सरदार को फ़ॉलो किया. जनरल थैकवेल भी वहीं मौजूद थे. उन्होंने लिखा,
“वेटरन सिख सैनिकों को हथियार देने में बहुत दिक़्क़त हो रही थी. कुछ की आंखों में आंसू थे. बाक़ियों की आंखों में नफ़रत और ग़ुस्सा.”

महाराजा रणजीत सिंह और दिलीप सिंह (तस्वीर: Commons)
एक सैनिक बोला, 'आज रणजीत सिंह मर गया’. इसके बाद पंजाब को ब्रिटिश राज में मिला कर महाराजा दिलीप सिंह को लंदन भेज दिया गया. इसी लड़ाई के बाद कोहिनूर भी अंग्रेजों के पास गया. और इसी के साथ सिख साम्राज्य का अंत हो गया.
लेकिन चिलियांवाला की लड़ाई का किस्सा यही ख़त्म नहीं हुआ. 1857 की क्रांति में ये बैटल क्राय का हिस्सा बनी.1857 क्रांति के दौरान कवि प्रकाश नाथ दास ने लिखा.
“हाल ही में मैंने रंग-बिरंगे कपड़े पहने हजारों सैनिकों को क्षितिज में बिना म्यान के तलवारें लहराते हुए देखा. हनुमान का एक लाल झंडा उठा और झांसी की सेना रो पड़ी और चिल्लाई, चिलियांवाला याद करो”चिलिययांवाला की लड़ाई का ज़िक्र विदेश तक भी पहुंचा. 1854 में क्रिमिया वॉर के दौरान ब्रिटिश सेना की लाइट कैवेलरी ने चार्ज किया और रूस के हाथों मुंह की खाई. तब लॉर्ड लांकन ने कहा, ‘इससे बुरी हार मैंने पहले नहीं देखी’. तब जनरल ऐरी ने उन्हें जवाब दिया, “जंग में ये होता रहता है. चिलियांवाला के सामने ये कुछ भी नहीं है”.