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ग्राउंड रिपोर्ट: संदेशखाली की असली कहानी!

संदेशखाली की महिलाएं कहती हैं - "नंदीग्राम और सिंगूर के समय ममता का नारा था 'माँ, माटी और मानुष।' इस समय ममता क्यों चुप हैं?"

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संदेशखाली को लेकर बंगाल की राजनीति गरमाई हुई है. (फोटो- पीटीआई)

“गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी मिलकर विश्व का सबसे बड़ा डेल्टा सुंदरवन बनाती हैं.”

कक्षा सात-आठ की सामान्य ज्ञान और भूगोल की किताबों में लिखा ये तथ्य जमीन पर कैसा दिखता है? डेल्टा यानी मिट्टी और बालू से बना वो त्रिकोण जो तब बनता है, जब कोई नदी समुद्र से जाकर मिलती है. अगर आप पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से बंगाल की खाड़ी की ओर कुछ 60 किलोमीटर चलेंगे, तो आपको ये सुंदरवन डेल्टा मिलना शुरू होगा.

आप इसकी मौजूदगी बेहद तसल्ली से कर सकते हैं. जैसे - मिट्टी थोड़ी और उपजाऊ और थोड़ी और नम होती जाती है, चेहरे पर उमस का तेल मिलने लगता है और हिमालय से चली आ रही गंगा नदी कई अलग-अलग धाराओं में फटने लगती है. हर धारा एक अलग नदी का नाम पाती है. सड़कों के किनारे फुटकर दलदली जंगल उगने लगते हैं.

और इसी प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच मिलते हैं कई छोटे-बड़े कस्बे. ऐसा ही एक कस्बा है धामाखाली. यहाँ से आपको अपनी गाड़ी छोड़कर नाव पकड़नी होगी. नाव इसलिए क्योंकि यहाँ पुल नाम की कोई संभावना नहीं है. मछली, झींगे, केकड़े, बाइक, साइकिल और लोगों से भरी नाव पकड़कर आप नदी पार के पहले स्टॉप पर रुकते हैं, तो आप संदेशखाली में दाखिल होते हैं. पेड़ों, उमस और आदिवासियों से भरा इलाका जो बांग्लादेश की सीमा से महज 15 किलोमीटर दूर है.

ये वही संदेशखाली है, जहां की महिलाओं ने 8 फरवरी के दिन एक बड़ा प्रदर्शन किया. वो झाड़ू, डंडे और जूते लेकर सड़कों पर आ गईं. उनकी मांग थी कि पुलिस प्रशासन राज्य की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल काँग्रेस के तीन नेताओं के आतंक से स्थानीय लोगों को बचाए. तीन नेताओं के नाम - शाहजहां शेख़, शिबू प्रसाद हज़रा और उत्तम सरदार.

'आतंक' की इस चादर के अंदर शारीरिक उत्पीड़न, यौन उत्पीड़न, सामूहिक बलात्कार जैसे संगीन इलजाम थे. इल्ज़ाम क्रूरता की सीमाओं को पार करते थे. महिलाओं ने ये भी कहा था कि शिबू हज़रा और उत्तम सरदार ने महिलाओं का यौन उत्पीड़न उनके घरवालों के सामने किया. संदेशखाली की सुंदर लड़कियों का चुनाव कर उन्हें रात भर तृणमूल काँग्रेस के पार्टी ऑफिस में रखा. रात भर महिलाओं को "मनोरंजन" करना पड़ता था.

पीड़िता से मुलाकात

इस केस की एक पीड़िता को हमने सबसे पहले सड़क पर देखा था. उन्होंने तेज साइकिल चलाते हुए हमें बांग्ला में सड़क से हटने का इशारा किया था. उनकी हँसती और चिल्लाती आवाज में मुझे बस "टक्कर" शब्द समझ आया था, जिसके बाद मैंने पूरा वाक्य अपने मन में गढ़ लिया था - "रास्ते से हट जाओ, वरना साइकिल से टक्कर लग जाएगी."

वो जब हम पत्रकारों को चीरते हुए निकली थी, तो पीछे तेज हवा का झोंका था. साइकिल पर पीछे उसका बेटा बैठा हुआ था, जो धूल और पसीने की बेफिक्र महक फैलाते चल रहा था. उसे गुजरे दो सेकंड बीते थे कि साथी पत्रकार ने चौंककर मुझसे कहा था - "दादा, वो तो यहां का भिक्टिम था. उसको पकड़ने से होगा."

अगले तीन मिनट में महिला का घर ढूंढ लिया गया था. वो अपने घर के बाहर मौजूद हैंडपम्प पर अपने बेटे को नहला रही थी. एक शैम्पू के पाउच से उसने बेटे को ऊपर से नीचे तक लेप दिया था. नहलाते हुए बेटे को मार रही थी तो बेटा भी एक उन्मुक्त आदिवासी हंसी हंस रहा था. ये देखकर समझ में आ गया था कि वो कहीं दूर से अपने बेटे को पकड़कर घर लाई थी ताकि उसे दिनचर्या में उतारा जा सके. उसने हमारी ओर देखा और समझ गई कि हम उसे लगातार क्यों देख रहे हैं. फिर बोली - “जल्दी पूछो.”

शुरुआती तीन मिनट की बातचीत ये स्थापित करने के लिए थी कि वो ही विक्टिम है. फिर उसने अपनी कहानी सुनाई - 

"वो लोग हम लोगों को पार्टी ऑफिस में बुलाता था. बहुत भद्दी-भद्दी बात बोलता था. हमारा भी हाथ पकड़कर खींचा था. हमारा साड़ी खोल दिया था."

इतना बोलने के बाद वो चली गईं. आगे की बात न कहनी पड़े, इसलिए इतना ही बहाना बना पाई - "अब हमको नहाना है."

संदेशखाली की स्थानीय महिला

ये आरोप संदेशखाली की हरेक महिला लगाती है. उनका कहना है कि यहाँ की महिलाओं के साथ ऐसा बरसों से होता आया है. कभी किसी शिकायत की सुनवाई नहीं हुई. महिलाओं के पास इलाके के एक मास्टर की कहानी भी थी. ये मास्टर यहाँ के राधा रानी स्कूल में पढ़ाते थे. इल्ज़ामों के मुताबिक, शिबू हज़रा एक बार इन मास्टर की पत्नी को उठाकर ले गया था. मास्टर ने शिकायत दर्ज कराई. कोई लाभ नहीं हुआ. आखिर में मास्टर ने अकेले गाँव छोड़ दिया. आज कहाँ हैं, ये किसी को नहीं मालूम. सभी महिलाओं ने एक सुर में कहा, 

"पुलिस ने हमारी शिकायतों को फाड़कर रद्दी के टोकरे में डाल दिया. और न्याय मांगने के लिए हमें कहा कि हम शिबू हज़रा या शाहजहाँ शेख से मिलें."

ध्यान दें कि पुलिस पीड़ितों को आरोपियों से ही मिलकर अपनी शिकायत सुलझाने के लिए कहती रही.

मुद्दे पर राजनीति

इन आरोपों ने सूबे की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा को राजनीतिक खाद-पानी मुहैया कराया. भाजपा के नेताओं ने संदेशखाली की ओर कूच किया. इसे देखते हुए पुलिस ने पूरे इलाके में धारा 144 लगाकर इंटरनेट बंद कर दिया. भाजपा नेता संदेशखाली में एंट्री लेकर पीड़ितों से मिलना चाह रहे थे, लेकिन उन्हें घुसने से रोकने के लिए पुलिस के पास धारा 144 का बहाना मौजूद था. पुलिस और भाजपा नेताओं के बीच झड़प हुई. ये झड़पें एक से अधिक मौकों और दिनों पर हुई. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सुकान्त मजूमदार घायल हुए. दूसरी ओर सूबे के राज्यपाल सीवी आनंद बोस पीड़ित महिलाओं से मुलाकात कर उन्हें न्याय का भरोसा दिला चुके थे.

अब ममता बनर्जी सरकार बैकफुट पर थी. सरकार ने सबसे पहले इल्ज़ामों से पल्ला झाड़ा. और बाद में खानापूर्ति करने के लिए उत्तम सरदार को पार्टी से निलंबित कर दिया. सरदार को पुलिस ने अरेस्ट कर लिया. और पार्टी ने बयान दिया कि उत्तम सरदार की इस मामले में संलिप्तता अभी तक सामने नहीं आई है. पार्टी आरोपों के बावजूद अपने नेताओं को बचाते हुए दिख रही थी. इसमें पार्टी को पुलिस से मदद मिल रही थी. कैसी मदद?

दरअसल, इस पूरे मामले में पुलिस हर बार एक ही बहाने के साथ नमूदार हो रही थी. पुलिस का कहना था कि उन्हें संदेशखाली से जो 4-5 शिकायतें मिली हैं, लेकिन उनमें कहीं भी यौन उत्पीड़न या रेप की शिकायतों का जिक्र नहीं है. आपने ऊपर पढ़ ही लिया कि कैसे स्थानीय लोगों ने पुलिस पर शिकायत फाड़ने के इल्जाम लगाए थे.

पुलिस कार्रवाई की ज़द में स्थानीय माकपा नेता और पूर्व विधायक निरापद सरकार और भाजपा कार्यकर्ता संतोष सिंह थे. पुलिस ने इन्हें माहौल खराब करने के इल्जाम में अरेस्ट कर लिया था.  इन्हें रिहा करने की मांगों को लेकर इनकी अपनी पार्टियां प्रदर्शन कर रही थीं. सूबे की सरकार पर एक इल्जाम और लगा - अपनी नाकामी छुपाने के लिए विपक्षी पार्टियों को निशाना बनाया जा रहा है. स्थानीय लोगों ने हमसे बातचीत में कहा कि "ये दोनों नेता लोग कौन है, हम नहीं जानता है?"

लेकिन पुलिस के पास बहाने 17 फरवरी को खत्म हो गए. न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने CrPC की धारा 164 के तहत दर्ज कराए अपने बयान में एक महिला ने बलात्कार के आरोप लगाए. अब पुलिस के पास उचित धाराओं में मुकदमा लिखने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. इसके साथ ही शिबू हज़रा को हिरासत में ले लिया गया. तृणमूल के प्रवक्ता कुणाल घोष ने एक तुर्रा भी जोड़ दिया - 

"पुलिस हिरासत में लिए जाने का मतलब ये नहीं होता कि कोई दोषी है."

कुणाल घोष का ये कहना तकनीकी रूप से बिल्कुल सही था. पुलिस आरोपियों को हिरासत में इसलिए लेती है कि अपनी सुविधा से उससे पूछताछ की जा सके. और आरोपी कहीं शहर, सूबा या वतन छोड़कर चला ना जाए. लेकिन ऐसा बयान देते वक्त तृणमूल ने एक तथ्य को दरकिनार कर दिया था कि उनकी ही पार्टी का एक और नेता और इस केस का एक आरोपी शाहजहाँ शेख लगभग सवा महीने से फरार था. और राज्य सरकार की काबिलियत पर सवाल उठ रहे थे. सरकार को भरसक कोशिश करनी चाहिए थी कि नागरिक उन पर भरोसा करें.

संदेशखाली घटना के खिलाफ प्रदर्शन (फोटो- पीटीआई)

ये भरोसा तब और डिगा जब शाहजहाँ शेख की कहानी सामने आई.

कौन है शाहजहाँ शेख?

5 जनवरी 2024 की तारीख को चलिए. इस दिन प्रवर्तन निदेशालय (ED) की एक टीम धामाखाली में मौजूद शाहजहाँ शेख के निवास पर छापा मारने पहुंची थी. केस था मनरेगा स्कीम में कथित घोटाले का. दरअसल पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र सरकार में महीनों से मनरेगा को दिए जाने वाले मेहनताने को लेकर गतिरोध चल रहा है. इस स्कीम के तहत किसी बेरोजगार साल में न्यूनतम 100 दिनों का रोजगार मिलता है. ये रोजगार अमूमन सरकारी निर्माण के लिए होता है. इस रोजगार के बदले मजदूर को एक तयशुदा पैसा मिलता है. और ये पैसा केंद्र सरकार राज्य सरकारों को देती है, जिसके बाद ही मजदूरों का भुगतान किया जाता है.

अब सूबे की ममता बनर्जी सरकार का कहना है कि केंद्र की मोदी सरकार बंगाल के हिस्से का मनरेगा मेहनताना दबाकर बैठी हुई है. बारहा मीटिंग और मनुहार के बाद भी रिलीज नहीं कर रही है. और दूसरी तरफ केंद्र सरकार के तर्क हैं कि पश्चिम बंगाल में मनरेगा के फंड में घोटाला हो रहा है, जिसकी जांच की जानी जरूरी है. इसी इल्जाम के तहत ईडी ने मुकदमा दर्ज किया और जांच शुरू की. जिस क्रम में शाहजहाँ शेख के यहाँ छापा मारा गया.

ईडी की टीम जैसे ही शाहजहाँ के घर पहुंची तो स्थानीय लोगों ने हमला कर दिया. ईडी के तीन अधिकारी घायल हो गए. इस पूरी कवायद का फायदा उठाकर शेख धामाखाली से भाग गया. ईडी की टीम आज भी बंगाल के अलग-अलग हिस्सों में उसके कथित सहयोगियों के यहाँ छापा मार रही है. लेकिन शेख गायब है. पुलिस सूत्रों का कहना है कि वो पास ही सटे बांग्लादेश भाग गया है. क्योंकि वहाँ पर भी उसका एक घर है. लेकिन स्थानीय सूत्रों और पत्रकारों का कहना है कि वो 24 परगना के इलाके छोड़कर कहीं नहीं गया है. कभी-कभी किसी बिरले मौके पर लोगों को दिख जाता है. सूत्रों के बीच न्याय अटका रहा, सूत्रों के बीच राजनीति चलती रही.

सवाल है कि शाहजहाँ शेख की कहानी एक मोलेस्टर, एक अपराधी तक कैसे पहुंची?

स्थानीय सूत्रों ने बताया कि वो बांग्लादेश लांघकर भारत आया. और यहाँ खेतों और ईंट भट्ठों पर काम करने लगा. इन कामों के अलावा उसने नाव और सवारी गाड़ी भी चलाई. ऐसे कुछ सालों तक चलता रहा. ये पश्चिम बंगाल की राजनीति में वो समय था, जब माकपा शीर्ष पर थी. लोग बताते हैं कि साल 2002 में शेख ने ईंट भट्ठों के मजदूरों का यूनियन बनाया. उस यूनियन का नेता बना तो माकपा की नजर में आया.

साल 2004 में शाहजहाँ ने माकपा की सदस्यता ले ली. इसमें उसकी मदद की उसके मामा मुस्लिम शेख ने जो खुद माकपा के स्थानीय नेता थे. आरोप हैं कि सत्ता का संरक्षण मिलते ही शाहजहाँ लगभग बेहाथ हो गया.

शाहजहां शेख (फाइल फोटो)

उसने यहाँ के लोगों के खेतों और ज़मीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया. वो यहाँ के लोगों से उनके उपजाऊ खेत लीज पर लेता, उनमें पानी भरकर मछली और झींगा पालने के लिए भेड़ी (तालाब) बना देता. असली शामत उन किसानों की आती, जो उसे खेत देने से मना कर देते. ऐसे मौकों पर शाहजहाँ अपना असल हथियार इस्तेमाल में लाता - खारा पानी. इस इलाके का पानी समुद्र के नजदीक होने की वजह से खारा होता है, अगर खेतों में पड़ जाए तो जमीन की उपज मर जाती है. लेकिन इस पानी की एक खासियत भी थी कि इसमें पाली जाने वाली मछलियाँ और झींगे अच्छी क्वालिटी के होते, और बेहतर पैसा देते थे. वहाँ पर कहावत भी प्रचलित है - नून जले, सोना फले. यानी खारे पानी में सोना उगता है. शाहजहाँ शेख खारे पानी के इसी गुण का इस्तेमाल करता.

खेत लीज पर देने से मना करने वाले किसानों के खेत रातोरात खोद दिए जाते और उनमें पम्प से इलाके का खारा पानी भर दिया जाता. खेत की उपज खत्म हो जाती, और फिर किसान को हारकर उस तालाब को शाहजहाँ को देना पड़ता. किसान की सोच होती कि ऐसे तो कुछ होगा नहीं, लेकिन अगर उसमें मछली और झींगा पालन का ही काम हो जाएगा तो किसान को थोड़ा ही पैसा मिल जाएगा. कुछ नहीं से कुछ सही.

किसानों को जमीन के एवज में हर महीने कुछ पैसे का वादा किया जाता. साल-दो साल तक सब सही चलता, लेकिन इसके बाद शाहजहाँ पैसा देना बंद कर देता. किसान ये देखते रह जाते कि एक सत्तापोषित भूमाफिया उनकी जमीन पर कुंडली मारकर बैठ गया है. वो उनकी जमीन पर बनी भेड़ी बनाकर उसमें मछली पाल रहा है, झींगा और केकड़ा पाल रहा है, और सारे पैसे अंदर कर ले रहा है. लोग इल्जाम लगाते हैं कि इस मछली पालन और तमाम कामों से होने वाली कमाई सत्ताधारी पार्टी से भी शेयर की जाती थी.

ये सब लेफ्ट के शासन काल में हो रहा था. लेकिन इस समय बंगाल की राजनीति एक करवट ले रही थी. साल 2006 से लेकर 2008 तक ममता बनर्जी की सरपरस्ती में दो बड़े प्रोटेस्ट हुए. नंदीग्राम में लेफ्ट सरकार खेती योग्य उपजाऊ जमीन पर एक केमिकल हब बनाना चाह रही थी. वहीं सिंगूर में टाटा समूह को किसानों की जमीन एक लाख रुपये की नैनो कार बनाने के लिए दी गई थी. तृणमूल ने इन दो मुद्दों पर जमकर प्रोटेस्ट किये. ऑप्टिक्स ममता बनर्जी को किसानों और मजदूरों के साथ खड़ा दिखा रही थी और लेफ्ट को विरोध में. बंगाल में वामपंथी राजनीति का अवसान शुरू हो चुका था.

नंदीग्राम में तत्कालीन लेफ्ट सरकार के खिलाफ प्रदर्शन में ममता बनर्जी (फाइल फोटो)

लोग बताते हैं कि साल 2010 आते-आते शाहजहाँ ने ये निर्णय कर लिया था कि वो माकपा से दूरी बनाएगा. टीएमसी के करीब जाना तय हुआ. साल 2011 में ममता बनर्जी ने वामपंथ की 34 साल की सत्ता को खत्म करके बंगाल में सरकार बनाई. शाहजहाँ ने भी हवा के साथ बहना जरूरी समझा और साल 2012 में टीएमसी से जुड़ गया.

अब तक जो काम वो लेफ्ट की सरकार के अधीन कर रहा था, अब वही काम वो तृणमूल की सरकार के अधीन करने लगा. लोग बताते हैं कि उसे सीधे तौर पर तृणमूल के दो नेताओं का साथ मिला हुआ था. पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव मुकुल रॉय और उत्तर 24 परगना के जिलाध्यक्ष ज्योतिप्रिय मलिक. एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर हमें बताया कि इन शाहजहाँ इन दो नेताओं के जरिए पैसे ऊपर तक पहुंचाता.

शाहजहाँ शेख का रसूख बढ़ गया था. पैसे भी बहुत थे. एक खबर बताती है कि उसने पंचायत चुनाव में 'बिज़नेस’ को अपनी कमाई का ज़रिया बताया था, और कहा था कि उसकी कमाई 20 लाख रुपये सालाना है.

लेकिन इस कमाई के सापेक्ष उसकी संपत्ति कई सवाल खड़े करती थी. एक खबर के मुताबिक, उसके पास 17 कारें, 43 बीघा ज़मीन, 2 करोड़ के आसपास गहने, और लगभग 2 करोड़ का बैंक बैलेंस है. स्थानीय लोग बताते हैं कि ये भी कम है, इससे बहुत ज्यादा पैसा उसके पास मौजूद है.

इस कमाई में दो लोगों ने उसकी बेइंतहा मदद की. शिबू हज़रा और उत्तम सरदार. ये लोग उसके स्थानीय गुर्गे की तरह काम करते. एक समय तक गाँव-गाँव जाने वाला शाहजहाँ अब चिंतामुक्त था. हज़रा और सरदार घूम-घूमकर खेतों पर कब्जा करते और भेड़ी बनाकर पैसा उगाही करते. और शाहजहाँ की तर्ज पर ही स्थानीय किसानों और उनके घरवालों को प्रताड़ित करते.

संदेशखाली के रहने वाले कुछ लोग बताते हैं कि इन लोगों ने संदेशखाली की स्थानीय औरतों को पार्टी ऑफिस बुलाना शुरू किया. कभी कुछ खाना बनवाना हो, या कभी कोई काम करवाना हो तो औरतों को पार्टी ऑफिस बुलाया जाता. औरतों के पास मना करने का कोई विकल्प नहीं होता क्योंकि उनके पति के ज़मीनों की भेड़ी पर इन लोगों का कब्जा होता. औरतों के पास विकल्प इसलिए भी नहीं था क्योंकि वो मना करतीं तो ये लोग उनके घर चले आते और मारना पीटना करते. हमें ऐसे भी इल्जाम सुनने को मिले कि कई बार स्थानीय लोगों को बिठाकर उनके सामने गाँववालों को मारा जाता. ऐसा बस इसलिए ताकि गाँव में भय बना रह सके.

और इसी क्रम में लड़कियों का यौन शोषण शुरू हुआ. बाकायदा सुंदर लड़कियों की शिनाख्त की जाती और उन्हें पार्टी ऑफिस बुलाकर उनसे "मनोरंजन" करने के लिए कहा जाता. फिर शुरू होता बलात्कार.

लेकिन पुलिस चुप रहने की हिदायत से मामला बंद करती जाती, ऐसे इल्जाम भी लगते गए.

संदेशखाली की महिलाएं कहती हैं - 

"नंदीग्राम और सिंगूर के समय ममता का नारा था 'माँ, माटी और मानुष।' इस समय ममता क्यों चुप हैं?"

संदेशखाली घटना के खिलाफ बीजेपी का प्रदर्शन (फोटो- पीटीआई)
दशकों पुरानी हिंसा

कोलकाता में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रतिम रंजन बोस बताते हैं कि शाहजहाँ शेख जो आज कर रहा है, उसके पहले ये काम लेफ्ट से जुड़े गुंडे और गिरोहबाज ईसा लश्कर और मजीद मास्टर करते थे. शाहजहाँ शेख इस कड़ी में बस एक और नाम है. वो कहते हैं, 

"अगर आप सुंदरवन के इलाके में आगे बढ़ेंगे तो आपको ऐसे कई शाहजहाँ शेख देखने को मिलेंगे. ये सब 90 के दशक में शुरू हुआ, जब राज्य सरकार ने झींगा पालन को बढ़ावा देना शुरू किया. ये इस इलाके के लिए वरदान की तरह था क्योंकि फैक्ट्री-ऑफिस की अनुपस्थिति वाले इलाके को झींगे में ज्यादा कमाई दिखाई थी. यहाँ के खारे पानी की वजह से झींगा पालना ज्यादा आसान था. इसलिए किसान उस ओर घूमे. लेकिन शाहजहां शेख जैसे लोग बीच में अपना हिस्सा काटने के लिए बैठे थे. उन्होंने किसानों की जमीन पर कब्जा करना शुरू किया. इसके खिलाफ आवाज उठाने वाले किसानों को प्रताड़ित किया गया, उनके घरों की महिलाओं को प्रताड़ित किया गया. प्रताड़ना की ये कहानी बलात्कार तक गई."

इस मामले में सरकार अब बैकफुट पर है. एक समय तक पार्टी के नेताओं के बचाव में खड़ी तृणमूल अब अपने ही नेताओं से पीछा छुड़ा रही है. विधायक और कैबिनेट मंत्री शशि पंजा हमसे बातचीत में कहती हैं, 

"जो भी इंसान ऐसी गतिविधियों में लिप्त है, उसे कोई हक नहीं है खुद को पार्टी वर्कर बताने का."

वो भाजपा पर आरोप लगाती हैं कि पार्टी मामले पर पॉलिटिक्स कर रही है. इस पर भाजपा की प्रवक्ता शतरूपा कहती हैं,

"हमने बस वही कहा है, जो लोगों ने बताया. इसे राजनीति की तरह नहीं देखना चाहिए."

इन बयानों के बीच संदेशखाली में कुछ और नेता हाई कोर्ट के दखल के बाद दाखिल होते हैं. संदेशखाली की महिलाएं एक बार और बयान देती हैं, एक बार और न्याय का दिलासा पाती हैं.

संदेशखाली पर हमारी देख सकते हैं.