नाइजर में नया बस इतना है कि, कभी तख़्तापलट को अपना हथियार बनाने वाले पश्चिमी देश, जैसे अमेरिका और फ़्रांस, दुखी हो गए हैं. इस दुख की वजह क्या है? और, नाइजर की घटना क्या गुल खिलाने वाली है? एक-एक कर जानेंगे. आगे बढ़ने से पहले बेसिक क्लीयर कर लेते हैं. शुरुआत भूगोल से.
- नाइजर, अफ़्रीकी महाद्वीप के पश्चिम में पड़ता है. हर दिशा में ज़मीन है. कुल 07 देशों से सीमा लगती है. नाइजीरिया, चाड, लीबिया, अल्जीरिया, माली, बुर्किना फ़ासो और बेनिन. नाइजर साहेल रीजन का भी हिस्सा है. साहेल क्या है? ये अरबी भाषा का शब्द है. इसका शाब्दिक अर्थ होता है, तट या किनारा. धरातल पर सहारा रेगिस्तान और सवाना के घास के मैदान के बीच के इलाके को ये नाम दिया गया है. इसका पूर्वी किनारा लाल सागर, जबकि पश्चिमी किनारा अटलांटिक सागर से मिलता है. बीच में सूडान, चाड, नाइजर, माली और मॉरिटियाना का अधिकांश हिस्सा साहेल में पड़ता है. बाकी कई देशों के थोड़े बहुत इलाके इस रीजन में माने जाते हैं. लोकेशन और डेमोग्राफ़ी की वजह से नाइजर साहेल के सबसे अहम देशों में गिना जाता है.
- नाइजर का नामकरण इसी नाम से बहने वाली नदी पर हुआ. 04 हज़ार किलोमीटर से अधिक लंबी नाइजर अफ़्रीका में तीसरी सबसे बड़ी है. नील और कॉन्गो के बाद. ये नदी गिनी से निकल कर माली, नाइजर, बेनिन और नाइजीरिया होते हुए अटलांटिक सागर में मिल जाती है.
- नाइजर की आबादी ढाई करोड़ से अधिक है. 98 फीसदी लोग इस्लाम मानते हैं. बाकी में ईसाई और दूसरे धर्म के लोग आते हैं. मुस्लिमों में भी विभाजन है. लगभग 93 प्रतिशत मुस्लिम सुन्नी हैं और 07 प्रतिशत शिया.
- करेंसी का नाम है, वेस्ट अफ़्रीकन फ़्रैंक. 01 भारतीय रुपये में 07 फ़्रैंक से ज़्यादा मिलेगा.
- नाइजर की राजधानी नियामे है. ये मुल्क का सबसे बड़ा शहर भी है. नाइजर में भारत का दूतावास भी यहीं पर है. भारतीय दूतावास की वेबसाइट पर छपी जानकारी के मुताबिक, राजदूत की सीट अभी खाली है. नई दिल्ली से नियामे की दूरी लगभग 08 हज़ार किलोमीटर है.
- टाइमज़ोन की बात करें तो भारत से नाइजर साढ़े 04 घंटा पीछे है. जब भारत में रात के 10 बजते हैं, तब नाइजर में शाम के साढ़े 05 बज रहे होते हैं.
- एक और फ़ैक्ट जान लीजिए. जब अमेरिका और ब्रिटेन, इराक़ पर हमला करने का बहाना खोज रहे थे. तब कहा गया कि सद्दाम हुसैन वेस्ट अफ़्रीका के एक देश से यूरेनियम खरीद रहा है. ताकि वो इराक़ में परमाणु हथियार बना सके. वेस्ट अफ़्रीका का वो देश नाइजर ही था.
भूगोल हो गया. अब इतिहास का चैप्टर खोलते हैं.
सबसे पहले 05वीं सदी ईसापूर्व में तुआरेग कबीलों ने वर्चस्व जमाया. ईसवी सन की तीसरी शताब्दी में इलाका घाना साम्राज्य के कंट्रोल में आ गया. उन्हीं के समय में अरब लोग इस्लाम लेकर आए. 12वीं सदी में घाना साम्राज्य बिखर गया. फिर माली का कब्ज़ा हुआ. माली के बाद शोंगाई साम्राज्य आया. उन्होंने उत्तरी नाइजर को अपने नियंत्रण में ले लिया. 1591 में मोरक्को ने शोंगाई को हरा दिया. मोरक्को वालों ने टिम्बकटु को राजधानी बनाया. टिम्बकटु आज के समय में माली में है.
खैर, धीरे-धीरे नाइजर छोटे-छोटे साम्राज्यों में बंट गया. उनके बीच एकजुटता नहीं थी. फिर आया 1890 का दशक. फ़्रांस वेस्ट अफ़्रीका में अपने पैर पसार रहा था. उसकी नज़र नाइजर पर भी पड़ी. 1899 में उसने पहली कोशिश की. 1905 में नाइजर को फ़्रांस की मिलिटरी टेरिटरी का हिस्सा बना दिया गया. इस टेरिटरी में नाइजर के अलावा माली और बुर्किना फ़ासो के इलाके भी थे. 1922 में फ़्रांस ने नाइजर को कॉलोनी का दर्जा दिया.
सेकेंड वर्ल्ड वॉर खत्म होने के बाद नाइजर में आज़ादी की मांग उठी. 1946 में फ़्रांस ने स्थानीय लोगों को कुछ अधिकार दिए. उन्हें फ़्रांस की संसद में प्रतिनिधित्व भी मिला. हालांकि, इसका फायदा चुनिंदा एलीट क्लास के लोगों को मिला. जो फ़्रांस के प्रति वफ़ादारी रखते थे. आम जनता आज़ादी पर अड़ी रही. आख़िरकार, 1960 में नाइजर को पूर्ण आज़ादी मिल गई.
हमानी डियोरी पहले राष्ट्रपति बने. 14 बरसों तक उनका शासन चला. उन्होंने एकदलीय व्यवस्था रखी. विपक्ष की गुंज़ाइश ही नहीं बची. इस दौरान करप्शन, दमन, भूख, सूखा और दूसरी समस्याएं जमा होती गईं 1968 में देश में अकाल पड़ गया. जनता भूख से मरने लगी.. एक रोज़ पता चला कि डियोरी के मंत्रियों के घरों पर अनाज की बोरियां रखी हैं. इससे जनता भड़क गई. इसका फायदा उठाया मिलिटरी जनरल सेयनी काउंशे ने. 1974 में सेना ने उनकी सरकार पलट दी. 1991 में सिविलियन शासन वापस लौटा. पहली बार मल्टी-पार्टी इलेक्शन हुए. उसी समय उत्तरी इलाकों में अकाल पड़ा. इस बीच तुआरेग कबीलों ने विद्रोह कर दिया. विद्रोह को दबाने के लिए 1996 में सेना ने सरकार की कमान अपने हाथों में ली. 1999 में सेना उतरी. सिविलियन सरकार वापस आई. मोहम्मद तनजा राष्ट्रपति बने. 10 बरस तक सब ठीक चला.
फिर मई 2009 में तनजा ने नेशनल असेंबली भंग कर दी. दरअसल, दिसंबर 2009 में उनका कार्यकाल खत्म होने वाला था. मगर वो कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. जनमत-संग्रह करवा के अपना कार्यकाल भी बढ़वा लिया. लेकिन विपक्ष नहीं माना. फ़रवरी में हज़ारों लोग राजधानी में प्रोटेस्ट के लिए इकट्ठा हुए. उन्होंने सेना से हस्तक्षेप करने की अपील की.
18 फ़रवरी 2010 की दोपहर सेना ने प्रेसिडेंशियल पैलेस पर हमला कर दिया. तनजा एक मीटिंग में थे. उन्हें वहीं से उठा लिया गया. कुछ समय बाद सत्ता बदलने का औपचारिक ऐलान भी हो गया.
सेना ने नया संविधान बनवाया. फिर 2011 में चुनाव कराए गए. इस चुनाव में मोहम्मद इसोफ़ु राष्ट्रपति बने.
भूगोल और इतिहास हो गया. अब पॉलिटिक्स के बारे में जान लीजिए.
नाइजर 2010 में बने संविधान के हिसाब से चल रहा है. मतलब, 26 जुलाई तक तो चल ही रहा था. फिर क्या हुआ? सेना ने चौथी बार लोकतांत्रिक सरकार को कुर्सी से उतार दिया. फिर संविधान भी भंग कर दिया. आपने ऐलान सुना. मिलिटरी कू ने तीन अहम ऐलान किए;
- पहला, संविधान और सरकारी संस्थाएं भंग की जा चुकी हैं.
- दूसरा, सेना मुल्क को मैनेज कर रही है.
- और तीसरा, दूसरे देश हमारे मामले में दखल ना दें.
इस ऐलान का मतलब क्या है?4 मायने निकलते हैं.
- नंबर एक. मोहम्मद बज़ूम 2021 के चुनाव में जीतकर राष्ट्रपति बने थे. वो पिछली सरकार में गृहमंत्री थे. नाइजर के इतिहास में पहली बार सत्ता का हस्तांतरण लोकतांत्रिक तरीके से हुआ था. उनका कार्यकाल 2025 में खत्म होने वाला था. उससे पहले ही उन्हें हटा दिया गया है. यानी, नाइजर में लोकतंत्र कायम रखने की गुंज़ाइश खत्म हो गई है.
- नंबर दो. तख़्तापलट से पहले तक नाइजर में सेमी-प्रेसिडेंशियल सिस्टम चलता था. यानी, स्टेट और कार्यपालिका की कमान राष्ट्रपति के पास, जबकि सरकार की कमान प्रधानमंत्री के पास. नाइजर में प्रधानमंत्री के पास नाममात्र की शक्तियां होती हैं. प्रधानमंत्री संसद के बहुमत दल के नेता होते हैं. जबकि राष्ट्रपति जनता के डायरेक्ट वोट से चुने जाते हैं. ये व्यवस्था फिलहाल अस्तित्व में नहीं है.
- नंबर तीन. पूरा कंट्रोल सेना के पास है. स्टेट टीवी पर भी कब्ज़ा हो चुका है. नाइजर की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं और हवाई क्षेत्र को फिलहाल के लिए बंद कर दिया गया है. बज़ूम की मौजूदा स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं है. जो लोग तख़्तापलट के विरोध में इकट्ठा हुए थे, उनके ऊपर सेना ने गोलीबारी की. माना जा रहा है कि सेना प्रोटेस्ट को बुरी तरह कुचलेगी. और, उनके दमन का दायरा पता भी नहीं चलेगा.
- नंबर चार. कू लीडर्स ने साफ़ कर दिया है कि वे बाहरी दखल को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे. 26 जुलाई की सुबह अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन न्यूज़ीलैंड जा रहे थे. उन्होंने फ़ोन पर बज़ूम से बात की. कहा कि कोई दिक्कत की बात नहीं है. हम आपका साथ देंगे.
जब तख़्तापलट की बात साफ़ हो गई, तब ब्लिंकन ने एक और बयान दिया. बज़ूम को रिहा करने की मांग की.
नाइजर के मिलिटरी लीडर्स ने इसी वजह से बाहरी दखल को रेखांकित किया. जानकारों का कहना है कि बज़ूम को पश्चिमी देशों का करीबी माना जाता है. उनके जाने से साहेल रीजन में उनकी पकड़ कमज़ोर हो सकती है. इससे बचने के लिए वे मिलिटरी ऑपरेशन भी चला सकते हैं. हालांकि, अभी तक इस तरह की कार्रवाई के कोई संकेत नहीं मिले हैं.
अब ये समझ लेते हैं कि नाइजर में अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों की दिलचस्पी की वजह क्या है?
05 कारण हैं.
- नंबर एक. साझा हित.
फ़्रांस ने लगभग 06 दशकों तक नाइजर पर शासन किया. फ़्रेंच वहां की आधिकारिक भाषा है. 07 हज़ार से अधिक फ़्रेंच लोग नाइजर में रहते हैं. दशकों के शासन के बाद फ़्रांस के व्यापारिक हित भी जुड़े हुए हैं. फ़्रांस अपनी ज़रूरत के यूरेनियम के लिए भी नाइजर पर निर्भर है.
- नंबर दो. हाल के बरसों में साहेल का इलाका इस्लामिक स्टेट (IS) के आतंकियों की सबसे बड़ी पनाहगाह बनकर उभरा है. इराक़ और सीरिया से खदेड़े जाने के बाद उन्होंने अफ़्रीका में अपना अड्डा जमाया. वे वहीं से लोगों को रिक्रूट करके पूरी दुनिया में भेज रहे हैं. ये यूरोप और अमेरिका के लिए ख़तरा बन गए हैं.
- नंबर तीन. सहारा के रास्ते यूरोप में घुसने वाले अवैध शरणार्थियों को रोकने में भी यूरोपियन यूनियन (EU) नाइजर का सहारा लेता है. ब्रिटिश अख़बार गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 से 2020 के बीच EU ने मदद के नाम पर नाइजर को लगभग 13 हज़ार करोड़ रुपये दिए. अधिकांश पैसे का इस्तेमाल अवैध शरणार्थियों को रोकने के लिए किया गया.
- नंबर चार. साहेल के इलाके में नाइजर पश्चिमी देशों का इकलौता सहयोगी था. पड़ोस के बुर्किना फ़ासो और माली में तख़्तापलट के बाद फ़्रेंच सेना को निकलने के लिए कहा गया. फ़्रांस ने इस इलाके में आतंकियों से लड़ने के लिए सेना उतारी है. निकाले जाने के बाद उन्होंने नाइजर में अपना बेस बनाया था. अब ये बेस भी उनसे छिन सकता है.
- नंबर पांच. सेंट्रल और वेस्ट अफ़्रीका में रूस के वैग्नर ग्रुप की पकड़ मज़बूत हो रही है. जिन देशों में तानाशाही सरकारें हैं, वहां पर वैग्नर को मिलिटरी कॉन्ट्रैक्ट्स मिले हैं. कई देशों में उसके लड़ाके संसाधनों की लूट से लेकर मानवाधिकार हनन तक में शामिल हैं. इससे पश्चिमी देशों का हित संकट में पड़ता है. इसको काउंटर करने के लिए उन्होंने नाइजर में ख़ूब पैसा बहाया. 2012 के बाद से अकेले अमेरिका ने नाइजर में लगभग 04 हज़ार करोड़ रुपये खर्च किए हैं.
दिलचस्प ये है कि, जिस समय नाइजर में तख़्तापलट को लेकर बवाल मचा है, उसी समय रूस में रशिया-अफ़्रीका समिट चल रही है. इसमें रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पश्चिमी देशों की लानत-मलानत कर रहे हैं. और, अनाज का संकट दूर करने का वादा भी कर रहे हैं. जो ब्लैक सी ग्रेन डील के टूटने से पैदा हुआ है. खैर, नाइजर की घटना ने पश्चिमी देशों को सकते में डाल दिया है. उनके पास अगला कदम उठाने के लिए बहुत कम समय बचा है.
ये तो रही कहानी नाइजर में हुए तख्तापलट की. अब जान लेते हैं कि अफ्रीका के देशों में ये ट्रेंड क्यों बढ़ रहा है?
क्या वजह है?
पहली वजह ख़राब अर्थव्यवस्था और फेल होते लोकतंत्र से जुड़ी है.
1. जानकार कहते हैं. इसकी जड़ में जाने के लिए आपको इतिहास का रुख करना होगा. जब ये देश आज़ाद हुए, तब सत्ता पुराने शासकों के स्थानीय वफ़ादारों के पास आई. सोच बिल्कुल भी नहीं बदली थी. वे आम लोगों को सरकार में प्रतिनिधित्व देने से बचने लगे. ख़ुद को आजीवन भर के लिए शासक मान लिया. इसकी वजह से वंशवाद और करप्शन की समस्या पैदा हुई. शासक तानाशाहों में बदलने लगे. लोगों की बुनियादी समस्यां बढ़ती रहीं. जो आगे चलकर आक्रोश में बदला. सेना ने इस असंतोष का बार-बार फायदा उठाया. लोग चुने शासकों से निराश हुए तो सेना को मुक्तिदाता मानने लगे.
2 . दूसरी वजह रही आतंकवाद से लड़ने में विफलता.
साहेल के इलाके में आतंकवाद बढ़ा है. बोको हराम, अलक़ायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे आतंकी संगठनों ने अराजकता फैला रखी है. लेकिन सरकारें उनसे निपटने में नाकाम रही. कुछ देशों ने विदेशी सेनाओं से मदद मांगी. लेकिन इससे मामला और बिगड़ा. फिर दो चीजें हुईं.
- एक तो ये हुआ कि लोकल लोगों को फिर से ग़ुलामी वाली फ़ीलिंग आई. वे विदेशी सेनाओं को आक्रांता मानने लगे.
- दूसरा, संबंधित देशों की सेनाओं का मनोबल गिरा. उन्होंने अपनी ही सरकार पर भरोसा करना छोड़ दिया.
3. तीसरी वजह विदेशी प्रभुत्व से जुड़ी है.
कोल्ड वॉर के दौर में सोवियत संघ और अमेरिका के बीच वर्चस्व की लड़ाई चली. इसका असर अफ़्रीका में भी दिखा. दोनों महाशक्तियां अपने पसंद की सरकार बनवाने के लिए सारे तिकड़म भिड़ाया करती थीं. उस दौर में ख़ूब तख़्तापलट देखने को मिले. 1960 और 1970 के दशक में अफ़्रीका में हर 55 दिनों में एक तख़्तापलट होता था. सोवियत संघ टूटा तो रूस आगे आया. पिछले कुछ समय में पुतिन ने सोवियत संघ वाले दिन लौटाने की कोशिश शुरू की है. इस कोशिश में अफ़्रीकी देशों को अपने पाले में खींचना भी शामिल है. जिस भी शासक या शासक बनने के इच्छुक को यूएन सिक्योरिटी काउंसिल या दूसरे मसलों पर मदद की ज़रूरत होती है, वो अपने हिसाब से पार्टनर चुन लेता है. ये उनकी डिप्लोमेसी का हिस्सा बन गया है. जिसका बीतना हाल-फिलहाल संभव नहीं दिखता.
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