"मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के"मीर तक़ी मीर ने अट्ठारहवीं सदी में कहा था,
"उस के फ़रोग़-ए-हुस्न से झमके है सब में नूर शम-ए-हरम हो या हो दिया सोमनाथ का"वहीं सरशार सैलानी साहब कहते हैं,
"चमन में इख़्तिलात-ए-रंग-ओ-बू से बात बनती है हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो"क्या हासिल है इस आला शायरी का! पहला शे'र बताता है कि मज़हबों के चश्मे से देखे जाने वाली चीज़ें अक्सर दोषपूर्ण ही नज़र आती हैं. इसलिए बेहतर है कि चश्मा ही हटा दिया जाए. वहीं मीर साहब काबे से लेकर शिवाले तक में एक ही नूर होने की बात को एंडोर्स करते हैं. बेसिकली ये कहते हैं कि ईश्वर एक ही है. उधर सरशार सैलानी साहब मज़हब और नास्तिकता से परे एक प्रैक्टिकल और तार्किक नज़रिया अपनाते हैं. वो सह-अस्तित्व पर ज़ोर देते हैं और समझाते हैं कि दूसरे शख्स का वजूद कबूलना ही जीने का बेहतरीन तरीका है.
कुल मिलाकर कई सारे आला-दिमाग लोग ये बात अलग-अलग तरीके से कह चुके हैं कि तमाम इंसानों को एक दूसरे की धार्मिक, सामाजिक आइडेंटिटी के डिफरेंसेस के साथ मिलजुलकर रहना चाहिए. अफ़सोस की बात ये कि ऐसा होता नहीं दिखता. किसी का भी विरोधी बन जाने के लिए इतना काफी साबित हो रहा है कि वो किसी और धर्म से है. मुद्दा चाहे जो हो. ये सब कहने की नौबत इसलिए आई है कि एक बार फिर किसी फिल्म की वजह से धर्म की सेहत नासाज़ हो गई है.

फिल्म का पोस्टर.
अभिषेक कपूर की फिल्म 'केदारनाथ' का ट्रेलर लॉन्च हुआ. जैसे ही कहानी का अंदाज़ा हुआ कुछ लोगों की भावनाएं आहत हो गईं. फिल्म एक मुस्लिम लड़के और हिंदू लड़की की प्रेम कहानी है जिसके बैकड्रॉप में हिंदुओं का पवित्र देवस्थान केदारनाथ और 2013 में वहां हुई ट्रेजेडी है. फिल्म कैसी होगी ये तो वक़्त ही बताएगा, फिलहाल ट्रेलर को लेकर ही बवाल हो गया है. एक शब्द फिर से हवाओं में तैरने लग गया है. 'लव जिहाद'. यूट्यूब पर इस ट्रेलर के नीचे, फेसबुक पर, ट्विटर पर ऐसे कई लोग मिल जाएंगे आपको, जो इसे 'लव जिहाद' को बढ़ावा देने वाली फिल्म बता रहे हैं. फंडा बिल्कुल क्लियर है. जो फिल्म से लेकर असल दुनिया तक हर जगह लागू होता है. अगर मुस्लिम लड़का हिंदू लड़की से प्यार करता है तो वो लव जिहाद के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता.
रुकिए रुकिए, इतनी जल्दी ऑफेंड न होइए. ये सिलसिला एकतरफा ही हो ऐसा नहीं है. अगर लड़का हिंदू हो और लड़की मुस्लिम हो तो उस केस में ये काफिरों का मज़हब पर हमला हो जाता है और लड़की तुरंत मज़हब से खारिज करने लायक बन जाती है. जो 'केदारनाथ' के साथ हो रहा है वैसा ही कुछ 23 साल पहले मणिरत्नम की 'बॉम्बे' के साथ हो चुका है. उस वक़्त भी मज़हब को बुखार चढ़ आया था और कुछ दिनों के लिए पूरे मुल्क का माहौल गंदला हो गया था. 'केदारनाथ' का मामला भी कुछ-कुछ ऐसा ही है. नीचे कुछ कमेंट्स हम दिखा रहे हैं जो यूट्यूब पर ट्रेलर के नीचे मिले हमें. हम नाम मिटा रहे हैं क्योंकि विरोध व्यक्ति का नहीं, प्रवृत्ति का होना चाहिए.

बहरहाल, करेला नीम तब चढ़ा जब बीजेपी के एक नेता ने सेंसर बोर्ड को ही लेटर लिख डाला. अजेंद्र अजय उत्तराखंड बीजेपी की मीडिया रिलेशंस टीम के सदस्य हैं. उन्होंने CBFC चेयरमैन प्रसून जोशी को पत्र लिखकर इस फिल्म से अपनी आपत्तियां दर्ज कराई हैं. फिल्म को 'हिंदू समाज की आस्थाओं पर प्रहार करने वाली' बताया है. कहा है कि डायरेक्टर अभिषेक कपूर ने हिंदू मान-मर्यादाओं, प्रतीकों और संस्कृति से खिलवाड़ किया है.
आगे ये मांग की है कि फिल्म पर बैन लगा दिया जाए. यूं तो लेटर काफी लंबा है लेकिन इसका एक हिस्सा दिलचस्प है. फिल्म की टैगलाइन 'प्यार एक तीर्थयात्रा है' से उन्हें ख़ास दिक्कत है. उनके मुताबिक़ इस टैगलाइन से ये संदेश जाता है कि केदारनाथ की यात्रा करने वाले लोग वहां प्रेम-प्रसंगों के लिए जाते हैं.

अजेंद्र अजय का पत्र.
हमें नहीं पता कि उन्हें प्रेम और कथित प्रेम-प्रसंग में फर्क पता है या नहीं लेकिन मुझे उम्मीद है आपको ज़रूर पता होगा. 'प्रेम एक तीर्थयात्रा है' ये एक विचार है, कथित व्याभिचार का इश्तेहार नहीं. कबीर से लेकर रहीम तक, गुरु नानक से लेकर गांधी तक सबने यही संदेश दिया कि प्रेम ही मानवता को तारेगा. प्रेम ही अंतिम आसरा है जो इस मुश्किल दौर में जीना सुसह्य बना देगा. ये बात अपने पॉलिटिकल एजेंडे को खाद-पानी देने के इच्छुक नेता लोग नहीं समझते, धर्म के नाम पर अपनी निजी दुकानें चलाने वाले मज़हबी रहनुमा भी नहीं समझते और अलग-अलग सूचना माध्यमों से परोसा जा रहा ज़हर बिना सोचे-समझे गटकने वाले हम लोग भी नहीं समझ पा रहे. ये ट्रेजेडी भी उतनी ही भयावह है जितनी 2013 में केदारनाथ में आई आपदा थी.
मुझे व्यक्तिगत रूप से ये हमेशा लगता आया है कि मज़हबों की आपसी तनातनी पर लगाम लगाने का एक असरदार तरीका ये भी है कि इंटरकास्ट, इंटर-रिलिजन शादियों को प्रोत्साहन दिया जाए. जब मज़हबी पहचान ही धुंधली होने लगेगी तो नफरतों का लावा कम उबलेगा. दूरियां तभी मिटेंगी जब पुल बनेंगे.
रही फिल्म 'केदारनाथ' की बात तो इसकी कथावस्तु में आपत्तिजनक तो कुछ है नहीं. ये पहली बार नहीं है जब परदे पर हिंदू-मुस्लिम प्रेम कहानी दिखाई जा रही हो. 'ज़ख्म', 'अनवर' जैसी हार्ड हिटिंग फिल्मों से लेकर 'वीर ज़ारा', 'रांझणा' जैसी कमर्शियल हिट्स तक बहुत कुछ दिख चुका है हिंदी सिनेमा में. इतनी हायतौबा मचाने जैसा कुछ नहीं है 'केदारनाथ' में. ऐसी प्रेम कहानियां हमारे आसपास घटित होती ही हैं, सो फिल्म में देखने में क्या दिक्कत है? हमें नहीं लगता कि किसी भी धर्म को किसी फिल्म से कोई ख़तरा हो सकता है. और प्रेम से तो बिल्कुल भी नहीं हो सकता.
हमारी तो यही कामना रहेगी कि,
"ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान"