इस आर्टिकल को लिखा है मिहिर पंड्या ने. डीयू के मास्टर साब. एमफिल, पीएचडी सिनेमा पर. एक किताब भी. शहर और सिनेमा वाया दिल्ली. आज ज़्यादा परिचय नहीं देंगे. लेख इतना अच्छा है कि हम बीच से हट जाएं तो बेहतर.
"18 मार्च", अस्पताल के कमरे में आज की तारीख़ बताते ही मेरी माँ ने फ़ौरन कहा, "हाँ, आज शशि कपूर का जन्मदिन है।" उनकी और उनके नायक दोनों की सालगिरह मार्च के तीसरे हफ़्ते में आती है और अस्पताल में ऑपरेशन के बाद स्वास्थ्य लाभ करते हुए भी वे इस सुन्दर संयोग को भूली नहीं हैं। उम्र के छठवें दशक में आज भी वे शशि कपूर की बातें करते हुए अचानक जज़्बाती हो जाती हैं। उन हज़ारों कुंवारी लड़कियों का प्रतिनिधित्व करने लगती हैं जो साठ के दशक के उत्तरार्ध में उथलपुथल से भरे हिन्दुस्तान में जवान होते हुए प्रेम, ईमानदारी और विश्वास की परिभाषाएं इस टेढ़े मेढ़े दांतों और घुंघराले बालों वाले सजीले नायक से सीख रही थीं।
साठ के दशक में जवान होती एक पूरी पीढ़ी के लिए वे सबसे चहेता सितारा थे। यही वो अभिनेता थे जिसके कांधे पर पैर रखकर एक दर्जन फ्लॉप फ़िल्मों का इतिहास अपने पीछे लेकर आए अभिनेता ने 'सदी के महानायक' की पदवी हासिल की। अमिताभ-शशि की जोड़ी का जुआ, जिसका प्रदर्शनकारी आधा हिस्सा सदा अमिताभ के हिस्से आता रहा, उनके कांधों पर भी उतनी ही मज़बूती से टिका था। इस रिश्ते की सफ़लता का आधार था शशि का स्वयं पर और अपनी प्रतिभा पर गहरा विश्वास, जो उन्हें कभी असुरक्षा बोध नहीं होने देता था। अमिताभ से उमर में बड़े होते हुए भी उन्होंने 'दीवार' जैसी फ़िल्म में उनके छोटे भाई का किरदार निभाया। व्यावसायिक सिनेमा का बड़ा सितारा, लेकिन उधर की कमाई उच्च गुणवत्ता वाली कला फ़िल्मों में लगाता रहा। और जहाँ स्वयं निर्माता बना वहाँ भी खुद से ज़्यादा चमकदार भूमिका ढूंढकर अपने दौर के सबसे बेहतर अभिनेताओं को दी।
उनकी जिस दूसरी पारी को कम लोगों ने नोटिस किया − शशि हिन्दुस्तानी सिनेमा के पहले क्रॉसओवर सितारा भी थे। सजीला लड़का, जिसमें मर्चेंट-आइवरी की टीम ने अपना अन्तरराष्ट्रीय नायक खोज लिया था। तीनों सितारा भाइयों में वही थे जिन्होंने पिता के पहले प्यार 'पृथ्वी थियेटर' को संभाला और अपने पैरों पर खड़ा किया।
फ़िल्मी परिवार से होने के बावजूद उन्हें किसी ने 'लॉन्च' नहीं किया। वे बचपन और किशोरवय में बड़े भाई राज कपूर की 'आग' और 'आवारा' जैसी फ़िल्मों में उनके लड़कपन का किरदार निभा चुके थे। लेकिन साठ की शुरुआत में नायक के रूप में सिनेमा में आगमन का उनका फैसला दरअसल उनके पहले प्यार 'पृथ्वी थियेटर' के असमय अवसान से जुड़ा था। शादी और बच्चे की ज़िम्मेदारी ने नए आर्थिक स्रोतों की तलाश में इस 'मैट्रिक फेल' अभिनेता को सिनेमा की ओर मोड़ा। लेकिन उनकी शुरुआती फ़िल्में फ्लॉप रहीं।

जब यश चोपड़ा के साथ बनाई 'धर्मपुत्र' और बिमल राय के साथ बनाई 'प्रेमपत्र' भी फ्लॉप हो गईं तो उनके ऊपर 'मनहूस' नायक का ठप्पा लग गया। इसे उतारने के लिए उन्हें पाँच साल इन्तज़ार करना पड़ा। उन्नीस सौ पैंसठ में आई 'जब जब फूल खिले' ने उन्हें अचानक सितारा बना दिया। उनके अभिनय में एक भोली पवित्रता थी और नायक के रूप में वे साथी स्त्री किरदारों पर आधिपत्य जमाने के बजाए उनकी इज़्ज़त से उनका प्रेम हासिल करते थे। अभिनेत्री नंदा के साथ उनकी जोड़ी हिट हो गई और उनके टेढ़े-मेढ़े दांतों वाली दंतपंक्ति और घुंघराले बालों पर जवान लड़कियाँ मर मिटीं।

यह उन्हीं दिनों की बात है जब राजस्थान के अरावली पहाड़ियों से घिरे छोटे से शहर अलवर में पढ़नेवाली इक तरुण लड़की अपनी सहेलियों के साथ रोज़ उनकी नई फ़िल्म का मैटिनी शो देखने जाया करती थी। पक्की सहेलियों में एक दोस्त के पिता का अपना सिनेमाहाल होना, और अपने माता पिता की अकेली संतान होने के नाते इस लड़की का घर में चहेता होना, दोनों ही इस समर्पित शशि कपूर प्रेम के सहयोगी कारक बने। साठ के दशक में शशि कपूर और नंदा जवान होती एक पूरी पीढ़ी के चहेते बन गए। उनकी जोड़ी ने साथ मिलकर सात फ़िल्मों में काम किया, और उनकी निभाई भूमिकाआें में प्रेम की खूबसूरती आधिपत्य से नहीं, बल्कि विश्वास से पैदा होती थी। शादी से पहले की तस्वीरों में मेरे पिता के चेहरे पर जो एक उजास दिखाई देती है, जिसे देखकर शायद मेरी माँ ने उन्हें अपना जीवनसाथी चुना होगा, उसमें जवान शशि कपूर के चेहरे की विश्वसनीय झलक पहचानी जा सकती है। मेरी माँ का वो शशि कपूर प्रेम आज भी ज़रा कम नहीं हुआ है और शशि का नाम भर उनकी आँखों में चमक लाने के लिए काफ़ी है। अच्छा ही है कि मेरे पिता आज भी बीच बीच में उन्हें 'ज़िक्र होता है जब क़यामत का, तेरे जलवों की बात होती है' सुनाकर खुश करते रहते हैं।
सुनहरी संगत

हिन्दी सिनेमा के 'पहले परिवार' कपूर खानदान की सबसे प्रामाणिक जीवनगाथा लिखनेवाली मधु जैन अपनी किताब 'कपूरनामा' की भूमिका में ज़िक्र करती हैं कि वे तो दरअसल शशि कपूर की जीवनी लिखना चाहती थीं। लेकिन एक नामी प्रकाशक से मिले इस प्रस्ताव को लेकर जब वे शशि के पास गईं तो उन्होंने इसे पहली ही नज़र में सिरे से ख़ारिज कर दिया। और तो और वे आत्मकथा लिखे जाने के भी सख़्त खिलाफ़ थे। बदले में उन्होंने मधु को 'एक गुल' को छोड़ 'पूरे गुलिस्ताँ' को देखने की सलाह दी।
नतीजा यह हुआ कि वरिष्ठ पत्रकार मधु जैन द्वारा समूचे कपूर खानदान की जीवनी लिखी गई। उम्मीद के अनुसार जिसके नायक बने इस वटवृक्ष के केन्द्रीय चरित्र पिता पृथ्वीराज कपूर और सदी के सबसे चर्चित शोमैन बड़े भाई राज कपूर। और स्वयं शशि इस सात दशकों में फैली पारिवारिक कथाधारा का एक गुज़रता हुआ अध्याय भर बनकर रह गए।
लेकिन इस अवांतर कथा में शायद शशि कपूर के छ: दशक में फैले अभिनय जीवन का सार भी छिपा है। यह वो अभिनेता है जिसने कभी पहला नायक, सबसे बड़ा नायक, सबसे चाहा जाने वाला नायक नहीं बनना चाहा। उसकी सफ़लता तो सबसे बेहतर 'संगतकार' बनने पर टिकी थी।
मेरे पास माँ है
सिनेमा के परदे पर अमिताभ के साथ शशि की जोड़ी बनने से पहले की बात है। शशि मर्चेंट आइवरी की 'बॉम्बे टाकीज़' में नायक की भूमिका निभा रहे थे। यह सन सत्तर की बात है। उन्होंने फ़िल्म के एक्सट्रा की भीड़ में एक लम्बे गठीले नौजवान को स्पॉट किया। यह अमिताभ थे जो उन दिनों काम की तलाश में बम्बई के भिन्न स्टूडियोज़ की खाक़ छाना करते थे। शशि अमिताभ को देखते ही पहचान गए और अपने पास बुलाया। अमिताभ कुछ पैसे कमाने और उससे भी ज़्यादा शायद मर्चेंट-आइवरी की फ़िल्म के सेट पर होने के लालच में वहाँ एक्सट्रा बनकर चले आए थे। शशि ने उन्हें फौरन वहाँ से चले जाने के लिए कहा। 'तुम्हें कुछ बेहतर मिलेगा। तुम्हें बहुत दूर तक जाना है' शशि के शब्द थे।

शशि ने ठीक पहचाना था। अमिताभ ने 'एंग्री यंग मैन' विजय के किरदार में प्रकाश मेहरा की ज़ंजीर से अपना सिक्का जमा लिया और अपने समय का सबसे लोकप्रिय सितारा बन गए। लेकिन इस 'एंग्री यंग मैन' के आल्टर ईगो को निभाने का काम शशि के ज़िम्मे आया। दीवार में गुस्सैल विजय के नैतिक 'अन्य' रवि की भूमिका में शशि कपूर को कभी भुलाया नहीं जा सकता। दरअसल वे एक ही भूमिका को बांटकर निभा रहे थे। बड़ा भाई विजय जहाँ नौजवान पीढ़ी के असंतोष को वाणी दे रहा था वहीं रवि देश के सर्वहारा का नैतिक बल स्थापित कर रहा था। बेशक फ़िल्म में अमिताभ को एक प्रदर्शनकारी मौत मिली और 'दीवार' उनके नाम हुई, मेरे लिए फ़िल्म के दो सबसे अविस्मरणीय प्रसंग शशि के किरदार से जुड़े हैं। पहला वो प्रसंग जहाँ साक्षात्कार देने आए एक अन्य कॉमरेड के लिए नौकरी छोड़ते हुए वे कहते हैं, "ये पूरी दुनिया एक थर्ड क्लास का डिब्बा बन गई है। अगर मैं बैठ गया तो तुम खड़े रह जाओगे।" तथा दूसरा मार्मिक प्रसंग रिटायर्ड स्कूल प्रिंसिपल की भूमिका में ए. के. हंगल साहब के किरदार से रवि का साक्षात्कार है। सलीम ख़ान और जावेद अख़्तर की लिखी 'दीवार' के ये दोनों प्रसंग फ़िल्म को वो ज़मीनी धरातल देते हैं जिन पर खड़े होकर आप कुली से स्मगलर बने विजय के अपराध के पीछे छिपे असली मुजरिमों और उनके सहायक व्यवस्थागत ढांचे को पहचान पाते हैं।
क्रॉसओवर स्टार
स्माइल मर्चेंट और जेम्स आइवरी की जोड़ी को वे अचानक ही मिल गए थे। उनकी पहली फ़िल्म 'चार दीवारी' रिलीज़ के लिए तैयार थी और आइवरी झाबवाला के उपन्यास 'दि हाउसहोल्डर' पर फ़िल्म बनाने के लिए एक हिन्दुस्तानी नायक की तलाश में थे। उनकी पत्नी जैनिफ़र कैंडल ने स्क्रिप्ट पढ़ी और उन्हें फ़िल्म पसन्द आ गई। और इस तरह शशि का मर्चेंट-आइवरी के साथ उमर भर का साथ शुरु हुआ।

मर्चेंट-आइवरी के साथ शशि कपूर ने कुल छ फ़िल्में कीं जिनमें सबसे सफ़ल फ़िल्म बुकर पुरस्कार प्राप्त झाबवाला के उपन्यास 'हीट एंड डस्ट' पर इसी नाम से बनी फ़िल्म थी। मर्चेंट-आइवरी की टीम के साथ अपने लम्बे अभिनय करियर के दो अलहदा सिरों पर खड़ी उनकी दो फ़िल्में मेरी पसन्दीदा हैं। साठ के दशक की शुरुआत में आई 'दि हाउसहोल्डर' में उन्होंने जवान और ज़हीन लीला नायडू के साथ परिवार संस्था के भीतर प्रेम की तलाश का भोला और दिलकश खेल खेला। फ़िल्म में वे गज़ब के सुन्दर लगे हैं। और जवान तो इतने कि देखकर लगता है जैसे उनकी मसें भी नहीं भीगी हैं अभी। रूथ प्रवर झाबवाला के उपन्यास पर आधारित नवेले दाम्पत्य जीवन में प्रेम की तलाश करती इस प्यारी सी फ़िल्म में शशि ने अंतर्मुखी स्कूल मास्टर का किरदार निभाया था। ये फ़िल्म पुरानी दिल्ली के मध्य ज़ीनत मस्जिद के निकट एक हवेली में शूट की गई थी।

दूसरी फ़िल्म फिर इस्माइल मर्चेंट द्वारा निर्देशित 'इन कस्टडी' रही जिसमें वे एक नितांत अकेले मृत्यु की ओर बढ़ते अधेड़ शायर की भूमिका में थे। पुराने भोपाल की शाही हवेलियों में फ़िल्माई गई यह फ़िल्म समूची सभ्यता के क्षरण का मृत्युगीत सरीख़ी है। यहाँ शहर की मौत है, भाषा की मौत है, कला की मौत है और एक ख़ास तरह की जीवनशैली जो सदा के लिए हाथ से छूटी जा रही है।
पृथ्वीवाला
पृथ्वीराज के तीनों बेटों में वही थे जिन्होंने अपने पिता की पहली विरासत 'थियेटर' को अपना पहला प्यार बनाया। उनके अभिनय प्रशिक्षण की शुरुआत 'पृथ्वी' के घुमंतू दलों के साथ पचास के दशक में हुई थी और सन तिरेपन से साठ तक उन्होंने पिता के 'पृथ्वी थियेटर' में सामान उठानेवाले से लेकर भीड़ का हिस्सा बने अभिनेता तक, सब तरह का काम किया। उनका सिनेमा की ओर मुड़ना भी पृथ्वी की अकाल मृत्यु से सीधे जुड़ा था। सन साठ में पृथ्वीराज कपूर के स्वास्थ्य (उनकी आवाज़ चली गई थी) और माली हालत में आई गिरावट ने उनके थियेटर का परदा गिरा दिया था। लेकिन शशि 'पृथ्वी थियेटर' को भूले नहीं।

सन 1978 में उन्होंने पत्नी ज़ेनिफ़र कैंडल के साथ मिलकर पृथ्वी को दोबारा शुरु किया। और फिर जुहू में बना पृथ्वी का परिसर धीरे-धीरे शहर की साँस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया। बाद में उनकी बेटी संजना ने इसे दो दशक तक साल संभाला और परिवार की इस पुरानी चहेती विरासत को नई सदी में मुम्बई शहर के थिएटर सीन का सबसे जाना-पहचाना पता बनाया।

उनके थियेटर से गहरे रिश्ते में उनकी पत्नी और ससुराल पक्ष की भी गहरी भूमिका है। कैंडल परिवार स्वयं एक थियेटर कंपनी चलाता था और शशि से उनका जुड़ाव यहीं से शुरु हुआ था। मर्चेंट-आइवरी की फ़िल्म 'शेक्सपियरवाला' इस खूबसूरत रिश्ते को एक आत्मकथात्मक गल्प में पिरोकर प्रस्तुत करती है।

हिम्मती निर्माता
पर्ल पदमसी ने रस्किन बॉन्ड की 'फ्लाइट अॉफ़ पिज़न्स' पढ़कर उन्हें 'जुनून' बनाने का सुझाव दिया था। निर्देशन के लिए उन्होंने श्याम बेनेगल को चुना। अगर आप उनके द्वारा निर्मित फ़िल्मों की सूची देखें तो उनमें आपको श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलाणी और गिरीश कर्नाड जैसे प्रतिष्ठित नाम मिलेंगे। लेकिन किस्मत उनके साथ नहीं थी। उनकी तमाम फ़िल्में व्यावसायिक असफ़लता साबित हुईं। लेकिन आज उन फ़िल्मों की उच्च गुणवत्ता देखकर माना जाना चाहिए कि वे अपने समय से आगे की फ़िल्में बना रहे थे।

श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित 'कलयुग' जो आधुनिक युग की महाभारत कथा थी, में उनके द्वारा निभाया गया आधुनिक 'कर्ण' का किरदार अविस्मरणीय रहा। ठीक इसी तरह निहलाणी द्वारा निर्देशित 'विजेता' में एक सेनानायक पुत्र के गौरवान्वित किन्तु आशंकित पिता को उन्होंने परदे पर सजीव कर दिया। उन्होंने कभी साथी कलाकारों के नाम और काम से असुरक्षा नहीं महसूस की। अमिताभ के साथ उनकी सफ़ल जोड़ी के पीछे शायद यही राज़ छिपा था। स्वयं द्वारा निर्मित 'जुनून' में नसीरुद्दीन शाह को स्वयँ से ज़्यादा मुखर भूमिका देकर उन्होंने इसे और प्रामाणिक रूप से साबित किया।

शशि कपूर बेटी संजना के साथ, फोटो- फेसबुक से
शशि कपूर का जीवन और काम हिन्दी सिनेमा और कपूर खानदान का एक उजला अध्याय है। उनकी उपलब्धियाँ सिनेमा तक सीमित नहीं रहीं और कला के अन्य क्षेत्रों में भी उन्होंने भारतीय साँस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया। अगर उनके पिता भारतीय सिनेमा के भीष्म पितामह रहे और बड़े भाई सबसे लाड़ले शोमैन, तो शशि भी कपूर खानदान की सबसे उजली पारसमणि हैं। वे वृहत कपूरकथा का एक अप्रासंगिक अध्याय भर नहीं बल्कि उसका सबसे धवल सितारा रहे हैं।
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