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जब कारगिल में पाक घुसपैठियों का सामना गोरखा राइफ़ल्स से हुआ!

कारगिल विजय दिवस पर जानिए कारगिल में गोरखा सैनिकों के शौर्य की कहानी.

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3 जुलाई 1999 के दिन लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे कारगिल युद्ध में शहीद हुए थे. कारगिल युद्ध में उनके योगदान और साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से नवाजा गया (तस्वीर- Honourpoint.in/Wikimedia commons)

पांच हज़ार फ़ीट की ऊंचाई पर ज़मीन पर बैठा हुआ, 25 साल का एक नौजवान अपने सामने रखी बोतल को घूर रहा था. बोतल में कुछ आख़िरी घूंट बची थीं. आगे रास्ता लम्बा था इसलिए पानी पीने का ख़्याल छोड़कर उसने एक बार फिर अपने होंटों को जीभ से गीला कर लिया. कुछ 12 घंटे बाद वो अपनी मंज़िल के पास पहुंचा. पानी बचा था लेकिन अब प्यास दूसरी थी. NDA की परीक्षा में इंटरव्यू के दौरान एक बार उससे पूछा गया था,

“फ़ौज में क्यों आना चाहते हो”

तब उसने जवाब दिया था,

“परम वीर चक्र जीतने के लिए”

और सब हंस पढ़े थे. आज मुस्कुराने की बारी उसकी थी. 80 डिग्री की चढ़ाई चढ़ते हुए बड़ी-बड़ी पलकों और भूरी आंखो वाले उस लड़के ने एक के बाद एक गोले दागे और दुश्मन के चार बंकर तबाह कर डाले. जब गोले ख़त्म हो गए, उसने अपनी कमर से वो हथियार निकाला जो उसकी रेजिमेंट की पहचान था. कुछ साल पहले तक एक बकरी का खून देख, उसने 12 बार अपने हाथ धोए थे. और आज वो खुखरी यूं चला रहा था, मानो सामने काग़ज़ के टुकड़े रखे हुए हों. ये कारगिल (Kargil War) की ज़मीन थी. और जो शख़्स इस समय दुश्मन से लोहा ले रहा था, उसका नाम था, लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे. या कहें परम वीर चक्र विजेता लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे. (Manoj Kumar Pandey)

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Gorkha regiments (India)
भारतीय फील्ड मार्शल रहे सैम मनेकशॉ ने गोरखा रेजीमेंट के लिए कहा था ‘अगर कोई यह कहता है कि उसे मरने से डर नहीं लगता तो या तो वह शख्स झूठ बोल रहा है या फिर वह एक गोरखा है’ (तस्वीर- AFP)

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कारगिल में गोरखा राइफल्स 

साल 1999. मई महीने की बात है. कर्नल ललित राय डेढ़ साल सियाचिन में तैनात रहने के बाद घर लौट रहे थे कि उन्हें लेफ़्टिनेंट जनरल JBS यादव का कॉल आया. जनरल यादव कर्नल राय से एक मदद चाहते थे. दरअसल 1/11 गोरखा राइफ़ल्स(Gorkha Rifles) के कमांडिंग अफ़सर ने समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया था. इसलिए जनरल यादव चाहते थे कि कर्नल राय बटालियन के कमान सम्भालें. कर्नल राय इससे पहले 17 राष्ट्रीय राइफ़ल्स की कमान सम्भाल चुके थे. बिना किसी हिचक वो इस नई ज़िम्मेदारी के लिए तैयार हो गए. इसके कुछ रोज़ बाद कर्नल राय और उनके साथी पुणे से जम्मू तवी जाने वाली झेलम एक्सप्रेस में बैठे हुए थे. इस ट्रेन में उनके साथ सफ़र कर रहे कर्नल अजय तोमर बताते हैं,

“ट्रेन में दो बोगियां जवानों के लिए रिज़र्व थी. और वो भी कम पड़ रही थी. क्योंकि साथ में हथियार और बाक़ी सामान भी था. हमारे बहुत से साथी खड़े होकर यात्रा कर रहे थे. लेकिन जब ट्रेन के अन्य यात्रियों ने ये देखा, उन्होंने हमारे लिए अपनी सीटें छोड़ दी”.

कर्नल राय या किसी को भी अभी तक स्थिति का ठीक-ठीक पता नहीं था. सिर्फ़ इतना बताया गया था कि पाकिस्तान के तरफ़ से घुसपैठ हुई है. कर्नल राय के अनुसार जैसे ही उन्हें हेलिकाप्टर से बैटल फ़ील्ड में उतारा गया, उनका स्वागत ऊंची चोटियों से हो रही शेलिंग से हुआ. उसी समय उन्हें अंदाज़ा हो गया था कि ये कोई मामूली घुसपैठ नहीं है. सच्चाई ये थी कि पाकिस्तान की नॉर्दर्न लाइट इंफेंट्री के जवान कबीलाइयों के भेष में ऊंची चोटियों ओर क़ब्ज़ा करके बैठ गए थे. और उन्हें वहां से पीछे हटाना टेढ़ी खीर साबित हो हा था. (Kargil Vijay Diwas)

कारगिल में ऑपरेशन के दौरान आर्मी को अहसास हुआ कि उनकी राइफ़ल्स इस लड़ाई के लिए ठीक नहीं हैं. ये 7.62 mm की सेल्फ़ लोडिंग राइफ़ल (SLR) थीं. जिनका वजन ज़्यादा था. और उनसे एक बार में एक ही फ़ायर हो सकता था.सबसे बड़ी दिक़्क़त ये थी कि ये राइफ़ल ऊंची चोटियों और कम तापमान पर जाम हो जाती थीं. ऐसे में कारगिल युद्ध के बीच में सैनिकों को नई INSAS (Indian Small Arms System) राइफ़ल्स दी गई. ये वजन में हल्की थीं. इनसे एक बार में तीन फ़ायर किए जा सकते थे. और इनके जाम होने का चांस भी कम था. कर्नल राय बताते हैं,

“युद्ध के बीचों बीच 4-5 के बैच में जवानों को नई राइफ़ल्स चलाने की ट्रेनिंग दी गई. और इन राइफ़लों ने पासा पलट दिया”

इस पूरी क़वायद की बदौलत जुलाई महीने की की शुरुआत तक भारत काफ़ी बढ़त बनाने में सफल रहा. हालांकि एक पीक थी जो सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रही थी. बटालिक सेक्टर में खालुबर नाम की एक चोटी, जो लाइन ऑफ कंट्रोल (LOC) के उत्तर से दक्षिण की तरफ फैली हुई थी. खालुबर को क़ब्ज़ा करना कारगिल ऑपरेशन के सबसे निर्णायक ओबजेक्टिव्स में से एक था. क्योंकि इसके ठीक पीछे पाकिस्तान की 5 नॉर्दर्न लाइट इंफेंट्री ने रसद की सप्लाई लाइन बनाई हुई थी.

Gorkha regiments kargil war
कारगिल युद्ध में बहादुरी के लिए गोरखा राइफल्स को एक परमवीर चक्र व तीन वीर चक्र दिए गए थे (तस्वीर- Getty)

खालुबर की चुनौती 

खालुबर की ख़ास बात ये थी कि यहां से पाकिस्तान के सैनिक भारतीय फ़ौज की पूरी गतिविधि पर नज़र रख सकते थी. इस पर चढ़ने के लिए 80 डिग्री में एक सीधी चढ़ाई चढ़नी होती थी. वो भी बर्फ़ के बीच, माइनस डिग्री तापमान पर. जून महीने में इस चोटी पर क़ब्ज़े की दो और कोशिशें हो चुकी थीं. लेकिन ऊपर से लगातार हो रही फ़ायरिंग के बीच इस काम को अंजाम देना लगभग नामुमकिन साबित हो रहा था.

जुलाई महीने की शुरुआत में 1/11 गोरखा राइफ़ल्स को ये ज़िम्मेदारी सौंपी गई. तीन कम्पनियों को इस काम के लिए आगे भेजा गया. ब्रावो, चार्ली और CO कम्पनी. ब्रावो कम्पनी सबसे आगे थी. लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे इसी का हिस्सा थे. वहीं कर्नल अजय तोमर को चार्ली कम्पनी की कमान सौंपी गई थी. कर्नल तोमर लेफ़्टिनेंट मनोज को याद करते हुए बताते हैं,

“खालुबर की नुकीली चट्टानों पर चढ़ने के लिए मनोज चारों हाथ पांव के बल चल रहा था”

वो आगे लिखते हैं,

“2 जुलाई को ऑपरेशन शुरू हुआ. इस रोज़ मेरा जन्मदिन भी होता था. मैंने कहीं पढ़ा था कि जो आदमी अपने जन्मदिन के रोज़ मरता है, वो सीधा स्वर्ग जाता है. मुझे लग रहा था खालुबर को जीतना नामुमकिन है लेकिन कम से कम मुझे स्वर्ग नसीब हो जाएगा”

खालुबर की चढ़ाई में 6 घंटे के सफ़र के बाद ये लोग स्टॉप नाम के पाइंट तक पहुंचे. इसके आगे चलते हुए खालुबर के बेस तक पहुंचना था. आगे चढ़ाई और कठिन थी. इसलिए इन लोगों ने अपने हथियारों के अलावा बाक़ी एक्स्ट्रा सामान वहीं छोड़ दिया. आगे के सफ़र में ज़ोरों की बर्फ़ पढ़ने लगी. इसका एक फ़ायदा हुआ कि रात में दुश्मन द्वारा देखे जाने का ख़तरा कम हो गया. लेकिन साथ ही रेडियो सेट ने काम करना बंद कर दिया. कर्नल तोमर याद करते हुए बताते हैं,

“जनक बाहदुर हमारा कम्पनी हवलदार मेजर था. उसे चोट लगी थी. इसलिए मैंने उसे बेस कैम्प में रुकने को कहा. लेकिन वो हमारे साथ आया. जब रेडियो सेट ख़राब हुआ, जनक बाहदुर दौड़कर एक से दूसरी प्लैटून तक जाता था, और निर्देश पहुंचाता था.”

Manoj Kumar Pandey
लेफ़्टिनेंट मनोज पांडे का जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर के रुधा गांव में हुआ था (तस्वीर- Honourpoint.in/Wikimedia commons)

कर्नल यादव कुछ और क़िस्से भी बताते हैं, मसलन चढ़ाई के दौरान उनका एक जवान घायल हो गया था. उसके पास फ़र्स्ट एड नहीं था. ये देखकर 10-12 फ़ीट दूर खड़े एक साथी ने उसे अपना किट दे दिया. ये देखकर कर्नल तोमर ने बाद में उससे पूछा,

“क्या होता अगर तुम ख़ुद ज़ख़्मी हो जाते”

उस जवान ने जवाब दिया-

“तब किसी और ने मुझे अपना फ़र्स्ट एड दे दिया होता”

यूं ही एक दूसरे का साथ देते-देते, गोरखा राइफ़ल्स के जवान 14 घंटे तक चढ़ाई करते रहे. पूरी चढ़ाई के दौरान ऊपर से भारी गोलाबारी हो रही थी. तापमान शून्य से 29 डिग्री नीचे था. चढ़ाई की शुरुआत में तीनों कम्पनियों को मिलाकर कुल 100 लोग थे. लेकिन आख़िरी के 500 मीटर पहुंचते-पहुंचते सिर्फ़ 70 बचे. कई गोली से घायल हुए तो कई वीरगति को प्राप्त हो चुके थे. इस मिशन को कमांड कर रहे कर्नल ललित राय बताते हैं,

"साथियों के लहुलूहान शरीरों के सपने आज भी कई बार रातों को जगा देते हैं".

भयानक हालात के बावजूद कर्नल राय और उनके साथी आगे बढ़ते रहे. खालुबर पीक पर एक मशीन गन तैनात थी. साथ ही उसकी बाई तरफ़ चार बंकर बने हुए थे. जिनसे लगातार गोली बारी हो रही थी. कर्नल राय ने लेफ़्टिनेंट मनोज के साथ एक टीम को बंकरों की तरफ़ भेजा और खुद सीधा चोटी का रुख़ किया. कैप्टन मनोज ने ग़ज़ब साहस दिखाते हुए चारों बंकरों को हथगोलों से नष्ट कर दिया. इस दौरान उनके पैर में गोली लगी लेकिन वो फिर भी आगे बढ़ते रहे. कुछ ही देर में 11 राइफ़ल्स के जवानों ने खालुबर पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इसी दौरान लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे वीरगति को प्राप्त हो गए. उनके बहुत से साथी घायल हुए. कर्नल राय लिखे हैं,

“चोटी पर क़ब्ज़ा करने तक हम में सिर्फ़ आठ लोग सही सलामत थे. पाक सैनिक भाग चुके थे. लेकिन चूंकि ये उनकी सप्लाई लाइन थी. इसलिए हमें पता था, वो एक बार फिर हमला करेंगे.”

पाकिस्तानियों की गाली और गोरखा का जवाब 

पाक फ़ौजियों ने ऐसा ही किया. लेकिन कर्नल राय और उनके आठ साथी उनका मुक़ाबला करते रहे. कर्नल राय बताते हैं,

“मेरी राइफ़ल में दो ही गोलियां बची थीं. मैंने सोचा एक से दुश्मन को मारुंगा और दूसरी मेने अपने लिए बचा के रख ली.”

पीक पर मौजूद सभी जवान तनाव में थे. ऐसे में एक दिलचस्प वाक़या हुआ. कर्नल राय बताते हैं. पाकिस्तानी पंजाबी भाषा में गाली देते हुए आ रहे थे. मैंने उन्हेंन जवाब देने की कोशिश की. लेकिन मेरी पंजाबी उतनी अच्छी नहीं थे. ऐसे में मेने अपने साथियों से कहा,

“दुश्मन तुम्हारे कमांडिंग अफ़सर को गाली दे रहा है. और तुम चुपचाप बैठे हो”

वहां मौजूद सभी लोग गोरखा फ़ौजी थे. इनमें से एक भी गाली देने में माहिर नहीं था. इसलिए कुछ सेकेंड तक वे सब एक दूसरे की तरफ देखते रहे. फिर उनमें से एक बोला, "साब ने हुकुम किया है तो गाली तो देना ही पड़ेगा". सबने आपस में तय कर ज्ञान बहादुर नाम के एक जवान को इसकी ज़िम्मेदारी दी. ज्ञान बहादुर खड़ा हुआ और एकदम सख़्त लहजे में चिल्लाकर बोला

‘ओ पाकिस्तानी! तुम इधर आया तो तुम्हारा मुंडी उखाड़ देगा.’

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परम योद्धा स्थल, दिल्ली में स्थित लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे की प्रतिमा (तस्वीर- Wikimedia commons)

ये सुनकर कर्नल राय ने उससे कहा,

"पाकिस्तानी ये सुनकर हंसते हंसते मर जाएंगे कि ज्ञान बहादुर को गाली देना तक नहीं आता".

अचानक इस तनाव भरे माहौल में सबकी हंसी छूट गई. ज्ञान बहादुर आगे बोला, 

'अबा त खुकरी निकालेरा तेसलइ ठीक पारछू'.

यानी 'अब तो खुकरी निकाल कर ही उसको ठीक करुंगा."

कारगिल फ़तेह 

खालुबर पीक पर जब ये वाक़या हो रहा था. पाक फ़ौज के 40 जवानों की टुकड़ी एक और हमले की आस में इस ओर बढ़ रही थी. कोई चारा न देख कर्नल राय को उस वक्त एक आइडिया सूझा. उन्होंने अपने रेडियो से दूर पहाड़ी पर मौजूद एक फ़ौजी अफ़सर से कहा, मुझे रेफ़्रेन्स लेकर पीक की तरफ़ गोला बारी करो. कुछ ही मिनटों में बोफ़ोर्स से पीक की तरफ गोला बारी होने लगी. कर्नल राय और उनके साथी चट्टान की दरारों में छुप गए. और बोफ़ोर्स तोपों ने पाकिस्तानी अटैक को एक बार फिर पीछे खदेड़ दिया. कुछ देर में भारतीय फ़ौज की कुछ और टुकड़ियां खालुबर तक पहुंची और पीक पर पूरी तरह भारत का क़ब्ज़ा हो गया. इस पूरी मुठभेड़ के दौरान पाकिस्तान का एक सिपाही युद्ध बंदी बना लिया गया था. कर्नल राय बताते हैं,

“उस फ़ौजी का नाम नाइक इनायत अली था. युद्ध बंदी बनने के बाद उसने सिर्फ़ इतना कहा कि वो किसी गोरखा को देखना चाहता है.”

कर्नल राय ने अपने एक जवान को उसके सामने पेश किया और उसने उसे अपनी खुकरी निकाल कर दिखाई. बाद में इनायत अली को दिल्ली भेज दिया गया. खालुबर पीक पर क़ब्ज़े के लिए किए गए ऑपरेशन के लिए 1/11 गोरखा बटालियन को unit citation और THE BRAVEST OF THE BRAVE’ का टाइटल मिला. (unit citation क्या होता है. ये नहीं देख पाया मैं. अगर आपको पता तो प्लीज़ बता दें). जैसा पहले बताया, अपने अदम्य साहस के लिए लेफ़्टिनेंट मनोज कुमार पांडे को परम वीर चक्र और कर्नल ललित राय को वीर चक्र से सम्मानित किया गया.

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