1659 तक शिवाजी दक्कन और मध्य भारत के कई किलों पर अपना अधिकार जमा चुके थे. उधर अपने भाइयों और पिता को रास्ते से हटाकर औरंगज़ेब बादशाह बन बैठा था. उसका इरादा था कि पूरे भारत में मुग़लों का ही राज हो. दक्कन में बहमनी साम्राज्य टूटकर अलग-अलग हिस्सों में बंट चुका था. मुग़लों ने निज़ामशाही और आदिलशाही को ख़त्म कर दक्कन के बड़े हिस्से पर अपने मनसबदार बिठा दिए थे. लेकिन मराठों के लीडर शिवाजी पर मुग़लों का कोई बस नहीं चल रहा था.
औरंगज़ेब ने शिवाजी का बढ़ता प्रभाव देख अपने मामा शाइस्ता ख़ां को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया. 1.5 लाख मुग़ल सैनिकों को लेकर शाइस्ता ख़ां पूना पहुंचा. उसने आसपास के कई किलों पर क़ब्ज़ा जमा लिया. इनमें से एक था पूना का लाल महल. उसने लाल महल को अपने रहने का ठिकाना बनाया. यहीं से वो दक्कन में मुग़लों की रियासतों को सम्भाला करता.
3 साल के अंदर शाइस्ता ख़ां ने मराठाओं को बहुत नुक़सान पहुंचाया. उसने शिवाजी के अधिकार वाले कई हिस्सों पर हमला करके खूब लूटपाट मचाई. आमने-सामने की लड़ाई में मुग़ल सेना को हराना मुश्किल था. इसलिए शिवाजी ने गुरिल्ला युद्ध की नीति अपनाई जिसमें वो माहिर थे. लेकिन जब तक शाइस्ता ख़ां दक्कन में मौजूद था, मराठाओं के लिए अपने साम्राज्य को फैलाना मुश्किल था. शाइस्ता खां पर हमला शिवाजी का बचपन लाल महल में ही बीता था. इसलिए वो इस किले के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ थे. शिवाजी ने योजना बनाई कि महल के गुप्त रास्तों से जाकर शाइस्ता ख़ां पर हमला किया जा सकता है. योजना ख़तरे से खाली नहीं थी. लेकिन अगर वो इसमें कामयाब हो जाते तो बिना अधिक नुक़सान उठाए, मराठाओं को एक बड़ी जीत मिल सकती थी.
लाल महल तक पहुंचने से पहले पूना के अंदर दाखिल होना ज़रूरी था. लेकिन मुग़ल सेना ने शहर को चारों ओर से घेर रखा था. इसलिए प्लान बनाया गया कि शिवाजी और उनके 400 साथी एक बारात का भेष धरेंगे. इस तरह 5 अप्रैल 1663 को शिवाजी पूना के अंदर दाखिल हुए. शिवाजी ने मुग़ल सेना में अपने कुछ गुप्तचर भी छोड़ रखे थे. जिनकी मदद से वे लोग लाल महल के नज़दीक पहुंच गए.

शाइस्ता ख़ां पर हमला करते हुए शिवाजी (तस्वीर: एम.वी. धुरंधर)
आधी रात का समय था. लालमहल के अलावा पूरे शहर में अंधेरा था. शिवाजी और उनके कुछ साथी रसोई की तरफ़ से महल में घुसे और वहां मौजूद रक्षकों को मार डाला. इस दौरान हुए शोर-शराबे से नौकरों की नींद खुल गई. उन्होंने जाकर शाइस्ता ख़ां को आगाह कर दिया. अचानक हुए हमले की खबर सुन शाइस्ता ख़ां हड़बड़ा गया. अपनी जान बचाने के लिए वो खिड़की की तरफ़ भागा. तभी शिवाजी उसके कमरे में पहुंचे और उन्होंने शाइस्ता ख़ां पर पूरी ताक़त से तलवार से वार कर दिया. शाइस्ता ख़ां खिड़की ने निकल भागने में कामयाब रहा लेकिन तलवार से उसके हाथ की उंगलियां कट गई.
इस हमले में शाइस्ता ख़ां का बेटा अब्दुल फतेह खान मारा गया. इसके बाद अंधेरे का फ़ायदा उठाकर शिवाजी और उनके साथी वहां से सिंहगढ़ की ओर निकल भागे. इसके बाद 1664 में शिवाजी ने सूरत शहर पर छापा मारा. सूरत उन दिनों ट्रेड का एक बहुत बड़ा बाज़ार हुआ करता था. जहां से मराठाओं को बहुत सा धन हासिल हुआ. राजा जय सिंह और पुरंदर की संधि शाइस्ता ख़ां पर हमले और सूरत पर छापे से औरंगज़ेब बौखला उठा. उसने अपने सबसे भरोसेमंद सरदार राजा जय सिंह को शिवाजी पर हमला करने के लिए भेजा. उसने शिवाजी के सबसे महत्वपूर्ण किलों में से एक, पुरंदर के किले पर क़ब्ज़ा कर लिया. इसके अलावा उसने बहुत सारे मराठा सरदारों को घूस देकर अपनी तरफ़ मिला लिया. इससे शिवाजी की स्थिति कमजोर हो गई.
अंततः 1665 में शिवाजी को जय सिंह के साथ संधि करनी पड़ी, जिसे पुरंदर की संधि के नाम से जाना जाता है. संधि के हिसाब से शिवाजी को अपने 23 किले मुग़लों को सौंपने पड़े. शिवाजी के कहने पर संधि में एक ख़ास बिंदु जुड़वाया गया. जिसके मुताबिक़ शिवाजी मुग़लों की तरफ से लड़ने को बाध्य नहीं थे. ना ही उन्हें मुग़ल दरबार में पेश होने के लिए मजबूर किया जा सकता था.

राजा जय सिंह से मिलने जाते शिवाजी (तस्वीर: अर्जुन कुलकरणी)
औरंगज़ेब को संधि की शर्तें पता थीं. 23 किले क़ब्ज़े में आने के बावजूद औरंगज़ेब शिवाजी को ये मनवाना चाहता था कि वह मुग़लों के अधीन हैं. इसलिए 1666 में उसने शिवाजी को आगरा आने का बुलावा भेजा. जय सिंह ने उनसे कहा कि औरंगज़ेब उन्हें किसी ख़ास कारण से आगरा बुला रहा है. हो सकता है कि वो उन्हें दक्कन का वायसराय बना दे. शिवाजी को औरंगज़ेब की मंशा पर भरोसा नहीं था. इसलिए उन्होंने जाने से इनकार कर दिया. इसके बाद औरंगज़ेब ने शिवाजी को एक ख़त भिजवाया. ख़त कुछ इस प्रकार था,
‘आपको बतौर शाही सम्मान आगरे का न्योता दिया जाता है. मन में बिना कोई संकोच रखे आप यहां आएं. इस ख़त से साथ आपकी ख़िदमत में एक लाख रुपये पेशगी और एक ख़िलत (शाही पोशाक) भी भिजवाई गई है. न्योता क़बूल करें.’औरंगज़ेब के दरबार में शिवाजी 9 मई 1666 को शिवाजी आगरा पहुंचे. साथ में कुछ घुड़सवार भी थे. शिवाजी को औरंगज़ेब के तेवर तभी समझ आ गए, जब 9 मई को उसने व्यस्तता का बहाना बनाकर शिवाजी से मिलने से इनकार कर दिया. इसके बाद उसने 12 मई को शिवाजी को दरबार में पेश होने का बुलावा भेजा. शिवाजी नियत समय पर मुग़ल दरबार पहुंचे.
अब दरबार का ब्योरा देखिए,
औरंगज़ेब ऊंचे तख़्त पर बैठा हुआ है. दीवाने-आम में एक-एक कर लोगों की पेशी हो रही है. मामले सामने लाए जा रहे हैं, और बादशाह एक-एक कर उन्हें निपटा रहा है. तभी दरबान कहता है, ‘शिवाजी राजे हाज़िर हों !'
राजा जय सिंह का बेटा, कुंवर राम सिंह शिवाजी के पास जाता है. और शिवाजी और उनके बेटे संभाजी को औरंगज़ेब के सामने पेश करता है. शाही तौर-तरीक़ों के हिसाब से शिवाजी औरंगज़ेब को तीन बार सलाम करते हैं. और नज़राने में कपड़े और अशर्फ़ियां पेश करते हैं. ये शिवाजी और औरंगज़ेब की पहली मुलाक़ात है. बादशाह औरंगज़ेब एक नज़र फेरता और फिर से गर्दन ऊंची कर लेता. गर्दन झुकाने का मतलब था सामने वाले को अपने क़द के बराबर लाना.

औरंगज़ेब के दरबार में शिवाजी महाराज (तस्वीर: एम.वी. धुरंधर)
इस वाक़ये के बारे में इतिहासकार बताते हैं कि इस चंद लम्हों की मुलाक़ात में ही एक बादशाह ने दूसरे सम्राट को पहचान लिया था. उसे समझ आ चुका था कि ये कोई आम इंसान नहीं हैं. अगर इसे आज़ाद छोड़ दिया गया तो आने वाले वक्त में ये मुग़लों के लिए बड़ी मुसीबत का कारण बन सकता है. हेकड़ी जमाने के लिए उसने अपने दरबान से कहा कि शिवाजी को दरबार में पीछे खड़ा किया जाए. ये वो जगह थी, जहां तीसरे दर्जे के मनसबदार खड़े हुआ करते थे.
शिवाजी को औरंगज़ेब से इतने रूखेपन की उम्मीद नहीं थी. ख़त में उसने जहां इतनी मीठी-मीठी बातें लिखीं, वहीं दरबार में उसने शिवाजी से बहुत रूखा बर्ताव किया. शिवाजी ने राम सिंह से पूछा कि उन्हें इतना पीछे क्यों खड़ा किया गया है? जिस पर राम सिंह ने बताया कि वो पांच हज़ारी मनसबदारों के बीच खड़े हैं. शिवाजी, जिनका नौकर तक पांच हज़ारी मनसबदार था, अपने इस अपमान से बहुत ग़ुस्सा हुए और दरबार से निकलकर अपने कक्ष में चले गए. औरंगज़ेब को जब ये पता चला तो उसने राम सिंह से कहा कि शिवाजी को उनके निवास स्थान में भिजवा दिया जाए. शिवाजी की नज़रबंदी शिवाजी के लिए रहने की व्यवस्था आगरा से बाहर जयपुर सराय में की गई थी. अगले कुछ दिनों में शिवाजी के भवन को मुग़ल सेना ने चारों तरफ़ से घेर लिया. शिवाजी को नज़रबंद कर दिया गया. इस बीच औरंगज़ेब ने शिवाजी जो कई ख़त भेजे. उसका मक़सद था कि वो शिवाजी को भड़का सके ताकि वो कुछ ऐसी हरकत करें, जिससे उसे शिवाजी को मारने का बहाना मिल जाए.
शिवाजी को इसका अंदेशा पहले से ही था इसलिए उन्होंने भी कूटनीति का सहारा लिया. औरंगज़ेब को ऐसा दर्शाया जैसे कि वो बहुत खुश हैं. उन्होंने मुग़ल अफ़सरों को मिठाइयां बांटनी शुरू कीं. औरंगज़ेब को ख़त लिखा कि उन्हें आगरे का मौसम रास आ रहा है.
इसके अलावा उन्होंने बादशाह को एक और दरख्वास्त भेजी. उन्होंने औरंगज़ेब से कहा कि वह अपनी पत्नी और मां को भी आगरा बुलाना चाहते हैं. और अपने साथ आए मराठा घुड़सवारों को वापस भिजवाना चाहते हैं. ये सब सुनकर औरंगज़ेब को लगा कि शिवाजी उसके चंगुल में फ़ंस चुके हैं. आख़िर अपनी मां को कैद में छोड़ कौन भागने की कोशिश करेगा. लिहाज़ा औरंगजब उनकी तरफ़ से आश्वस्त हो गया कि वो आगरे में ही बने रहेंगे. द ग्रैंड एस्केप अगले कुछ दिनों में शिवाजी की तबीयत ख़राब हो गई. मुग़ल हकीमों से उनकी दवा-दारू का इंतज़ाम करवाया गया. इस दौरान शिवाजी अपने बिस्तर पर ही लेटे रहते. पहरेदारों को उनकी कराहने की आवाज़ें आतीं. उनकी सलामती के लिए रोज़ सराय से साधुओं को मिठाई और फलों की टोकरियां भेजी जातीं. ऐसा कई हफ़्ते चला. शुरू-शुरू में पहरेदारों ने टोकरियों की तलाशी ली. लेकिन जब रोज़ ऐसा होने लगा तो उन्होंने भी ढील देनी शुरू कर दी. 19 अगस्त यानी आज ही के दिन 1666 में शिवाजी ने मुग़ल पहरेदारों को एक संदेश भिजवाया. इसमें कहा गया कि उन्हें आराम करने दिया जाए और कोई उनके शयन कक्ष में न आने पाए.

शिवाजी और संभाजी फलों की टोकरी में छुपते हुए (तस्वीर: Wikimedia)
इसके बाद शिवाजी ने अपने सौतेले भाई हीरोजी फ़रज़ाद को अपनी जगह लेटाया. हीरोज़ी और शिवाजी की क़द काठी लगभग एक जैसी थी. हीरोज़ी एक कम्बल ओढ़कर लेट गए. उनका सिर्फ़ एक हाथ कम्बल के बाहर था, जिसमें उन्होंने शिवाजी के कड़े पहने हुए थे.
इसके बाद शिवाजी खुद एक फलों की टोकरी में छुप गए. एक दूसरी टोकरी में संभाजी को छुपाया गया. रोज़ की तरह फल और मिठाई की टोकरियां भवन से बाहर भेजी गईं. टोकरियां रोज़ आती थीं, इसलिए किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया. टोकरियों में बैठकर शिवाजी को आगरा से दूर पहुंचा दिया गया. जहां से वो मथुरा, इलाहाबाद होते हुए वापस राजगढ़ पहुंच गए.
1674 में रायगढ़ किले में उनका राज्याभिषेक हुआ और उन्हें छत्रपति की उपाधि दी गई. जिसके बाद उन्होंने दक्षिण दिग्विजय का अभियान शुरू किया. जिंजी और वेल्लोर किलों को जीतकर मराठा साम्राज्य को दक्षिण भारत के बड़े हिस्से में फैलाया. इसकी कहानी आप 22 जुलाई के तारीख़ के क़िस्से में पढ़ सकते हैं. जिसका लिंक आपको डिसक्रिप्शन में मिल जाएगा.
औरंगज़ेब को अपने अंतिम दिनों तक शिवाजी के हाथ से निकल जाने का पछतावा रहा. वो कहता था,
‘सम्राट के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है, हर बात की ख़बर रखना. एक मिनट की लापरवाही ज़िंदगी भर की शर्मिंदगी का कारण बन सकती है. उस मनहूस शिवा के भाग निकलने के कारण मैं अपनी ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में भी इन लड़ाइयों में फ़ंसा हुआ हूं.’