चुनाव खत्म हो चुके हैं. पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ने लगे हैं. दाम धीरे-धीरे बढ़ रहे हैं, ताकि किसी को झटका न लगे. इसी बीच नितिन गडकरी एक हाइड्रोजन कार से संसद पहुंचे. हाइड्रोजन कार को फॉसिल फ्यूल (पेट्रोल-डीज़ल) से चलने वाली गाड़ियों के विकल्प की तरह देखा जा रहा है. इससे पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचता. लेकिन ये इलेक्ट्रिक कार की तुलना में कहां फिट बैठेगी? क्या ये फ्यूचर की कार होगी?
साइंसकारी: Hydrogen Car पर Nitin Gadkari को Elon Musk की ये बात सुननी चाहिए
हाइड्रोजन कार का पूरा सच!
तीतर और बटेर - हाइड्रोजन कार और इलेक्ट्रिक कार
नितिन गडकरी की जिस गाड़ी को हाइड्रोजन कार कहा जा रहा है, उसका पूरा नाम है - हाइड्रोजन बेस्ड फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल (FCEV). मतलब ये भी एक तरह का इलेक्ट्रिक व्हीकल ही है, जो हाइड्रोजन फ्यूल से चलता है. लेकिन ये पारंपरिक इलेक्ट्रिक व्हीकल से अलग है. इसलिए इसकी अलग से पहचान करने के लिए हाइड्रोजन कार या फ्यूल सेल व्हीकल कहते हैं.बहुत लोग इलेक्ट्रिक कार और हाइड्रोजन कार को लेकर कन्फ्यूज़ हो जाते हैं. इसलिए पहले इसे क्लियर कर लेते हैं. आमतौर पर जिन गाड़ियों को इलेक्ट्रिकल व्हीकल कहा जाता है, वो ‘बैटरी इलेक्ट्रिक व्हीकल’ होती हैं. यानी ये गाड़ियां बैटरी से चलती हैं. और वो भी एक खास तरह की बैटरी, जिसे लिथियम-आयन बैटरी कहते हैं. इलॉन मस्क की कंपनी टेस्ला भी इलेक्ट्रिक कार बनाती है. टेस्ला और दुनिया के ज़्यादातर इलेक्ट्रिक व्हीकल लिथियम-आयन बैटरी से ही चलते हैं.
हाइड्रोजन कार चलती है फ्यूल सेल के दम पर. इस फ्यूल सेल के ज़रिए इलेक्ट्रिसिटी पैदा होती है. और इस इलेक्ट्रिसिटी के इस्तेमाल से गाड़ी के अंदर लगी मोटर चलती है. मोटर से गाड़ी के पहिए घूमते हैं. गाड़ी चलती है. और हवा लगती है.आपकी जो पेट्रोल-डीज़ल वाली कार होती है, उसमें इलेक्ट्रिक मोटर नहीं होती. उसमें पहिए घुमाने के लिए इंजन होता है. पेट्रोल और डीज़ल में आग लगाकर इंजन के भीतर गर्मी धौंक दी जाती है. इस गर्मी से इंजन के पिस्टन आगे पीछे होते हैं. इंजन से गाड़ी के पहिए घूमते हैं. और गाड़ी चलती है. हवा लगती है.
तो इतनी क्लैरिटी मन में बिठा लीजिए, पेट्रोल-डीज़ल वाली आपकी गाड़ी इंजन की मदद से चलती है. जबकि हाइड्रोजन कार और बैटरी इलेक्ट्रिक कार में इलेक्ट्रिक मोटर लगी होती है. टेक्निकली, इन दोनों को इलेक्ट्रिक व्हीकल कहा जाएगा, क्योंकि दोनों इलेक्ट्रिक मोटर की मदद से चलती हैं.
लेकिन चलन ऐसा चल पड़ा कि बैटरी इलेक्ट्रिक व्हीकल को ‘इलेक्ट्रिक कार’ और हाइड्रोजन बेस्ड फ्यूल सेल इलेक्ट्रिक व्हीकल को ‘हाइड्रोजन कार’ कहा जाता है.
इन दोनों की ही अच्छी बात ये है कि ये फॉसिल फ्यूल की मदद से नहीं चलतीं. इसका मतलब दोनों ज़्यादा प्रदूषण नहीं फैलातीं. ज़्यादा हल्ला गुल्ला नहीं करतीं. शांति से चलती हैं. इन्हें रिन्यूएबल एनर्जी (अक्षय ऊर्जा) की मदद से चलाया जा सकता है.
ये तो इलेक्ट्रिक कार और हाइड्रोजन कार के बीच की समानताएं हो गईं. लेकिन इनके बीच अंतर क्या है? अंतर है दोनों के इलेक्ट्रिसिटी के साथ डील करने के तरीके में.
बैटरी इलेक्ट्रिक कार में तो एक बैटरी के अंदर इलेक्ट्रिकल एनर्जी स्टोर करके रखी जाती है. बैटरी का काम ही यही होता है, विद्युत ऊर्जा का संचय करके रखना. कार की बैटरी आपके फोन की बैटरी जैसी ही होती है. बस उसका बड़ा वर्ज़न है. जब तक बैटरी में जान है, तब तक मोटर चलाते रहो. जब बैटरी खत्म हो जाए तो चार्ज कर लो, फिर मोटर चलाओ.
हाइड्रोजन कार में बिजली की व्यवस्था बैटरी से नहीं होती. यहां फ्यूल सेल की मदद से बिजली बनती है. ये फ्यूल सेल क्या होता है? इससे बिजली कैसे बनती है?.
बिजली और पानी - हाइड्रोजन फ्यूल सेल
बैटरी की तरह फ्यूल सेल के अंदर इलेक्ट्रिसिटी भरी नहीं रखी रहती. बल्कि इससे बिजली बनाई जाती है. इसके लिए फ्यूल यानी ईंधन चाहिए होता है. हाइड्रोजन फ्यूल सेल में इस्तेमाल होने वाले ईंधन का नाम है हाइड्रोजन गैस.
फ्यूल सेल में हाइड्रोजन के अलावा ऑक्सीजन का इस्तेमाल भी होता है. ऑक्सीजन वातावरण की हवा से फ्री में मिल जाती है. लेकिन हाइड्रोजन की टंकी भरकर गाड़ी में रखनी होती है.
फ्यूल सेल में एक तरफ से हाइड्रोजन (H2) आती है. दूसरी तरफ से ऑक्सीजन (O2) आती है. इन दोनों के मिलने से बिजली उत्पन्न होती है. नायक और नायिका के बीच बिजली पैदा होने जैसा है. लेकिन किसी फिल्म का सीन नहीं है, एक कैमिकल रिएक्शन है.
2(H2) + O2 → 2(H2O)
फ्यूल सेल के अंदर इलेक्ट्रिसिटी बनना इसी कैमिकल रिएक्शन का नतीजा है. इस रिएक्शन का एक ही बाइप्रोडक्ट है - जल (H2O).
तो ऐसे बनती है फ्यूल सेल में बिजली. लेकिन ये प्रोसेस इतना भी सिंपल नहीं है. लेकिन मैं आपको एनोड, कैथोड, इलेक्ट्रोलाइट, पॉलीमर इलेक्ट्रोलाइट मेंब्रेन(PEM), एनोड साइड और कैथोड साइड की अलग-अलग रिएक्शन बताने लग जाऊंगा तो आप ये पढ़ना छोड़ देंगे. इसलिए बस इतना समझ लीजिए कि फ्यूल सेल में एक तरफ से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन डालेंगे तो दूसरी तरफ से पानी और बिजली निकलेगी.
अब ऑक्सीजन तो चलो हवा से ले लेते हैं. लेकिन हाइड्रोजन का जुगाड़ कहां से होता है?
हाइड्रोजन कहां से आएगी?
फॉसिल फ्यूल (पेट्रोल-डीज़ल) के मुकाबले हाइड्रोजन बेहतरीन चीज़ है. इसके सीमित भंडार नहीं हैं. ये अपने इस ब्रह्माण्ड में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. लेकिन एक दिक्कत है. ये हाइड्रोजन गैस (H2) के फॉर्म में नहीं होती. इसे जुगाड़ लगाकर बनाना पड़ता है.
हाइड्रोजन बनाने के लिए जो चीज़ चाहिए, वो पृथ्वी नाम के ग्रह पर बहुत आसानी से मिल जाती है. पृथ्वी का 70 पर्सेंट हिस्सा इसी चीज़ से भरा पड़ा है. अरे, पानी की बात कर रहे हैं.
पानी से हाइड्रोजन निकालने की प्रक्रिया फ्यूल सेल से इलेक्ट्रिसिटी बनाने की ठीक उलटी है. यहां अपन को पानी में बिजली देनी पड़ती है. H2O में इलेक्ट्रिसिटी देने पर ये दो चीज़ों में टूट जाता है - H2 और O2. इस प्रोसेस को इलेक्ट्रोलिसिस कहते हैं.
तो इस तरह इलेक्ट्रोलिसिस से अपन लोग पानी से हाइड्रोजन बनाएंगे. और हाइड्रोजन से गाड़ी चलाएंगे. बैटरी के मुकाबले हाइड्रोजन फ्यूल सेल में अच्छी बात ये है कि इसे फुर्ती से रीफिल किया जा सकता है. जहां गाड़ी की बैटरी डाउन होने के बाद उसे चार्ज करने में घंटों का समय लग सकता है, वहीं हाइड्रोजन को रीफिल करने में महज़ पांच मिनट लगते हैं. तो हाइड्रोजन वाली गाड़ी चलाना मस्त प्लान है?
अब इस ला ला लैंड से बाहर निकलते हैं. और हाइड्रोजन कार की दिक्कतें समझते हैं.
हाइड्रोजन कार का जलवा क्यों नहीं है?
हाइड्रोजन फ्यूल सेल इतनी बढ़िया चीज़ है तो ये मार्केट कैप्चर क्यों नहीं कर पा रहा? सबसे पहला कारण है पइसा. ये हाइड्रोजन कार महंगी बहुत है. सबसे सस्ती वाली हाइड्रोजन कार 35 लाख रुपए से ऊपर की आती है. इतनी रेंज अपने यहां का आदमी सिर्फ फॉर्च्यूनर की कल्पना करने लगता है. विधायकों वाली गाड़ी.
जोक्स अपार्ट. हाइड्रोजन कार की महंगाई को समझा जा सकता है. ये टेक्नोलॉजी अभी नई-नई है. कोई भी टेक्नोलॉजी जब शिशुअवस्था में होती है, तो बहुत महंगी होती है. जब ये बहुत ज़्यादा बिकने लग जाएगी, तो इसकी कीमत नीचे आने लगेगी.
हाइड्रोजन कार के साथ दूसरी समस्या है इन्फ्रास्ट्रक्टर की कमी. जब फ्यूलिंग स्टेशन ही नहीं होंगे, तो आदमी गाड़ी में हाइड्रोजन कहां से भराएगा? पूरे देश में हाइड्रोजन फ्यूल भराने के लिए एक-दो जगहें हैं. हमको सागर से जबलपुर जाना है तो हाइड्रोजन भराने दिल्ली थोड़ी न जाएंगे. और फ्यूलिंग स्टेशन तो इन्फ्रास्ट्रक्चर का सिर्फ एक हिस्सा है. हाइड्रोजन कार को सुधारने वाले मैकेनिक, इसके स्पेयर पार्ट्स की उपलब्धता. ऐसी कई चीज़ें हमारे मौजूदा सिस्टम में मिसिंग हैं, जो एक हाइड्रोजन कार को चलाए रखने के लिए ज़रूरी हैं.
इसके लिए काउंटर अर्ग्यूमेंट ये है कि जब हाइड्रोजन कार चलने लगेंगी, तो अपने आप ये इन्फ्रास्ट्रक्चर आ जाएगा. आज से 100 साल पहले पेट्रोल-डीज़ल वाली कार के लिए भी तो कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर नहीं था? लेकिन जैसे ही इन गाड़ियों की संख्या बढ़ी, इन्फ्रास्ट्रक्चर आ गया.
इलॉन मस्क ने गजब बेज्जती कर दी
हाइड्रोजन कार की सबसे बड़ी प्रॉब्लम इसका फ्यूल बनाने की प्रक्रिया और इसकी एफिशिएंसी को लेकर है. ये देखना दिलचस्प है कि दुनिया में हाड्रोजन को कैसे बनाया जा रहा है और उसमें कितनी ऊर्जा खर्च हो रही है.
2020 के डेटा को देखें तो दुनिया में जितनी हाइड्रोजन बन रही है, उसका करीब 95% हिस्सा फॉसिल फ्यूल्स की मदद से बनाया जाता है. फॉसिल फ्यूल की मदद से पैदा होने वाली किसी भी एनर्जी को ग्रीन एनर्जी नहीं कहा जा सकता. इस तरीके से पैदा होने वाली हाइड्रोजन को ‘ग्रे हाइड्रोजन’ कहते हैं. (नितिन गडकरी की गाड़ी में ‘ग्रीन हाइड्रोजन’ भरी है. यानी ये ईको-फ्रैंडली तरीके से पैदा की गई है.)
हाइड्रोजन बनाने का ईको फ्रेंडली तरीका है इलेक्ट्रोलिसिस. पानी से हाइड्रोजन बनाना. और इसके लिए ग्रीन इलेक्ट्रिसिटी का इस्तेमाल करना. ऐसे प्लांट्स जहां सोलर सेल्स की मदद से इलेक्ट्रिसिटी बनाई जा रही है. और फिर इस इलेक्ट्रिसिटी से हाइड्रोजन बनाई जा रही है. यहां से सारी ‘ग्रीन हाइड्रोजन’ निकलेगी. इस प्रोसेस की एफिशिएंसी को लेकर सवाल उठते हैं.
हाइड्रोजन बनाने में बहुत ऊर्जा खर्च होती है. फिर इसे स्टोर करने, एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफर करने में भी ऊर्जा खर्च होती है.
कुछ एक्सपर्ट्स का ऐसा कहना है कि हाइड्रोजन कोई फ्यूल नहीं है, जिससे एनर्जी पैदा होती है. ये महज़ एक एनर्जी कैरियर है. यानी आप इसके इस्तेमाल से एक जगह से दूसरी जगह एनर्जी को ले जाते हैं. आप एक जगह एनर्जी लगाकर हाइड्रोजन बनाते हैं. और दूसरी जगह इस हाइड्रोजन को ले जाकर इससे एनर्जी निकालते हैं. तो इसे फ्यूल की तरह नहीं एक बैटरी की तरह देखना चाहिए. और वो भी एक कम प्रभावी बैटरी.
बैटरी के मुकाबले हाइड्रोजन से एनर्जी ट्रांसफर करना एक इनएफिशिएंट (कम प्रभावी) तरीका है. ऐसा कभी नहीं होता कि आप जितनी बिजली खर्च करके हाइड्रोजन बनाएंगे, उस हाइड्रोजन को जलाकर उतनी ही बिजली पैदा कर लेंगे. इस पूरी प्रक्रिया में कई जगह एनर्जी लॉस होता है.
इलेक्ट्रिसिटी ट्रांसफर करने की हर प्रक्रिया में एनर्जी लॉस होता है. चाहे लिथियम-आयन बैटरी हो या हाइड्रोजन फ्यूल सेल. लेकिन फ्यूल सेल की एफिशिएंसी कम है बैटरी के मुकाबले. फ्यूल सेल में ज़्यादा एनर्जी लॉस होता है.
इलॉन मस्क लंबे अरसे इन फ्यूल सेल्स को नीचा दिखाते रहे हैं. 2020 में अपने एक ट्वीट में मस्क ने ‘फ्यूल सेल्स’ को ‘फूल सेल्स’ कह दिया था.
इसके अलावा मस्क ने अलग-अलग मौकों पर हाइड्रोजन फ्यूल सेल को ‘Extremely Silly’ और ‘Staggeringly Dumb’ भी कहा है.
क्लीन टेक्निका के एक चार्ट में बैटरी और फ्यूल सेल की एफिशिएंसी की तुलना की गई है. इसमें दिखता है बैटरी की एफिशिएंसी 73% है, जबकि फ्यूल सेल की एफिशिएंसी 22% है. इसके अलावा हाइड्रोजन को स्टोर करना, एक जगह से दूसरी जगह ले जाना भी एक चुनौती भरा काम है.
इसके बचाव में हाइड्रोजन फ्यूल सेल समर्थकों का कहना है कि अभी ये टेक्नोलॉजी नई है. जैसे-जैसे इसे ज़्यादा लोग यूज़ करेंगे, इसके रीसर्च-डेवलपमेंट में पैसा और समय खर्च होगा, इसकी एफिशिएंसी बेहतर होती जाएगी. हर नई टेक्नोलॉजी के साथ ऐसा ही होता है. बैटरी इलेक्ट्रिक व्हीकल्स को भी शुरुआत में इन समस्याओं का सामना करना पड़ा था.
कुछ एक्सपर्ट्स ऐसा बताते हैं कि हमें हाइड्रोजन कार बनाम बैटरी इलेक्ट्रिक कार की तरह इसे नहीं देखना चाहिए. बल्कि एक ऐसे भविष्य की कल्पना करनी चाहिए, जहां ये दोनों ही साथ में एग्ज़िस्ट करेंगी. ये भविष्य ग्रीन होगा. अच्छी बात है.