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मरने के बाद शरीर की कितने समय में क्या गति होती है?

चेतावनी : अंदर की कुछ तस्वीरें आपको विचलित कर सकती हैं.

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मौत को डॉक्टरी भाषा में 'क्लिनिकल डेथ' कहा जाता है. क्लिनिकल डेथ का मतलब है शरीर के अहम हिस्सों यानी दिल का धड़कना और फेफड़ों का काम करना बंद कर देना और दिमाग का डेड हो जाना.

मौत के कितने ही कारण हो सकते हैं. कोई नेचुरल वजहों से मरता है, कोई एक्सीडेंट में मारा जाता है तो कहीं किसी का क़त्ल कर दिया जाता है. एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर दिन लगभग 1,51,000 लोग मरते हैं. खैर, मौत एक ऐसी सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. जो पैदा हुआ है उसे तो मरना ही है.

लेकिन कभी सोचा है कि मरने के बाद शरीर में कौन-कौन से बदलाव होते हैं. फोरेंसिक एक्सपर्ट इन्हीं बदलावों को देखकर ये बता देते हैं कि मौत का टाइम क्या रहा होगा. फोरेंसिक भाषा में एक टर्म होता है 'बॉडी फॉर्म'. ये शरीर के गलने का एक पैमाना है. इसी से फोरेंसिक एक्सपर्ट मरने वाले को पहचानते हैं और मौत का कारण और समय पता करते हैं. ये कोई ज्यादा पेचीदा नहीं है. मरने के बाद शरीर कुछ स्टेज से होकर गुजरता है. बस इन्हीं स्टेज को ध्यान से समझने की ज़रुरत है. पढ़ते हैं इन स्टेज के बारे में.

मौत का वक़्त

मरते वक़्त इंसान का दिल धड़कना बंद कर देता है. इंसान तेजी से सांसें लेना शुरू कर देता है. खून का दौड़ना बंद हो जाता है जिससे कान ठंडे हो जाते हैं. खून में एसिडिटी बढ़ जाती है. गले में कफ़ जमा हो जाता है जिससे सांस लेते हुए खड़-खड़ जैसी आवाज़ आने लगती है. इस आवाज़ को मौत की आवाज़ भी कहा जाता है. फिर फेफड़े और दिमाग भी काम करना बंद कर देते हैं. लेकिन एक वैज्ञानिक विचार ये भी है कि अगर दिमाग में मौजूद सेल (स्टेम सेल) जिंदा हैं तो इंसान को फिर से जिंदा किया जा सकता है.

पैलर मॉर्टिस ( मरने के बिल्कुल बाद )


Source| A Guide To Deduction
Source| A Guide To Deduction

ये मौत के बाद शरीर के गलने की पहली स्टेज होती है. इस स्टेज में ब्लड सर्कुलेशन बंद होने की वजह से शरीर पीला पड़ना शुरू हो जाता है. आंख की पुतलियां पथरा जाती हैं और ऑक्सीजन लेवल कम होने की वजह से शरीर का टेम्प्रेचर धीरे-धीरे कम होने लगता है.

एलगोर मॉर्टिस ( मरने के एक घंटे बाद )

ये शरीर के गलने की दूसरी स्टेज है. इसका एक नाम 'डेथ चिल' भी है. इसमें शरीर के ठंडे होने की प्रक्रिया तेज़ी से शुरू होती है. इसके कुछ अपवाद भी है. कहा जाता है कि शरीर का ठंडा होना उस जगह के तापमान, मरने वाले की बीमारी, और उसको पहनाए गए कपड़ों पर भी निर्भर करता है. इन्वेस्टिगेशन के दौरान फॉरेंसिक एक्सपर्ट पहले लाश का बॉडी टेम्प्रेचर चेक करते हैं. इसके लिए वो लाश के गुदा या लाश के लीवर से बॉडी टेम्प्रेचर लेते हैं. लीवर से बॉडी टेम्प्रेचर लेते हुए 'मीट थर्मामीटर' को मांस काट कर लीवर में उतारा जाता है.


'ग्लैस्टर ईक्वेशन' (मौत का समय मापने का पैमाना) के मुताबिक मौत के बाद बॉडी टेम्प्रेचर 1.5 डिग्री फैरेनहाइट प्रति घंटे के हिसाब से गिरता है और मरते वक़्त बॉडी टेम्प्रेचर 98.4 डिग्री फैरेनहाइट होता है. इस ईक्वेशन के मुताबिक मौत का टाइम पता करने का एक फॉर्मूला है. 98.4 डिग्री में से लाश का बॉडी टेम्प्रेचर माइनस करके बचे हुए आंकड़े को 1.5 डिग्री से डिवाइड कर मौत के टाइम का अंदाज़ा लगाया जाता है. ग्लैस्टर ईक्वेशन मौत के 24 घंटे के अंदर ही कारगर है.

आपने ऐसे कई क्राइम ड्रामा भी देखे होंगे जिनमें कातिल मौत का टाइम छुपाने के लिए लाश को ठंडे फ्रीजर में रख देता है ताकि उसके गलने की प्रक्रिया धीमी हो जाए. इससे फॉरेंसिक एक्सपर्ट मौत का असल समय न पता कर पाएं.

रिगोर मॉर्टिस (मरने के 1 से 8 घंटे में)

Rigor Mortis Forensic

इस तीसरी स्टेज को जाने-अनजाने में सभी लोग समझते हैं. अगर घर में किसी की मौत हुई होगी तो आपने कुछ टाइम बाद उसका शरीर अकड़ा हुआ महसूस किया होगा. ये प्रक्रिया मरने के 1 घंटे बाद शुरू हो जाती है. इसमें सभी मांसपेशियां अकड़ जाती हैं और बाल खड़े होने लग जाते हैं. मांसपेशियों में मौजूद लैक्टिक एसिड और अनियंत्रित कैल्शियम इसकी वजह होते हैं. एक आम धारणा है कि मरने के बाद बाल और नाखून बढ़ते रहते हैं. इसका भी एक साइंटिफिक कारण है. मृत्यु के बाद शरीर में डिहाइड्रेशन की वजह से सिर और अंगुलियों के आसपास की त्वचा सिकुड़ने लगती है, इसीलिए हमें नाखून और बाल बढ़ते हुए नज़र आते हैं.


रिगोर मॉर्टिस का सबसे बुरा असर ठंडे इलाकों में होता है. सियाचिन के सैनिक इससे बहुत अच्छी तरह वाकिफ़ हैं. जब भी सियाचिन में किसी सैनिक की मौत हो जाती है तो उसके शरीर को सेना के खास चॉपर 'चीता' से मैदानी इलाके तक लाया जाता है. चीता एक छोटा चॉपर होता है जिसमें डेड बॉडी पूरी नहीं आती और अकड़ जाने की वजह से वो मुड़ती भी नहीं. ऐसे में सिपहियों को डेड बॉडी के पैरों को ज़ोर लगाकर मोड़ना पड़ता है जिससे पैर टूट भी जाते हैं.

Cheetah

लिवर मॉर्टिस (मरने के 8 से 12 घंटे में)

इस स्टेज में खून शरीर के उस हिस्से की ओर जमा होने लगता है जो हिस्सा ज़मीन से लगा हो. इस वजह से शरीर के उस हिस्से का रंग लाल-बैंगनी सा हो जाता है. वैसे ये रंग शरीर में मौजूद हीमोग्लोबिन पर निर्भर करता है. मरने के बाद शरीर में खून पंप तो होता नहीं. जिस वजह से खून का दौरा रुक जाता है और ग्रेविटी की वजह से भारी ब्लड-सेल नीचे की और इकट्ठे हो जाते हैं. लिवर मॉर्टिस की प्रक्रिया वैसे तो मरने के 20-30 मिनट में ही शुरू हो जाती है, लेकिन ये दिखाई नहीं देती. मौत के 8 घंटे बाद इसका असर बिल्कुल साफ़ दिखने लग जाता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि लिवर मॉर्टिस को देखकर ही यह पता लगाया जा सकता है कि व्यक्ति की मृत्यु कब हुई थी

प्युट्रीफैक्शन (12 से 24 घंटे के बीच)

इस स्टेज में शरीर में मौजूद प्रोटीन गलने लग जाता है और टिश्यू टूटने लग जाते हैं. इससे शरीर के अंगों में पानी भर जाता है. बैक्टीरिया और फंगस शरीर के अन्दर के हिस्से को गलाने लगता है. इस स्टेज में शरीर फिर से लचीला हो जाता है. मुर्दाघर में काम करने वालों के लिए लाश के हाथ पैर समेटने और उसे कफ़न में लपेटने का ये सबसे सही समय होता है.

मरने के 2 दिन बाद से लाश का सड़ना शुरू हो जाता है. इतने दिन तक सिर्फ ऐसी ही लाश बची रहती है, जिसे मारने के बाद फेंक दिया हो, या कोई ऐसा इंसान जो अकेला अपने घर में मर गया और कोई सुध लेने वाला ही नहीं हो. इस स्टेज में शरीर पर फफोले निकल आते हैं. लाश के मुंह और नाक से खून टपकने लग जाता है.

8 से 10 दिन में आंतों में मौजूद बेक्टीरिया मरे हुए टिश्यू को खाने लग जाता है जिससे शरीर में गैस बनती है. इस गैस की वजह से पेट फूल जाता है. शरीर से बहुत गंदी गंध आने लगती है. मुंह और गले के टिश्यू सूजने कि वजह से जीभ बाहर लटक जाती है. इस स्टेज में लाश को पहचानना मुश्किल हो जाता है. शरीर में जमा हुई गैस शरीर में किसी भी तरह के तरल को और मल को बाहर धकेल देती हैं. शरीर का रंग लाल से हरा हो जाता है. ऐसा रेड-सेल के सड़ने की वजह से होता है.

दो हफ्ते बाद

इस स्टेज में बाल, नाखून, और दांत बहुत आसानी से अलग हो सकते हैं. शरीर की चमड़ी मोम की तरह लटकने लग जाती है. जिस वजह से लाश को हिलाना तक मुश्किल होता है. दांतो की मदद से लाश को पहचाना जा सकता है.

एक महीने बाद

इतने वक़्त पुरानी लाश की बहुत बुरी हालत होती है. चमड़ी पानी की तरह हो जाती है या बिल्कुल सूख जाती है. ये लाश के आस-पास के एरिया पर निर्भर करता है. फॉरेंसिक स्टडी में लाश पर मंडराने वाली मक्खियों और उनकी हरकतों पर भी स्टडी की जाती है ताकि मौत के टाइम का अंदाज़ा लगाया जा सके. मक्खियां और बाकी कीड़े मकोड़े जब लाश के सब नर्म अंगों को खा जाते हैं तो लाश के 'ममी' बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.

ग्रेव वैक्स (महीनों बाद)

इस स्टेज में मांस बिल्कुल मोम की तरह हो जाता है शरीर की स्मेल भी ख़त्म हो जाती है. मोम बने इस मांस को डॉक्टरी भाषा में एडिपोकर कहा जाता है. यह माना जाता है कि, 17 वीं शताब्दी में कुछ लोग एडिपोकर का इस्तेमाल मोमबत्तियां बनाने के लिए भी करते थे. ये वो लोग थे जो 'ममी' पूजा में यकीन किया करते थे.

स्कैलेटाईज़ेशन स्टेज (कंकाल)

ये शरीर के ख़ाक होने की आखिरी स्टेज है. जब कीड़े-मकौड़े, जानवर या चील-कौए लाश का मांस पूरी तरह से नोच चुके होते हैं. बचती हैं तो सिर्फ हड्डियां. इस वक़्त पर मिली लाश को पहचानने के लिए भी काम आते हैं तो सिर्फ दांत. डीएनए जांच के दौरान भी दांतों से भी डीएनए लिया जा सकता है.

20वीं सेंचुरी की शुरुआत में डंकन मैकडोगल ने 21 ग्राम थ्योरी देकर एक नया डिस्कशन पैदा किया था. उनके और उनके एक्सपेरिमेंट्स के हिसाब से किसी इन्सान की मौत के बाद उसके शरीर के भार में कुल 21 ग्राम का फ़र्क आता है और ये उसकी आत्मा का भार होता है. निकी हीटन अपने लिखे एक गाने में कहती हैं,


"I just want your soul in my hands Feel your weight of 21 grams"

ये 21 ग्राम की आत्मा का मामला अभी भी एक डिबेट का टॉपिक है. लेकिन शरीर का क्या होता है, ये हम जान चुके हैं.



ये आर्टिकल दी लल्लनटॉप के साथ इंटर्नशिप कर रहे भूपेंद्र ने लिखा है.




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