जून 1988. जम्मू और कश्मीर. रात के अंधेरे में जंगल से होते हुए एक जीप जा रही है. गाड़ी कुपवाड़ा से निकली है और इसे श्रीनगर पहुंचना है. अंदर ड्राइवर सहित चार लोग बैठे हैं. कुछ बोरे भी रखे हुए हैं, जिनमें बकौल ड्राइवर मार्बल की टाइल्स रखी हैं. ये बात सवारी ने उसे बताई है. अचानक गाड़ी का टायर रोड में बने एक गड्ढे से गुजरता है. गाड़ी हिलती है और अंदर रखे बोरों में से एक का मुंह खुल जाता है. ड्राइवर की उस पर नज़र पड़ती है. लोहे की एक नली बोरे के अंदर से बाहर झांक रही थी. माथे पर टपकते पसीने को पोछ कर ड्राइवर तुरंत मुंह फेरता है, और गाड़ी की स्पीड तेज कर देता है. गाड़ी श्रीनगर पहुंच जाती है. कुछ दिनों बाद लोहे की वो नली, 18-20 साल के एक लड़के के कंधे पर लटक रही थी. (Mikhail Kalashnikov)
बंदूक़ जिसने सरकारें गिरा दी, नक़्शे बदल दिए
जानिए दुनिया की सबसे जानलेवा बंदूक़ AK-47 की कहानी.
गोलियों की आवाज़ से पूरी वादी गूंज रही थी. और साथ में लग रहा था एक नारा. (AK-47)
"सरहद पार जाएंगे, कलाश्निकोव लेकर आएंगे".
एक ऐसा हथियार जिसने मानव इतिहास में, किसी भी दूसरे हथियार की तुलना में, सबसे ज़्यादा मौतों को अंजाम दिया. हां परमाणु बम से भी ज़्यादा. हथियार का नाम? अब हम कहेंगे राइफ़ल और आपको याद आएगी AK-47. AK यानी ऑटोमैट कलाश्निकोव(Avtomat Kalashnikova) और 47 यानी 1947- वो साल जब पहली बार इस राइफ़ल का प्रोडक्शन शुरू हुआ. तारीख़ थी 6 जुलाई. सवाल ये कि सोवियत रूस(Soviet Union) में बनी ये राइफ़ल इतनी फ़ेमस कैसे हो गई, कि कोई आदमी जिसका हथियारों से दूर दूर तक वास्ता ना हो, उसे भी इसका नाम पता होता है.
फ़िल्मों में किसी को गुंडा दिखाना हो तो हाथ में AK-47. वीडियो गेम में किसी को आतंकी बनाना हो तो उसके हाथ में AK-47. यहां तक कि सद्दाम हुसैन और ओसामा बिन लादेन भी जब कैमरे के आगे आते हैं तो उनके पीछे यही राइफ़ल खड़ी दिखाई देती है. गिनती में बात करें तो 21 वीं सदी में पूरी दुनिया में 10 करोड़ से ज़्यादा AK-47 हैं. यहां तक कि एक देश ने तो अपने झंडे में ही AK-47 लगा के रखी है.
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सोवियत रूस में बनी AK-47
कहानी की शुरुआत होती है सोवियत संघ के एक छोटे से क़स्बे, कुर्या से. साल 1919. कुर्या के एक परिवार में एक लड़के की पैदाइश हुई. नाम था मिखाएल कलाश्निकोव. नाम से आपको इतना तो समझ आ गया होगा कि यही लड़का आगे जाकर AK-47 बनाने वाला था. अपनी इस ईजाद के चलते रूस में उसे हीरो का दर्जा मिला. कई मेडल चस्पाए गए. लेकिन जब वो पैदा हुआ था. हालात बहुत ख़राब थे. मिखाएल 19 भाई बहनों में 17 वें नम्बर पर आता था. परिवार के पास ज़मीन थी. लेकिन बोलश्विक क्रांति के बाद उसके परिवार की गिनती उन लोगों में होने लगी थी, जिन्हें कुलाक कहते थे. यानी वो लोग, जिनके पास अपनी ज़मीन थी, इसलिए इन्हें हमेशा शक की नज़रों से देखा जाता था.
1930 के दशक में जब स्टालिन का उदय हुआ, मिखाएल और उनके जैसे ऐसे हज़ारों लोगों को साइबेरिया भेज दिया गया. मज़दूरी करने के लिए. यहीं रहते हुए मिखाएल ने पहली बार राइफ़ल चलाना सीखा. उम्र थी - महज़ 12 साल. अगले ही साल मिखाएल वापस लौटकर अपने घर आया. और कुर्या में उसने मेकेनिक का काम करना शुरू कर दिया. 1938 में उसने रेड आर्मी जॉइन की. आर्मी में भी उसे टैंक मेकेनिक का काम मिला. और तरक़्क़ी करते हुए जल्द ही वो टैंक कमांडर के पद पर पहुंच गया. अक्टूबर 1941 में उसने नाज़ी आर्मी के साथ चल रही एक लड़ाई में हिस्सा लिया. लेकिन इस दौरान उसे गम्भीर चोट लग गई और और उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. मिखाएल कलाश्निकोव फिर कभी युद्ध की ज़मीन पर वापस नहीं जा पाया. हालांकि इसके बाद जो उसने किया, वो आने वाले कई युद्धों को बदलकर रख देने वाला था. क्या किया मिखाएल कलाश्निकोव ने?
जिन दिनों मिखाएल अस्पताल में था, उसने अपने साथी सैनिकों को उनकी वर्तमान राइफ़ल की शिकायतें करते सुना. जो अक्सर जाम हो ज़ाया करती थीं. मिखाएल ने तय किया कि वो एक ऐसी राइफ़ल बनाएगा जो पुरानी राइफ़लों की तरह जाम नहीं होगी. आने वाले सालों में उसने कई डिज़ाइन तैयार किए. इनमें से कई रिजेक्ट हो ग़ए लेकिन कलाश्निकोव ने हार नहीं मानी. 1946 में उसने मिखतिम नाम की राइफ़ल डिज़ाइन की. जो एक राइफ़ल कंपीटीशन में बेस्ट राइफ़ल डिज़ाइन के तौर पर चुनी गई. इसी डिज़ाइन में बेहतरी करते हुए 1947 में उसने एक और राइफ़ल बनाई और इसे नाम दिया, AK-47. इस राइफ़ल ने बाक़ी सभी राइफ़लों को मात दे दी. और 1949 में इसे सोवियत सेना के स्टैंडर्ड हथियार के तौर पर अपना लिया गया. उस वक्त सोवियत संघ ने इस राइफ़ल का डिज़ाइन सीक्रेट रखा था. और इसे सिर्फ़ सोवियत संघ के सैटेलाइट देशों को बांटा जाता था.
AK-47 में ऐसा क्या था कि ये आगे जाकर ये पूरी दुनिया की पहली पसंद बन गई
ब्रिटिश पत्रकार, माइकल हॉज अपनी किताब, AK-47: The Story of people's Gun, में लिखते हैं,
“जादुई रूप से मज़बूत, चलाने में आसान और विनाशकारी रूप से प्रभावी, इस राइफ़ल ने हथियारों की दुनिया में क्रांति ला दी. 50 सालों में दुनिया का नक़्शा जहां- जहां बदला है, उसमें एक बड़ा कारण कलाश्निकोव राइफ़लें थी”
AK-47, कलाश्निकोव राइफ़लों की सिरीज़ में पहली राइफ़ल थी. आगे जाकर इसके और भी वर्जन आए. लेकिन AK-47 नाम हमेशा चस्पा रह गया. क्यों? इसका सबसे बड़ा कारण था, 1954 में शुरू हुए वियतनाम युद्ध में इसका प्रदर्शन. वियतनाम में एक तरफ़ अमेरिका था, तो दूसरी तरफ़ विएतकोंग की गुरिल्ला फोर्स, जिन्हें सोवियत संघ का समर्थन हासिल था. युद्ध के दौरान अमेरिकी सैनिक M-16 राइफ़ल का इस्तेमाल कर रहे थे. तो वहीं विएतकोंग के पास सोवियत मेड AK-47 थी. 2007 में दिए एक इंटरव्यू में कलाश्निकोव इस युद्ध में AK-47 के प्रदर्शन के बारे में कहते हैं,
“जब कोई वियतनामी सैनिक मारा जाता, अमेरिकी सैनिक अपनी M-16 फेंक कर उसकी AK-47 उठा लेते थे”
ऐसा नहीं था कि AK-47, M-16 से बेहतर थी. बल्कि माइकल हॉज लिखते हैं, AK-47 का निशाना बहुत अच्छा नहीं था, और लम्बी दूरी पर ये कम कारगर थी. लेकिन AK-47 में एक ख़ासियत थी जो दुनिया की किसी और राइफ़ल में नहीं थी. AK-47 के बारे में कहा जाता था, अगर आप इसे एक महीने दलदल में गाड़ दें, और दुबारा निकालकर इसे चलाएं तो भी ये बिलकुल नई राइफ़ल जैसी काम करती थी. बात में कुछ अतिश्योक्ति ज़रूर है लेकिन ग़लत नहीं है. AK-47 की ख़ासियत थी कि 10 साल का बच्चा भी इसे पुर्ज़े अलग कर दुबारा जोड़ सकता था. AK-47 भार में काफ़ी हल्की थी, इसे चलाना बहुत आसान था. ना जंग लगता था और ये जाम भी नहीं होती थी. इसके अलावा इसका डिज़ाइन इतना सिम्पल था कि सस्ते दामों में इसे बनाया जा सकता था.
AK-47 ने युद्धों पर तो असर डाला ही, लेकिन अपनी खूबियों के चलते ये आगे जाकर आतंकियों की भी पहली पसंद बन गई . 1972 में जब म्यूनिख में इज़रायली खिलाड़ियों को आतंकियों ने बंधक बनाया, तो उन्होंने इसी राइफ़ल का इस्तेमाल किया था. ओसामा बिन लादेन भी जब कैमरे के आगे आया, उसके हाथ में यही राइफ़ल रहती थी. तमाम देशों में हुए आतंकी हमलों में इसका इस्तेमाल हुआ.
AK-47 दुनियाभर तक पहुंची कैसे?
जैसा पहले बताया, दुनिया भर में जितनी राइफ़लें हैं, उनमें एक चौथाई कलाश्निकोव हैं. लेकिन कमाल की बात ये है कि ये राइफ़ल दुनिया भर में पहुंचाने का जितना श्रेय सोवियत संघ को जाता है, उतना ही उसके कट्टर दुश्मन अमेरिका को. हुआ यूं कि जब 1979 में सोवियत सेना अफ़ग़ानिस्तान में दाखिल हुई, वो अपने साथ भारी मात्रा में AK-47 लेकर गई. शुरुआत में इस बंदूक़ से अफ़ग़ान मुजाहिदीन काफ़ी घबराए रहते थे. क्योंकि इसकी गोली मांस या हड्डी से टकराकर टुकड़ों में बिखर जाती थी, जिससे ज़ख़्म और भी गहरा होता. और उसमें इंफ़ेक्शन हो जाता. मुजाहिदीनों को लगता था, सोवियत फ़ौज अपनी गोलियों में ज़हर लगाती है. मुजाहिदीनों को अमेरिका सपोर्ट करता था, इसलिए वो मदद मांगने के लिए उनके पास गए. पाकिस्तान में CIA के स्टेशन चीफ़ हुआ करते थे, हावर्ड हार्ट. अपनी किताब "AK-47: The Weapon That Changed the Face of War." में लैरी काहनेर लिखते हैं,
"हार्ट को मुजाहिदीनों के प्रेशर के आगे झुकना पड़ा. अमेरिका ने दुनिया भर से AK-47 राइफ़लें ख़रीदीं और मुजाहिदीनों तक पहुंचा दी".
जब युद्ध ख़त्म हुआ और सोवियत फ़ौज वापस लौट गई, ये AK-47 राइफ़लें मुजाहिदीनों के पास ही रह गई. और बाद में आतंकी रूट से दुनिया भर में पहुंच गई. काहनेर आगे लिखते हैं,
"AK-47 पूरी दुनिया में विद्रोह का एक सिम्बल बन गई. 1990 में लाइबेरिया में हुए विद्रोह में इसका इस्तेमाल हुआ. वहां चार्ल्स टेलर नाम के विद्रोही लीडर ने राष्ट्रपति सैम्यूअल डो को सत्ता से हटाया. चार्ल्स टेलर के बारे में ये बात फ़ेमस थी कि जब वो किसी वो अपने गुट में शामिल करता, उसे एक AK-47 देता. AK-47 को "द अफ़्रीकन क्रेडिट कार्ड" कहा जाने लगा"
क्योंकि जिसके पास ये होती, उसे लूटपाट करने की छूट मिल जाती थी. लोग चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते. क्योंकि AK-47 का मतलब था, सत्ता का सर पर हाथ. लैरी काहनेर अपनी किताब में पाकिस्तान का उदाहरण भी देते हैं. जहां AK -47 घंटे के हिसाब से किराए पर मिलती थी. ख़रीददार इसे लेकर जाता और घंटों के अंदर लूटपाट मचा के लौट आता. इसके बाद वो या तो बाक़ी पैसा चुकाकर राइफ़ल ख़रीद लेता, या राइफ़ल वापस कर देता.
पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते ही 1980 के दशक में कलाश्निकोव राइफ़लें कश्मीरी अलगाववादियों के हाथ लगी. 1988 में जब कश्मीर में पहली बार हालात ख़राब होने शुरू हुए, सरहद पार से कश्मीर में कलाश्निकोव पहुंचाई गई. वादी में तब एक नारा चलता था,
"सरहद पार जाएंगे, कलाश्निकोव लेकर आएंगे".
मिखाइल कलाश्निकोव को एक पैसा न मिला?
अपनी शुरुआत के बाद के 70 सालों में जितना खून कलाश्निकोव ने बहाया, दूसरे किसी हथियार ने नहीं बहाया. इस राइफ़ल के जनक का इस बारे में क्या कहना था? परमाणु बम के जनक रॉबर्ट ओपनहाइमर से जब उनके आविष्कार के बारे में पूछा गया, उन्होंने गीता को क्वोट करते हुए कहा था,
“मैं मृत्यु बन गया हूं, संसार का नाश करने वाला”.
कलाश्निकोव ने कुछ ऐसी ही सवाल का जवाब देते हुए कहा था,
“मैं चैन की नींद सोता हूं, राइफ़ल बनाने का मुझे कोई गिल्ट नहीं.”
हालांकि कुछ ऐसे प्रसंग भी मिलते हैं, जिनसे पता चलता है कि उन्हें कुछ पछतावा तो ज़रूर हुआ था. अपनी मौत से कुछ वक्त पहले रशियन ऑर्थोडॉक्स चर्च को लिखे एक लेटर में वो लिखते हैं,
"मेरी आत्मा में हो रहा दर्द असहनीय है. मैं बार-बार खुद से सवाल पूछता हूं. अगर मेरी बनाई राइफ़ल ने लोगों की जान ली, तो क्या मैं इन मौतों का दोषी हूं. बहुत सोचकर भी मुझे इस सवाल का जवाब नहीं मिल सकता".
इस सवाल का जवाब मिलना मुश्किल है. हत्या बंदूक़ें नहीं करती, लोग करते हैं, लेकिन ये भी सच है कि अगर बंदूक़ें नहीं होती तो मौतों का आंकड़ा निस्संदेह कम होता. उदाहरण के लिए अमेरिका को ही लीजिए, जहां हर दूसरे दिन एक 'मास शूटिंग' की खबर आ जाती है. AK 47 के मुक़ाबले अमेरिका ने M-16 राइफ़ल बनाई लेकिन इत्तेफ़ाक देखिए कि इसे बनाने वाले यूजीन स्टोनर को प्रति बंदूक एक डॉलर रॉयल्टी मिली. यूजीन करोड़पति बन गए लेकिन अमेरिका में ही कई लोग उन्हें नहीं जानते. वहीं दूसरी तरफ़ मिखाइल कलाश्निकोव अपने देश में हीरो बन गए, लेकिन AK-47 की बिक्री से कमाया गया एक भी पैसा उन्हें नहीं मिला.
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