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आखिर ये बिश्नोई एक हिरण को लेकर इतने भावुक क्यों हैं?

एक बार पेड़ बचाने के चक्कर में 363 बिश्नोई कटकर मर गए थे

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बिश्नोई समाज के लिए हिरण पवित्र जानवर है

1724 के जून की 24वीं तारीख को अभय सिंह राठौड़ अपने पिता अजीत सिंह की लाश पर चढ़कर जोधपुर की राजगद्दी तक पहुंचे थे. इस काम में उनका साथ दिया था उनके भाई बख्त सिंह ने. अजीत सिंह ने गद्दी हथियाने के लिए अपने ही पिता की हत्या की थी. सत्ता हथियाने के इस तरीके से कई राठौड़ सरदार बेहद खफा हो गए. नतीजा यह हुआ कि मारवाड़ गृहयुद्ध में फंस गया. चार साल के करीब चले गृह युद्ध में अभय सिंह अपने विरोधी राठौड़ सरदारों को या तो घुटनों पर ला दिया या फिर मौत के घाट उतार दिया.

अभय सिंह ने सत्ता की बागडोर संभालने के बाद अपने वफादार सिपहसालारों को जागीरें बंटाना शुरू किया. खरडा ठिकाने ने भीतरी कलह के मुशकिल दौर में अभय सिंह की काफी मदद की थी. 1726 के साल में खरडा ठिकाने के सूरत सिंह को जोधपुर से 16 मील दूर खेजड़ली गांव का ठाकुर नियुक्त किया गया.


जोधपुर के महाराजा अभय सिंह
जोधपुर के महाराजा अभय सिंह

1730 आते-आते अभय सिंह मारवाड़ पर पूरी तरह से नियंत्रण पा चुके थे. उनका राज नागौर से लेकर पाली तक फैला हुआ था. जोधपुर इस राज की राजधानी हुआ करती थी. युद्ध से फारिग होने के बाद अभय सिंह ने जोधपुर के मेहरानगढ़ किले में कुछ नया निर्माण कार्य कराने की सोची.

अभी चूने और जिप्सम को मिलाकर बनने वाले स्लेटी रंग के पाउडर 'सीमेंट' को खोजे जाने वक़्त था. उस दौर में पक्का घर बनाने में चूने का इस्तेमाल किया जाता था. चूने को भवन निर्माण के लायक बनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी. उसमें गुड़ मिलाया जाता था ताकि उसकी पकड़ अच्छी बने. मेथी मिलाई जाती थी ताकि गुड़ की वजह से लगने वाले कीड़े ना लगें. बजरी तो खैर मिलाई ही जाती ही थी. चूने की पकड़ को मजबूती देने के लिए उसे कई दिनों तक आग में पकाया जाता था.

अभय सिंह नया महल बनाने का आदेश देकर गुजरात के सैनिक अभियान पर निकल गए. उनके जाने के बाद राज चलाने और महल बनाने की जिम्मेदारी थी उनके दीवान गिरधारी भंडारी की. गिरधारी जानते थे कि चूना पकाने के लिए बड़ी तादाद में लकड़ियों की जरुरत होगी. उन्होंने अपने अधीनस्थ अधिकारीयों से जानकारी मिली कि खेजड़ली गांव में काफी सारे खेजड़ी के पेड़ हैं. वहां से जलावन लकड़ी काटी जा सकती है.


खेजड़ली की अमर शहीद अमृता देवी
खेजड़ली की अमर शहीद अमृता देवी

यह 1730 के मानसून का वक़्त था. भारतीय कैलेंडर भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की दशमी थी. दिन था मंगलवार. खेजड़ली गांव के रामोजी खोड़ के घर के बाहर कुल्हाड़ी चल रही थी. उनकी बीवी अमृता ने जब बाहर आकर देखा तो बाहर जोधपुर के दीवान गिरधारी भंडारी मय सैनिक जाब्ते वहां मौजूद थे. अमृता उन्हें पेड़ काटने से मना किया. दीवान के साथ गांव के नए-नए बने ठाकुर सूरत सिंह भी मौके पर मौजूद थे. ऐसे में एक किसान औरत की बात पर कौन ध्यान देता.

अमृता को जब समझ में आय कि उनकी बात कोई नहीं सुन रहा तो उन्होंने वो तरकीब अपनाई जिसे 243 बाद हिमायल के पहाड़ों में एक बड़े आंदोलन का रूप लेना था. वो अपनी तीन बेटियों आसी, रतनी और भागू के साथ जाकर कट रहे पेड़ों से लिपट गईं. पेड़ काट रहे कुल्हाड़े एक मिनट के लिए ठिठक गए.

यह सामंती दौर था और एक नागरिक की नाफ़रमानी घातक अपराध की श्रेणी में आता था. गिरधारी भंडारी ने अमृता को डराया कि अगर वो नहीं हटी तो उन्हें पेड़ के साथ ही काट दिया जाएगा. अमृता टस से मस नहीं हुईं. गिरधारी ने सैनिकों को आदेश दिया कि अमृता और उनकी बेटी को पेड़ के साथ ही काट दें. शाम ढलने तक राजा के सैनिक कटे पेड़ के ठूंठ और चार लाशें पीछे छोड़कर जोधपुर लौट गए.


बिश्नोई समाज के संस्थापक जाम्भोजी महाराज
बिश्नोई समाज के संस्थापक जाम्भोजी महाराज

अमृता देवी की मौत के बाद 84 गांवों की पंचायत बुलाई गयी. इस पंचायत में यह तय किया गया कि राजा के लोग जब भी पेड़ काटने आएं तो प्रतिरोध में लोग पेड़ो से चिपक जाएं. कुल जमा 363 लोगों ने इस आंदोलन में मारे गए. इसमें से 111 महिलाऐं थीं.

आखिर ऐसा क्या था कि 363 लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए जान दे दी. दरअसल ये चारों अपने गुरु से किए गए 29 वायदों पर कायम थीं जिन्होंने उनके पुरखों को 245 साल पहले जीवन जीने का नया तरिका सीखाया था. गुरु का नाम था जम्भेश्वर. उन्होंने अपने अनुयायियों को जीवन जीने के 29 सूत्र दिए थे. इन 29 नियमों को मनाने वाले लोगों को बाद में बिश्नोई कहा जाने लगा. बिश मतलब 20, और नोई मतलब 9.

नागौर जिले में उत्तर की तरफ एक गांव है पीपासर. 15वीं सदी में लोहट पंवार इस गांव के ठाकुर हुआ करते थे. 50 साल की उम्र तक उनके घर कोई संतान नहीं थी. 1451 में कृष्ण जन्माष्ठमी के दिन उनके यहां एक लड़के का जन्म हुआ. नाम रखा जाम्भा. लोकश्रुति है कि जन्म से आठ साल की उम्र तक जाम्भा कुछ नहीं बोले.


मुकाम में विश्नोई समुदाय का मंदिर
मुकाम में विश्नोई समुदाय का मंदिर

अपने माता-पिता की मौत के बाद जाम्भा पीपासर के पास ही समराथल चले गए. यहां एक बड़ा सा रेत का टीला है. जाम्भाजी ने यहीं अपना आश्रम बनाया. सन 1485 में जाम्भोजी की उम्र 34 साल हो चुकी थी. उन्होंने कार्तिक के महीने में आठ दिन लंबा यज्ञ किया. इसके बाद उन्होंने कुल 29 सिद्धांत दिए. इनमें से आठ सिद्धांत ऐसे थे जो सीधे तौर पर पर्यावरण संरक्षण से जुड़े हुए थे. इन 29 सिद्धांतों में से 18वां नियम था, 'प्राणी मात्र पर दया रखना' और 19वां नियम है, 'हरे वृक्ष नहीं काटना'. बिश्नोई समाज के लोगों के लिए खेजड़ी का पेड़ और हिरण पवित्र जीव हैं.

अमृता देवी और उनके 362 दूसरे साथियों ने खेजड़ी के पवित्र पेड़ो के लिए अपनी जान दी थी. जब इस घटना की जानकारी महाराजा अभय सिंह को मिली तो उन्होंने खेजड़ली गांव जाकर 84 गांवों के बिश्नोईयों से अपने दीवान की गलती के लिए माफ़ी मांगी. उन्होंने उस समय बिश्नोई समाज के लोगों को लिखित शपथ-पत्र दिया कि अब से जिस गांव में बिश्नोई रहते हैं वहां ना तो हरा पेड़ काटा जाएगा और ना ही किसी जानवार का शिकार होगा. लोकतंत्र आने के बाद राजा के बाने कानून खत्म हो गए लेकिन अभय सिंह का दिया हुआ वचन आज भी मारवाड़ के इलाकों में एक सामाजिक नियम की तरह बदस्तूर लागू है.

सलमान खान का एक काला हिरण मारना, उसका केस लड़ते रहना, फिर जेल जाना हम सबके लिए चारा हो सकता है. घंटों टीवी के सामने बैठकर अलग-अलग न्यूज चैनल देखते रहें. मगर किसी समुदाय के लिए ये उनकी पहचान और परंपरा पर हमला था.



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