नासा एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स और बुच विल्मोर 9 महीने बाद अंतरिक्ष से सुरक्षित धरती पर लौटीं तो पूरी दुनिया ने राहत की सांस ली. उनकी ये यात्रा स्पेस साइंस में दिलचस्पी रखने वाले हर शख्स को ये सबक दे गई है कि अगर आपकी कैलकुलेशन, आपकी प्लानिंग में जरा चूक या गड़बड़ी हुई तो आपका 'घर' लौटना कितना मुश्किल हो सकता है. ऐसे हालात में आपके ज्ञान, अनुभव, तकनीकी समझ, शारीरिक मजबूती और मानसिक दृढ़ता की असली परख होती है.
जब अंतरिक्ष में लटके एस्ट्रोनॉट ने ऑक्सीजन छोड़ कर मौत को मात दी!
अंतरिक्ष की विस्मयी यात्रा में छोटी-सी गलती या जरा-सी तकनीकी खराबी एडवांस से एडवांस स्पेस मिशन को जीवन-मौत का खेल बना सकती है. कुछ अंतरिक्ष यात्रियों के मामले में ये आशंका सच भी साबित हुई है. तब उन्होंने अपनी ट्रेनिंग, स्किल, हिम्मत, और कभी-कभी सिर्फ किस्मत के दम पर मौत को मात दी है.

साल 1961 से लेकर अब तक 600 से भी कम लोगों ने धरती की वायुमंडलीय सीमा पार कर अंतरिक्ष की सैर की है. लेकिन इस विस्मययुक्त यात्रा में छोटी-सी गलती या जरा-सी तकनीकी खराबी एडवांस से एडवांस स्पेस मिशन को जीवन-मौत का खेल बना सकती है. कुछ अंतरिक्ष यात्रियों के मामले में ये आशंका सच भी साबित हुई है. तब उन्होंने अपनी ट्रेनिंग, और कभी-कभी सिर्फ किस्मत के दम पर मौत को मात दी है.
मौत को छूकर आया पहला अंतरिक्ष यात्रीतारीख थी 12 अप्रैल, 1961. यूरी गागरीन सोवियत संघ के वोस्तोक-1 स्पेसक्राफ्ट पर सवार होकर अंतरिक्ष में पहुंचे. 108 मिनट में उन्होंने पृथ्वी का एक पूरा चक्कर लगाया. लेकिन जब वापसी का समय आया तो एक 'भयानक' गड़बड़ हो गई. स्पेसक्राफ्ट का सर्विस मॉड्यूल कमांड मॉड्यूल से अलग नहीं हो पाया. इससे स्पेसक्राफ्ट का बैलेंस बिगड़ गया और वह तेजी से घूमने लगा. बहुत ज्यादा गुरुत्वॉकर्षण बल के कारण गागरीन बेहोश हो सकते थे. मौत करीब थी, लेकिन फिर किस्मत ने उनका साथ दिया. फ्रिक्शन की गर्मी ने अंततः दोनों मॉड्यूल के बीच के तारों को जला दिया. इससे मॉड्यूल अलग हो गए और स्पेसक्राफ्ट स्थिर हो गया. इस तरह से दुनिया का पहला अंतरिक्ष यात्री मौत को मात देकर सुरक्षित धरती पर वापस लौटा.
गागरीन की अंतरिक्ष यात्रा के 6 साल बाद सोवियत संघ ने तय किया कि इंसान को अंतरिक्ष में ‘वॉक’ (Spacewalk) करवाया जाए. 18 मार्च, 1965 को बैकोनूर से वोस्खोद-2 (Voskhod-2) अंतरिक्ष यान को लॉन्च किया गया. इसमें अंतरिक्ष यात्री एलेक्सी लियोनोव और पावेल बेल्यायेव सवार थे. रॉकेट के ऑर्बिट में पहुंचने के बाद बेलियायेव ने एयरलॉक खोला और लियोनोव अंतरिक्ष में चले गए. वह 16 फीट लंबे केबल के जरिये अंतरिक्ष यान से बंधे हुए थे. इस तरह वह 12 मिनट तक अंतरिक्ष में ‘तैरते’ रहे. लेकिन तभी कुछ गड़बड़ हो गई.
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अंतरिक्ष के निर्वात के कारण उनका सूट गुब्बारे की तरह फूल गया और सख्त हो गया. इससे उनकी हरकतें सीमित हो गईं. ऐसा हो गया कि वह एयरलॉक से वापस नहीं जा सके. लियोनोव ‘अंतरिक्ष में चलने वाले पहले व्यक्ति’ से ‘अंतरिक्ष में मरने वाले पहले व्यक्ति’ बनने से कुछ सेकंड दूर थे. हताश होकर उन्होंने एक चांस लिया. अपने सूट से ऑक्सीजन छोड़ी. पैंतरा काम कर गया. ऑक्सीजन कम होने की वजह से उनकी सांसें तो फूलीं, लेकिन वो किसी तरह हांफते हुए स्पेसक्राफ्ट के अंदर आ गए.
हालांकि खतरा अभी खत्म नहीं हुआ था. पृथ्वी पर उनकी वापसी तो और भी खतरनाक थी. लियोनोव के यान का ऑटोमैटिक री-एंट्री सिस्टम फेल हो गया. इसके चलते बेलियायेव को अंतरिक्ष यान को मैनुअली, यानी खुद से निर्देशित करना पड़ा. बाद में यान एक घने साइबेरियाई जंगल में दुर्घटनाग्रस्त हो गया. लियोनोव तक पहुंचने में रेस्क्यू टीम को दो दिन लग गए.
डेड स्टेशन को किया जिंदाफरवरी 1985 में सोवियत अंतरिक्ष स्टेशन सैल्यूट-7 रहस्यमय तरीके से मिशन कंट्रोल से संपर्क खो बैठा. वहां बिजली के सारे काम बंद हो गए और हीटिंग सिस्टम भी फेल हो गया. स्टेशन का आंतरिक तापमान मायनस 20 डिग्री सेल्सियस तक गिर गया. डेड स्टेशन की मरम्मत के लिए धरती से दो लोगों को वहां भेजने का फैसला किया गया. 6 जून, 1985 को अंतरिक्ष यात्री व्लादिमीर दज़ानिबेकोव और विक्टर सविनिख ने सोयुज टी-13 पर उड़ान भरी. उनका काम डॉकिंग का था, जो आमतौर पर स्टेशन के ऑटोमैटिक सिस्टम द्वारा किया जाता है.
लेकिन सैल्यूट 7 'मृत' हालत में था. ऐसे में यह काम मैनुअली करना था. दोनों अंतरिक्ष यात्री वहां पहुंचते ही इस काम में लग गए. इस दौरान कोई भी गलत कैलकुलेशन उनके अंतरिक्ष यान को तबाह कर सकती थी या उन्हें अनंत स्पेस में धकेल सकती थी. हालांकि, दोनों ही एस्ट्रोनॉट डॉकिंग करने में सफल रहे. 10 दिनों के संघर्ष के बाद सैल्यूट 7 को फिर से पूरी तरह से चालू कर दिया गया.
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सबसे फास्ट स्पेसवॉक मिशन9 मई, 2013 की बात है. अमेरिकी एस्ट्रोनॉट क्रिस हैडफील्ड उस समय अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) में तैनात थे. उन्होंने एक अजीब नज़ारा देखा. ISS के बाहर छोटे-छोटे सफेद कण उड़ते दिखाई दे रहे थे, मानो बर्फ गिर रही हो. लेकिन यह बर्फ नहीं थी. यह अमोनिया (Ammonia) के कण थे, जो अंतरिक्ष स्टेशन की कूलिंग सिस्टम से रिस रहे थे. अमोनिया ISS के सौर पैनलों के तापमान को नियंत्रित करने के लिए बेहद ज़रूरी था. यह सिस्टम हरेक पैनल को ठंडा रखने का काम करता था ताकि वे अधिक गर्म होकर खराब न हो जाएं.
अगर यह रिसाव बढ़ता, तो बिजली का पूरा सप्लाई सिस्टम खतरे में आ सकता था. धरती पर मौजूद नासा के इंजीनियरों ने तुरंत रिसाव के वीडियो फुटेज का विश्लेषण किया और पता लगाया कि लीकेज एक खराब पंप की वजह से हो रहा था. इस आपात स्थिति से निपटने के लिए एक स्पेसवॉक मिशन की योजना बनाई गई. सिर्फ 48 घंटों के भीतर योजना बनाकर इस काम को पूरा कर लिया गया. यह नासा के इतिहास में सबसे तेज पूरा किए जाने वाले स्पेसवॉक मिशनों में से एक था
सबसे सफल असफलता11 अप्रैल, 1970 को नासा के अंतरिक्ष यात्री जिम लवेल, जैक स्विगर्ट और फ्रेड हैस को चंद्रमा पर फ्रा मौरो क्रेटर के पास उतरना था. उड़ान के 55 घंटे बाद एक विस्फोट से स्पेसक्राफ्ट हिल गया. पता चला कि एक ऑक्सीजन टैंक फट गया है. विस्फोट ने दूसरे टैंक को भी क्षतिग्रस्त कर दिया है. इससे दोनों ही काम के नहीं रहे. अब यह मिशन चंद्रमा पर उतरने से ज्यादा अंतरिक्ष में जिंदा बचने का था.
क्रू लूनार मॉड्यूल एक्वेरियस में चला गया. लेकिन जल्द ही कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर खतरनाक रूप से बढ़ गया. इससे दोनों एस्ट्रोनॉट का दम घुटने लगा. अंतरिक्ष यात्रियों के पास कोई एयर फ़िल्टर नहीं था. लेकिन पृथ्वी पर बैठे नासा इंजीनियरों ने एक 'असंभव' समाधान खोज निकाला. उन्होंने यान में मौजूद चीजों जैसे- डक्ट टेप, प्लास्टिक बैग और एक फ्लाइट मैन्युअल का उपयोग करके एक इम्प्रोवाइज्ड एयर फिल्टर का डिज़ाइन तैयार किया.
अंतरिक्ष यात्रियों ने इन निर्देशों का पालन किया और खुद से एयर फिल्टर बनाया. इससे उनकी जान बच पाई. चार लंबे और तनावपूर्ण दिनों के बाद अंतरिक्ष यात्री आखिरकार पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश कर पाए. 17 अप्रैल, 1970 को उनका कैप्सूल प्रशांत महासागर में सुरक्षित लैंड हुआ. मिशन तो चंद्रमा तक नहीं पहुंचा, लेकिन यह मानव बुद्धिमत्ता और टीमवर्क की अनोखी मिसाल बन गया. इसीलिए अपोलो 13 को इतिहास की 'सबसे सफल असफलता' कहा जाता है.
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