एक आदमी दूसरे आदमी को गोली मारता है. और पुलिस में जाकर सरेंडर कर देता है. जज को मालूम है, वकील को मालूम है, पूरी दुनिया को मालूम है, क़त्ल किसने किया है. कातिल खुद कबूल करता है कि क़त्ल उसके हाथों हुआ है. लेकिन फिर भी ज्यूरी उसे बेकसूर करार दे देती है. आज हम आपको बताएंगे भारतीय इतिहास के सबसे हैरतअंगेज़ केस की. जिस पर कई फ़िल्में बनी. बड़े बड़े लेख लिखे गए. केस इतना फेमस हुआ कि अखबारों की चांदी हो गई और कोर्ट में लग लोगों की लाइन लग गई. ये कहानी है K. M. Nanavati v. State of Maharashtra केस की. (Nanavati case)
बदला, लव ट्रायंगल, कोर्ट ड्रामा,भारत के सबसे फेमस केस की कहानी!
जब बहन ने कहा, मेरे भाई के हत्यारे को रिहा कर दो!
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तारीख: 27 अप्रैल 1959. जगह- बॉम्बे का एक पुलिस स्टेशन. सफ़ेद रंग की नेवी की ड्रेस पहना एक शख्स पुलिस स्टेशन में दाखिल होता है. और वहां मौजूद इसंपेक्टर लोबो से कहता है, मैंने एक आदमी को गोली मार दी है. इंस्पेक्टर लोबो जानते थे किसकी बात हो रही है. वो कहते हैं, वो आदमी मर चुका है. मुझे अभी गामदेवी पुलिस स्टेशन से ये मैसेज मिला. लम्बे कद का वो शख्स अभी भी खड़ा हुआ था. उसके चेहरे पर कोई हावभाव नहीं थे. लोबो उससे पूछते हैं, क्या आप चाय पिएंगे? वो जवाब देता है, नहीं बस एक ग्लास पानी. और इसके बाद कुर्सी पर बैठ जाता है. (Rustom movie real story)
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क़त्ल के बाद सरेंडर को तैयार इस शख्स का नाम था केएम नानावटी. नानावटी पारसी कम्युनिटी से बिलॉन्ग करते थे. और इंडियन नेवी में लेफ्टिनेंट कमांडर थे. उनकी एक पत्नी थी सिल्विया. इंग्लैंड में पली बढ़ी सिल्विया से 1949 में उनकी शादी हुई. तीन बच्चे हुए. दो बेटे एक बिटिया. जिंदगी सामान्य थी. नानावटी, जैसा उनका दावा था, सिल्विया से बहुत प्यार करते थे. लेकिन फिर एक दिन इसी प्यार के चलते वो खूनी बन गए. कैसे? (Rustom movie)
KM Nanavati खूनी कैसे बने?
साल 1959. नानावटी कई महीने समंदर में गुजारते के बाद वापस बॉम्बे लौटे. लेकिन पिछली बार से उलट, इस बार उन्हें सिल्विया के बर्ताव में कुछ चेंज नज़र आया. पहले तो उन्हें लगा पत्नी इसलिए नाराज़ है क्योंकि महीनों उन्हें समंदर में रहना पड़ता है. जिसके चलते दोनों कम वक्त साथ बिता पाते हैं. लेकिन फिर जब कई दिनों तक सिल्विया का बर्ताव नहीं सुधरा उन्होंने उससे दोटूक वजह पूछ डाली. सिल्विया ने जो कहानी सुनाई, उसने नानावटी को सकते में डाल दिया.सेल्विया को किसी और से प्यार हो गया था. बॉम्बे के बिजनेसमैन प्रेम आहूजा से एक पार्टी में सिल्विया की मुलाक़ात हुई. और धीरे धीरे दोनों प्यार में पड़ गए. नानावटी ने ये कहानी सुनी और चुपचाप घर से बाहर निकल गए. घर से वो सीधे नेवल हेडक्वार्टर पहुंचे. वहां उन्होंने अपनी सर्विस रिवॉल्वर इश्यू करवाई. इसके बाद उन्होंने अपनी गाड़ी एक बार फिर बंबई की सडकों पर दौड़ा दी. (Nanavati Scandal)
अबकी बार उनकी मजिल थी, बॉम्बे की मालाबार हिल्स के पास जीवन ज्योति बिल्डिंग. ये वही बिल्डिंग थी जिसमें प्रेम आहूजा रहते थे. नानावटी घर में घुसे और आहूजा से कुछ बात करने लगे. कुछ देर बाद बाहर काम कर रहे नौकर को कांच टूटने की आवाज सुनाई दी. चंद सेकेंड बाद अंदर से गोलियों के चलने की आवाज आई. नौकर अंदर दौड़ा. उसने देखा कि टॉवल और खून से सना प्रेम आहूजा का शरीर फर्श पर पड़ा हुआ था. बंदूक नानावटी के हाथ में थी. प्रेम आहूजा की बहन मैमी नानावटी भी वहीं मौजूद थी. उन्होंने नानावटी की ओर देखा. नानावटी आहूजा के अपार्टमेंट से निकले और सीधे पुलिस स्टेशन पहुंच गए. खुद को सरेंडर कर दिया. केस साफ़ था. नानावटी की पिस्तौल से चली गोली से आहूजा की मौत हुई थी. नानावटी को सजा मिलना तय था लेकिन इस केस के दौरान जो हुआ उसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी.
ट्रायल की तारीख -23 सितंबर 1959. खचाखच भरे सेशन कोर्ट में केस की सुनवाई शुरू हुई. जज थे आरबी मेहता. इसके अलावा एक ज्यूरी कोर्ट भी मौजूद था. ज्यूरी कोर्ट यानी कोर्ट की ओर से केस की सुनवाई के लिए चुने गए लोग. ये सोसाइटी के जानेमाने लोग होते थे, जिनके सामने किसी केस की सारी दलीलें रखी जाती. इसके बाद ज्यूरी उस केस का फैसला सुनाती. नानावटी केस में 9 सदस्यों का एक ज्यूरी पैनल बनाया गया था. जिसमें कुल 9 मेंबर थे. दो पारसी, एक एंग्लो इंडियन, एक क्रिश्चियन और पांच हिंदू. सरकार की तरफ से चीफ पब्लिक प्रोसिक्यूटर सी. एम त्रिवेदी ने नानावटी पर प्रेम आहूजा की इरादतन हत्या का चार्ज लगाया. डिफेंस की तरफ से फेमस क्रिमिनल लॉयर कार्ल जे खंडालावाला केस लड़ रहे थे.

कोर्ट में क्या हुआ?
खंडालावाला ने कोर्ट में दलील शुरू की. बोले, नानावटी ने प्लान कर मर्डर किया था. सबूत पेश किए गए. 24 गवाहों की गवाही हुई. जिन इंस्पेक्टर लोबो के सामने नानावटी ने सरेंडर किया था, उनकी गवाही भी हुई. लेकिन लोबो के सामने नानावटी के कबूलनामे को ज्यूरी ने नहीं माना, क्योंकि गवाही मैजेस्ट्रियल सुपरविजन में नहीं हुई थी. लोबो ने कोर्ट में लिखकर कहा:
‘नानावटी ने जब सरेंडर किया, तब उन्होंने अपनी ऑफिस ड्रेस पहने हुई थी. सफेद ड्रेस. इस ड्रेस में खून का एक भी धब्बा नहीं था.’
लोबो के इस बयान के बारे में आहूजा का केस लड़ रहे वकीलों ने कहा,
‘ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नानावटी ने आहूजा को जानबूझकर दूर से मारा, ताकि कोई सबूत न रह जाए.’
अब बारी नानावटी के बयान की थी. उन्होंने कोर्ट में एक दूसरी कहानी सुनाई. उनके अनुसार ये हत्या नहीं, महज एक हादसा था. नानावटी ने बताया कि उस रोज़ वो आहूजा के पास इसलिए गए थे ताकि उससे ये पूछ सकें कि क्या वो सिल्विया से शादी करेगा. नानावटी के अनुसार प्रेम आहूजा ने बात करने की बजाय झगड़ना शुरू कर दिया. बकौल नानावटी प्रेम आहूजा ने उनसे कहा,
‘क्या मैं हर उस औरत से शादी कर लूं, जिनके साथ मैं बिस्तर पर सोया हूं. गेट आउट फ्रॉम हेयर.’
नानावटी ने आगे बताया कि इसी बात ओर दोनों के बीच झड़प शुरू हो गई. नानावटी के हाथ में जो रिवाल्वर था वो नीचे गिर गए. नानवटी और आहूजा, दोनों ने उसे उठाने की कोशिश की. और इसी झड़प के दौरान गोलियां चल गई. अपने पक्ष में नानावटी ने तर्क दिया कि अगर वो सच में प्रेम आहूजा को मारना चाहते तो वो घर में घुसते ही गोलियों से छलनी कर सकते थे. ये दलील कितनी पुख्ता थी, ये तय होना अभी बाकी था. लेकिन इसी बीच एक और ड्रामा था जो कोर्ट ने बाहर तैयार हो रहा था.
25 पैसे का अखबार 2 रूपये में बिका
उस दौर में ब्लिट्ज नाम की एक पत्रिका निकला करती थी. जिसके एडिटर थे, रूसी करंजिया. करंजिया पारसी समुदाय से आते थे. नानावटी केस में उन्होंने खुल्लम खुल्ला नानावटी का पक्ष लिया लिया. अपने अखबार में चार-चार पन्ने की कवरेज छापी. Blitz वीकली पेपर था, इसके बावजूद नानावटी केस की जैसी कवरेज Blitz ने की, कोई दूजा अखबार नहीं कर पाया. इधर पब्लिक भी धीरे धीरे नानवटी के सपोर्ट करने लगी थी. कमांडर नानावटी नेवी में थे. ऊपर से गबरू जवान. लंबा कद. ठुसा हुआ कसीला बदन. सफेद रंग की ड्रेस और खामोश आंखें. कोर्ट में जब वो खड़े हुए तो देखने वालों का तांता लग गया. चाहने वालों में महिलाओं की संख्या ज्यादा थी.
नानावटी की दीवानगी ऐसी थीं कि कोर्ट की गैलरी में लड़कियां सज धज कर आती थीं. द न्यू यॉर्कर की जर्नलिस्ट एमिली हाहन के मुताबिक, लड़कियां ऐसे सजकर आतीं, जैसे ओपेरा जा रही हों इस केस में सब कुछ था, रिवेंज, लव् ट्राएंगल और कोर्ट रूम ड्रामा. और इसका सबसे ज्यादा फायदा ब्लिट्ज अखबार को मिला. बताते हैं कि के केस के दौरान शनिवार को आने वाले इस अखबार को खरीदने के लिए लोग शुक्रवार को ही न्यूजपेपर स्टैंड पर जुट जाते थे. 25 पैसे का ये अखबार उस दौर में 2 रुपये तक बिका. बाहर जब ड्रामे का ये हाल था, कोर्ट में क्या चल रहा था.

नानावटी के बाद कोर्ट में उनकी पत्नी सिल्विया पेश हुई. उनका बयान अहम था. सबकी नजरें सिल्विया की तरफ थी. उन्होंने बोलना शुरू किया,
“आहूजा के साथ जब तक मैं फिजिकल नहीं हुई थी, तब तक वो हमेशा वादे करता था कि वो मुझसे शादी करेगा. लेकिन जब हम दोनों ने सेक्स कर लिया. उसके बाद वो अपनी बात से पलट गया.”
यहां सिल्विया ने वही बात दोहराई जो, नानावटी ने कही थी. बकौल सिल्विया उन्होंने नानावटी को प्रेम आहूजा से संबंधों के बारे में बताया. तब नानावटी ने उनसे पूछा कि आहूजा सिल्विया से शादी करेगा. सिल्विया ने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया. नानावटी ने उनसे कहा कि वो आहूजा से मिलने जा रहे हैं. सिल्विया के अनुसार उन्होंने नानावटी को रोकने की बहुत कोशिश की. और ये भी कहा कि आहूजा उन्हें गोली मार देगा. इसके बावजूद नानावटी आहूजा के पास चले गए.
नानावटी ने पिस्तौल क्यों इश्यू करवाईं?
बहस काफी हो चुकी थी लेकिन इस पूरे केस में एक सवाल अब भी बना हुआ था. डिफेन्स ने कोर्ट में कहा कि नानावटी के सर्विस रिवॉल्वर इश्यू कराने से ये साफ़ जाहिर था कि उन्होंने हत्या की प्लानिंग की थी. कोर्ट में जब नानावटी से ये सवाल पूछा गया तो उन्होंने दावा किया कि वो मैं खुद को गोली मार लेना चाहते थे. यही बात सिल्विया ने भी दोहराई. पक्ष विपक्ष की तमाम दलीलों के बाद अब बारी थी कोर्ट के फैसले की. दुनिया जानती थी कि खूनी कौन है. फिर भी फैसले के दिन कुछ अजीब हुआ. तारीख 21 अक्टूबर 1959. जज ने ज्यूरी से फैसला सुनाने के लिए कहा. शाम के साढ़े चार बज रहे थे. ज्यूरी ने कुछ वक्त मांगा. घंटे बीते. लोगों की भीड़ बढ़ी. ज्यूरी शाम को साढ़े सात बजे लौटी और फैसला सुनाया:
‘कमांडर नानावटी मर्डर के दोषी नहीं हैं, नॉट गिल्टी.’
ज्यूरी ने प्रेम आहूजा की इरादतन हत्या करने के आरोप को भी खारिज किया. इस फैसले के पक्ष में ज्यूरी के 9 में से 8 मेंबर ने अपना मत दिया. और जैसे ही फैसला आया, कोर्टरूम में तालियां बजने लगी. अधिकतर लोग खुश थे कि नानावटी बच गए. लेकिन इसी बीच सेशन कोर्ट जज मेहता ने एक बात कही, जिससे मंजर में खामोशी छा गई. जज मेहता ने ज्यूरी के फैसले के बावजूद केस को बॉम्बे हाईकोर्ट में रेफर कर दिया. कहा- इंसाफ के लिए ये जरूरी है.
हाईकोर्ट में नानावटी केस हाईकोर्ट में नानावटी केस में डिफेंस की सारी दलीलें काम नहीं आईं. हाईकोर्ट में नानावटी को दोषी माना गया. आगे केस सुप्रीम कोर्ट गया, वहां भी हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा गया. नानावटी को जेल भेज दिया गया. मुंबई के गवर्नर ने इंडिया के संविधान का हवाला देते हुए कहा कि नानावटी केस की नेवल कस्टडी पेंडिंग है, सुप्रीम कोर्ट में इसको लेकर याचिका भी दायर की हुई. तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने नेवी चीफ की अपील और लॉ मिनिस्ट्री की क्लीयरेंस मिलने पर गर्वनर को नानावटी की सजा सस्पेंड करने और रिमांड नेवी को सौंपने की सलाह दी. इस केस पर राजनीति का असर भी दिखा.

कैसे हुए रिहा?
नानावटी पारसी थे जबकि प्रेम आहूजा सिंधी कम्युनिटी से. इसलिए पूरा केस दोनों समुदायों के बीच आन की लड़ाई बन गया. तमाम लोग नानावटी को माफ करने की अपील कर रहे थे. Blitz ने तो नानावटी को माफी देने को लेकर फ्रंट पेज पर लगभग कैंपेन सा चला दिया. सरकार के कई लोग भी नानावटी की वकालत कर रहे थे. फिर भी सरकार डरी हुई थी. नानावटी को रिहा करने सिंधी नाराज़ हो सकते थे. लेकिन तभी एक दूसरा मामला सामने आया, जिसने नानावटी केस पर बड़ा असर डाला.
एक सिंधी ट्रेडर हुआ करे थे, भाईप्रताप. उन्हें फर्जी लाइसेंस मामले में जेल हो गई. भाईप्रताप को सिंधियों का सपोर्ट था. उनकी रिहाई की मांग की जाने लगी. तर्क दो दिए गए. क्राइम छोटा है और दूजा फ्रीडम फाइटर बैकग्राउंड. ऐसे में वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी सामने आए और उन्होंने एक समझौता कराया.शर्त ये थी भाईप्रताप की रिहाई के एवज में नानावटी भी रिहा हो जाएंगे। दोनों पक्ष तैयार हो गए. इसके बाद प्रेम आहूजा की बहन मैमी ने लिखित में नानावटी को माफ करने के लिए अपील की और मुंबई की गवर्नर रही विजयलक्ष्मी पंडित ने एक ही दिन नानावटी और भाईप्रताप, दोनों को जेल से रिहा कर दिया. तारीख थी 17 मार्च 1964. तीन साल से कम वक्त जेल में रहने के बाद नानावटी जेल से रिहा हो गए. कुछ वक्त तक मुंबई में रहने के बाद वो फैमिली के साथ कनाडा शिफ्ट हो गए. और फिर कभी नहीं लौटे.
साल 2003 में कमांडर नानावटी की मौत हो गई. हालांकि उनका ये केस हमेशा के लिए फेमस हो गया. केस के अजीबो गरीब फैसले के कारण ये क़ानूनविदों के लिए तो मिसाल बना ही. साथ ही इसके बाद भारत में ज्यूरी कोर्ट की व्यवस्था भी पूरी तरह समाप्त हो गई.
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