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सोवियत संघ से लेकर रुस की आंखों की किरकिरी बने नेटो की कहानी क्या है?

नेटो एक साझा सैन्य संगठन है. किसी एक सदस्य देश पर हमला समूचे संगठन पर हमला माना जाएगा. इसलिए उसकी रक्षा में सभी सदस्यों को अपनी सेना उतारनी पड़ेगी. इसका इस्तेमाल सिर्फ़ एक बार हुआ. 11 सितंबर 2001 को अमरीका पर हुए आतंकी हमले के बाद.

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नेटो सदस्य देशों की साझा सेना (फोटो- नेटो/इंस्टाग्राम)

नॉर्थ अमेरिका और यूरोप के कुल 32 देशों के सैन्य संगठन नेटो में सत्ता बदल रही है. नेटो के मौजूदा सेक्रेटरी-जनरल येन्स स्टॉलेनबर्ग का कार्यकाल अक्टूबर में पूरा हो रहा है. उससे पहले नए मुखिया के नाम पर मंथन चल रहा है. नेटो में हर एक देश के पास वीटो का अधिकार है. यानी, अगर कोई भी सदस्य देश किसी प्रस्ताव से खुश नहीं है तो वो पास नहीं हो सकता. जैसा अभी हो रहा था. अगले नेटो चीफ़ के लिए मार्क रुटा का नाम सबसे ऊपर चल रहा था. रुटा 2010 से नीदरलैंड के प्रधानमंत्री हैं. 2023 के आम चुनाव से पहले उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का एलान किया था. हालांकि, चुनाव के बाद नई सरकार का गठन अभी तक नहीं हो पाया है. इसलिए, रुटा पद पर बने हुए हैं. नई सरकार बनते ही वो कुर्सी छोड़ देंगे.

मौजूदा नेटो चीफ येन्स स्टॉलेनबर्ग (फोटो-विकीपीडिया)


ख़ैर, रुटा ने नीदरलैंड की राजनीति से संन्यास के एलान के बाद नेटो चीफ़ के लिए दावेदारी पेश की. अधिकतर देश उनके नाम को लेकर सहज थे. मगर हंगरी ने आपत्ति जता दी. उसकी हामी के बिना रुटा का नेटो चीफ़ बनना नामुमकिन था. फिर उनको चिट्ठी लिखनी पड़ी. वादा करना पड़ा कि कुर्सी पर बैठने के बाद वो हंगरी पर यूक्रेन की मदद का दबाव नहीं बनाएंगे. चिट्ठी मिलने के बाद हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान ने रुटा के समर्थन का वादा किया. हंगरी के अलावा स्लोवाकिया ने भी हामी भर दी है. बाकी किसी और देश ने विरोध नहीं किया है. इसलिए, रुटा का नेटो चीफ़ बनना लगभग तय है.
 

तो, समझते हैं-
- NATO चीफ़ का पद कितना ताक़तवर है?
- हंगरी मार्क रुटा का विरोध क्यों कर रहा था?
- नेटो के सामने आगे क्या-क्या चुनौतियां हैं?
- और, नेटो का इतिहास क्या है?
 

नेटो का झंडा (फोटो-एक्स)


पहले बेसिक समझ लेते हैं.
नेटो का फ़ुल फ़ॉर्म है -  नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (NATO). स्थापना 1949 में हुई. मकसद था - सोवियत संघ के विस्तार को रोकना. कुल सदस्य हैं – 32.
 

किसने कब जॉइन किया?

1949 - बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ़्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, ब्रिटेन और अमेरिका.
1952 - ग्रीस और तुर्किए.
1982 - स्पेन.
1990 - जर्मनी.
1999 - चेक रिपब्लिक, हंगरी और पोलैंड.
2004 - बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, रोमानिया, स्लोवाकिया, और स्लोवेनिया.
2009 - अल्बानिया और क्रोएशिया.
2017 - मॉन्टेनीग्रो.
2020 - साउथ मेसीडोनिया.
2023 - फ़िनलैंड.
2024 - स्वीडन.

नेटो एक साझा सैन्य संगठन है. किसी एक सदस्य देश पर हमला समूचे संगठन पर हमला माना जाएगा. इसलिए उसकी रक्षा में सभी सदस्यों को अपनी सेना उतारनी पड़ेगी. ये नेटो के आर्टिकल फ़ाइव में दर्ज़ है. इसका इस्तेमाल सिर्फ़ एक बार हुआ. 11 सितंबर 2001 को अमरीका पर हुए आतंकी हमले के बाद. नेटो के पास ख़ुद की अपनी सेना नहीं है. संकट के समय सभी देशों की सेना मिलकर लड़ सकती है.
नेटो के सदस्य देशों की आर्मी में कुल मिलकर 35 लाख सैनिक हैं. इससे आप उसकी ताकत का अंदाज़ा लगा सकते हैं. नेटो के सदस्य देशों की सेना समय-समय पर युद्ध अभ्यास भी करती रहती है.
 

फंडिंग कहां से मिलती है?

चूंकि नेटो की कोई आर्मी नहीं है. इसलिए, नियम है कि सभी सदस्य देश अपनी GDP का दो फीसदी हिस्सा अपने रक्षा बजट पर खर्चा करेंगे. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है. अमेरिका इसमें अपनी GDP का 3.5 फीसदी खर्चा करता है. और कई देश दो फीसदी भी खर्च नहीं करते. इसी वजह से अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने नोटे से निकलने की धमकी दी थी.


रूस से पंगा 

साल 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर अवैध क़ब्ज़ा कर लिया. नेटो ने इसका विरोध किया था. उस समय नेटो ने इस मामले में हस्तक्षेप नहीं किया था. मगर उसने अपने सहयोगी देशों में सेना ज़रूर उतार दी.
रूस का कहना है कि यूक्रेन को नेटो की सदस्यता नहीं मिलनी चाहिए. उससे उसको खतरा है. इसके अलावा रूस का कहना है कि 1997 के बाद जो भी देश नेटो के मेंबर बने हैं, उन्हें नेटो से निकाला जाए. और, ये गारंटी मिले कि आगे किसी भी देश को नेटो में शामिल नहीं किया जाएगा. अमरीका ने इससे इनकार किया है. कहा है कि यूक्रेन एक संप्रभु देश है. वो अपने फ़ैसले ख़ुद ले सकता है. नेटो के दरवाज़े यूक्रेन के लिए हमेशा खुले रहेंगे. अब सवाल आता है कि रूस को यूक्रेन की सदस्यता से क्या दिक्कत है? यूक्रेन नेटो का सदस्य तो नहीं है, लेकिन उसका साझेदार ज़रूर है. अगर यूक्रेन को सदस्यता मिली तो रूस की दो-तिहाई से अधिक पश्चिमी सीमा सीधे नेटो की पहुंच में आ जाएगी.

यूक्रेन की मदद

नेटो ने अपनी तरफ़ से कोई हथियार नहीं भेजे हैं. लेकिन उसके सदस्य देश यूक्रेन की लगातार मदद कर रहे हैं. सबसे ज़्यादा मदद अमेरिका कर रहा है. अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और तुर्किए ने एंटी टैंक वेपन, मिसाइल डिफ़ेंस सिस्टम, आर्टिलरी गन्स, टैंक्स और मिलिटरी ड्रोन्स यूक्रेन को दिए हैं. अमेरिका और ब्रिटेन ने तो यूक्रेन को लंबी दूरी की मिसाइलें भी दी हैं.
 

हालिया मुद्दा

ये मामला है, नेटो के नए मुखिया के चुनाव का. जैसा कि हमने पहले बताया, अभी नेटो के सेक्रेटरी-जनरल येन्स स्टोलेनबर्ग हैं. नेटो में आने से पहले नॉर्वे के प्रधानमंत्री रह चुके थे. येन्स के कार्यकाल में क्या-क्या हुआ? एक नज़र उसपर भी डालते हैं.
नंबर एक-नेटो में चार नए देशों को सदस्यता मिली.
2017 - मॉन्टेनीग्रो.
2020 - साउथ मेसीडोनिया.
2023 - फ़िनलैंड.
2024 - स्वीडन.

नंबर दो- रक्षा बजट में बढ़ोत्तरी.
जैसा कि हमने पहले बताया. नेटो के हर सदस्य को अपनी GDP का कम से कम दो फीसदी हिस्सा फ़ौज पर खर्च करना ज़रूरी है. पांच बरस पहले तक 10 देश भी ये टारगेट पूरा नहीं कर रहे थे. स्टोलेनबर्ग के दौर में ये संख्या बढ़ी है. उन्होंने 2024 में टारगेट रखा है कि कम से कम 20 सदस्य देश दो फीसदी की लिमिट को पार करें.

अब मार्क रूटा के बारे जान लेते हैं, जो नेटो के नए मुखिया हो सकते हैं.
रूटा का जन्म हेग में हुआ. उन्होंने आर्ट्स की पढ़ाई की है. शुरुआत में पियानो बजाने का शौक था. उसी को पेशा बनाना चाहते थे. लेकिन वो हुआ नहीं, तो इतिहास में मास्टर्स किया. फिर राजनीति में जाने का मन बनाया. शुरुआत यूथ ऑर्गनाइज़ेशन फ़्रीडम एंड डेमोक्रेसी नामक संगठन से हुई. तीन बरस तक इसके प्रेसिडेंट रहे. रुटा 2003 में पहली बार सांसद चुने गए. 2010 में पीएम बन गए. तब से अब तक सत्ता में बने हुए हैं.

पुतिन के कट्टर विरोधी

17 जुलाई 2014 को मलेशिया एयरलाइन्स का प्लेन MH-17 पूर्वी यूक्रेन में दुर्घटनाग्रस्त हो गया था. प्लेन में 80 बच्चों समेत 283 यात्री और 15 क्रू मेंबर मारे गए. इनमें से 196 नीदरलैंड के नागरिक थे. नीदरलैंड ने इसकी जांच करवाई. उसने हादसे का आरोप रूस पर लगाया. रूस ने इससे इनकार किया. लेकिन तबसे नीदरलैंड और रूस के बीच खटास बढ़ गई. अब जब उनके नेटो चीफ़ बनने की चर्चा हो रही है तो ये घटना ख़ूब याद की जा रही है. वैसे उन्होंने अपने आप को इस ज़िम्मेदारी के लिए साबित भी किया है. कैसे? 2 उदाहरणों से समझिए. नंबर एक. उन्होंने नीदरलैंड की GDP का दो प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा डिफ़ेंस बजट पर खर्च किया. जो नेटो मेंबर्स के लिए लाज़मी होता है. नीदरलैंड ने ये मुकाम पहली बार रुटा की लीडरशिप में हासिल किया. नंबर दो. उन्होंने यूक्रेन को F-16 लड़ाकू जेट, तोपखाने, ड्रोन और गोला-बारूद भेजा. ऐसे दौर में जब दूसरे यूरोपीय देश यूक्रेन को मदद देने से हिचकिचा रहे हैं. 

अब सुर्खियों की तरफ़ चलते हैं
पहली सुर्खी नॉर्थ कोरिया से है. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का नॉर्थ कोरिया दौरा शुरू हो गया है. 18 जून की रात उनका राजकीय विमान प्योंगयोंग के हवाई अड्डे पर उतरा. नॉर्थ कोरिया के सुप्रीम लीडर किम जोंग-उन ने ख़ुद उनकी आगवानी की.

पुतिन का स्वागत करते किम जोंग उन (फोटो-इंडिया टुडे/आजतक)


पुतिन 24 बरस बाद नॉर्थ कोरिया के दौरे पर गए हैं. पिछली बार 2000 में गए थे. तब किम जोंग-उन के पिता किम जोंग-इल नॉर्थ कोरिया के सुप्रीम लीडर हुआ करते थे. उस वक़्त पुतिन को सत्ता संभाले कुछ ही हफ़्ते हुए थे.पुतिन का अभी वाला दौरा ऐसे समय में हो रहा है, जब रूस, यूक्रेन की जंग में उलझा हुआ है. वो पश्चिमी देशों के कठोर प्रतिबंधों से जूझ रहा है. अब जानते हैं कि 19 जून को क्या-क्या हुआ?
-रूस ने नॉर्थ कोरिया के साथ स्ट्रैटज़िक पार्टनरशिप डील की है. इसके तहत, बाहरी हमले की स्थिति में वे एक-दूसरे की मदद करेंगे. अभी इस संधि की शर्तों का आकलन किया जा रहा है. उसके बाद ही ज़िम्मेदारी से कुछ कहा जा सकता है. हालांकि, इसका सबसे ज़्यादा असर यूक्रेन की जंग पर पड़ने वाला है. अभी तक नॉर्थ कोरिया पर रूस को हथियार सप्लाई करने के आरोप लगते थे, तो वो नकार देता था. अब वो खुलेआम क़बूल कर पाएगा.
 

डील के अलावा और क्या-क्या हुआ?

- पुतिन ने किम जोंग-उन को एक लग्ज़री कार, एक चाकू और टी सेट तोहफ़े में दिया.
- पुतिन के लिए नॉर्थ कोरिया में भव्य परेड का आयोजन किया गया. जहां कहीं से उनका क़ाफ़िला गुज़रा, लोग उनके स्वागत में खड़े थे.

आज की दूसरी और अंतिम सुर्खी दलाई लामा से जुड़ी है.
18 जून को सात अमरीकी सांसदों की एक टीम हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला पहुंची. वहां तिब्बत के निर्वासित आध्यात्मिक गुरू दलाई लामा से मुलाक़ात की. इस टीम में अमरीकी संसद के निचले सदन हाउस ऑफ़ रेप्रजेंटेटिव्स की पूर्व स्पीकर नैन्सी पेलोसी भी हैं. स्पीकर के पद पर रहते हुए पेलोसी ने अगस्त 2022 में ताइवान का दौरा किया था. इससे चीन नाराज़ हो गया था. तब उसने ताइवान को घेरकर कई दिनों तक मिलिटरी ड्रिल की थी.

अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के साथ दलाई लामा (फोटो- एक्स/दलाई लामा)

अमरीकी सांसदों के धर्मशाला दौरे पर भी चीन ने आपत्ति जताई है. भारत में चीनी दूतावास के प्रवक्ता ने एक्स पर लिखा,
 

“दलाई लामा कोई धार्मिक शख़्सियत नहीं हैं, बल्कि वो धर्म का नक़ाब ओढ़कर चीन-विरोधी अलगाववादी गतिविधियों में संलिप्त निर्वासित राजनेता हैं. हमारी अपील है कि अमरीका ने शिज़ांग के मुद्दे पर चीन से जो वादे किए थे, उसका सम्मान करे. और, दुनिया को ग़लत सिग्नल भेजना बंद करे.”
 

भारत स्थित चीनी दूतावास के प्रवक्ता की एक्स पोस्ट (फोटो-एक्स)


शिज़ांग, तिब्बत का आधिकारिक नाम है. चीनी दूतावास के प्रवक्ता ने ये भी लिखा कि शिज़ांग चीन का घरेलू मसला है. उसमें बाहरी दखल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. अमरीका को ‘शिज़ांग की आज़ादी’ का सपोर्ट नहीं करना चाहिए. चीन अपनी संप्रभुता, सुरक्षा और विकास को सुनिश्चित करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाता रहेगा.प्रवक्ता ने एक्स पर नैन्सी पेलोसी को भी टैग किया है. ये सब ऐसे समय में हो रहा है, जब अमरीकी संसद ‘रिज़ॉल्व तिब्बत बिल’ को मंज़ूरी दे चुकी है. बिल राष्ट्रपति जो बाइडन की टेबल पर रखा है. और, चीन बिल पर साइन नहीं करने की अपील कर रहा है.

रिज़ॉल्व तिब्बत बिल क्या है?

इसका आधिकारिक नाम है - प्रोमोटिंग ए रिजॉल्यूशन टू द तिब्बत-चाइना डिस्प्युट एक्ट. 1949 में चीन में माओ ज़ेदोंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट क्रांति सफल हुई. माओ ने पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना की. 1950 में चीन ने तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया. उससे पहले तिब्बत आज़ाद देश हुआ करता था. दलाई लामा तिब्बत के राजनीतिक और धार्मिक मुखिया होते थे. दलाई लामा कोई नाम नहीं है. बल्कि ये एक पदवी है. इसका अर्थ होता है - ज्ञान का समंदर. चीन के हमले के समय 14वें दलाई लामा तिब्बत के राष्ट्राध्यक्ष थे. उस वक़्त उनकी उम्र महज 15 साल थी. चीन ने उनको रास्ते से हटाने की साज़िश रची. 1959 में दलाई लामा को तिब्बत छोड़कर भागना पड़ा. उनके साथ हज़ारों तिब्बतवासी भी आए. उनको भारत में शरण मिली. उन्होंने धर्मशाला को निर्वासन वाली राजधानी बनाया. वहीं से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलने लगी. दलाई लामा के निकलने के बाद चीन को मौका मिल गया. वो तिब्बत की स्थानीय भाषा और संस्कृति को दबाने लगा.

कई बरसों तक तिब्बत का मुद्दा चर्चा से बाहर रहा. फिर सितंबर 1987 में दलाई लामा को अमरीकी संसद को संबोधित करने का मौका मिला. वहां उन्होंने तिब्बत में शांति के लिए पांच सूत्रीय मांगें रखी थीं.
- नंबर एक. पूरे तिब्बत को पीस ज़ोन बनाया जाए.
- नंबर दो. चीन पॉपुलेशन ट्रांसफ़र पॉलिसी को खत्म करे. इससे तिब्बती लोगों का अस्तित्व ख़तरे में पड़ता है.
- नंबर तीन. तिब्बत के लोगों के बुनियादी मानवाधिकार और लोकतांत्रिक आज़ादी का सम्मान किया जाए.
- नंबर चार. तिब्बत के प्राकृति संसाधनों का संरक्षण किया जाए. तिब्बत में परमाणु हथियारों का प्रोडक्शन बंद हो और न्युक्लियर वेस्ट को डंप ना किया जाए.
- नंबर पांच. तिब्बत के भविष्य और, तिब्बत और चीन के लोगों के बीच का रिश्ता तय करने के लिए बातचीत का प्रोसेस शुरू हो.

चीन ने प्लान को ख़ारिज कर दिया. कहा कि दलाई लामा के भविष्य के अलावा किसी और विषय पर बात नहीं होगी. फिर आया 1995 का साल. मई महीने में चीन ने 11वें पंचेन लामा को किडनैप कर लिया. पंचेन लामा ही अगला दलाई लामा चुनते हैं. किडनैपिंग के बाद चीन ने अपना अलग पंचेन लामा घोषित किया. तिब्बत की निर्वासित सरकार ने इसको नकार दिया.

इसके बावजूद 2002 में चीन और दलाई लामा के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत का दूसरा चरण शुरू हुआ. पहला चरण 1979 से 1994 तक चला था. 15 राउंड की मीटिंग के बाद भी कोई ठोस फ़ैसला नहीं निकला था. दूसरा चरण 2010 तक चला. इस बीच आठ दौर की बातचीत हुई. 2008 में बीजिंग ओलंपिक्स के दौरान तिब्बत में चीन सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा विद्रोह भी हुआ. चीन ने उसको आसानी से दबा दिया. हालांकि, दलाई लामा के साथ संबंध बिगड़ गए. 2010 में उसने बातचीत का प्रोसेस रोक दिया. उसके बाद से दोनों पक्ष आमने-सामने नहीं बैठे हैं. 14वें दलाई लामा ने 2011 में राजनीति से संन्यास ले लिया. और, सारी राजनीतिक शक्तियां चुनी हुई सरकार को सौंप दी. अब वे सिर्फ़ आध्यात्मिक सीख देते हैं. हालांकि, वो अभी भी तिब्बत की पहचान का हिस्सा बने हुए हैं.

अभी आपने चीन-तिब्बत विवाद समझता. अब रिज़ॉल्व तिब्बत बिल पर वापस लौटते हैं.
चीन का दावा है कि तिब्बत हमेशा से उसका हिस्सा रहा है. वहां की भाषा, संस्कृति और धार्मिक मान्यता चीन से ही जुड़ी है.
‘रिजॉल्व तिब्बत एक्ट’ लागू होने के बाद क्या होगा?
- तिब्बत से जुड़े चीन के भ्रामक दावों का खंडन करने के लिए अमरीका फ़ंड देगा.
- चीन पर दलाई लामा से बातचीत के साथ बातचीत के लिए दबाव बनाया जाएगा.
- अमरीका अपनी नीति को स्पष्ट करेगा कि तिब्बत की क़ानूनी स्थिति तय नहीं है. और, तिब्बत के भविष्य पर फ़ैसला इंटरनैशनल लॉ के हिसाब से होगा.

इस बिल को रिपब्लिकन पार्टी के सांसद माइकल मैकॉल ने स्पॉन्सर किया था. वो अमरीका के निचले सदन की फ़़ॉरेन अफ़ेयर्स कमिटी के अध्यक्ष भी हैं. वो भी पेलोसी के साथ धर्मशाला पहुंचे हैं. 19 जून को अमरीकी सांसदों ने बिल की एक कॉपी दलाई लामा को सौंपी.
 

दलाई लामा की एक्स पोस्ट (साभार)


कितना अहम है ये बिल?

जानकारों का कहना है कि इस बिल में कुछ भी ठोस नहीं है. अमरीका चीनी प्रोपेगैंडा को काउंटर करने और बातचीत के लिए दबाव बनाने के अलावा कुछ और नहीं कर रहा है. इसलिए, इसका कोई बड़ा असर देखने को नहीं मिलेगा.

आगे क्या होगा?

राष्ट्रपति जो बाइडन के दस्तख़त के बाद बिल क़ानून बन जाएगा. चीन ने बिल का विरोध किया है. कहा है कि बाइडन को इस बिल पर साइन नहीं करना चाहिए. हालांकि, वाइट हाउस ने कहा है कि बाइडन वही करेंगे, जो अमरीका के लोगों के हित में होगा. देखना दिलचस्प होगा कि बाइडन के दस्तख़त के बाद चीन कैसे रिएक्ट करता है.

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