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RAW का अफ़सर कैसे बना CIA एजेंट?

भारत से कैसे फ़रार हुआ डबल एजेंट, जो RAW और CIA दोनों के लिए काम करता था?

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रबिंदर सिंह एक डबल एजेंट था जिसने कई साल RAW में काम करते हुए खुफिया जानकारी अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी (CIA) तक पहुंचाई (तस्वीर- Pixabay/wikimedia commons)

मई 2004 की बात है. दिल्ली के पॉश इलाक़े डिफ़ेंस कॉलोनी में बंगला नंबर C/480 के सामने खड़ा एक सब्ज़ी वाला, एकटक बंगले के मेन गेट को देख जा रहा था. बंगले का मालिक रोज़ एक नियत वक्त पर घूमने निकलता था. उस रोज़ जब बहुत देर तक कोई नहीं निकला, तो सब्ज़ी वाले ने गेट के पास खड़े सिक्योरिटी गार्ड से पूछा. जवाब मिला, घर के मालिक और मालकिन घूमने गए हैं. सब्ज़ी वाले ने जेब से एक फ़ोन निकाला और एक नंबर मिलाया. तुरंत एक गाड़ी बंगले के गेट पर पहुंची और 6-7 लोग सीधे अंदर घुसकर तलाशी लेने लग गए. ये भारत की ख़ुफ़िया एजेन्सी RAW के एजेंट्स थे. (CIA spy in India)

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इस घर का मालिक उनका ही एक साथी था. और कोई छोटा मोटा आदमी नहीं. बल्कि रॉ में जॉइंट सेक्रेटरी अफ़सर था (RAW officer). जो अचानक ग़ायब हो गया था. खूब छानबीन के बाद भी पहले तो कई दिनों तक उस अफ़सर का पता नहीं चला. और जब पता चला तो रॉ के अधिकारियों के पैरों तले ज़मीन खिसक गई. रॉ का जॉइंट सेक्रेटरी सालों से भारत के गुप्त दस्तावेज़ अमेरिकी ख़ुफ़िया एजंसी CIA तक पहुंचा रहा था(American Spy in India). कौन था ये अफ़सर, कैसे CIA ने उसे अपने जाल में फ़ंसाया और कैसे भाग निकला वो रॉ के चंगुल से? (Double Agent Rabinder Singh)

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Rabinder Singh
RAW एजेंट रबिंदर सिंह जिसने भारत की खुफिया जानकारी CIA तक पहुंचाई (तस्वीर- wikimedia commons)

एक औसत अफसर 

इस कहानी की शुरुआत होती है एक नाम से. रबिंदर सिंह. रबिंदर कभी इंडियन आर्मी में मेजर हुआ करता था. 1986 में उसे पहली बार रॉ में काम करने का मौक़ा मिला. वो एक स्पेशल मिशन के लिए डेपुटेशन पर रॉ में आया था. लेकिन रॉ के साथ काम करने के बाद उसने सेना से रिटायरमेंट ले लिया और 1986 में पूरी तरह रॉ के साथ जुड़ गया. कुछ सालों में तरक़्क़ी करते हुए वो जॉइंट सेक्रेटरी के लेवल तक भी पहुंच गया. आर्मी और रॉ, दोनों जगह उसके साथी उसे एक औसत अफ़सर मानते थे लेकिन एक काम में उसका कोई सानी नहीं था. ये काम था- दावतें देना. अक्सर अपने साथी अफ़सरों और जूनियर्स को वो दावतों पर ले जाता, महंगी शराब पिलाता और उनसे खूब गप्पें लड़ाता. 

ये मेहमान नवाज़ी कई सालों तक चली, फिर एक रोज़ एक जूनियर अफ़सर ने अपने बॉस के पास जाकर रबिंदर की शिकायत कर दी. उसने बताया कि शराब पिलाने के बहाने वो उससे ऐसे केसों के बारे में पूछ रहा था, जिससे उसका कुछ लेना देना नहीं था. ये बात ख़ुफ़िया एजंसी के तौर तरीक़ों के ख़िलाफ़ थी. क्योंकि हर अफ़सर को केवल उतनी ही जानकारी मिलती थी, जो उसके काम की हो.

ये घटना जून 2003 के आसपास की है. इस शिकायत के बाद रॉ की Counter Intelligence and Security Division (CIS) ने रबिंदर पर निगरानी रखनी शुरू कर दी. ये रॉ की वही डिविज़न है, जिसने 1977 में कटे हुए बालों से पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम का पता लगाया था. CIS ने रबिंदर पर नज़र रखनी शुरू की. बाक़ायदा सब्ज़ी वाले के भेष में एक अंडरकवर एजेंट भी उसके घर के आगे खड़ा किया गया. इस तरह वो कहां जाता है, क्या करता है, किससे मिलता है, इसकी पूरी खबर एजेन्सी को मिलने लगी. इस पूरी क़वायद का अंजाम क्या हुआ?

मोटा मोटी कहें तो कुछ ख़ास पता नहीं चला. रबिंदर लोगों से मिलता था, उनकी दावत कराता था, लेकिन इस दौरान उसने ऐसी कोई हरकत नहीं की जो उसे शक के घेरे में लाती हो. फिर दिसंबर 2003 के आसपास उसके व्यवहार में एक पैटर्न दिखाई देने लगा. रबिंदर हर रोज़ खूब सारे डॉक्युमेंट्स फ़ोटो कॉपी करता और उन्हें अपने साथ घर ले जाता. इससे CIS का शक बढ़ा कि हो ना हो, वो ये दस्तावेज किसी तक पहुंचा रहा है. रबिंदर पर निगरानी और तेज हो गई. उसके ऑफ़िस, घर, सब जगह कैमरा लगाया गया. उसका फ़ोन टैप किया गया. लेकिन इसका नतीजा भी ढाक के तीन पात ही रहा. रबिंदर की रोज़मर्रा की ज़िंदगी ज्यों की त्यों बनी रही. ना ही वो किसी संदिग्ध व्यक्ति से मिला, ना ऐसे किसी आदमी से फ़ोन पर बात की.

पहली तलाशी 

CIS के अफ़सर अब परेशान थे. ख़ुफ़िया दस्तावेज घर ले जाने के आरोप में उसे गिरफ़्तार किया जा सकता था लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. क्योंकि सिर्फ़ रबिंदर को पकड़ने से उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला था. वो ये जानना चाहते थे कि रबिंदर ये सारी जानकारी पहुंचा किसे रहा है, और किस ज़रिए से. रबिंदर को अभी तक इस बात की कोई भनक नहीं थी कि उस पर निगरानी रखी जा रही है. इसलिए निगरानी यूं ही चालू रही. फिर आया अप्रैल 2004 का महीना.

RAW office in Delhi
नई दिल्ली में स्थित RAW का मुख्यालय (तस्वीर- wikimedia commons)

उस महीने रबिंदर ने छुट्टी की अर्ज़ी दी. कारण पूछने पर उसने बताया कि उसे एक फ़ैमली फ़ंक्शन में अमेरिका जाना है. इससे पहले भी वो साल में एक बार अमेरिका ज़रूर जाता था. उसके भाई बहन वहां सेटल थे, और उसकी एक बहन ने तो उसके बेटे और बेटी को अपने पास ही रख लिया था. इस कारण रबिंदर की पत्नी पम्मी पर हर छ महीने में अमेरिका का दौरा ज़रूर करती थी. रबिंदर को लगा हर बार की तरह इस बार भी उसे अमेरिका जाने की इजाज़त मिल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अधिकारी उस पर निगरानी रख रहे थे. इसलिए उसकी अमेरिका जाने की अर्ज़ी रद्द कर दी गई. इसके बाद अप्रैल के महीने में ही एक और घटना हुई.

ये 19 अप्रैल की बात है. उस शाम अचानक दिल्ली स्थित रॉ के में दफ़्तर के बाहर सबकी तलाशी ली जाने लगी. जो भी ऑफ़िस से निकलता उसका ब्रीफ़केस और बैग देखा जाता. रबिंदर के बैग की भी तलाशी हुई. कुछ मिला तो नहीं लेकिन रबिंदर के कान खड़े हो गए. क्योंकि रॉ के 35 वर्ष के इतिहास में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था. रबिंदर ने जानने की कोशिश की कि ये सब अचानक क्यों हो रहा है. जवाब मिला, सुरक्षा कारणों से औचक ड्रिल कराई गई थी. रबिंदर ने इस पर अपना विरोध ज़ाहिर करते हुए मीटिंग में कहा कि वरिष्ठ अधिकारियों से पेश आने का ये सही ढ़ंग नहीं है. इसके बाद वो अपने घर चला गया.

अगले कई दिनों तक वो अपने साथियों से कहता रहा कि उसे बदनाम करने की साज़िश हो रही है और तलाशी से उसकी साख पर दाग लग गया है. हालांकि इसके बाद भी उसके बर्ताव में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं आया. उसका रोज़ाना का रूटीन ज्यों का त्यों बना रहा. CIS अब भी उसके घर पर कड़ी नज़र रख रही थी. लेकिन मई के महीने में एक दिन अचानक वो अधिकारियों की नाक के नीचे से ग़ायब हो गया. 4 मई के रोज़ उसके घर के बाहर तैनात अंडरकवर एजेंट को पता चला कि वो घर पर नहीं है. ये सुनकर एजेन्सी के होश फ़ाख्ता हो गए.

नेपाल से अमेरिका 

उसके घर की तलाशी ली गई. वहां से अधिकारियों को एक लैपटॉप मिला. पता चला कि यही वो लैपटॉप था जिसके ज़रिए रबिंदर ख़ुफ़िया जानकारी अपने हैंडलर को भेजा करता था. ये हैंडलर था कौन, ये जानने से पहले ज़रूरी था, ये जानना कि रबिंदर गया कहां. अधिकारियों को उसके घर से चेन्नई के कुछ पते मिले. उन्होंने वहां खोज शुरू की. लेकिन रबिंदर का वहां भी कुछ पता ना चला. पता चलता भी कैसे, रबिंदर 3 दिन पहले ही रोड के रास्ते नेपाल भाग गया था.

रबिंदर नेपाल भागा कैसे? दरअसल मई के महीने में 1 से लेकर 4 तारीख़ तक छुट्टियां थीं. इसी दौरान ऑफ़िस ना जाने का फ़ायदा उठाकर उसने भागने की तैयारी की. और रातों रात अपनी पत्नी के साथ रोड के रास्ते नेपाल पहुंच गया. नेपाल क्यों? यहां से इस कहानी में एंट्री होती है मेन प्लेयर की. वो खिलाड़ी, जो इस पूरे षड्यंत्र को अंजाम दे रहा था. ये और कोई नहीं अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेन्सी CIA थी. नेपाल में CIA के स्टेशन चीफ़ तैनात थे. और इस कारण हर छ महीनों में रबिंदर नेपाल का एक चक्कर ज़रूर लगाता था. जैसे ही उसने अपने CIA हैंडलर को पोल खुल जाने की खबर की, उसे तुरंत रोड के रास्ते नेपाल पहुंचा दिया गया. आगे उसका क्या हुआ, ये जानने से पहले जानते हैं कि CIA ने रबिंदर को अपने साथ मिलाया कैसे.

CIA
CIA अमेरिका की एक सरकारी एजेंसी है. इसे अमेरिकी की फ़स्ट लाइन ऑफ डिफेंस भी कहा जाता है (तस्वीर- Getty)

रबिंदर कब CIA का एजेंट बना इस बारे में ठीक ठीक कोई नहीं बता सकता. सिवाय CIA के. लेकिन जानकारों का मानना है कि 90 के दशक में उसे CIA ने अपने जाल में फ़ंसाया था. इस दौरान रबिंदर हॉलैंड में भारतीय दूतावास में काउंसलर के तौर पर काम करता था. रॉ के प्रमुख रहे एएस दुलत की किताब 'कश्मीर द वाजपेई इयर्स' के अनुसार हॉलैंड के जासूसी सर्कल्स में उसकी छवि एक नाकारा अफ़सर की थी. उसका अधिकतर वक्त शराब के पीछे या लड़कियों के पीछे भागने में लगा रहता था.

1992 में नैरोबी में पोस्टिंग के दौरान उसे दिल का दौरा पड़ा था. उसके पास ज़्यादा पैसे नहीं थे लेकिन फिर भी उसका इलाज वियना के एक बड़े हॉस्पिटल में हुआ. जिसका मतलब था उसे कहीं से मदद मिली थी. 1992 से साल 1998 तक रबिंदर CIA के लिए काम करता रहा. लेकिन इस दौरान उसने कुछ ख़ास बड़ा कांड नहीं किया. CIA के लिए उसके मूल्य में इज़ाफ़ा हुआ साल 1998 के बाद. उस साल भारत ने परमाणु परीक्षण को अंजाम दिया. ये बात अमेरिका के लिए एक बड़ा धक्का थी, क्योंकि अपने समस्त जासूसी तंत्र के बावजूद वो इस बात की भनक तक नहीं लगा पाए थे.

1998 के बाद CIA को भारत में सोर्स की ज़रूरत महसूस हुई. और यहीं से रबिंदर ने उन्हें गुप्त दस्तावेज भेजने शुरू कर दिए. ये दस्तावेज भेजने के लिए वो अपने कम्प्यूटर का इस्तेमाल करता था. उसकी और उसके हेंडलर की कभी आमने-सामने मुलाक़ात नहीं होती थी. इसी कारण वो सालों तक बचा भी रहा. नेपाल पहुंचने के बाद CIA ने रबिंदर और उसकी पत्नी के फ़र्ज़ी पासपोर्ट बनवाए. दोनों को राजपाल प्रसाद शर्मा और दीपा कुमार शर्मा नाम से नई पहचान दी गई और फिर एक प्लेन में बिठाकर अमेरिका भेज दिया गया.

भारत में जब रबिंदर के भागने की खबर लगी, एजंसी में हड़कंप मच गया. जब ये बात साफ़ हुई कि वो CIA के लिए काम कर रहा था, रॉ के चीफ़ सीडी सहाय ने दिल्ली में सीआईए के स्टेशन चीफ़ को बुलाया और उनसे इस मामले में सफ़ाई मांगी. उन्हें रबिंदर के पासपोर्ट की फ़ोटोकॉपी भी दिखाई गई लेकिन CIA स्टेशन चीफ़ ने उसे पहचानने से साफ़ इनकार कर दिया. उनके अनुसार CIA का कोई जासूस भारत में एक्टिव नहीं था. बहरहाल CIA का तो कुछ बिगाड़ा जा नहीं सकता था. इसलिए ये जानने की कोशिश शुरू हुई कि रबिंदर ने कौन कौन सी जानकारियाँ लीक की हैं.

Rabinder Singh passport
CIA द्वारा तैयार करवाए गए रबिंदर और उसकी पत्नी के फ़र्ज़ी पासपोर्ट (तस्वीर- R K Yadav/BBC)

जांच में सामने आया कि उसने अपने हैंडलर को 600 से ज़्यादा ईमेल भेजे थे, जिनमें 20 हज़ार से ज़्यादा डॉक्युमेंट्स की फ़ोटोकॉपी थी. ये बड़ा झटका था लेकिन अब ज़्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता था. उधर रबिंदर अमेरिका पहुंच चुका था. वहां उसने अपने रिश्तेदारों को बताया कि उसकी जान को ख़तरा है. इसी बीच उसने अमेरिका में असायलम लेने की कोशिशें भी शुरू कर दी. लेकिन अमेरिकी कोर्ट ने उसकी दलील नामंज़ूर कर दी. CIA से भी उसे कोई मदद नहीं मिली, क्योंकि उनके लिए वो अब खोटा सिक्का बन चुका था, जो उनके किसी काम का नहीं था.

इस तरह कभी खुद को दिल्ली का सबसे रईस सिविल अधिकारी बुलाने वाला रबिंदर धीरे धीरे मुफ़लिसी की हालत में पहुंच गया. उसे लेकर आख़िरी खबर 2016 में आई थी, जब एक सीक्रेट केबल से रॉ को पता चला कि एक सड़क दुर्घटना में उसकी मौत हो गई है. और रबिंदर की कहानी का पटाक्षेप हो गया.

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