महाराष्ट्र में आठ महीने की एक सियासी लड़ाई का अंत हो गया. लड़ाई शिवसेना (Shiv Sena) पर कब्जे की, जो बगावत से शुरू हुई थी. एकनाथ शिंदे और उनके समर्थकों की बगावत ने महाराष्ट्र में राजनीतिक तूफान ला दिया था. चुनाव आयोग ने चार महीने बाद अंतत: फैसला सुना दिया कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे गुट ही असली शिवसेना है. आयोग के फैसले के बाद पार्टी का नाम और चुनाव चिह्न ठाकरे परिवार से छिन गया है. यानी अब 'धनुष और बाण' वाली पार्टी ठाकरे परिवार की नहीं रही. 57 साल पुरानी पार्टी का इस तरह हश्र होगा, एक साल पहले किसी ने नहीं सोचा था. वो भी तब जब पार्टी महाराष्ट्र की सत्ता में थी. हालांकि उद्धव ठाकरे चुनाव आयोग के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले हैं. चुनाव आयोग के फैसले के बाद ठाकरे ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अब औपचारिक रूप से भारत में तानाशाही की शुरुआत और लोकतंत्र के अंत की घोषणा कर देनी चाहिए.
बाल ठाकरे की 'शिवसेना' ठाकरे परिवार के हाथ से निकली, 10 प्वाइंट में जानिये पूरी कहानी
क्या है शिवसेना के चुनाव चिह्न की कहानी?

इस पूरे घटनाक्रम में बार-बार शिवसेना में पहले हुई बगावतों की भी खूब चर्चा हुई. बाल ठाकरे का जिक्र हुआ. क्या है शिवसेना की कहानी, पार्टी के चुनाव चिह्न की कहानी और अब ठाकरे परिवार से छिनने की कहानी, सबकुछ 10 प्वाइंट में जानिये.
1. बाल ठाकरे एक पॉलिटिकल कार्टूनिस्ट थे. 1950 और 60 के दशक में मुंबई के टॉप कार्टूनिस्ट माने जाते थे. देश दुनिया के मसलों पर कार्टून के जरिये कड़वे व्यंग्य करते थे. 1960 में ही 'फ्री प्रेस जर्नल' की नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने अपनी एक वीकली मैग्जीन 'मार्मिक' शुरू की. इसी मैग्जीन में वो गैर-मराठियों को लेकर खुलकर लिखने लगे. दूसरे राज्यों से आकर मुंबई में अपना पेशा खड़ा करने वालों के खिलाफ खूब लिखा. इन 'बाहरी लोगों' में सिर्फ उत्तर भारतीय ही नहीं बल्कि दक्षिण भारतीय भी थे. इस तरह धीरे-धीरे 'मराठी अस्मिता' के नाम पर एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया. इसी आंदोलन के बाद बाल ठाकरे ने 1966 में शिवसेना का गठन किया. यहां शिव का अर्थ शिवाजी महाराज से है, जो मराठा गौरव की प्रतीक माने जाते हैं. बाद में पार्टी की विचारधारा के साथ हिंदुत्व भी नत्थी हो गया, जिस पर पार्टी खूब गर्व करती है.
2. शिवसेना ने पहला चुनाव साल 1971 में लड़ा था. हालांकि साल 1989 तक पार्टी के पास स्थायी चुनाव चिन्ह नहीं था. इससे पहले पार्टी लगातार अलग-अलग चुनाव चिन्हों पर चुनाव में उतरती थी. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि 1968 में शिवसेना ने BMC का चुनाव 'तलवार और ढाल' चुनाव चिन्ह के साथ लड़ा था. वहीं 1980 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के दौरान पार्टी का चुनाव चिन्ह 'ट्रेन इंजन' था. 1984 में पार्टी ने लोकसभा चुनाव बीजेपी के सिंबल पर लड़ा था क्योंकि इसका अपना कोई चिन्ह नहीं था. 1985 में शिवसेना के उम्मीदवारों ने अलग-अलग चिन्हों पर विधानसभा चुनाव लड़ा था. जैसे मशाल, सूरज, और बैट-बॉल. अंतत: 1989 में चुनाव आयोग ने शिवसेना को स्थायी चुनाव चिन्ह 'धनुष और बाण' आवंटित किया.

3. चुनाव चिन्ह छीनने की पूरी कहानी पिछले साल पार्टी में बगावत से शुरू हुई. हालांकि यह पहली बार नहीं है जब पार्टी को बगावत झेलनी पड़ी. शिवसेना को पहला बड़ा झटका 1991 में लगा. छगन भुजबल ने पार्टी छोड़ने की घोषणा कर दी. भुजबल को पार्टी का OBC चेहरा माना जाता था. शिवसेना को ग्रामीण इलाकों तक पहुंचाने में भुजबल का बड़ा योगदान रहा था. पार्टी छोड़ते हुए भुजबल ने कहा था कि पार्टी नेतृत्व उनके काम को अहमियत नहीं देता है. तब राज्य में कांग्रेस की सरकार थी. विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भुजबल और 18 शिवसेना विधायकों ने कांग्रेस को समर्थन देने की घोषणा की. लेकिन इनमें से 12 विधायक उसी दिन शिवसेना खेमे में वापस लौट गए. कांग्रेस में जाने के बाद छगन भुजबल 1995 का विधानसभा चुनाव हार गए. साल 1999 में शरद पवार ने कांग्रेस छोड़ अपनी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) बनाई. छगन भी पवार के साथ हो लिए. शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी की महाविकास अघाडी (MVA) सरकार में भुजबल मंत्री भी थे.
4. शिवसेना के इतिहास में एक ऐसा मौका भी आया जब बाल ठाकरे ने खुद पार्टी छोड़ने की बात कह डाली थी. साल था 1992. पार्टी के संस्थापकों में एक रहे माधव देशपांडे ने ठाकरे पर परिवारवाद का आरोप लगाया था. कहा था कि उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे की दखलंदाजी पार्टी में बढ़ रही है. देशपांडे पार्टी के शुरुआती दिनों से बाल ठाकरे के साथ थे. उनके आरोपों के बाद बाल ठाकर ने शिवसेना के मुखपत्र 'सामना' में एक लेख लिखा. ठाकरे ने लिखा था, अगर कोई भी शिवसैनिक उनके सामने आकर कहता है कि उसने ठाकरे परिवार के कारण पार्टी छोड़ी है तो वह उसी वक्त अध्यक्ष पद छोड़ देंगे. इसके साथ, उनका पूरा परिवार शिवसेना से हमेशा के लिए अलग हो जाएगा. इस ऐलान के बाद पार्टी में जितने भी विरोधी थे, वे भी बाल ठाकरे को मनाने में जुट गए थे.
5. एक नेता जो मानता था कि बाल ठाकरे के कारण ही उसे राजनीतिक पहचान मिली. उसने भी शिवसेना का साथ छोड़ दिया. साल 2005 में पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे ने बगावत कर दी. राणे कई शिवसेना विधायकों के साथ पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए. इसके पीछे उद्धव ठाकरे के साथ उनके लंबे समय से चल रहे मतभेद को बताया जाता है. 1999 में शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन वाली सरकार में जब नारायण राणे मुख्यमंत्री बने तभी उद्धव उनसे खुश नहीं थे. लंबे समय तक चली खींचतान के बाद राण ने पार्टी छोड़ दी. साल 2017 में राणे ने कांग्रेस को भी छोड़ दिया. फिर अपनी 'महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष' नाम की पार्टी बनाई. लेकिन कुछ समय बाद ही अक्टूबर 2019 में पार्टी को बीजेपी में मर्ज कर दिया. फिलहाल, राणे बीजेपी से राज्यसभा सांसद हैं. और भारत सरकार में केंद्रीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्री भी.
6. अगले साल ही शिवसेना को एक और झटका लगा. इस बार बगावत घर में हुई. उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे ने कई विधायकों और कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी छोड़ दी. राज ठाकरे ने तब कहा था कि उन्हें शिवसेना नेतृत्व से नहीं, बल्कि पार्टी नेतृत्व के आसपास मौजूद लोगों से दिक्कत है. उद्धव के मुकाबले राज ठाकरे लोकप्रिय थे. पार्टी के भीतर कई लोग राज ठाकरे को बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस के रूप में देखते थे. 2006 में राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS) नाम से पार्टी बना ली. 2009 विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 13 सीटों पर जीत हासिल की. मुंबई में तो शिवसेना से भी बढ़िया प्रदर्शन रहा. लेकिन 2014 के चुनाव में MNS बुरी तरह पिट गई. सिर्फ एक सीट जीत पाई. 17 साल बाद, आज भी महाराष्ट्र की सियासत में MNS कोई खास जगह नहीं बना पाई है.

7. हिंदुत्व विचारधारा पर चलने वाली आज दो पार्टी आमने-सामने है. हालांकि अब 'असली शिवसेना' जाहिर तौर पर फिर से बीजेपी के साथ है. लेकिन शिवसेना और बीजेपी के बीच दोस्ती 2019 में टूट गई थी. तब ये दोस्ती 30 साल पुरानी थी. बीजेपी और शिवसेना पहली बार 1989 के लोकसभा चुनाव में साथ आए थे. ये दौर राम मंदिर आंदोलन का भी था. शिवसेना खुले तौर पर इस मुद्दे के साथ आई और हिंदुत्व की राजनीति को जोर से पकड़ लिया. अगले कई सालों तक शिवसेना-बीजेपी की गठबंधन चली. पहली बार 2014 में गठबंधन टूटा और शिवसेना ने विधानसभा चुनाव अकेले लड़ने का फैसला किया. हालांकि चुनाव के बाद पार्टी ने फिर से बीजेपी को समर्थन दे दिया और सरकार का हिस्सा बन गई. फिर आया 2019 विधानसभा चुनाव का परिणाम. चुनाव पूर्व गठबंधन वाली दोनों पार्टियों ने 161 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर बात नहीं बन पाई. राजनीतिक ड्रामे के बीच उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महा विकास अघाडी (MVA) सरकार बन गई. जिसमें शिवसेना 30 साल पुराने रिश्ते को छोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ आ गई थी. कहते हैं कि एकनाथ शिंदे इस फैसले के बाद से ही नाराज हो गए थे.
8. 21 जून 2022 की सुबह अचानक एक खबर आई कि एकनाथ शिंदे और पार्टी के कुछ विधायक 'नॉट रीचेबल' हो गए. एक दिन पहले MLC का चुनाव था और पार्टी के कुछ विधायकों पर क्रॉस वोटिंग का आरोप लगा. जब कहानी की परतें खुलने लगी तो पता चला कि पार्टी के भीतर बड़ा विद्रोह हो चुका है. और इसका नेतृत्व एकनाथ शिंदे ही कर रहे थे. पहले बागी विधायक सूरत गए. वहां से सभी विधायकों ने गुवाहाटी में अड्डा जमा लिया. धीरे-धीरे पता चला कि पार्टी के 40 विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं. इसके बाद मजबूरन उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. चार दशकों से शिवसेना से जुड़े एकनाथ शिंदे ने दावा कर किया कि वही 'असली शिवसेना' हैं. इसके बाद तकनीकी पेंचों के साथ मामला चुनाव आयोग के पास पहुंच गया.
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9. आठ अक्टूबर 2022 को चुनाव आयोग ने एक अंतरिम आदेश जारी किया. उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे कैंप को शिवसेना के चुनाव चिन्ह 'धनुष और बाण' का इस्तेमाल करने से रोक दिया. आयोग ने कहा कि जब तक वे इस निर्णय पर नहीं पहुंच जाते हैं कि 'असली शिवसेना' कौन है, तब तक दोनों में से कोई समूह चुनावी गतिविधियों में इसका इस्तेमाल न करे. दोनों गुटों को अलग-अलग नाम और अलग चिन्ह दिये गये. शिंदे गुट को दो तलवारों और ढालों के साथ "बालासाहेब की शिवसेना" नाम दिया गया था. उद्धव गुट को 'शिवसेना- उद्धव बालासाहेब ठाकरे' नाम दिया गया और मशाल को उसका प्रतीक चिन्ह दिया गया था.
10. फाइनली, चुनाव आयोग ने 17 फरवरी को फैसला सुना दिया. आयोग ने कहा कि मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गुट वाली शिवसेना को असली शिवसेना माना जाएगा. आयोग के मुताबिक, पार्टी का नाम और चिह्न 'धनुष तीर' शिंदे गुट के पास ही रहेगा. हालांकि उद्धव ठाकरे इस फैसले को किसी सूरत में मानने के मूड में नहीं हैं. ठाकरे ने चुनाव आयोग के फैसले को लोकतंत्र के लिए 'बेहद खतरनाक' और तमाशा बताया. उद्धव ठाकरे ने कहा कि वे इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे.
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