अमेरिका के कैलिफोर्निया में एक सहरा है- डेथ वैली (Death valley)… मौत की घाटी. इतना खूंखार नाम क्यों? क्या है कि काम भी इसके ऐसे ही हैं. ये है दुनिया की सबसे गर्म जगहों में से एक. तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर चला जाता है. देखने को दूर-दूर तक एक हरी डंडी तक नहीं मिलती. मिलते हैं तो बस कंगारू रैट. ऐसे चूहे जो न के बराबर पानी पिए इस वीरान मरुस्थल में जिंदा रह सकते हैं. और हां, इस बंजर जगह में एक और चीज मिलती है, पत्थर. स्टोरी इन्हीं पत्थरों पर है. देखने में किसी भी आम पत्थर जैसे, लेकिन 'हरकतें' करते हैं.
Death Valley में एक आदमी नहीं तो 300 किलो के पत्थर खुद कैसे चल लेते हैं?
कैलिफोर्निया की Death Valley में दूर-दूर तक इंसानी बस्ती नहीं है. ये एक बंजर रेगिस्तान है. जहां तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से ऊपर निकल जाता है. ऐसे में इन पत्थरों को सरकाता कौन है?
हरकत मतलब?
मतलब हरकत ही. हिलते हैं ये पत्थर, वो भी अपनेआप. आज हियां तो कल हुआं! यही बात डेथ वैली को दुनियाभर में मशहूर बनाती है. सूखी झील में ‘खुद’ से सरकने वाले ये पत्थर सालों तक वैज्ञानिकों के बीच पहेली बने रहे (Sailing stone science).
क्या इसमें John Cena का हाथ है? क्योंकि,
डेथ वैली में एक जगह है जिसका नाम है रेसट्रैक प्लाया (racetrack playa). ये एक सूखी हुई झील है. इतनी सूखी कि क्रिकेट की पिच बन जाए, एकदम सपाट. इसी झील में मिलते हैं ये 'हरकती' पत्थर. मिलते हैं, पड़े नहीं रहते. क्योंकि खिसकते रहते हैं. खिसककर कई फुट दूर तक निकल जाते हैं. ताज्जुब ये कि पत्थरों का वजन मामूली नहीं है, अच्छे खासे भारी हैं. कुछ तो 300 किलो तक भारी हैं.
इनके बारे में विस्तार से बात करते हैं. पहले वीडियो में इनको चलते खुद देख लें.
डेथ वैली में मौजूद करीब 4.5 किलोमीटर लंबी ये रेसट्रैक प्लाया झील करीब 3700 फुट की ऊंचाई पर है. आबादी से बीसियों किलोमीटर दूर. ये झील दो पहाड़ियों के बीच नजर आती है. यहां के सरकने वाले पत्थर सेलिंग स्टोन (sailing stone) कहलाते हैं. कहते हैं पहली बार इन्होंने 1940 के दशक में लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा. इसके बाद ये वैज्ञानिकों के लिए सालोंसाल पहेली बने रहे. लोग भी दशकों तक बहस करते रहे कि यहां न आदमी है न आदमी की जात, तो ये पत्थर सरक कैसे रहे हैं और इनके पीछे ये निशान कैसे बनते हैं?
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कैसे सुलझी गुत्थी?सेलिंग स्टोन का रहस्य जानने के लिए साइंटिस्ट्स सालों तक उनकी लोकेशन रिकॉर्ड करते रहे. पहचान के लिए उनके नाम भी रखे गए ताकि देखा जा सके कि फलाना पत्थर इस दिन इधर था और उस दिन उधर. पत्थरों के चारों ओर सरिये भी लगाए गए ताकि सरकें तो पता चले. पत्थर सरके तो, लेकिन वजह साफ नहीं थी कि कैसे.
फिर एक दौर आया जब ये थ्योरी दी जाने लगी कि शायद झील में जमने वाली बर्फ की वजह से ये सरकते होंगे. दरअसल, रेगिस्तान या मरुस्थल दिन में तो बेहद गर्म होते हैं, और रात में बहुत ही ठंडे. ये रेगिस्तान भी ऐसा ही है. रात में यहां हड्डी जमा देने वाली ठंड पड़ती है. फिर पानी क्या चीज, वो भी जमता ही है.
लेकिन रेगिस्तान में पानी आया कहां से? जवाब मिला कि कभी-कभी जब आस-पास बारिश होती है, तो पानी बहकर झील तक पहुंच जाता है. पानी पहुंचता है तो ठंड से जमता भी है. तो थ्योरी दे दी गई कि बर्फ में सरक कर पत्थर निशान छोड़ते हैं.
लेकिन भईया, मान लिया कि ये भारी-भरकम पत्थर बर्फ पर सवार हैं, लेकिन इतने वजनी पाषाण सरक कैसे रहे हैं. इसका जवाब दिया गया कि हवा की वजह से.
दरअसल कभी-कभी बारिश की वजह से इस बंजर झील में बर्फ की 3-6mm मोटी परत तक जम जाती है. बर्फ की ये परत हवा की वजह से सरकती होगी, ऐसी थ्योरी दी गई. लेकिन ये तो थी बस थ्योरी.
सबूत कहां है?
सबूत निकाला गया पत्थरों की GPS ट्रैकिंग कर के. ये वही तकनीक है जिससे आपके फोन की लोकेशन का पता चलती है. टाइम लैप्स कैमरे लगाए गए. टाइम लैप्स माने दिनों के वीडियो को मिनटों में समेट देना. ये वही वीडियो है जो आपने ऊपर देखा था.
वीडियो देखने के बाद साफ था कि पत्थर बर्फ की परत पर सरक रहे थे. सालों की गुत्थी को सुलझा लिया गया. रिसर्च से जुड़े डॉ. रिचर्ड नॉरिस इसको 'गोल्डीलॉक' जगह कहते हैं. गोल्डीलॉक माने सभी चीजें एकदम सटीक होना, न इधर न उधर. सपाट रेगिस्तान भी, बर्फ भी, यदाकदा बरसात भी, पत्थर भी, तेज हवा और सरकती बर्फ की परत भी.
वीडियो: ठंड लगती क्यों है और ठंड लगने पर आप कांपते क्यों हैं?