जोधपुर से पहले मंडोर मारवाड़ की राजधानी हुआ करती थी. 1394 के साल में परिहारों या इंदा राजपूत राणा गंगदेव ने अपनी बेटी लीलादे की शादी राव चूंडा से की और मंडोर दहेज़ में दे दिया. यहां से मारवाड़ में राठौड़ों के शासन की शुरुआत होती है जोकि 1949 तक बदस्तूर जारी रहा.
कमाल की है उन करणी माता की कहानी, जिनके नाम पर करणी सेना गुंडई कर रही है
दाढ़ी-मूछो वाली इस देवी ने राजस्थान के दो सबसे बड़े रजवाड़ो की नींव रखी

राव चूंडा के बेटे हुए राव रिडमल. उस समय मंडोर इतना मजबूत राज्य नहीं हुआ करता था और मेवाड़ का सूरज उरूज पर था. राव रिडमल मेवाड़ राज्य के राणा मोकल के यहां सेनापति की हैसियत से काम करने लगे. मोकल के जाने के बाद उन्होंने उनके बेटे राणा कुम्भा के राज में भी अपना काम जारी रखा. दरबारी षड्यंत्र के चलते कुम्भा ने राव रिडमल की हत्या करवा करवा दी. रिडमल के बेटे जोधा को वहां से जान बचाकर भागने पर मजबूर होना पड़ा.

जोधपुर में लगी राव जोधा की मूर्ति
अपने साथ 700 घुड़सवार लिए जोधा मेवाड़ की राजधानी चितौड़ के किले से भागने में कामयाब रहा. जगह-जगह पर उसकी मुठभेड़ चितौड़ की सेना से हुई. जब वो वापस मारवाड़ की राजधानी मंडोर पहुंचा तो उसके पास अपने समेत महज 7 घुड़सवार बचे थे. संकट की इस घड़ी में जोधा को उस शरणगाह की याद आई जहां कभी उसके पिता ने शरण ली थी. माने की जांगलू. जांगलू पश्चिमी राजस्थान का वो हिस्सा जिसे हम लोग आज बीकानेर, चुरू हनुमानगढ़ और श्री गंगानगर के नाम से जानते हैं. यहां उसकी मुलाकात उस महिला से होनी थी जिसने उसके पिता को राजा बनाया था.
सन 1387 की बात है. मारवाड़ के सुवाप गांव में मेहाजी चारण के घर छठी बेटी का जन्म हुआ. मेहाजी को एक बेटे का इंतजार था. मेहाजी ने अपनी छठी बेटी का नाम रखा रिद्धा बाई. लोककथा है कि किशोर काल में रिद्धा ने अपनी बुआ की टेढ़ी अंगुली को एक स्पर्श से ठीक कर दिया था. इसके बाद उसकी बुआ ने उसे नया नाम दिया करणी. करणी माने चमत्कारी.
शादी लायक उम्र होने पर पिता मेहाजी ने करणी की शादी उनके साठिका गांव के दीपोजी चारण से कर दी. शादी के बाद करणी ने साफ़ कर दिया कि उसकी शादी में कोई दिलचस्पी नहीं है. करणी ने अपनी छोटी बहन गुलाब की शादी दीपोजी से करवा दी और खुद को गृहस्थ जीवन से अलग रखा.

करणी माता की तस्वीर
उस दौरान मारवाड़ में भयंकर अकाल पड़ा और दीपोजी ने अपनी और अपने मवेशियों की जिंदगी बचाने के लिए मारवाड़ से जांगलू की तरफ रुख किया. यहां के एक गांव में उन्होंने डेरा डाल दिया. उस समय तक राव चूंडा मारे जा चुके थे और उसके बेटे कान्हाराव/कानजी का शासन इस इलाके में चलता था. दीपोजी और करणी ने जांगलू एक गांव में डेरा डाल दिया. यहां कानजी के कुछ सैनिकों ने करणी और उसके मवेशियों को पानी पीने से रोक दिया.
जब यह खबर राव रिडमल को लगी तो करणी और दीपोजी के पास आया और उन्हें पास ही के गांव बीड के गौचर में चलने के लिए कहा. करणी के बीड जाने की बात सुनकर कानजी खीझ गया. उसने मौके पर आकर करणी को आदेश दिया कि वो उसका राज्य छोड़कर चली जाए. करणी ने उसे काफी धिक्कारा और अंत में शर्त रखी कि अगर वो उनकी पूजा की पेटी बैलगाड़ी पर रख देता है तो वो उसका राज्य छोड़कर चली जाएंगी. राव कानजी बड़ी मशक्कत के बाद भी ऐसा करने में कामयाब नहीं हुआ.

करणी माता के मंदिर में असंख्य चूहे/काबे है. इसलिए इसे काबे वाली माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है
राव कानजी इससे और गुस्सा हो गया. उसने करणी को ललकारते हुए पूछा कि वो जादू ही दिखा रही है तो बताए कि वो कब मरेगा. करणी ने उसे चेताया कि उसकी जिंदगी महज 1 साल और बची है. इसके बाद करणी ने जमीन पर एक लीक खिंची और कानजी को कहा कि यह लीक ही उसकी जीवन रेखा है. अगर वो इसे पार करेगा तो मारा जाएगा. कहते हैं कि कानजी ने तमाम चेतावनी के बावजूद ऐसा करने का साहस किया और मारा गया. इसके बाद करणी ने कानजी के छोटे भाई रिडमल को जांगलू का राजा घोषित कर दिया. यही रिडमल राव जोधा के पिता थे. इस घटना ने करणी को साधारण महिला से एक अाध्यात्मिक गुरु के तौर पर स्थापित कर दिया. लोग उन्हें करणी माता के तौर पूजने लगे.
जोधा और जोधपुर
चितौड़ से जान बचाकर भागा जोधा जब जांगलू में करणी माता के पास पहुंचा तो उसके पास सेना के नाम पर कुछ भी नहीं बचा था. कहते हैं कि करणी माता ने उसकी बुरे वक़्त में मदद की. उसको रहने का ठिकाना दिया. उसे फिर से अपनी शक्ति इकट्ठी करने लिए प्रेरित किया. जोधा ने धीरे-धीरे करके अपनी शक्ति फिर से बटोरी और एक किनारे से मारवाड़ के क्षेत्रों पर फिर से कब्जा करना शुरू किया. अपने निर्वासन के करीब 15 साल बाद 1453 के साल में जोधा एक बार फिर से मंडोर पर काबिज था.
मंडोर पर कब्जे के बाद जोधा को समझ में आने लगा कि राजधानी के तौर पर मंडोर बहुत सुरक्षित नहीं है. राव जोधा अपनी राजधानी को मंडोर से दक्षिण की तरफ 9 किलोमीटर दूर ले गया. यहां पर एक उंची पहाड़ी थी जिसपर चिड़ियानाथ नाम के जोगी संत रहा करते थे. इसी वहज से इस पहाड़ी को चिड़ियाटूक की पहाड़ी कहा जाता था. जोधा को यह जगह पसंद आ गई और उसने यहां नई राजधानी बसाने का फैसला किया.

मेहरानगढ़ का किला
12 मई 1459 के रोज चिड़ियाटूक की पहाड़ी पर नए किले की नींव डाली गई. जोधा की करणी माता में गहरी श्रद्धा थी. उसे अपना बुरा वक़्त भी याद था. जोधा की रिक्वेस्ट पर करणी नए किले की नींव रखने के लिए देशनोक चिड़ियाटूक आई.
चूंडा की चौथी पीढ़ी और एक नया राज्य
कहते हैं कि राव जोधा की कड़वी बातों से नाराज होकर उसके छोटे बेटे बीका ने मेहरानगढ़ छोड़ दिया. निकलते वक़्त उसने अपने पिता से कहा कि वो खुद अपना राज्य स्थापित करके दिखा देगा. साल था 1465. जब बीका जोधपुर से निकला तो उसके पास 100 घुड़सवारों और 500 पैदल की छोटी सी सेना थी और साथ थे उसके चाचा रावत कांधल.
बीका अपने लश्कर के पास फिर जांगलू पहुंचा. यहां वो फिर से उसी महिला की शरण में था जिसने किसी दौर में उसके दादा और बाद में उसके पिता को शरण दी थी. करणी माता की सलाह पर बीका ने धीरे-धीरे करके जांगलू के छोटे-छोटे ग्राम राज्यों पर कब्जा जमाना शुरू किया.

राव जोधा और उनके बेटे राव बीका
जांगल देश या जांगलू राजस्थान का पश्चिमी इलाका है. फिलहाल जिस इलाके को बीकानेर, चुरू, हनुमान गढ़ और गंगा नगर के नाम से जानते हैं उसका जिक्र महाभारत में जांगल देश के तौर पर मिलता है. कालांतर में इसे जांगलू के नाम से बुलाया जाने लगा. बीका के आने से पहले यहां जाटों की सात बिरादरियां छोटे-छोटे गणराज्यों में रहा करती थीं. गोत्र के हिसाब से उनके अलग-अलग इलाके बंटे हुए थे. इन इलाकों को 'सात पट्टी, सत्तावन मांझ' के नाम जाना जाता था.
इनमें से सबसे बड़ी गोत्र थी गोदारा. गोदारा जाटों का चौधरी पांडू, सारण गोत्र के चौधरी पूला सारण की बीवी मलकी को भगाकर अपने घर ले आया था. इसके बाद सारण चौधरी पूला ने पूनिया, बेनीवाल, जोहिया, सिहाग और कस्वां चौधरियों को अपने साथ लेकर गोदारा गोत्र के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया.
इधर बीका भी अपने लिए नए राज्य की तलाश में था. यह जांगलू में पैर जमाने का अच्छा मौक़ा था. उसे युद्ध में मदद के बदले पांडू ने बीका की अधीनता स्वीकार कर ली. उनके बीच हुई संधि के हिसाब से बीका को पांडू के अधीन 300 गांवों में प्रति परिवार एक रुपया और प्रति 100 बीघा खेत पर 2 रुपए का लगान वसूलने का हक मिल गया. गोदाराओं के पतन के बाद दूसरे जाट गोत्रों ने एक-एक करके बीका की अधीनता स्वीकार कर ली. जोधपुर से निकलने के कुछ ही सालों में बीका 2500 गांवों का मालिक बन गया. इस तरह राजस्थान में राठौड़ों के दूसरे बड़े राज्य की स्थापना का रास्ता खुला, जिसे बाद में बीकानेर के नाम से जाना गया.

जूनागढ़ किला,बीकानेर
गांवों पर कब्जे के बाद बीका को नई राजधानी की जरूरत महसूस हुई. उसने 1485 में बीकानेर में किले की नींव रखने के लिए देशनोक से करणी माता को बुलवाया. इस तरह देखा जाए तो राजस्थान में दो बड़े राजपूत घरानों को स्थापित करने में करणी माता अहम भूमिका में रही.
हजारों लोग आज करणी माता को देवी की तरह पूजते हैं. अगर श्रद्धा को अलग रख दिया जाए तो भी करणी माता सामंती दौर के स्थापित शक्ति केन्द्रों की उलटबांसी के तौर पर देखी जा सकती हैं. वो एक सामान्य किसान परिवार से आती थीं. जाति से चारण थीं जोकि सामाजिक हैसियत में राजपूत और ब्राह्मण जैसी अगड़ी जातियों के बराबर नहीं थी. इसके बावजूद उन्होंने खुद को शक्ति के केंद्र तौर पर स्थापित किया. या यूं कहा जाए कि शक्ति संतुलन के केंद्र के तौर पर.

देशनोक के मंदिर करणी माता की मूर्ति
बीका ने जब बीकानेर की स्थापना की तो पड़ोस के भाटी राजपूत असहज स्थिति में थे. जांगलू के आगे थार पर भाटी राजपूतों का हिस्सा बीका से पहले जांगलू, भाटी और राठौड़ राजपूतों के बीच बफर जोन की तरह था. जांगलू में बीका के कब्जे के बाद भाटी राजपूतों की हरारत स्वाभाविक थी. करणी माता ने तनाव की स्थिति में जरूरी हस्तक्षेप किया और बीका की शादी पूगल के भाटी शासक राव शेखा की बेटी रंग कँवर के साथ करवाया. इससे नए बसे बीकानेर पर से युद्ध का बड़ा खतरा टल गया.
जिस दौर में करणी माता इस दुनिया में रहीं, उस समय सामंतों के यहां दरबारी कवि औरतों के नख-शिख के वर्णन में अपनी रचनात्मकता जाया कर रहे थे. एक काल्पनिक नायिका मूमल के बहाने वो बता रहे थे कि सुंदर स्त्री के माने क्या होते हैं. वो अनार के दानों से दांत और केले के तने सी जांघों को सुंदर बता रहे थे. ठीक इसी दौर में करणी माता थीं जो मर्दों की तरह दाढ़ी और मूछों के साथ इस फानी दुनिया में थी. चेहरे पर उगी हुई दाढ़ी उनके 'दैवीय' स्वरूप के आड़े नहीं आई. वो अपनी शर्तों पर इस दुनिया में रहीं. आज भी लोग उन्हें इसी रूप में पूजते हैं. देशनोक में उनका भव्य मंदिर हैं.
करणी माता और चूहे
करणी माता की बहन और दीपो जी चारण के घर चार लड़के पैदा हुए. करणी माता इन चारों लड़कों को अपने बच्चों की तरह प्यार करती थीं. बाद में इन चारों लड़कों के वंशज देपावत चारण के नाम से जाने गए. देपावत माने 'देपा के बेटे.' चरों करणी माता के साथ ही रहते. करणी माता के जाने बाद यह लोग उनके मंदिर के पुजारी बने. देशनोक जहां करणी माता का मंदिर है वहां आज भी देपावत चारणों के चार मोहल्ले बसे हुए हैं.यहां मान्यता यह है कि क्योंकि देपावत करणी माता के परिवार के सदस्य है इसलिए उन्हें स्वर्ग और नरक के चक्कर से मुक्ति मिल चुकी है. अगर कोई देपावत चारण मरता है वो करणी माता के मंदिर में चूहा बनकर पैदा होता है. इन्हें स्थानीय भाषा में काबा कहा जाता है. करणी माता के मंदिर में सैंकड़ो की तादाद में चूहें इस वहज से इसे चूहों वाली देवी के रूप जाना जाता है.
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