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देश की पहली हाई कोर्ट जज अन्ना चांडी की कहानी, जो पति के प्यार में बनी थीं जज

अन्ना चांडी का कहना था कि महिलाओं को उनके शरीर पर अधिकार मिलना चाहिए

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केरल की पहली महिला हाईकोर्ट जज अन्ना चांडी (फोटो सोर्स- ट्विटर)

साल 1928, जगह उस वक्त का त्रावणकोर, आज का केरल. राज्य में एक बड़ी बहस चल रही थी. बहस इस बात पर कि महिलाओं को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया जाए या नहीं. कई धड़े बंटे हुए थे. सबकी अपनी अपनी दलीलें थीं.  इसी मुद्दे पर चर्चा के लिए त्रिवेंद्रम में एक सभा बुलाई गई. जाने-माने विद्वान चर्चा में शरीक हुए थे. इन्हीं में से एक थे- टी.के.वेल्लु पिल्लई. पिल्लई भाषण दे रहे थे. और अपने भाषण में तर्क दे रहे थे कि शादीशुदा महिलाओं को सरकारी नौकरी में नहीं आना चाहिए. एक 24 साल की लड़की भी सभा में मौजूद थी. कानून की जानकार, महिलाओं के हक़ को लेकर सजग. उससे सुना नहीं गया. वो मंच पर चढ़ी और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को आरक्षण देने के पक्ष में बोलने लगी. उसकी एक के बाद एक दलीलें और तर्क इतने तथ्यात्मक थे जैसे बहस किसी चर्चा के लिए बुलाई गई सभा में नहीं बल्कि कोर्ट रूम में चल रही हो.

ये लड़की आगे चलकर देश की पहली महिला हाईकोर्ट जज बनी. जिसका नाम अन्ना चांडी था.

क़ानून की डिग्री लेने वाली पहली महिला-

अन्ना चांडी की पैदाइश 4 मई 1905 को त्रावणकोर के त्रिवेंद्रम की है. सीरियन ईसाई परिवार में जन्म हुआ था. हालांकि अन्ना खुद एक डिवोटेड क्रिस्चियन रहीं. लेकिन उनकी ऑटोबायोग्राफ़ी से ये भी साफ़ होता है कि दूसरे मतों के बारे में भी उनकी सोच सहज थी. बीसवीं सदी की शुरुआत के दौर में भी केरल बाकी राज्यों की तुलना में कुछ प्रगतिशील माना जाता था. यहां महिलाओं को पढ़ाई-लिखाई के अवसर मौजूद थे. लेकिन अन्ना ने जब त्रिवेंद्रम के गवर्नमेंट लॉ कॉलेज में एडमिशन लिया तो उन्हें बड़ी दिक्कतें पेश आईं. कॉलेज में उनका मजाक उड़ाया जाता. कोई महिला लॉ की पढ़ाई करे, ये उनके कॉलेज के ही पुरुष साथियों के लिए सुपाच्य नहीं था. हालांकि अन्ना इरादों की पक्की थीं. और पढ़ने में तेज.

साल 1926 में अन्ना ने पोस्ट ग्रेजुएशन किया. त्रावणकोर में ये पहली बार था जब किसी महिला ने क़ानून की डिग्री हासिल की थी. साल 1929. अन्ना ने बतौर बैरिस्टर शुरुआत की.  कानून की जानकारी, दलीलें, याददाश्त, केसेज़ के रेफेरेंसेज़ पर बहस करने की काबिलियत. ये सब दुरुस्त हो तो वकील पक्का माना जाता है. प्रैक्टिस करते हुए कुछ साल बीते, अन्ना भी क्रिमिनल केसेज़ की बढ़िया वकील मानी जाने लगीं.  इसके बाद साल 1937 में केरल के दीवान थे सर सीपी रामास्वामी अय्यर, उन्होंने चांडी को मुंसिफ नियुक्त कर दिया. तमाम मुश्किल और बड़े केसेज़ में मिली जीत प्रोफाइल में जुड़ी तो साल 1948 में अन्ना चांडी प्रमोट होकर जिला जज बन गईं. और इसके बाद 9 फरवरी, 1959 को उनके नाम के आगे हाईकोर्ट के जज की पदवी भी शामिल हो गई.  5 अप्रैल 1967 तक केरल हाईकोर्ट में उन्होंने इस पद पर काम किया. रिटायर होने के तीन महीने बाद साल 1967 में ही उनके पति पी. एस. चांडी का निधन हो गया.

अपनी आत्मकथा में  उन्होंने लिखा है-

'40 साल से ज्यादा के सौभाग्यशाली शादीशुदा जीवन के बाद, Mr.चांडी ने 6 जुलाई 1967 को मुझे छोड़ दिया. इस स्थायी अलगाव के भयानक दर्द के बाद मैंने उनकी सालों की इच्छा को पूरी करने की तैयारी शुरू कर दी थी. कई रुकावटों के चलते ये काम अब तक रुका हुआ था.'

दरअसल चांडी आत्मकथा लिखें ये उनके पति की सालों की ख्वाहिश थी. अन्ना के मुताबिक वो हाईकोर्ट की जज बनें ये भी उनके पति की इच्छा थी. किसी बड़े इरादे के साथ आगे बढ़ते वक़्त जब कभी मन ठिठकता है तब एक कैटेलिस्ट की जरूरत होती है. अन्ना के लिए वो कैटेलिस्ट उनके पति थे. अन्ना लिखती हैं,

‘मैं हाईकोर्ट की जज बनूं ये मेरे Beloved, मेरे आत्मनाथन (Ruler of my heart) का बड़ा पुराना सपना था. असल में मेरे पास एक बायोग्राफी है, उसकी वजह वही हैं. जिस दिन उनका सपना पूरा हुआ, उसी दिन से वो मुझसे मेरी कहानी लिखने को कहा करते थे. लेकिन मैं इससे बचने के लिए काम के दबाव, शरीर की कमजोरी जैसे बहाने बता दिया करती थी. जब उनकी जिद और बढ़ गई तो मैं उनसे कहा करती कि असल में मेरे बजाय उन्हें मेरी कहानी लिखनी चाहिए. ये उनकी जिम्मेदारी है. वो खुद एक ब्लेस्ड राइटर हैं. अगर उन्होंने इसे लिखा होता तो ये और आकर्षक होती.'  

अन्ना अपनी बायोग्राफ़ी के बारे में लिखती हैं,

‘आत्मकथा लिखने का काम उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ा, जितनी मेरी कल्पना थी. मुझे ये भी डर था कि अगर ये अधूरी रह गई तो मेरे लिखने का उद्देश्य पूरा नहीं होगा. मैंने मलयाला मनोरमा में जून से सितंबर 1971 तक इसका एक हिस्सा प्रकाशित किया. ये मेरे आत्मनाथन (Ruler of my heart) का मेरे ऊपर कभी न भुलाया जा सकने वाला कर्ज था. मेरे दोस्त और रिश्तेदार जिन्होंने मेरे आर्टिकल्स की वो सीरीज पढ़ी, उन्होंने मुझे बधाई दी. चूंकि इसका टाइटल जो मैंने दिया था, उसे बदलकर 'अन्ना चांडी की आत्मकथा' कर दिया गया था. इसलिए लोगों ने सवाल किए. पूछा कि इसमें केवल एक वकील और एक जज के बतौर आपके काम शामिल हैं. आपके बचपन, किशोरावस्था, युवावस्था, शिक्षा, पारिवारिक जीवन, और सबसे बढ़कर, दूसरे [ईसाई] संप्रदाय में आपका कन्वर्जन. इस सबके बारे में क्या? - ये किस तरह की आत्मकथा है? मुझपर बार-बार दबाव बनाया गया. मैं इसे मलयाला मनोरमा में एक स्पष्ट लेख लिखकर ठीक कर सकती थी. लेकिन मैंने नहीं किया, ये निश्चित रूप से मेरी गलती थी. लेकिन इसकी भरपाई के लिए ही मैंने थोड़ी दिकक्तों के साथ इस आत्मकथा को जल्दी पूरा कर दिया. ये बहुत सोच विचार के साथ नहीं लिखी गई है. मैंने कभी डायरी या संस्मरण नहीं रखे हैं. मुझे जो भी याद आ रहा है उसे बिना किसी क्रम और भाषा के ज्ञान के बहुत सामान्य शैली में लिख रही हूं. मुझे किताबी भाषा का कोई ज्ञान नहीं है. साहित्यिक लेखन की ये मेरी पहली कोशिश है. इसलिए मैं पाठकों से विनती करती हूं कि मेरी जिंदगी की कहानी के नैरेशन में जो भी कमियां हों, उन्हें माफ कर दें.'

अन्ना स्वीकारती हैं कि उन्हें लेखन की बहुत जानकारी नहीं है. उन्होंने बस अपने पति के लिए अगाध प्रेम के चलते, उनकी इच्छा पूरी की.  

अन्ना की सियासी पारी-

अन्ना रिटायर हुईं तो लॉ कमीशन में नियुक्ति हो गई. लेकिन इसके पहले अन्ना सियासी आजमाइश भी कर चुकी थी. साल 1931 में उन्होंने त्रावणकोर की श्री मूलम पॉप्युलर एसेंबली के लिए चुनाव लड़ा था. लेकिन ये रास्ता भी महिलाओं के लिए आसान नहीं था. अन्ना चुनाव लड़ने उतरीं तो उन पर बेहद अपमानजनक आरोप लगाए गए. पोस्टर, न्यूज़ पेपर छापे गए. जिनमें लिखा था कि अन्ना के राज्य के दीवान के साथ निजी सम्बन्ध हैं. अफवाह फ़ैली. और अन्ना ये चुनाव हार गईं. साल 1930 में अन्ना ने 'श्रीमती' नाम से मलयालम में एक पत्रिका का सम्पादन शुरू किया था. अन्ना चुनाव में हार के बाद चुप नहीं बैठीं. उन्होंने श्रीमती में अपने ऊपर लगे आरोपों के बारे में एडिटोरियल लिखकर विरोध जताया.  1932 में वो फिर चुनाव लड़ीं और इस बार जीत गईं. विधानसभा सदस्य रहते हुए अन्ना महिलाओं के मुद्दों के अलावा बजट की बहसों में भी शरीक रहा करती थीं.

अन्ना कहती थीं,

अपने शरीर पर महिलाओं का हक़ है-

अन्ना को रियल फेमिनिस्ट कह सकते हैं. उन्होंने महिलाओं के हक की लड़ाई में टॉर्च बियरर की भूमिका निभाई. और ये भी कहा कि औरतों को क़ानून की नज़र में भी बराबरी की नज़र से देखा जाना चाहिए. त्रावणकोर शासन में जघन्यतम अपराध करने पर महिलाओं को फांसी की सजा से छूट दिए जाने का प्रावधान था. अन्ना के इस छूट का भी विरोध किया.

उनके तर्क स्पष्ट थे. शुरू में हमने जिस सभा का जिक्र किया था, उस किस्से से समझ सकते हैं.

टी. के. वेलु पिल्लई अपनी दलील में बोले,

‘सरकारी नौकरी एक महिलाओं के विवाहित जीवन की ज़िम्मेदारियों के लिए बाधा है, दौलत कुछ परिवारों में सिमट जाएगी और पुरुषों के आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचेगी.’

आज हमारे न्यूज़ रूम के महिला और पुरुष साथी ये वाक्य सुनें तो उनकी हंसी छूट जाएगी. हमारे यहां कई सफल विवाहित महिला साथी हैं, जिनके पार्टनर्स का उनकी नौकरी से ईगो हर्ट नहीं होता है.' लेकिन उस दौर में ये सोचिए, इस पर बहस बैठाई गई थी. अन्ना तब वकालत पढ़ चुकी थीं, वो इस सभा में हिस्सा लेने ख़ास तौर पर कोट्टम से त्रिवेंद्रम पहुंची थीं. अन्ना सभा के मंच पर चढीं और बोलीं,  

'इस याचिका से साफ़ है, याचिकाकर्ता का मानना है कि औरतें सिर्फ़ पुरुषों के लिए घरेलू सुख का जरिया हैं. और वो इस आधार पर महिलाओं की नौकरी तलाशने की कोशिशों पर पाबंदी लगाना चाहते हैं, क्योंकि उनके मुताबिक अगर वो रसोई से बाहर गईं तो इससे पारिवारिक सुख में कमी आ जाएगी. जबकि असलियत ये है कि महिलाओं के कमाने से परिवार को संकट के वक़्त सहारा मिलेगा, अगर सिर्फ़ गैरशादीशुदा महिलाओं को नौकरी मिलेगी तो कई महिलाएं शादी करना ही नहीं चाहेंगी.'

अन्ना के इस भाषण के बाद से त्रावणकोर में महिला आरक्षण की मांग मजबूत होती गई. अखबारों में इस बहस को जगह मिलने लगी.

केरल उस वक़्त भी प्रगतिशील राज्य माना जाता था. वहां मातृसत्तात्मक प्रणाली चली आ रही थी. महिलाओं की शिक्षा, उनकी सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता को लेकर राज्य सजग हुआ करता था लेकिन फिर भी महिलाओं को ग़ैरबराबरी झेलनी पड़ती थी. और अन्ना के सवाल, उनकी चिंताएं उनके समय के आगे के भी आगे की थी. साल 1935 में अन्ना ने लिखित में एक सवाल पूछा, जो आज भी प्रासंगिक बना हुआ है, उन्होंने लिखा,

मलयाली महिलाओं को प्रॉपर्टी का हक़, वोटिंग, नौकरी, सम्मान और आर्थिक स्वतंत्रता है. लेकिन कितनी महिलाओं का उनके ख़ुद के शरीर पर अधिकार है? औरत का शरीर सिर्फ पुरुषों के लिए सुख का साधन है इस तरह के बेवकूफी के विचारों के चलते कितनी महिलाएं हीनता की गर्त में गिरी हुई हैं?'

महिलाओं को उनके खुद के शरीर पर हक़ मिले, ये बात भी उन्होंने कई फोरम्स पर रखी. ऑल इंडिया विमेन्स कॉन्फ़्रेंस में उन्होंने प्रस्ताव दिया कि पूरे देश में महिलाओं को गर्भ निरोध वगैरह की जानकारी देने के लिए क्लिनिक होने चाहिए. लेकिन उन्हें इस प्रस्ताव पर कई ईसाई महिला सदस्यों का विरोध झेलना पड़ा.

एक महिला, अपने पार्टनर के सकारात्मक साथ से सफलता के कितने ऊंचे आयाम पा सकती है, ये अन्ना चांडी की मिसाल से समझा जा सकता है. उनके पति एक पुलिस ऑफिसर थे. दोनों के एक बेटा था. 20 जुलाई 1996 यानी आज ही के दिन अन्ना की भी मृत्यु हो गई. ने उन्होंने अपने पति को खो देने के बाद करीब 30 साल अकेले गुजारे. लेकिन अन्ना के लिखे मुताबिक़ अन्ना के लिए Mr. चांडी उनके आत्मसखी (आत्मा के साथी) थे. साल 1973 में छपी अन्ना की आत्मकथा के बारे में कहा जाता है कि ये किताब उनके लिए विछोह की पीड़ा से उबरने का जरिया था. जिसे उन्होंने अपने पति के लिए एक श्रद्धांजलि की तरह लिखा. इतिहासकार जी अरुणिमा, अन्ना चांडी, बी कल्याणी अम्मा और रोज़ी थॉमस जैसी मलयाली महिलाओं की ऑटोबायोग्राफी पढ़ते हुए कहती हैं कि ये उनके विवाह की जीवनियां हैं. जिनमें इन लेखिकाओं ने लिखा है कि कैसे उनके जीवन को उनके साथी ने सजाया है, संवारा है.