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श्रीलंका में ज्योतिषियों का इतना दबदबा क्यों है?

श्रीलंका में नए साल की तारीख़ तय करने पर कैसा विवाद पनपा?

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श्रीलंका में नए साल की तारीख़ तय करने पर कैसा विवाद पनपा? (PHOTO- AFP)

‘पहला विश्व युद्ध क्यों शुरू हुआ था?’

इतिहास के विद्यार्थी इस सवाल की अहमियत जानते हैं. इस सवाल पर अब तक न जाने कितनी कॉन्फ्रेंस, न जाने कितनी डिबेट आयोजित हुईं और न जाने कितने रिसर्च पेपर लिखे गए. पर इस सवाल की प्रासंगिकता अभी तक खत्म नहीं हुई है.  इस सवाल का जवाब भी आसान नहीं है. लगभग 5 करोड़ लोगों की जान लेने वाली इस जंग के कई कारण बताए जाते हैं. कुछ कहते हैं, इसकी वजह ऑस्ट्रिया के प्रिंस की हत्या थी. कुछ कहते हैं कि इसका कारण जर्मनी की विस्तारवादी रणनीति थी.

इसकी असल वजह क्या है? ये एकेडमिक्स की एक बड़ी डिबेट है. इसकी बात कभी और. आज हम आपको ऐसे देश की कहानी बताएंगे, जहां नए साल की तारीख पर विवाद छिड़ गया है. ये कहानी श्रीलंका की है. कुछ ज्योतिषियों ने 13 अप्रैल 2024 को शुभ घोषित किया. दूसरा गुट इससे नाराज़ हो गया. उसने कहा कि 13 अप्रैल शुभ नहीं है. अगर उस रोज़ नया साल मनाया तो क़यामत आएगी. श्रीलंका आग की लपटों में जल जाएगा. ज्योतिषी तारों की स्थिति देखकर मुहूर्त बताते हैं. इसलिए, इसको श्रीलंका का स्टारवॉर कहा जा रहा है.

तो, आइए जानते हैं,

- श्रीलंका में ज्योतिषियों का इतना दबदबा क्यों है?
- नए साल की तारीख़ तय करने पर कैसा विवाद पनपा?
- और साथ जानेंगे, दुनियाभर के कुछ दिलचस्प विवादों की कहानियां.

पहले बेसिक क्लीयर कर लेते हैं.

श्रीलंका हिंद महासागर में बसा एक द्वीपीय देश है. चारों तरफ़ से समंदर से घिरा हुआ. किसी भी देश से उसकी ज़मीनी सीमा नहीं लगती. सबसे क़रीब में भारत है. भारत से श्रीलंका की न्यूनतम दूरी लगभग 55 किलोमीटर है. दोनों देशों को पाल्क स्ट्रेट एक-दूसरे से अलग करती है. श्रीलंका 1948 में ब्रिटिश शासन से आज़ाद हुआ. तब इसको सीलोन के नाम से जाना जाता था. 1972 में नाम बदलकर श्रीलंका कर दिया गया.

श्रीलंका का मैप 

मुल्क की आबादी 02 करोड़ 25 लाख है.
70 फीसदी लोग बौद्ध हैं. तकरीबन 13 फीसदी हिंदू हैं, 10 फीसदी मुस्लिम और 07 फीसदी ईसाई हैं.

श्रीलंका की दो राजधानियां हैं - कोलम्बो और श्रीजयवर्धनपुरा. दूसरे बड़े शहर हैं - गाले, हम्बनटोटा, केंडी, जाफ़ना, दाम्बुला आदि.

अब श्रीलंका का पॉलिटिकल सिस्टम समझ लेते हैं. श्रीलंका एक लोकतांत्रिक गणराज्य है. शक्तियों का विभाजन सरकार के तीन अंगों के बीच हुआ है - कार्यपालिका, विधायिक और न्यायपालिका.
> कार्यपालिका की कमान राष्ट्रपति के पास है.
- वो राष्ट्र और सरकार के मुखिया होते हैं.
- सशस्त्र सेनाओं के सुप्रीम कमांडर हैं.
- मंत्रिमंडल की चाबी भी उन्हीं के पास होती है.
- प्रधानमंत्री की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करते हैं.
- राष्ट्रपति के पास संसद आहूत करने और भंग करने का अधिकार भी होता है. हालांकि, उनके फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
- पद पर रहते हुए उनके ऊपर मुकदमा नहीं चल सकता.
- राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच बरस का होता है.

> विधायिका की कमान संसद के पास होती है.
श्रीलंका की संसद में सिर्फ़ एक सदन है. कुल सदस्यों की संख्या 225 है.
संसद के पास विधान बनाने की शक्ति है.
संसद में प्रधानमंत्री सत्ताधारी पार्टी को लीड करते हैं.

> न्यायपालिका की कमान सुप्रीम कोर्ट के पास है. ये श्रीलंका की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है.

श्रीलंका का इतिहास क्या कहता है?

श्रीलंका का यूरोप से कनेक्शन 16वीं सदी की शुरुआत में हुआ. उससे पहले वहां भारत, चीन और मिडिल-ईस्ट के देश कदम रख चुके थे. श्रीलंका की भाषा और रहन-सहन पर सबसे बड़ा प्रभाव भारत का पड़ा. 1498 ईसवी में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा भारत के तट पर उतरा. वो भारत पहुंचने वाला पहला यूरोपियन था. पुर्तगाल ने भारत में अपनी कॉलोनी बसाई.  1505 में पहला गवर्नर नियुक्त किया. उसका नाम था, फ़्रैंसिस्को डि अल्मीडा. अल्मीडा ने अपने बेटे लॉरेंसो को मालदीव भेजा. इसी यात्रा के दौरान वो श्रीलंका के तट पर उतरा. उस समय श्रीलंका अलग-अलग साम्राज्यों में बंटा हुआ था. हर कोई एक-दूसरे के ख़िलाफ़ था. पुर्तगाल को अवसर दिखाई दिया. उसने कोलम्बो में अपने उपनिवेश की बुनियाद रख दी. ये श्रीलंका में औपनिवेशिक शासन की शुरुआत थी. पुर्तगालियों के बाद डच आए. 1658 में उनका शासन शुरू हुआ. हालांकि, केंडी उनकी पहुंच से दूर रहा. 1796 में ब्रिटेन ने क़ब्ज़ा करना शुरू किया. 1815 आते-आते केंडी पर भी उनका नियंत्रण हो चुका था.  उन्होंने सीलोन में चाय, कॉफ़ी और नारियल की खेती शुरू करवाई. फिर साउथ इंडिया से तमिल कामगारों को लेकर आए. 1833 में पूरा श्रीलंका ब्रिटेन के नियंत्रण में आ चुका था.

1931 में ब्रिटिशर्स बहुसंख्यक सिंहलियों के साथ पॉवर शेयर करने के लिए राज़ी हो गए. उन्होंने स्थानीय लोगों को वोटिंग का अधिकार भी दिया. ब्रिटेन का शासन 1948 तक चला. 04 फ़रवरी 1948 को श्रीलंका आज़ाद हो गया. हालांकि, वो तब भी ब्रिटेन का डोमिनियन बना रहा. यानी, आज़ादी के बाद भी हेड ऑफ़ द स्टेट की कुर्सी पर ब्रिटिश क्राउन ही बैठता रहा. मई 1972 में सीलोन ने डोमिनियन स्टेटस ख़त्म करने का फ़ैसला किया.

आज़ादी के बाद सत्ता बहुसंख्यक सिंहली लोगों के पास आई. इस बीच तमिल कामगारों की ज़िंदगी मुश्किल होने लगी. उनको नागरिकता और दूसरे बुनियादी अधिकारों से वंचित किया जाने लगा. इसके चलते दंगे भड़के. 1976 में लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (LTTE या लिट्टे) की स्थापना हुई. वे अलग तमिल देश की मांग कर रहे थे. लिट्टे ने श्रीलंका सरकार के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी. आगे चलकर ये सिविल वॉर में बदल गया. सिविल वॉर 2009 तक चला. तब श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे को हरा दिया. फिलहाल, श्रीलंका सिविल वॉर में हुए नुकसान और आर्थिक और राजनैतिक संकट से उबरने की कोशिश कर रहा है.

आज श्रीलंका की चर्चा क्यों?

जैसा कि हमने शुरुआत में बताया, वहां ज्योतिषों के बीच लड़ाई छिड़ गई है. श्रीलंका में किसी भी शुभ काम के लिए ज्योतिष की सलाह लेना ज़रूरी माना जाता है. आम लोगों से लेकर ताक़तवर नेताओं तक पर इसका प्रभाव देखा गया है. ज्योतिष की सलाह पर चुनाव तक कराए गए हैं.

श्रीलंका में बौद्ध आबादी लगभग 70 फीसदी है, दूसरे नंबर पर हिंदू हैं, जिनकी आबादी लगभग 13 फीसदी है. दोनों धर्मों के अधिकतर लोग एस्ट्रोलॉजी माने ज्योतिष शास्त्र पर यकीन करते हैं. ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों और सितारों की स्थिति देखकर भविष्य का आकलन लगाया जाता है. ज्योतिषी दावा करते हैं कि हमारे बताए मुताबिक़ चले तो आपको फ़ायदा होगा.
श्रीलंका में इस दावे पर भरोसा करने वालों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है. तीन उदाहरणों से समझिए,

- नंबर एक, श्रीलंका सरकार ने 42 ज्योतिषियों की एक टीम सरकारी फैसलों पर राय लेने के लिए रखी है. ये ज्योतिषी सांस्कृतिक मामलों के मंत्रालय द्वारा नियुक्त किए जाते हैं. इनको सरकार सैलरी देती है.

- नंबर 2, वहां के बड़े मंत्री, व्यापारी अपना निजी ज्योतिषी रखते हैं. श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षा का इससे जुड़ा एक मज़ेदार क़िस्सा भी है. साल 2014 की बात है. श्रीलंका में महिंदा राजपक्षा की पॉपुलैरिटी कम हो रही थी. वो 2005 से श्रीलंका के राष्ट्रपति बने हुए थे. लोग उनकी नीतियों से खुश नहीं थे. उन्हें डर था कि अगला चुनाव वो नहीं जीत पाएंगे. इसी डर के चलते उन्होंने अपने निजी ज्योतिषी सुमनदास एबेगुणवर्धने से सलाह ली. पूछा कि क्या किया जाए कि मैं चुनाव जीत जाऊं. सुमनदास ने राष्ट्रपति चुनाव की तारीख़ बदलने की सलाह दी. कहा चुनाव समय से पहले हों तो आपके सितारे चमक उठेंगे. सुमनदास की सलाह मानकर महिंदा ने तय समय से दो बरस पहले यानी जनवरी 2015 में चुनाव कराने का ऐलान कर दिया.
सुमनदास ने राजपक्षा को चुनाव के लिए पर्चा भरने की मुहूर्त भी बताई. उन्होंने मुहूर्त के मुताबिक 20 नंबवर 2014 को दिन के 1 बजकर 04 मिनट पर पर्चा भर दिया.
08 जनवरी 2015 को वोटिंग हुई. राजपक्षा अपनी जीत को लेकर निश्चिंत थे. लेकिन नतीजे आए तो उनको झटका लगा. इसमें राजपक्षा की हार हुई थी. मैत्रीपाल सिरिसेना चुनाव जीत गए थे.
राजपक्षा की हार के बाद सुमनदास से उसका आलिशान बंगला छीन लिया गया. वो एक सरकारी बैंक का बोर्ड मेंबर भी था. उसे वहां से भी निकाल दिया गया. ये सब राजपक्षा की हार की वजह से हो रहा था. सुमनदास कुछ दिनों तक मीडिया से बचता भी रहा. उसका बतौर ज्योतिषी श्रीलंका में खूब नाम था. उसको अपने ग्राहक खोने का डर था. बाद में AFP को दिए गए इंटरव्यू में वो ये बात कबूलता भी है.  
सुमनदास ने राजपक्षा की हार पर कहा था,
‘मैं उनकी जीत के लिए जो कर सकता था, किया. पर राष्ट्रपति बनने के लिए आपके पास भाग्य भी होना चाहिए’

- अब तीसरे उदाहरण की तरफ़ चलते हैं. श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षा ने साल 2022 में इस्तीफ़ा दे दिया था. उस समय श्रीलंका आर्थिक संकट से जूझ रहा था.

खैर, गोटबाया इस्तीफ़ा देकर मालदीव भागने को तैयार थे. इसके पहले उनके घर पर हमला हुआ. गोटबाया की एक पर्सनल ज्योतिषी ज्ञानवती जयसूर्या थी. लोगों को पता था कि गोटबाया हर फै़सले से पहले उससे राय लेते हैं. इसलिए  गुस्साई भीड़ ने 9 मई 2022 को ज्ञानवती के होटल पर हमला कर दिया. लोग देश के हालत की ज़िम्मेदार उन्हें भी मान रहे थे.  इसलिए कहा जाता है, श्रीलंका में नेताओं से ज़्यादा ताकतवर ज्योतिषी होते हैं.

- श्रीलंकाई फ़ौज के कई जनरलों ने माना है कि सिविल वॉर के दौरान ऑपरेशन की टाइमिंग ज्योतिषियों की सलाह पर तय होती थी.

इन उदाहरणों से आप श्रीलंका में ज्योतिषियों की अहमियत समझ चुके होंगे.

श्रीलंका में नए साल की तारीख तय करने का ज़िम्मा ज्योतिषियों का होता है. इसके लिए सरकार ने एक कमिटी बनाई हुई है. इसमें कुल 42 ज्योतिषी हैं. ये हर साल तमिल और सिंहली नववर्ष की तारीख़ तय करते हैं. ये नववर्ष अप्रैल के महीने में पड़ता है. आमतौर पर कमिटी आपसी सहमति से एक दिन चुनती है. लेकिन इस बार ऐसा हुआ कि अंतिम समय तक सहमति नहीं बन पाई. फिर बहुमत का फ़ैसला माना गया. बहुमत ने 13 अप्रैल का दिन निर्धारित किया. घोषणा तो हो गई, मगर विरोध बरकरार रहा. कमिटी के कुछ सदस्यों ने फ़ैसला मानने से मना कर दिया. उनमें से एक रोशन चनाका ने पब्लिक में आकर अपना विरोध दर्ज कराया. रोशन ने चेतावनी दी कि 13 अप्रैल का दिन निर्धारित करने वालों की गणना ग़लत है. अगर ग़लत मुहूर्त में नववर्ष से जुड़े अनुष्ठान हुए तो श्रीलंका में आपदा आ सकती है. श्रीलंका आग की लपटों में जल सकता है.

इस वक़्त श्रीलंका आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश कर रहा है.दूसरी चीज़, इसी बरस श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनाव भी होने वाला है. सरकार किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहती है. इसलिए, ज्योतिषियों का मतभेद बड़े विवाद में बदल सकता है. 

अब, कुछ ऐसी घटनाओं के बारे में जान लेते हैं, जब तिल का ताड़ बनते देर नहीं लगी. और, छोटी सी बात पर विवाद इतना बढ़ा कि जंग शुरू हो गई.

- नंबर एक, जब पेस्ट्री की वजह से दो मुल्कों में जंग हुई,

साल 1821 में मेक्सिको को स्पेन से आज़ादी मिली. आज़ादी के बाद देश की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी. मेक्सिको पर फ्रांस समेत दूसरे देशों का कर्ज़ा बकाया था. मेक्सिको में एक इलाका ऐसा था जहां बड़ी संख्या में फ़्रेंच लोग रहते थे. इसी इलाके में एक फ्रांसीसी नागरिक बेकरी चलाता था. 1832 में बेकरी के मालिक ने दावा किया कि एक मेक्सिकन सैनिक ने उसकी दुकान पर हमला किया, तोड़-फोड़ की. इससे उसका बड़ा नुकसान हुआ है. उसे इसका मुआवजा चाहिए. मेक्सिको सरकार की तरफ से उसको कोई मुआवज़ा नहीं मिला. तब उसने सीधे इसकी शिकायत फ्रांस के राजा से कर दी. मेक्सिको में इस तरह के और भी वाकये हुए, जहां फ्रांसीसियों को निशाना बनाया गया.

फ्रांस ने इसकी शिकायत मेक्सिको की सरकार से की. और, मुआवज़ा देने के लिए कहा. लेकिन मेक्सिको की माली हालत सही नहीं थी. वो ये पैसे कैसे चुकाता. उसके ऊपर पहले से ही बहुत कर्ज़े थे. इसलिए उसने मुआवज़ा देने से इनकार कर दिया. फ्रांस की सरकार मेक्सिको को धमकाती रही. मुआवज़ा देने की मांग करती रही. ये सिलसिला चलता रहा. ऐसा होते होते 6 साल बीत गए.
फिर 1838 में फ्रांस ने अपना एक जहाज़ मेक्सिको के बंदरगाह पर लाकर खड़ा कर दिया. उसने मेक्सिको के जहाज़ों का रास्ता ब्लॉक कर दिया. इसके चलते मेक्सिको को समंदर के रास्ते व्यापार में दिक्कत आई. कुछ दिनों बाद फ्रांस ने मेक्सिको के बंदरगाह पर बमबारी भी की. मेक्सिको ने भी युद्ध का ऐलान किया. मेक्सिको के पास हथियार और सैनिक कम थे, लेकिन फिर भी वो बहादुरी से लड़े. लेकिन युद्ध ज़्यादा चला नहीं. 1839 में दोनों देशों के बीच समझौता हो गया. मेक्सिको में जितने भी फ्रांस नागरिकों का नुकसान हुआ था, उनको मुआवज़ा देना पड़ा.

नंबर 2. जब एक आवारा कुत्ते की वजह से दो देश भिड़े.

20वीं सदी के शुरुआती दौर की बात है. यूरोप के दो देश ग्रीस और बुल्गारिया के बीच ज़मीन के कुछ हिस्सों को लेकर विवाद चल रहा था. इनमें से एक मेसीडोनिया था. दोनों देश इसे अपना-अपना हिस्सा बता रहे थे. नॉर्थ मेसीडोनिया आज एक आज़ाद देश है. 1991 में इसको यूगोस्लाविया से आज़ादी मिली थी. खैर मेसीडोनिया की ज़मीन को लेकर 1904 में ग्रीस और बुल्गारिया के बीच खूब लड़ाई हुई. 4 साल के बाद लड़ाई रुकी. लेकिन रंजिशें अभी भी बाकी थीं. दोनों बस किसी मौके के इंतज़ार में थे कि वापस लड़ाई शुरू हो जाए. लेकिन पहले विश्व युद्ध तक तो सब शांत रहा. फिर आया साल 1925. अक्टूबर महीने की बात है. ग्रीस और बुल्गारिया के सिपाही बॉर्डर पर पहरा दे रहे थे. 

एक रोज़ सुबह के समय ग्रीस के एक सैनिक ने अपने इलाके से एक कुत्ते को बॉर्डर पार करते देखा. वो सैनिक कुत्ते के पीछे-पीछे चला गया, ताकि उसे सीमा पार ना जाने दे. लेकिन सैनिक और वो कुत्ता ग़लती से सीमा पार पहुंच गए.   बुल्गारिया के एक सैनिक ने इसको घुसपैठ मान लिया और गोली चला दी. इससे ग्रीस गुस्सा गया. बुल्गारिया का कहना हमने जानबूझकर गोली नहीं चलाई. वहीं ग्रीस ने 3 मांगें रख दीं. नंबर 1, बुल्गारिया उस सैनिक के परिवार को मुआवज़ा दे, नंबर 2, बुल्गारिया गोली चलाने वाले सैनिक को जल्द सज़ा दे., नंम्बर 3. बुल्गारिया आधिकारिक रूप से हमसे माफ़ी मांगे.

बुल्गारिया ने तीनों मांगें नहीं मानी. फिर दोनों के बीच लड़ाई हुई. दोनों तरफ से कई सैनिक मारे गए. इसे इतिहास में 'वॉर ऑफ द स्ट्रे डॉग' के नाम से जाना गया.

नंबर तीन. जब सुअर की वजह से भिड़े दो देश.

ये कहानी 1859 की है. अमेरिका और वैंकुवर आईलैंड (वर्तमान में कनाडा) के बीच सैन हुआन आईलैंड पड़ता है. तब यहां पर अमेरिका के मूल निवासी और ब्रिटेन की एक कंपनी ‘हडसन बे’ के कर्मचारी रहते थे. दोनों ही पक्ष सैन हुआन आईलैंड को अपना बताते थे. वहां पर ब्रिटिश कर्मचारियों ने सुअर पाला हुआ था. ये सुअर अमेरिकियों की फसल ख़राब कर दिया करते थे. इससे परेशान होकर एक अमेरिकी किसान ने एक सुअर को गोली मार दी. किसान का नाम लीमैन कटलर था. इससे ब्रिटिश और अमेरिकियों के बीच तनाव पैदा हो गया.
ये विवाद सैन हुआन आईलैंड पर असल अधिकार की लड़ाई में बदल गया. फिर अमेरिका ने फ़ौज की एक टुकड़ी रवाना की. उन्होंने वहां पहुंच कर ब्रिटिश लोगों से कहा कि ये पूरी प्रॉपर्टी अमेरिका की है.  ब्रिटिश लोगों ने भी अपने देश में इस घटना की जानकारी दी. ब्रिटेन ने सैन जुआन की तरफ एक जंगी बेड़ा भेज दिया. दोनों के बीच जंग के हालात बन गए थे.
बाद में ब्रिटेन की पहल पर अमेरिका ने बातचीत शुरू की. फिर फैसला हुआ कि सैन हुआन आईलैंड पर दोनों ही देशों का मिलिट्री ऑक्यूपेशन रहेगा. इस तरह से एक सुअर की वजह से अमेरिका और ब्रिटेन में जंग होते-होते रह गई.

अब दुनिया की कुछ बड़ी अपडेट जान लेते हैं.  

पहली सुर्खी अमेरिका से है.

नवंबर 2024 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव की तस्वीर साफ़ हो चुकी है. डेमोक्रेटिक पार्टी से मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन और रिपब्लिकन पार्टी से पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का नाम लगभग तय है. दोनों ने प्राइमरी इलेक्शन जीतने के लिए ज़रूरी डेलीगेट्स हासिल कर लिए हैं.
अभी क्या स्थिति है?
रिपब्लिकन पार्टी का नॉमिनेशन हासिल करने के लिए 1,215 डेलीगेट्स की ज़रूरत थी. ट्रंप के खाते में 1,623 वोट हैं.
डेमोक्रेटिक पार्टी से नॉमिनेशन पाने के लिए 1,968 डेलीगेट्स की दरकार थी. बाइडन 2,488 वोट हासिल कर चुके हैं.
अभी कई राज्यों में प्राइमरी इलेक्शन बाकी है. यानी, दोनों कैंडिडेट्स का बेस और बढ़ेगा.

आगे क्या होगा?
प्राइमरी इलेक्शन खत्म होने के बाद नेशनल कन्वेंशन होगा. उसमें चुने हुए डेलीगेट्स अपनी-अपनी पार्टी का प्रेसिडेंशियल कैंडिडेट चुनेंगे.
कब है नेशनल कन्वेंशन?
रिपब्लिकन पार्टी - 15 जुलाई.
डेमोक्रेटिक पार्टी - 19 अगस्त.

जैसे ही कैंडिडेट्स के नाम पर मुहर लगेगी, प्रेसिडेंशियल डिबेट का प्रोसेस शुरू होगा. दोनों उम्मीदवारों के बीच तीन डिबेट्स होंगी. इनका प्रसारण लाइव टीवी पर होता है. पहली डिबेट 16 सितंबर को हो सकती है.

राष्ट्रपति चुनाव कब होगा?
05 नवंबर 2024 को लोग वोट डालेंगे. उससे पहले लाखों लोग पोस्ट और अर्ली वोटिंग में अपना मत दर्ज करा चुके होंगे. नतीजा आने में एक से चार हफ़्ते तक का वक़्त लग सकता है.

06 जनवरी 2025 को अमेरिका की संसद रिजल्ट सर्टिफ़ाई करेगी.
20 जनवरी 2025 को अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति पद और गोपनीयता की शपथ लेंगे.

आज के समय में कौनसा कैंडिडेट आगे चल रहा है?
- डोनाल्ड ट्रंप पर चार आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं. एक मामला जनवरी 2021 में तख़्तापलट की साज़िश रचने से जुड़ा है. जब ट्रंप के समर्थकों ने संसद में घुसकर दंगा किया था.
- जो बाइडन महंगाई को काबू करने में फ़ेल रहे हैं. मेक्सिको बॉर्डर से आने वाले आप्रवासियों को रोकने में भी उनकी सरकार सफल नहीं हो पाई है. इसके अलावा, इज़रायल-हमास जंग, यूक्रेन और अफ़ग़ानिस्तान में बाइडन की विदेश-नीति कमज़ोर साबित हुई है.
जानकार कहते हैं, दोनों ही खासे अलोकप्रिय हैं. वोटर्स की चुनौती कम ख़राब कैंडिडेट चुनने की है.

आज की दूसरी और आख़िरी सुर्खी ब्राज़ील से है. यहां पुलिस ने पूर्व राष्ट्रपति जाएर बोल्सोनारो के ख़िलाफ़ आपराधिक मुकदमा चलाने की सलाह दी है. उनके ऊपर कोविड वैक्सीन सर्टिफ़िकेट में फ़र्ज़ीवाड़े का आरोप है. पुलिस ने साल भर की जांच के बाद अपनी रिपोर्ट सौंप दी है. अब मुकदमा चलाने की ज़िम्मेदारी अटॉर्नी जनरल के पास है.
हालांकि, ये बोल्सोनारो पर लगने वाला इकलौता आरोप नहीं है. उनपर दो और संगीन मामलों में जांच चल रही है. पहला मामला हीरे की ज्वैलरी छिपाकर ब्राज़ील लाने से जुड़ा है. दूसरा मामला तख़्तापलट की साज़िश रचने से जुड़ा है. बोल्सोनारो का कार्यकाल 01 जनवरी 2019 से 31 दिसंबर 2022 तक था. उससे पहले अक्टूबर 2022 में राष्ट्रपति चुनाव हुए. इसमें लूला डि सिल्वा ने बोल्सोनारो को हरा दिया. 01 जनवरी 2023 को लूला राष्ट्रपति बन गए. 08 जनवरी को बोल्सोनारो के समर्थकों ने राजधानी ब्राजीलिया में संसद और सुप्रीम कोर्ट की इमारतों पर हमला कर दिया. उनका मकसद था कि फ़ौज दखल दे और लूला की सरकार को हटा दे. हालांकि, वे सफल नहीं हो पाए. बोल्सोनारो पर इल्ज़ाम है कि इस हमले की साज़िश उन्होंने रची थी.