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फ़हमी बदायूनी: टहलते फिर रहे हैं सारे घर में, तेरी ख़ाली जगह को भर रहे हैं

20 अक्टूबर, 2024 को दुनिया ने 72 बरस का एक 'नौजवान' शायर खो दिया. जदीद ग़ज़ल की एक ज़मीन बंजर हो गई. लेकिन उस ज़मीन से निकले पौधे हमेशा उर्दू शायरी की हवा को तर-ओ-ताज़ा करते रहेंगे.

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मुशायरे में शेर सुनाते फ़हमी बदायूनी

कमरा खोला तो आंख भर आई 
ये जो ख़ुश्बू है जिस्म था पहले

शायर फ़हमी बदायूनी को याद किया तो उनका ये शेर ज़ेहन में सबसे पहले कौंधा. बीती 20 अक्टूबर को बदायूं ज़िले के बिसौली में बने छोटे से घर में अपने दो शागिर्दों - चराग़ शर्मा और विनीत आश्ना - को देखते-देखते उन्होंने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं. दुनिया से विदा लेने से पहले फ़हमी बदायूनी अपनी कई सारी डायरियां शागिर्दों के हवाले कर गए हैं. इनमें उनकी ऐसी कई ग़ज़लें हैं जो अब तक शाए’ (प्रिंट) न हो सकीं. उम्मीद है ये ख़ज़ाना जल्दी ही उनके चाहने वालों तक भी पहुंचेगा, जो 72 साल के फ़हमी को 'नौजवान शायर' बताते हैं.

फ़हमी बदायूनी की फ़ौत से जदीद ग़ज़ल, या कहें नए दौर की ग़ज़ल की एक ज़मीन बंजर हो गई है. लेकिन उससे निकले ‘पौधे’ हमेशा उर्दू शायरी की हवा को तर-ओ-ताज़ा करते रहेंगे. उनके शागिर्द विनीत आश्ना बताते हैं, 

“हमारी हिम्मत न हुई वो डायरियां क़ुबूल करने की. हमें ये लगा कि अगर हमने ऐसा किया तो वो फ़ारिग़ हो जाएंगे. हमने कहा कि अभी इसमें तो बहुत पन्ने ख़ाली हैं. इन पन्नों को भरना है आपको. उन्होंने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया. वो मन बना चुके थे जाने का.”

बदायूनी के आख़िरी दिनों का ज़िक्र करते हुए शागिर्द चराग़ शर्मा कहते हैं,

“मुझे और विनीत जी को ऐसा लगा मानो वो इसी मौक़े का इंतज़ार कर रहे थे. ऐसा लगा मानो हमें देख लेने के बाद उन्होंने ये फ़ैसला किया कि अब जाना है. इस दिन से बहुत पहले ही उनका दुनिया से जी उचट गया था. वो जीना ही नहीं चाहते थे. ये हमें बहुत पहले मालूम पड़ चुका था. कुछ महीनों का वक़्त तो ऐसा था कि अगर कभी किसी अजीब वक़्त पर किसी दोस्त का फ़ोन आता तो ज़हन में अंदेशा उठता था कि कोई बुरी ख़बर आ रही हो.”

Fehmi Badayuni
मुशायरे में शिरकत करते फ़हमी साहब,
दुनिया ने ज़रा देर से देखा

फ़हमी साहब की शायरी के रौशन दरीचे लोगों को कुछ देर से नज़र आए. उन्होंने 2010 के दशक के शुरूआती दौर में अपने अशआर पहली बार खुल कर दुनिया के हवाले किए. अक्सर एक शेर का फेसबुक पोस्ट कर दिया करते. धीरे-धीरे दुनिया ने उन पोस्ट्स पर ग़ौर किया. लोग चौंक गए कि आख़िर ये शख़्स है कौन, जिसने इस तरह के शेर छिपा कर रखे हैं.

फ़हमी से अपनी पहली मुलाक़ात का ज़िक्र करते हुए जाने-माने शायर फ़रहत एहसास कहते हैं,

“उनसे पहली मुलाक़ात से पहले तक मैं उनके नाम से वाक़िफ़ नहीं था. ये एक अजीब सूरत-ए-हाल थी कि उनके शेर सुनने के बाद एक तरफ़ तो मैं उनसे नावाक़िफ़ होने पर शर्मिंदा हो रहा था, तो दूसरी तरफ़ उर्दू और दीगर ज़बानों की अदबी सूरत-ए-हाल पर अच्छी ख़ासी नज़र होने का मेरा गुमान शिकस्त के सदमे से दो-चार था.”

फ़हमी बदायूनी के देर से उभरने पर फ़रहत एहसास एक दिलचस्प बात कहते हैं,

“ये कहना कि 'देर से आए' दरअसल फ़रेब-ए-नज़र का मुआमला भी हो सकता है कि वो चल तो बहुत पहले चुके थे, अंदर-अंदर तशकील होते हुए, मगर पहुंचे अब हैं. या फिर ये भी कि वो पहुंच तो पहले चुके थे, नज़र अब आए हैं.”

फ़हमी के 'नज़र' आने पर चराग़ शर्मा, जो ख़ुद एक मक़बूल शायर हैं, कहते हैं, 

“सोशल मीडिया ने जो नुक़सानात किए सो किए, लेकिन फिर भी मैं इसका एक बड़ा एहसान मानता हूं कि उसने दुनिया से फ़हमी बदायूनी का तआरुफ़ कराया. फ़हमी साहब ने शेर के वज़्न की क़ीमत समझी और ये बताया कि शायरी अपनी हैसियत से भी मशहूर हो सकती है, और इसके लिए हंगामा बरपाने की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं. मैंने उनके लिए एक शेर कहा था जो मैंने उन्हें सुनाया भी था…

पढ़ता नहीं है कोई अभी ग़ौर से मुझे 
भेजा गया है पहले मेरे दौर से मुझे.”

नए दौर की ग़ज़ल का शायर

कहते हैं शायर के पास ख़ास नज़र होती है, जो मामूली दिख रहे मंज़र में अलग ही दुनिया ढूंढ निकालती है. फ़हमी साहब ऐसे ही थे. एक शेर क़ाबिल-ए-ग़ौर है,

मर गया हमको डांटने वाला
अब शरारत में जी नहीं लगता

वो जाते-जाते चाहने वालों के हवाले कर गए अपनी हस्सास नज़र, दुनिया के भीतर छिपी नई दुनियाओं का पता और उनको खोलने वाली कुंजियां.

फ़हमी बदायूनी की शायरी पर बात शुरू हो तो उसे सादगी नाम के एक लफ़्ज़ पर आ ठहरने में ज़रा भी देर न लगेगी. उन्होंने ‘आम’ को एक नया मानी दिया, ख़ास को एक नया वजूद और इन लफ़्ज़ों को एक-दूसरे के बहुत क़रीब ले आए. उनकी शायरी मनाज़िर के भीतर ख़ास दरवाज़ों को ढूंढ़ निकालती है. पढ़िए तो दिमाग़ उन दरवाज़ों पर दस्तक देता है, और अपने सामने सब कुछ खुलने लगता है, जो वैसे तो धुंधला पड़ा रहता है. अनदेखी दुनियाएं थके-हारे दिमाग़ पर ज़ाहिर होने लगती हैं. उनके कुछ अशआर इसकी बानगी देते हैं…

एक रूमाल मिल गया है तिरा 
अब वही ओढ़ते बिछाते हैं

परीशां है वो झूठा इश्क़ कर के 
वफ़ा करने की नौबत आ गई है

पहले लगता था तुम ही दुनिया हो 
अब ये लगता है तुम भी दुनिया हो

यूं उठे हैं हम उसकी महफ़िल से
जैसे   उसके    बग़ैर   जी    लेंगे

बहुत कहती रही आंधी से चिड़िया
कि पहली बार बच्चे उड़ रहे हैं

Fehmi Badayuni
फ़हमी साहब की एक पुरानी तस्वीर
ज़बान और बरतने का सलीक़ा

फ़हमी की शायरी में ख़यालों की बारीक़ी अक्सर चौंका देती है. इस पर से बरतने का सलीक़ा इतना प्यारा कि किसी एक लफ़्ज़ को इधर-उधर कर लेने की कोई गुंजाइश ही नहीं. एक ऐसा लफ़्ज़ नहीं कि आप सुनते ही मानी पूछने को मजबूर हो जाएं. आम से मंज़र, आम से लफ़्ज़ और शेर के निशाने पर आम लोग. लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि शेर में सतही बात हो रही है. इसकी गहराई में ख़याल अपने वक़्त की बेचैनी और यकरंगियत को अपने में समेटा होता है.

प्यासे बच्चे खेल रहे हैं
मछली मछली कितना पानी

ताने बैठा हूंँ आईने पे तीर
मैं निशाना भी हूंँ, शिकारी भी

उसने ख़त का जवाब भेजा है
चार लेकिन हैं एक हांँ के साथ

ख़ुशी से कांप रही थीं ये उंगलियां इतनी
'डिलीट' हो गया इक शख़्स 'सेव' करने में

फ़हमी की शायरी पर बात करते हुए जाने-माने शायर अज़हर इक़बाल कहते हैं,

“फ़हमी बदायूनी की शायरी जानी-पहचानी चीज़ों और सुनी-सुनाई दास्तानों की बाज़गश्त हुआ करती थी. उनकी शायरी के रचे-बसे किरदार ज़हन के बोसीदा (सड़ा-गला या पुराना) दर-ओ-दीवार से झांकते थे. और, ज़हन-ओ-दिल की चोर बातों को इस अनोखेपन से निराले ढंग से बांधते कि सुनने वाले हैरान रह जाते थे.”

शायरी सिखाने वाला शायर

फ़हमी कुछ भी कहने से पहले कई दफ़ा ख़याल को ठोकते-पीटते. इसकी वकालत करते हुए अक्सर दिखते थे. उनका मानना था कि शेर बनाए भी जा सकते हैं. उनका कहना था कि कम-अज़-कम किसी शेर को 70-80 फ़ीसदी तक आमद के शेर में ढाला जा सकता है. आमद यानी कोई ऐसा शेर जो ख़ुद-ब-ख़ुद दिल-ओ-दिमाग़ में उपजा हो, जिसके लिए ज़ेहन ने ज़ाहिरी कसरत न की हो, बल्कि कहीं पीछे सब-कॉन्शियस ने कसरत कर के उसे ज़ेहन पर तारी कर दिया हो.

शायरों के बीच आमद को बड़ी इज़्ज़त, बड़ी तरजीह दी जाती है. फ़हमी की बात ये थी कि एक शायर क़रीब-क़रीब हर शेर को कुछ हद तक तो ‘आमद’ के लेवल तक पहुंचा सकता है. अब सवाल है कि उस हद तक पहुंचाने के लिए क्या करना है? यहां फ़हमी क्राफ़्ट पर ज़ोर देते हैं. ज़ेहन में ख़याल के उतरते ही उसे शेर में ढालने के लिए हर तरफ़ से ठोकना-पीटना पड़ता है. कुछ शायर इसे ठीक नहीं समझते और आमद का इंतज़ार करते हैं, जो अक्सर बेहतरीन ढांचे में ही बाहर आता है. लेकिन फ़हमी का कहना था कि शेर में क़ुदरती परफेक्शन लाया जा सकता है. इसके लिए ज़रूरत आन पड़ेगी मेहनत की. ये काम उन्होंने करके दिखाया भी.

न जाने और कितने दिन तक अपने घर का दरवाज़ा 
हमीं बाहर से खोलेंगे, हमीं अंदर से खोलेंगे

मैंने उस की तरफ़ से ख़त लिक्खा
और अपने पते पे भेज दिया

तुम भी कितनी मदद करोगे मीर
उसकी आंखों पे शेर कहना है

फ़हमी के यहां ज़बान तो आसान है ही, मंज़रकशी में भी आम दुनिया ही आती है. इससे बिम्ब को समझना आसान हो जाता है. बात इसी दुनिया के एलीमेंट्स के थ्रू होती है. कोई बाहरी घुसपैठ नहीं, जिसे समझने को बहुत अंदर उतरना पड़े. मिसालें यहां भी देख लीजिए-

मैंने गिनती सिखाई थी जिसको
वो  पहाड़ा   पढ़ा  रहा  है  मुझे

टहलते फिर रहे हैं सारे घर में 
तेरी ख़ाली जगह को भर रहे हैं

सादा-मिज़ाज शायर ने अपने आस-पास की दुनिया को भी बेहद आम रखा. उनके शागिर्द विनीत आश्ना बताते हैं,

“वे कम साधनों में ही गुज़र बसर कर लेते थे. बहुत ज़्यादा कुछ नहीं रहता था उनके इर्द गिर्द. एक छोटे से कमरे में उन्होंने अपना वक़्त गुज़ारा. जिसमें गर्मियों में एक कूलर लग जाता था और जाड़ों में एक रूम हीटर लग जाता था. एक दीवार की ओर किताबें लगी रहती थीं. और कुछ लोगों के बैठने की जगह थी. एक दफ़ा मैंने उन्हें बताया कि मेरे अपने घर में 20 बाई 20 का बाथरूम बन रहा है. इस पर बोले- विनीत, क्या तुम नाच-नाच कर नहाओगे?”

नयापन 

अगर बात पुराने इस्तिआरों की भी आ जाए, जो एक लम्बे समय से उर्दू शायरी में चले आ रहे हों, उनको बरतने का साज़-ओ-सामान भी फ़हमी के पास था. और सलीक़ा ऐसा कि उन्हीं पुरानी बातों में एक नया ज़ायक़ा घोल दिया जाए. यानी रिवायत के सिलसिले को बदलते हुए भी उसके इर्द-गिर्द रहा जाए. ये उनकी ग़ज़लों को अलग रंग से भर देता है. अहसासों को एक नया पैकर देता है. और नए वक़्त के ज़ायक़े को ग़ज़ल की पुरानी बुनावट के अंदर क़ैद कर लेता है.

शायर फ़रहत एहसास इस बात को समझाते हुए उनके एक शेर की मिसाल लेते हैं और कहते हैं, 

“हम तिरे ग़म के पास बैठे थे
 दूसरे ग़म उदास बैठे थे


शेर में ग़म-ए-इश्क़ और ग़म-ए-दुनिया के मज़मून को एक नया चेहरा दिया गया है. ग़म को एक इन्सानी शक्ल दे दी गई है. 

अब तस्वीर यूं बनती है कि आशिक़ माशूक़ के ग़म में डूबा हुआ है, तो इस पर दूसरे ग़म यानी दुनिया और ज़िंदगी के ग़म मुंह बिसूरे बैठे हैं, जैसे कह रहे हों कि यार आप अजीब आदमी हैं, आपके लिए मुहब्बत का ग़म इतना बड़ा हो गया कि हमारी कोई अहमियत ही नहीं रही.”

इस तरह के कुछ और अशआर-

मैं तो रहता हूँ दश्त में मसरूफ़
क़ैस करता है काम-काज मिरा

नमक की रोज़ मालिश कर रहे हैं
हमारे ज़ख़्म वर्ज़िश कर रहे हैं

नई नस्ल के प्रति ज़िम्मेदारी

ये कलाकार ही कहते हैं कि वे कला का नमक खाते हैं. इसके बाद उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि वे उस नमक का हक़ अदा करें. मसलन, आने वाली नस्लों को तैयार करें. उन्हें बताएं कि सच की कठोरता को संभालना कैसे है और ग़लत के आकर्षण से लड़ना कैसे है. फ़हमी ने इस ज़िम्मेदारी का पूरा ध्यान रखा. बात समझनी हो तो आप उनके फेसबुक पेज का भी रुख़ कर सकते हैं. तमाम पोस्ट ऐसे मिलेंगे जो समझाते हैं कि शायरी क्या है और क्या नहीं है, अच्छी शायरी क्या है और बुरी शायरी क्या है, किन बातों का ख़ास ध्यान रखें और किन बातों को भूल जाएं.

बदायूं के गणित के टीचर

बदायूं में फ़हमी गणित के टीचर के तौर पर भी मशहूर थे. एक लम्बे अर्से तक वो क़स्बे में ट्यूशन देते रहे. कई परिवारों की पीढ़ियों तक को उन्होंने गणित पढ़ाया. अज़हर इक़बाल कहते हैं,

“क़ब्रिस्तान से लौटते वक़्त मैं सोच रहा था कि जिएं तो फ़हमी साहब की तरह. ज़िन्दगी भर मैथेमेटिक्स के सवालों का हल ढूंढते रहे, और जब शायरी की तो उसमें भी जो नए हवाले थे, जो नए सूत्र थे, नए क्राफ़्ट थे, उनकी तलाश की.”

Fahmi Badayuni Death: मशहूर शायर फहमी बदायूंनी का 72 साल की उम्र में निधन
एक मुशायरे में  शेर सुनाते फ़हमी साहब 

फ़हमी बदायूनी ने शायरी के नए दौर के लिए एक ज़मीन तैयार कर दी है जिसकी मिट्टी आने वाले शायरों की बनावट का एक ज़रूरी हिस्सा होगी. ज़ाहिर है उनकी डायरी में लिखी ग़ज़लें जब शाए’ होंगी तो उर्दू शायरी को एक नई रौशनी मिलेगी.

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