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आशुतोष महाराज: बिहार से आए इस इंसान की लाश पंजाब में 3.5 साल से क्यों रखी है?

कहानी महेश कुमार झा के आशुतोष महाराज बनने की.

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पंजाब के जालंधर से करीब 25 किलोमीटर दूर है नकोदर रोड़. इस कस्बे की एक बिल्डिंग के चारों ओर पुलिस तैनात है. इस बिल्डिंग को खतरा नहीं है. इसके अंदर डीप फ्रिज में करीब 3.5 साल से पड़ी एक लाश की सुरक्षा में ये फोर्स लगी हुई है. लाश किसी और की नहीं, आशुतोष महाराज की है. आशुतोष दिव्य ज्योति जागृति संस्थान, जिसके देश के साथ-साथ विदेशों में भी सेंटर हैं, के फाउंडर रहे हैं. लाखों अनुयायी हैं और वे मानते हैं कि इनके महाराज गहरे ध्यान की मुद्रा में हैं और वे कभी भी वापस लौट सकते हैं. डॉक्टर उन्हें 'क्लीनिकली डेड' यानी प्राकृतिक रूप से मृत घोषित कर चुके हैं. मगर 1500 करोड़ की प्रॉपर्टी के मालिक आशुतोष के इस स्माधि लेने की बात के पीछे कई आशंकाएं जताई जा चुकी है. बिहार के मधुबनी से पंजाब के नकोदर तक का आशुतोष का सफर काफी इंटरेस्टिंग है.

बिहार से पंजाब तक

महेश कुमार झा नाम का एक आदमी बिहार के मधुबनी में लखनौर गांव से पंजाब के नकोदर में हरीपुर गांव में आया. अपनी पत्नी से मामूली झगड़े के बाद घर छोड़ कर आ गया था. उस समय एक साल का बेटा भी था. इंग्लिश ग्रेजुएट महेश पंजाब में आशुतोष बन चुका था. 1973 का साल बताया जाता है जब आशुतोष दिल्ली आ गए और यहां कुछ साल नौकरी भी की. फिर 1983 में पंजाब दिव्य ज्योति जागृति संस्थान की शुरुआत कर दी. तब उनके पास एक मोपेड थी. उसी पर चलते थे और लोगों से मिलते थे. आशुतोष को लोगों ने 'लैंटा वाला बाबा' नाम से जाना. कारण ये कि वो लोगों को लैंप की लाइट में से अपनी आंखों में देखने के लिए कहते थे. इसे आशुतोष ने ब्रह्मज्ञान कहा यानी खुद को जानने का तरीका. इससे लोग काफी प्रभावित हुए और आशुतोष पॉपुलर होने लगे. 1991 आते-आते इस संस्थान ने दिल्ली में अपना हेडऑफिस खोल लिया और खुद को रजिस्टर भी करवा लिया.

पंजाब के 'डेरा कल्चर' में जगह बनाई

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दिव्य ज्योति जागृति संस्थान की शुरुआत 1983 में करने के बाद शकुंतला देवी नाम की एक महिला से नूरमहल के छिनवियां मोहल्ले में 16 मरले जमीन खरीदी. आशुतोष महाराज ने उस दौर में प्रवचन देने शुरू किए जब पंजाब में आतंकवाद अपने चरम पर था. लोग परेशान थे. शायद वही वजह रही कि उस दौर में लाखों लोग आशुतोष के आश्रम में आकर ध्यान और योग क्रियाओं के साथ-साथ इनके प्रवचन सुनने लगे. धीरे-धीरे अशुतोष ने पंजाब के 'डेरा कल्चर' में अपने लिए एक जगह बना ली.
पंजाब में 'डेरा कल्चर' को बढ़ावा इस बात से भी मिला कि पंजाब में दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों की बड़ी तादाद है. इन्हें सिख होने के बावजूद जातिगत भेदभाव झेलना पड़ा. इन लोगों में से कुछ ने आशुतोष महाराज के आश्रम में सुकून ढूंढा. इसी से इनकी फॉलोइंग बढ़ती गई.
आशुतोष ने सिखों वाली पगड़ी बांधकर वेदों पर प्रवचन दिए तो कट्टर सिख भड़क गए और संस्थान का विरोध होने लगा. इस तरह का पहला टकराव 1998 में पंजाब के खंडूर साहिब के पास हुआ जहां आशुतोष महाराज को प्रवचन देने से रोका गया. सिखों की शिरोमणी गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) ने कई मौकों पर सिखों से आशुतोष का बहिष्कार करने की अपील की. साल 2002 में आशुतोष के डेरे के कुछ लोगों ने एक सिख श्रद्धालु पर गोलियां चला दीं थी, जिससे लुधियाना के पास के इलाकों में माहौल तनावपूर्ण हो गया था. साल 2008 में भी मलोट के पास सिखों और डेरे के लोगों में हाथापाई हुई जिसमें 15 लोग घायल हुए. इसके बाद लुधियाना और फिल्लौर में दंगों जैसे हालात बन गए औऱ लोग डेरे के खिलाफ सड़कों पर भी आ गए. इसके चलते 2008 में आशुतोष महाराज को Z+ सिक्युरिटी दी गई.

फिर राजनीति से नज़दीकी होने लगी

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अब जब लोगों में आशुतोष की पहुंच बढ़ने लगी तो राजनीति से जुड़े लोग इसका फायदा उठाने से पीछे कैसे रहते. आशुतोष के यहां बड़े-बड़े नेता हाथ जोड़ते देखे जाने लगे. इनमें पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री इंद्रकुमार गुजराल, केंद्रीय मंत्री रहे जॉर्ज फर्नांडिस और कई बड़े अकाली नेता भी शामिल थे. पंजाब के मुख्यमंत्री रहे अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल की पत्नी सुरिंदर कौर भी आशुतोष के डेरे में जाकर विवादों में आ गई थीं. कहा ये भी जाता है कि बादल की पत्नी डेरे में जाती थीं और इसकी वजह से कई बाद विवाद उठ चुका था.

आशुतोष के डेरे और बादल सरकार में नज़दीकी

बादल सरकार ने दो किलोमीटर की सड़क और एक पावर सब-स्टेशन भी खासतौर पर इस संस्थान के लिए बनवाया था. खुद बादल के अपने जिले मुक्तसर में इस डेरे के काफी अनुयायी हैं. साल 2013 में अकाली-भाजपा सरकार ने नूरमहल में एक गांव का नाम ही इस संस्थान के नाम पर रख दिया. 525 लोगों के इस गांव में 264 वोटर हैं जो संस्थान से जुड़े साधू, साध्वियां और सेवादार हैं. यही नहीं, महाराज की मौत के 17 महीने बाद मई 2015 में तब के सीएम प्रकाश सिंह बादल ने इस संस्थान को और ज़मीन दी (दो हिस्सों में 20 कनाल). सड़कें भी चौड़ी की गईं. बाद में जब मामला कोर्ट में पहुंचा तो इस पर रोक लग दी गई.
डेरे का ज़िक्र सिर्फ पंजाब तक ही सीमित नहीं रहा है. प्रधानमंत्री मोदी भी अपने रेडियो प्रोग्राम 'मन की बात' में संस्थान से जुड़े जालंधर के लखविंदर सिंह की ऑर्गेनिक खेती करने के लिए तारीफ की थी.

आशुतोष ने खूब जोड़ा, लेकिन वारिस किसी को नहीं बनाया

नूरमहल इलाके में लंबा चौड़ा आश्रम है
नूरमहल इलाके में लंबा चौड़ा आश्रम है

1980 के आसपास शुरू हुए इस आश्रम ने 2014 आते-आते इतना विस्तार कर लिया कि संस्थान की कुल संपत्ति 1500 करोड़ तक पहुंच गई. दिल्ली के पीतमपुरा में हैड-ऑफिस के अलावा चंडीगढ़, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश और राजस्थान में सेंटर हैं. भारत से बाहर कैनेडा, दुबई, लेबनान, इटली, स्वित्ज़रलैंड, नेपाल, यूके और यूएसए में भी कई ब्रांच हैं.
इतनी प्रॉपर्टी होने के बावजूद आशुतोष ने सीधे तौर पर किसी को अपना वारिस घोषित नहीं किया. इसलिए उनके जाने के बाद प्रॉपर्टी को लेकर कलह होना लाजमी था.

आशुतोष की मौत और प्रॉपर्टी का झगड़ा

जानकार मानते हैं कि आशुतोष महाराज की मौत हार्ट अटैक के चलते हुई थी क्योंकि मरने से पहले उन्होंने सीने में तेज दर्द की शिकायत की थी. संस्थान में वारिस बनने के इतने दावेदार थे कि बंद कमरों में हुई मीटिंग में ये तय कर लिया गया कि आशुतोष महाराज मरे नहीं है बल्कि समाधि में हैं. जिसे संस्थान ने निर्विकल्प स्माधि यानी डीप मेडिटेशन की स्थिति कहा.
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मरने के 15 दिन के भीतर ही पंजाब एंड हरियाणा हाइकोर्ट ने पंजाब सरकार को कह दिया था कि उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाए. मगर पंजाब सरकार ने इसे नहीं माना. अब साढ़े तीन साल से एक डेड बॉडी के लिए सिक्युरिटी का क्या मतलब, इस पर आशुतोष महाराज के करीबी रहे स्वामी अरविंदानंद ने एक इंटरव्यू में बताया था कि आशुतोष महाराज ने स्माधि लेने के पीछे दुनिया में बढ़ रहा आतंकवाद और ग्लोबल वॉर्मिंग कारण बताया था. मगर ये पूछने पर कि क्या खुद महाराज ने उन्हें फ्रीजर में रखने को कहा था, संस्थान इस बात से मना कर चुका है. उनका मानना है कि ऐसा महाराज ने नहीं कहा था मगर दुनिया भर में इस तरह से स्माधि लिए लोगों के शरीर संरक्षित किए जाते हैं. डीप फ्रीज़र में बॉडी रखने की बात पर संस्थान के लोग कहते रहे हैं कि वो इस उम्मीद में हैं कि आगे चलकर मेडिकल साइंस आशुतोष को वापिस रिवाइव कर लेगी.

तो इतनी प्रॉपर्टी जाएगी किसके पास?

स्वामी अरविंदानंद, आदित्यानंद, नरेंद्रानंद और स्वामी विशालानंद नाम के ये चार दावेदार हैं जो संस्थान से जुड़े हुए हैं. संस्थान की प्रॉपर्टी को लेकर इन्हीं में अंदरूनी कलह बताई जाती है. पांचवां नाम पूरन सिंह नाम का इंसान है जिसने खुद को आशुतोष महाराज का ड्राइवर बताया था. उसका कहना था कि वो 1988 से लेकर 1992 तक आशुतोष का अनुयायी और ड्राइवर रहा था.
पूरन सिंह का कहना था कि जब उसे पता चला कि महाराज ने 'समाधि' ले ली है, उसे समझ आ गया कि इस सब के पीछे कोई षड़यंत्र है. इस आरोप पर संस्थान ने पूरन सिंह को फर्जी करार दिया और इस पर पूरन ने कोर्ट से अपनी जान को खतरे के चलते पुलिस सिक्युरिटी ले ली. पंजाब पुलिस के दो कॉन्सटेबल अब पूरन सिंह की सिक्युरिलेटी में दिन-रात तैनात रहते हैं.
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खुद को बेटा बताने वाला दिलीप और ड्राइवर पूरन सिंह
फिर आशुतोष के मरने के करीब 2 साल बाद कहानी में एक और नौजवान की एंट्री हुई - दिलीप झा. बिहार से आया ये नौजवान खुद को आशुतोष का बेटा बताता है. वो लगातार कोर्ट से आशुतोष महाराज की डेड बॉडी लेने की मांग कर रहा है. अपने दावे को साबित करने के लिए वो डीएनए टेस्ट करवाना चाहता है. दिलीप का कहना है कि वो ये सब इसलिए कर रहा है कि हिंदू रीति रिवाज से अपने पिता का अंतिम संस्कार कर सके. वो आशुतोष की मौत की जांच भी करवाना चाहता है. हालांकि कहा ये भी जा जाता है कि वो भी प्रॉपर्टी में हिस्सा लेने की चाहत रखता है.
छह दावेदारों में से दो - पूरण सिंह और दिलीप झा आशुतोष की मौत को संदिग्ध मानते हैं और इसकी जांच चाहते हैं. लेकिन कोर्ट ने दोनों की मांग को खारिज कर दिया.

नैचुरल डेथ मरे थे आशुतोष?

जानकार मानते हैं कि सारा ड्रामा 1500 करोड़ की संपति के चलते हुआ है. आशुतोष की मौत नेचुरल डेथ थी और जब अचानक उनकी मौत हुई तो संस्थान के पास कोई और रास्ता नहीं था तीन धड़ों में बंटे संस्थान में कब्जे की लड़ाई रोकने का. पहला धड़ा अरविंदानंद का था जो महाराज का करीबी बताया जाता था. दूसरा धड़ा नरेंद्रानंद का था जो आशुतोष के बाद संस्थान के मुखिया बनना चाह रहे थे. तीसरा धड़ा अभी के प्रेसिडेंट आदित्यनाथ का था. संस्थान में कुछ अनुयायी आशुतोष महाराज के चेले सुविधानंद उर्फ सोनी के पक्ष में भी थे जो सालों से डेरे में रहे हैं.

इससे पहले भी होते रहे हैं ऐसे वाकये

आशुतोष महाराज की ही तरह 1993 में पश्चिम बंगाल की हुगली नदी के तट पर बने एक आश्रम में बालक ब्रह्मचारी का शव करीब 53 दिन तक रखा गया था. अनुयायियों का मानना था कि बालक ब्रह्मचारी की मौत नहीं बल्कि वो ध्यान में लीन हैं. पुलिस से जबरदस्ती घुस कर अंतिम संस्कार करवाया था.
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