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इस साल दशहरे पर अचानक से रावण-भक्त इतने बढ़ कैसे गए?

ये कौन लोग हैं, जो रावण की इतनी जय-जयकार कर रहे हैं?

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रावण का महिमामंडन पहले भी होता था, लेकिन छोटे स्केल पर, दबी ज़ुबान में.

हर दशहरे पर बचपन याद आता है. रावण का जलना, राम के जयकारे लगाना, खुशियां मनाना, घूमना-फिरना. हर साल दशहरा आता था और रामलीला में असत्य पर सत्य की विजय का डंका बजाया जाता था. दशहरे पर बच्चों को दिया जाने वाला सबसे आम सबक है, अपने भीतर के रावण को मारने का सबक. थोड़े बड़े होने पर हमने जाना कि सबक सिखाने वालों में न अभी तक सत्य और असत्य का फ़र्क स्पष्ट  है और न ही उन्होंने रावण की ठीक-ठाक पहचान की है. कुछ टूटे-फूटे आउटडेटेड प्रतीकों से ही काम चल रहा है और उनकी भी समझ आधी-अधूरी ही है. खैर.

टूटे-फूटे प्रतीकों के साथ एक दिक्कत होती है. कोई भी कभी भी आकर अपनी सहूलियत के हिसाब से उन्हें अपने तरीके से ढाल सकता है और प्रचारित कर सकता है. इस बार ये प्रचार पिछले कई सालों के मुकाबले ज्यादा प्रत्यक्ष था. वरना दशहरे के मौके पर रावण की इतनी प्रशंसा, ऐसी जय-जयकार भला किसे सहज लग सकती थी?

इस तरह की पोस्ट्स से सारा सोशल मीडिया भरा पाया गया. 

‘आदिपुरूष’. टीज़र रिलीज़ होने के बाद से ही खलबली मची हुई है. फिल्म मेकर्स ने भारी-भरकम पैसा लगाकर फिल्म बनाई है ताकि देश में पहले से ही उबाल मार रहे पॉपुलर ‘हिन्दूवादी’ सेंटीमेंट को भुनाकर भारी-भरकम पैसा कमाया जा सके. हिन्दूवादी सेंटीमेंट के नाम पर इस वक्त देश में दो चीज़े जो सबसे ज़्यादा चल रही हैं. उनमें पहली है पौराणिक रूढ़िवादी मान्यताओं का महिमामंडन और दूसरी मुस्लिमों के ख़िलाफ़ घृणा. आदिपुरूष के डायरेक्टर ने दोनों फैक्टर्स को मिलाकर एक कमाऊ फिल्म का सुपरहिट फॉर्मुला तैयार किया. राम के रौद्र रूप में बॉडी-बिल्डर, आक्रामक, जनेऊधारी प्रभास को दिखाया गया और रावण बने सैफ़ अली ख़ान, जिनका स्पेशली मोडिफाइड लुक आपको हिन्दी फिल्मों में अलाउद्दीन खिलजी या चंगेज़ ख़ान जैसे किरदारों की याद दिलाएगा. 

डायरेक्टर ने सही नब्ज़ पकड़ी थी. बैकग्राउंड में ‘जय श्री राम’ के जयकारे के साथ आक्रामक भाव भंगिमा वाले राम, मुस्लिम आक्रांता जैसे दिखने वाले रावण का वध करते और बहुसंख्यक आबादी के लिए परम सुख हासिल करने वाला माहौल बन जाता. दर्शक का पैसा वसूल हो जाता. फिल्म सुपर डूपर हिट हो जाती.

सैफ/रावण को टेररिस्ट के रूप में दिखाने वाली तस्वीरें भी बनीं.

लेकिन कट्टरता और पागलपन के साथ भी एक दिक्कत है कि जब वो आती है, बेहिसाब आती है. अमेज़न प्राइम पर पिछले साल 'तांडव' नाम की एक सीरीज़ आई थी. सीरीज़ तो एवरेज थी, लेकिन उसका एक डायलॉग आज भी याद है, “पागलपन में क्या कम और क्या ज़्यादा, ये या तो होता है या नहीं होता..” आदिपुरूष के निर्माताओं ने अपना नफ़ा-नुकसान देखते हुए कट्टरता का हिसाब तो लगा लिया लेकिन टीज़र रिलीज़ होते ही सब हिसाब-किताब धरा का धरा रह गया.

एक नैरेटिव चलने लगा. कि रावण भले ही दुष्ट था, लेकिन था तो ब्राह्मण ही. जाति और धर्म के आधार पर हीरो और विलेन चुनने वाली जमात ने इस पूरी बहस को ब्राह्मण बनाम मुस्लिम का रूप दे दिया और रावण का गुणगान करने लगे. विजयादशमी से ठीक पहले फिल्म का टीज़र रिलीज़ किया गया था और विजयादशमी आते-आते सोशल मीडिया रावण के महिमा मंडन वाले पोस्ट्स से भर गया.

जाति-धर्म के मैल से सनी नफ़रत की पट्टी जब आंखों पर पड़ जाती है तब राम और रावण का फ़र्क भी दिखाई नहीं पड़ता. सत्य-असत्य, अच्छे-बुरे का भेद धुंधला पड़ जाता है. आप रावण के लाख पुतले जला लीजिए लेकिन आपकी नफ़रत आपके अंदर के इंसान को जला रही है. नफ़रत ने आपकी की सोच को ऐसा अपाहिज बना दिया है कि आपको न राम की समझ है, न रावण की पहचान. अगर ऐसा नहीं होता तो गुजरात से आने वाली लिंचिंग और पुलिस एट्रोसिटी की तस्वीरों पर आप अट्टाहास कर रहे होते?

इस दशहरे ऐसे पोस्टर्स भी दिखाई पड़े. 

नवरात्र के दौरान देश के अलग-अलग इलाकों से अलग-अलग तरह की ख़बरें आईं. अहमदाबाद में बजरंग दल के कुछ लोगों ने गरबा में शामिल होने आए मुस्लिम युवकों को ढूंढकर पीटा, पिटाई का वीडियो बनाया और उसे चेतावनी की तरह जारी किया. ये भी कहा गया कि बजरंग दल और वीएचपी के लड़कों ने ‘लव जिहाद’ को रोकने की मुहिम के तहत ऐसा किया है. मध्य प्रदेश के कई इलाकों में गरबा आयोजनों में गैर-हिन्दुओं की एंट्री पर प्रतिबंध वाले पोस्टर लगा दिए गए. हरिद्वार में साधु-संतों की ओर से फ़रमान जारी कर दिया गया कि अगर गरबा में आना है, तो मुस्लिम युवक पहले घर वापसी करें.

इन ख़बरों का क्या मतलब है? मतलब वही सीधा है कि अच्छाई और बुराई के बीच की रेखा पर धर्म और जाति के बड़े-बड़े धब्बे हैं. उन धब्बों ने लकीर को अपने भीतर कहीं छिपा लिया है. गरबा या किसी भी तरह के आयोजन में छेड़खानी करने वाले, मारपीट करने वाले और हंगामा करने वाले लोगों से जुड़ी ख़बरें आपको गूगल सर्च करने पर थोक के भाव मिल जाएंगी. जिनमें गुनाहगार ज़्यादातर उसी धर्म के लोग होंगे. कई ख़बरें तो पिछले कुछ घंटों में आपकी नज़रों के सामने से गुज़री होंगी और आपको ज़बानी याद होंगी. लेकिन उनका ज़िक्र करने का कोई मतलब नहीं है. क्योंकि इस बात को साबित करने की कोशिश करना एक सोसायटी के तौर पर हमारे लिए बहुत प्रॉब्लेमैटिक है कि अपराध करने वाले लोग हर समुदाय, हर तबके, हर धर्म, हर जाति में होते हैं. विजयादशमी का संदेश यही है कि अच्छाई और बुराई, सत्य और असत्य का फर्क राम और रावण को एक दूसरे से अलग करता है. आप ये फर्क जाति और धर्म में तलाश करके अपनी ही पुरानी मान्यताओं, परंपराओं और विश्वासों का अपमान कर रहे हैं.

और सुनिए! मुस्लिम पहचान को आपराधिक पहचान से जोड़ना, उन्हें समाज में अलग-थलग करने की कोशिश करना और धार्मिक आयोजनों के नाम पर हिन्दू-मुस्लिम के बीच की खाई को और बढ़ाना, ये सब राम के नहीं रावण के काम हैं. राम एकता और प्रगति और संवेदना सिखाते हैं. लिंचिंग और पुलिस एट्रोसिटी पर तालियां बजाने वाले संवेदनहीन लोग राम के वंशज हो कैसे हो सकते हैं भला!

आदिपुरुष में प्रभास को लेदर के जूते पहनाए, जनता भरत का एंगल ले आई