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बंगाल का ये केस इतना फेमस हुआ कि बलात्कारी महंत के नाम से बाम बिकने लगे!

ये कहानी है है बंगाल के तारकेश्वर हत्याकांड की. ब्रिटिश राज में एक व्यक्ति ने एक महंत के साथ अफेयर के चलते अपनी पत्नी का सर धड़ से अलग कर दिया. इसके बाद हत्यारे को समाज का ऐसा समर्थन मिला की लोग उसकी रिहाई की मांग के लिए सड़कों पर उतर आये.

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तारकेश्वर हत्याकांड - पत्नी का हत्यारा बन गया जनता का हीरो (तस्वीर- wikimedia commons)

19 वीं सदी की बात है. हुगली के किनारे एक बिल्डिंग के बाहर भारी भीड़ लगी थी. लोग अंदर जाने के लिए कतार में लगे थे. गेट पर दरबान उनके टिकट चेक कर रहा था. बंगाल भद्रलोकों का देश था. नाटक, नृत्य, संगीत, कला की काफ़ी पूछ थी. लोग शेक्सपियर के नाटकों का मंचन देखने जाते थे. लेकिन उस रोज़ न तो ओथेलो चल रहा था न ही हेमलेट. जिस बिल्डिंग के आगे भीड़ लगी थी वो हुगली का सेशंस कोर्ट था. अंदर चल रही थी अदालती कार्रवाई. जिसे लेकर लोगों में इतना कौतुहल था, कि कोर्ट के बाहर रोज़ भारी भीड़ जमा हो रही थी. बार-बार कोर्ट के काम में दखल पड़ रहा था. अंत में सरकार को भीड़ रोकने के लिए टिकट लगाना पड़ा. इसके बाद भी भीड़ नहीं रुकी तो एक नियम बना दिया गया. जो अंग्रेज़ी बोलना पढ़ना जानता हो. सिर्फ वही कोर्ट के अंदर जा सकता है. अब सवाल उठाना लाजमी है कि इस केस में ऐसा क्या था कि लोग टिकट लेने को तैयार थे?

तो जवाब है कि ये केस(Tarakeswar scandal) था एक लड़की की हत्या का. इल्जाम था पति पर. लेकिन कोर्ट में दो मुजरिम थे. लड़की का पति और तारकेश्वर मंदिर का महंत, जिस पर ये इल्जाम था कि उसने उस बेचारे आदमी की पत्नी को अपने जाल में फंसाया और उसके साथ यौन सम्बन्ध बनाए. ये केस तब इतना फेमस हुआ था कि जिस लड़की का खून हुआ उसके नाम की साड़ियां, पान के डिब्बे अगले दो दशक तक बंगाल में बिकते रहे. एक कम्पनी ने तो अपने सरदर्द के बाम का ये कहते हुए प्रचार करना शुरू कर दिया कि ये बाम उस तेल से बना है, जिसे महंत ने जेल में निकाला था. 
तारकेश्वर स्कैंडल के नाम से मशहूर इस केस को बंगाल के इतिहास का सबसे विवादित केस माना जाता है. क्योंकि इस केस में पति ने खुद हत्या की बात कबूली थी. फिर भी उसे रिहा कर दिया गया. ऐसा क्यों हुआ? क्या था तारकेश्वर केस? चलिए जानते हैं.

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अडल्ट्री क़ानून का इतिहास (Adultery Law)

बात 19 वीं सदी के बंगाल की है. यहां हुगली जिले में एक शिव का मंदिर बना है. तारकेश्वर नाम का ये मंदिर(Tarakeswar Temple), स्थानीय लोगों के अनुसार 1729 में बनाया गया था. पहले ये इलाका बंगाल के नवाब के कंट्रोल में था. प्लासी की जंग के कुछ साल बाद, 11 अक्टूबर 1760 को बंगाल के नवाब मीर कासिम और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक संधि हुई. जिसके चलते हुगली का कंट्रोल अंग्रेज़ों के हाथ में आ गया. 1860 में यहां इंडियन पीनल कोड (Indian Penal Code)लागू हुआ, जिसके चलते तारकेश्वर कांड एक बड़े हंगामे का कारण बना. ये स्कैंडल इतना फेमस क्यों हुआ, उसके लिए पहले थोड़ा तब की परिस्थिति को समझने की कोशिश करते हैं. 

Tarkeshvar Temple West Bengal
पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में स्थित तारकेश्वर मंदिर का एक दृश्य (तस्वीर-wbtourism)

साल 1857 में क्रांति हुई. इस क्रांति का एक बड़ा पहलू भारतीय समाज की धार्मिक परंपरा से छेड़छाड़ करना था. क्रांति की शुरुआत भी एक धार्मिक कारण के चलते हुई थी. एक अफवाह उड़ी थी कि नए कारतूसों को बनाने में गाय की चर्बी का इस्तेमाल किया गया है. इस कारतूस को बन्दूक में भरने से पहले मुंह से काटना पड़ता था. जिससे सैनिकों का धर्म भ्रष्ट होता था. इसी बात से नाराज होकर मंगल पांडे(Mangal Pandey) नाम के एक सैनिक ने एक अंग्रेज़ अफसर पर गोली चला दी थी. 1857 की क्रांति(Indian Rebellion of 1857) पर काबू पाने के बाद अंग्रेज़ समझ गए थे कि भारतीय समाज सब सह सकता है, लेकिन अपने धार्मिक विश्वासों पर हमला नहीं सह सकता. इसलिए 1960 में जब IPC लागू हुआ तो धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं को उससे दूर रखा गया. इसके बावजूद एक क़ानून था जो IPC में शामिल किया गया. सेक्शन 497 यानी अडल्ट्री या व्यभिचार की धारा. इस क़ानून के तहत किसी विवाहिता स्त्री के साथ संबंध बनाने पर सजा का प्रावधान था. लेकिन क़ानून की परिभाषा में पीड़ित स्त्री नहीं थी, बल्कि उसका पति था.

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इस क़ानून को IPC में शामिल करने का बड़ा कारण था कि तब सबसे ज्यादा मर्डर व्यभिचार(Infidelity) के मामलों में ही होते थे. 1870 से 1875 के बीच क्राइम रिकॉर्ड जांचने पर पता चलता है कि इस दौरान लगभग 20 से 4 % मर्डर के केस व्यभिचार से जुड़े थे. इसलिए IPC के नीति निर्माताओं ने सोचा कि एक क़ानून बनाकर अडल्ट्री(Adultery) के केस में सजा का प्रावधान बना दिया जाए. हालांकि थॉमस मैकाले इसके विरोध में थे. 1857 के बाद खुद ब्रिटेन में अडल्ट्री को क्रिमिनल से बदलकर सिविल मामला बना दिया गया था. वहां सजा का प्रावधान नहीं था. लेकिन भारत में सजा का प्रावधान रखा गया.
इसका एक कारण और भी था. वो ये कि ब्रिटेन में अडल्ट्री के आधार पर तलाक लिया जा सकता था. लेकिन हिन्दू समाज में तलाक का कोई सिस्टम नहीं था. इसीलिए अडल्ट्री लॉ में अगर कोई विवाहित व्यक्ति किसी अविहाहित स्त्री से संबंध बनाए तो कोई सजा नहीं थी. क्योंकि इस क़ानून के हिसाब से एक स्त्री अपने आप में कुछ नहीं थी. उसका अस्तित्व शादी के बाद ही आकार लेता था. शादी के बाद स्त्री पुरुष की प्रॉपर्टी हो जाती थी. अतः व्यभिचार का मतलब था, आप दूसरे की प्रॉपर्टी में दखल दे रहे हो. यही बात समाज पर भी लागू होती थी.
1860 में ये क़ानून लागू तो हुआ लेकिन इसका असर दिखने में एक लम्बा वक्त लगा. 1873 में हुए तारकेश्वर स्कैंडल ने इस क़ानून को लेकर एक नई बहस को जन्म दिया.

क्या था तारकेश्वर स्कैंडल?

इस केस की कहानी कुछ यूं है कि एलोकेशी नाम की एक छोटी सी लड़की थी. तब कम उम्र में शादी का रिवाज था. और एलोकेशी के पिता भी उसकी शादी समय से कर देना चाहते थे. तभी उन्हें एक रिश्ते का ऑफर आया. लड़का कुलीन ब्राह्मण परिवार से था और ऊपर से मिलिट्री प्रेस में नौकरी किया करता था. एलोकेशी के पिता ये मौका चूकना नहीं चाहते थे. एलोकेशी की शादी नोबीन चंद्र से करा दी गई. शादी के तुरंत बाद नोबीन को नौकरी से बुलावा आ गया. कलकत्ता जैसे बड़े शहर में गांव की लड़की अकेली कैसे रहेगी, ये सोचकर नोबीन ने एलोकेशी को उसके पिता के पास गांव भेज दिया. एलोकेशी का गांव कलकत्ता से 70 किलोमीटर दूर कुरुमुल में था. वक्त निकालकर नोबीन एलोकेशी से मिलने आ जाया करता था. जिंदगी बढ़िया चल रही थी. बस एक कमी थी. औलाद की. कई कोशिशों के बाद भी जब औलाद नहीं हुई तो किसी ने एलोकेशी के पिता से कहा कि वो तारकेश्वर मंदिर के एक महंत को दिखाएं. एलोकेशी को महंत माधवचंद्र गिरी के पास ले जाया गया. महंत ने आश्वाशन दिया कि जल्द ही एलोकेशी को एक औलाद होगी और वो अकसर उसे अपने पास बुलाने लगा.

Nobin Murders Elokeshi
नोबीन ने अपनी पत्नी एलोकेशी का सर धड़ से अलग कर दिया (तस्वीर-wikimedia commons)


कुछ दिनों बाद जब नोबीन एलोकेशी से मिलने आया. तो उसे कुछ लोगों ने ताने मारने शुरू किये कि एलोकेशी महंत से मिलने जाती है. इस बात पर एलोकेशी और नोबीन में बहस होने लगी. फिर 27 मई 1873 को खबर आई कि नोबीन ने एक बोटी, यानी मछली काटने वाले चाकू से एलोकेशी का सर धड़ से अलग कर दिया है. क़त्ल करने के बाद नोबीन खुद पुलिस के पास गया और गुनाह का इकरार कर फांसी की सजा मांगने लगा.  नोबीन को हुगली सेशंस कोर्ट में पेश किया गया. मामला साफ़ था. नोबीन ने खुद अपना गुनाह कबूला था. उस पर धारा 302 के तहत मुक़दमा चलना था. लेकिन इस मामले में एक और केस बनता था. धारा 497 यानी अडल्ट्री का. महंत के ऊपर.

चूंकि इस केस में एक महंत का नाम आ रहा था, इसलिए ये केस शुरुआत से ही एक हाई प्रोफ़ाइल केस बन गया. नोबीन का केस लड़ने के लिए सामने आए वोमेश चंद्र बैनर्जी(Woomesh Chandra Bonnerjee), जो आगे जाकर कांग्रेस के संस्थापक सदस्य और पहले अध्यक्ष बने. एक वकील के तौर पर तब पूरे बंगाल में उनका बड़ा नाम था. नोबीन की कहानी सुनकर वो बिना फीस केस लड़ने के लिए तैयार हो गए. 

उन्होंने अदालत में दलील दी कि नोबीन को जब एलोकेशी और महंत के बीच अवैध संबंधों का पता चला तो वो अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाया और आवेश में आकर उसने एलोकेशी की हत्या कर दी. उन्होंने अदालत में ये भी कहा कि एलोकेशी ने मरने से पहले महंत से अपने संबंध क़बूले थे. नोबीन उसे उसके पिता के घर से दूर ले जाना चाहता था. लेकिन उससे पहले ही एलोकेशी के पिता ने महंत को ये बात बता दी. और महंत के गुंडों ने उन्हें गांव छोड़ने नहीं दिया. नोबीन को अहसास हुआ कि वो एलोकेशी को अपने साथ नहीं ले जा सकता. तब उसने सोचा कि वो एलोकेशी को किसी और की नहीं होने देगा और उसका गला काटकर हत्या कर दी.

नोबीन अपराधी नहीं पीड़ित है!

इधर कोर्ट में ये सुनवाई चल रही थी उधर लोगों में नोबीन के प्रति दिन पर दिन हमदर्दी बढ़ रही थी. हर दिन हजारों की संख्या में लोग कोर्ट के बाहर जमा हो रहे थे. तब ज्यूरी कोर्ट हुआ करता था. यानी कुछ लोगों का एक पैनल मामले में फैसला करता था. आगे चलकर भारत में ये सिस्टम ख़त्म हो गया लेकिन अमेरिका आदि कई देशों में ज्यूरी सिस्टम चलता है. 
बहरहाल इस मामले में चूंकि ज्यूरी के सदस्य भारतीय थे, उन्होंने नोबीन को बेगुनाह करार दे दिया. ज्यूरी की नजर में नोबीन ने वो ही किया था जो ऐसी स्थिति में कोई भी आदमी करता. ध्यान दीजिए कि ये उस दौर की बात है जब औरत की जान से ज्यादा उसकी तथाकथित इज्जत ज्यादा बड़ी बात होती थी. ज्यूरी ने तो नोबीन को रिहाई दे दी लेकिन अदालत में मामले की सुनवाई कर रहे जज ने ज्यूरी के फैसले को अस्वीकार करते हुए मामला हाई कोर्ट में भेज दिया. इस फैसले से जनता काफ़ी नाराज़ थी. क्योंकि उनके अनुसार असली पीड़ित नोबीन था. जिसकी पत्नी पर किसी दूसरे आदमी ने हाथ डाला था.

Nobin's defender Woomesh Chandra Bonnerjee
नोबीन का केस लड़ने वाले वोमेश चंद्र बैनर्जी, जो आगे जाकर कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने (तस्वीर-barandbench.com)

दूसरी तरफ इस मामले में एक और केस सेशंस कोर्ट में चल रहा था. अडल्ट्री का, जिसमें नोबीन पीड़ित और अपराधी महंत था. लेकिन केस शुरू होता इससे पहले ही महंत भागकर चंदरनगर पहुंच गया. जो तब फ्रेंच कब्ज़े में था और वहां के क़ानून में अडल्ट्री अपराध नहीं था. मामले की सवेदनशीलता देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने इलाके के एक ज़मींदार की मदद से महंत को पकड़ा और वापिस हुगली लेकर आए. कोर्ट की कार्रवाई के बाद महंत को अडल्ट्री का दोषी पाया गया और उसे 3 साल कैद-ए-बामशक्कत और 2000 रूपये जुर्माने की सजा मिली. वहीं हाई कोर्ट ने नोबीन को दोषी मानते हुए उसे आजीवन कारवास की सजा सुनाई और अंडमान भेज दिया.

अंग्रेजों को कानून वापस लेना पड़ा!

मामला यहीं ख़त्म हो जाता लेकिन तब तक इस केस की चर्चा पूरे बंगाल में फ़ैल चुकी थी. अखबारों में हर दिन का ब्यौरा छप रहा था. लोग महंत को सिर्फ 3 साल की सजा मिलने से जितने नाराज थे, उससे ज्यादा गुस्सा इस बात का था कि नोबीन को सजा क्यों दी गई. जैसे कि पहले बताया अडल्ट्री का क़ानून अंग्रेज़ों का बनाया था, इसलिए उसका महत्व कम था. नोबीन के साथ धोखा हुआ था, इसलिए उसने क़त्ल भी कर दिया तो लोगों को ये बात जायज़ लग रही थी. जल्द ही पूरे बंगाल में हस्ताक्षर अभियान शुरू हुआ. लगभग 10 हजार लोगों ने हस्ताक्षर कर नोबीन की रिहाई की मांग की.

Nobin's courtroom trial
नोबीन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई लेकिन 3 साल जेल में रहने के बाद उसे रिहा कर दिया गया (तस्वीर-wikimedia commons)


सरकार पशोपेश में थी. अपने ही बनाए क़ानून के खिलाफ सरकार एक्शन कैसे ले. लेकिन अंत में हालात इस कदर बिगड़ने लगे कि अंग्रेज़ों को लगा ये मामला एक और क्रांति का सबब बन सकता है. 3 साल जेल में काटने के बाद नोबीन को रिहा कर दिया गया. वहीं माधवचंद्र गिरी 3 साल सजा काटने के बाद बाहर आए और दुबारा तारकेश्वर मंदिर के महंत बना दिए गए. चूंकि तारकेश्वर केस में ब्रिटिश सरकार को अपने बनाए क़ानून के फैसले से पीछे हटना पड़ा था. इसलिए इस केस ने सरकार को सोचने पर मजबूर कर दिया. ये वो दौर था जब बंगाल में ब्रह्म समाज जैसी संस्थाओं के जरिए हिन्दू सुधारों की शुरुआत हो रही थी. इसके बावजूद आने वाले कई सालों तक सरकार धार्मिक मसलों में दखल देने से बचती रही.

जहां तक अडल्ट्री लॉ की बात है. साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने इस क़ानून को संविधान के आर्टिकल 14 यानी विधि के समक्ष समानता के अधिकार के खिलाफ मानते हुए निरस्त कर दिया. अदालत ने माना कि अडल्ट्री के आधार पर तलाक की मांग की जा सकती है लेकिन ये अपराध की श्रेणी में नहीं आता और इस मामले में कानूनी सजा नहीं दी जा सकती. हालांकि इस फैसले से राहत पुरुषों को मिली, क्योंकि इसमें सजा भी उन्हीं को मिलती थी, लेकिन इस फैसले से जो एक जरूरी बात रेखांकित हुई, वो ये कि एक महिला अपने पति की संपत्ति नहीं है बल्कि अपने आप में एक पूर्ण व्यक्ति है.

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