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हर फेमिनिस्ट को ये हिन्दी उपन्यास जरुर पढ़ना चाहिए
“मुझे पहचानो” समाज के पाखंड की परतें उधेड़ता है. ये सती प्रथा पर आधारित उपन्यास है. जिसे साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है. सती प्रथा का अंत करने में बड़ी भूमिका निभाने वाले राजा राममोहन राय की भाभी पर सती प्रथा को लेकर हुए अत्याचार को नींव में रखकर यह उपन्यास लिखा गया है.
"मुझे पहचानो" को इस साल का साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है
सोचिए. क्योंकि आप मनुष्य हैं, सोच सकते हैं, पशु नहीं सोच सकते. यह यौन शुचिता, गर्भ शुचिता या रक्त शुचिता से भी जुड़ती है, मगर उसके लिए स्त्रियां ही क्यों दोषी मान ली जाएं? ये बातें सिर्फ हिंदू नहीं, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सब पर लागू होती हैं. ईश्वर या प्रकृति के सिरजी सृष्टि में कोई किसी का गुलाम नहीं है, फिर यह डायन, यह मॉब लिचिंग, यह ऑनरकिलिंग जैसे बर्बर हुड़दंग क्यों, जिसका शिकार औरत ही तो होती है, आप उस पर ही सती का मूल्य कैसे लाद सकते हैं जो आप खुद नहीं कर सकते. आग... ! मैं हाथ जोड़ कर अरज करता हूँ, आग से मत खेलिए, आग में औरतों को मत झोंकिए.
जो आपने अभी पढ़ा. वो “मुझे पहचानो” उपन्यास में लिखा गया है. आज अचानक इस किताब की बात क्यों? इसलिए क्योंकि सेतु प्रकाशन (Setu Prakashan Samuh) से साल 2020 में आई इस किताब को हिन्दी भाषा की कैटगरी में साहित्य अकादेमी पुरस्कार (Sahitya Akademi Award) मिला है. इसे लिखा है चार दशक से हिन्दी की दुनिया में सक्रिय संजीव ने. इस खबर को अंत तक पढ़ेंगे तो आप जान जाएंगे कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार क्या है? इसमें पैसा कितना मिलता है? आप अगर किताब लिखें तो कैसे ये अवार्ड पा सकते हैं? और लेखक संजीव का पूरा बॉडी ऑफ़ वर्क.
“मुझे पहचानो” समाज के पाखंड की परतें उधेड़ता है. ये सती प्रथा पर आधारित उपन्यास है. सती प्रथा का अंत करने में बड़ी भूमिका निभाने वाले राजा राममोहन राय की भाभी पर सती प्रथा को लेकर हुए अत्याचार को नींव में रखकर यह उपन्यास लिखा गया है. सती होने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है. इस अमानवीय परंपरा के पीछे मूल है, एक किस्म का सांस्कृतिक गौरव. उस वक्त में भी कुछ प्रोग्रेसिव लोगों को, उनके नजरिये को छोड़ दें तो इस प्रथा की काफी स्वीकार्यता रही है. संजीव इस किताब के बारे में कहते हैं कि महत्त्वपूर्ण और निराशाजनक यह है कि स्त्रियां भी इसकी धार्मिक व सांस्कृतिक मान्यता को सहमति देती थीं. उपन्यास में एक महिला इस प्रथा को समर्थन देते हुए कहती है, “जीवन में कभी-कभी तो ऐसे पुण्य का मौका देते हैं राम!” इसका कथानक धर्म और धन के घालमेल को भी उजागर करता है. इसके लिए सटीक भाषा, सहज प्रवाह और मार्मिक टिप्पणियों का प्रयोग उपन्यास में किया गया है. इसकी एक बानगी आपने शुरुआत में पढ़ी. एक उदाहरण में हमने आखिर में दर्ज किया है. दोनों अंश इसी किताब से दर्ज किये गए हैं. आपको बता दें कि साल 1829 में ब्रिटिश भारत के पहले गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिंक ने सती प्रथा को बैन किया था.
06 जुलाई 1947 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में जन्मे संजीव ने हिन्दी की दुनिया में चार दशक से सक्रिय हैं. पढ़ाई-लिखाई के कागजातों में नाम है, राम सजीवन प्रसाद. अब तक उन्होंने लगभग 150 कहानियां और 14 उपन्यास लिखे हैं. इसके अलावा उन्होंने बच्चों के लिए बालसाहित्य भी लिखा है. 38 वर्षों तक कैमिस्ट्री लैब में काम कर चुके संजीव बरसों से स्वतन्त्र रूप से लिखते रहे हैं. कथा पत्रिका ‘हंस’ समेत अनेक पत्रिकाओं के सम्पादन में भी सात साल तक उन्होंने अहम भूमिका निभायी है. साहित्य अकादेमी से सम्मानित किये जाने से पहले संजीव को अपने लेखन के लिए कई सम्मान मिले हैं. इसमें कथाक्रम सम्मान, भिखारी ठाकुर सम्मान, पहल सम्मान, श्रीलाल शुक्ल स्मृति साहित्य सम्मान प्रमुख हैं. उनके जीवन का बड़ा हिस्सा कुल्टी, आसनसोल में बीता है. इन दिनों वे नोएडा में रहते हैं. संजीव, हिन्दी के उन विरले लेखकों में से एक हैं, जो किसी विषय पर गहरा शोध करके लिखते हैं. और उनके लिखे में सूचनाएं तर्क के रूप में नहीं आतीं. वो उसे कथा के साथ बुनते हैं जहां इतिहास की सत्य घटना भी कहानी का ही हिस्सा लगने लगती है. उनके उपन्यास 'सावधान! नीचे आग है' पर 'काला हीरा' नाम से टेलीफिल्म बनी थी. इसके अलावा श्याम बेनेगल की फिल्म 'वेल डन अब्बा' भी संजीव की कहानी 'फुलवा का पुल' पर आधारित है.
साहित्य अकादेमी क्या है?
साहित्य अकादेमी, नेशल एकेडमी ऑफ़ लेटर्स की स्थापना भारत सरकार ने 12 मार्च 1954 को की थी. अकादेमी का दावा है कि इसकी स्थापना चाहे सरकार ने की है, फिर भी यह एक स्वायत्तशासी संस्था के तौर में काम करती है. ये ऐसी संस्थाएं होती हैं जो अपने संसाधन खुद जुटाती हैं. पंजीकरण अधिनियम 1860 के अंतर्गत इस संस्था का पंजीकरण 7 जनवरी 1956 को हुआ था.
साहित्य अकादेमी ने अपनी वेबसाइट पर दावा किया है कि अब तक उन्होंने 6000 से ज़्यादा किताबें छापी हैं, ये भी क्लेम है कि अकादेमी हर 19 घंटे में एक नई किताब का प्रकाशन कर रही है. साहित्य अकादेमी के पहले अध्यक्ष पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. सन् 1963 में वे दोबारा अध्यक्ष बने थे. माधव कौशिक इस वक्त साहित्य अकादमी के अध्यक्ष हैं.
अकादेमी हर साल चौबीस भाषाओं में साहित्यिक कृतियों के लिए पुरस्कार प्रदान करती है. इन चौबीस में से 22 भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची वाली हैं. जैसे, नेपाली, असमिया, अंग्रेजी, उर्दू, तेलुगु, और मणिपुरी. इसके अलावा अंग्रेजी और राजस्थानी भी वो दो भाषाएं हैं, जिन्हें साहित्य अकादेमी ने अपनी लिस्ट में रखा है. अंग्रेजी में विदेशी लेखकों और उनकी अंग्रेजी की किताबें शामिल नहीं होती हैं. अनुवाद को भी शामिल नहीं किया जाता है. बाकी, किसी भी विधा, माने कविता-संग्रह और उपन्यास पुरस्कार की दौड़ में शामिल हैं.
कैसे मिलता है ये पुरस्कार?
इस पुरस्कार को पाने के लिए लेखकों की किताबों को तीन लेयर्स से गुजरना पड़ता है.
#पहला एक भाषा परामर्श मंडल होता है. जिसमें विश्वविद्यालय और साहित्यिक संस्थाओं के विद्वान लोग शामिल होते हैं. इस मंडल को बनवाकर जाते हैं. पिछले साल वाले मंडल के सदस्य. जैसे साल 2024 का भाषा परामर्श मंडल 2023 के सदस्य बनवाकर जाएंगे. उसके बाद भाषा परामर्श मंडल का हर सदस्य अधिक से अधिक पांच नामों का पैनल भेजेगा. और अकादेमी के अध्यक्ष इन पैनलों में से विशेषज्ञ चुनते हैं. इसके अलावा इस मंडल का हर सदस्य दो किताबों के नाम भी सुझाएगा.
अच्छा, किताब चुनने के तीन रास्ते हैं, या तो वे दोनों किताबें अपनी मर्जी से चुन सकते हैं. या फिर अकादेमी हर साल दो विशेषज्ञों से जो एक आधार सूची (Ground List) बनवाती है, 24 भाषाओं में से चुनी किताबों की, उसमें से दोनों किताबें चुन सकते हैं. तीसरा रास्ता है, एक किताब अपनी मर्जी की और एक किताब आधार सूची में से.
#दूसरा इसके बाद बनता है एक प्रारंभिक पैनल. इसमें होते हैं दस निर्णायक. इस पैनल में भी हर सदस्य दो किताबें चुनेगा, लेकिन इस पैनल को भाषा परामर्श मंडल ने जो किताबें चुनी है. उसकी लिस्ट भी भेजी जाती है. यहां भी नियम वहीं हैं, इस पैनल के सदस्य चाहें तो भाषा परामर्श मंडल की बात मानें, न चाहे तो अपनी मर्जी से किताबें रिकमेंड कर सकते हैं.
#फुल एंड फाइनल जूरी इसके बाद बनती है एक तीन सदस्यों वाली एक जूरी. अब इस जूरी में कौन लोग होंगे, इसका फैसला अकादेमी के अध्यक्ष करेंगे. और जूरी में कौन लोग रखें जा सकते हैं, उनके नाम भेजता है, परामर्श मंडल. इसके बाद जूरी या तो बहुमत से फैसला ले सकती है. या फिर सर्वसम्मति से, माने जहां सभी सदस्य एक ही किताब पर सहमत हों.
इस बार हिन्दी किताबों की जूरी के सदस्य थे, लीलाधर जगूड़ी, नासिरा शर्मा, और डॉक्टर रामजी तिवारी. इसी के साथ अंग्रेजी के लिए नीलम शरण गौर को “रेक्युम इन रागा जानकी” के लिए ये अवार्ड मिला है.
अब तक किस-किस को मिला है ये अवार्ड?
इस लिस्ट में वो दिग्गज लेखक और उनकी किताबें हैं, कि अगर आप Absolute Beginner हैं और हिन्दी में अच्छा पढ़ने की भूख है, तो ये आपके लिए छप्पन भोग है. अशोक वाजपेयी को उनके कविता संग्रह “कहीं नहीं वहीं” के लिए ये अवार्ड मिला था. भीष्म साहनी को उनके उपन्यास “तमस” के लिए. भगवतीचरण वर्मा को उनके उपन्यास “भूले-बिसरे चित्र” के लिए. श्रीलाल शुक्ल को “राग-दरबारी” के लिए. मनोहर श्याम जोशी को “क्याप” के लिए. केदारनाथ सिंह को “अकाल में सारस” के लिए. निर्मल वर्मा को “कव्वे और काला पानी” के लिए अब तक साहित्य अकादेमी पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है.
कितना पैसा मिलता है?
एक लाख रूपये. साल 1954 में जब इस पुरस्कार शुरू हुआ था, तब मिलते थे पांच हजार रूपये. फिर साल 1983 में बढ़ाकर किये गए, दस हजार रूपये. पांच साल बाद, साल 1988 में ये अवार्ड मनी बढ़ी, राशि हुई, पच्चीस हजार रूपये. साल 2001 में ये राशि हुई चालीस हजार रूपये. दो साल बाद दस हजार रूपये बढ़ें, यानि 2003 से दिए जाने लगे, पचास हजार रूपये. साल 2010 से ये राशि एक लाख रूपये की गई, तेरह साल बाद अभी तक वाही राशि मिलती है.
संजीव ने और क्या-क्या लिखा है:-
हिन्दी में अच्छा लिखने-पढ़ने वालों की उम्मीद धरे बैठे पाठकों के लिए हम संजीव की कहानियों और उपन्यासों का लिस्टिकल दे रहे हैं. अब आलस को अलगनी पर अटका आइए और जो जी करे वो किताब ले आइए,
उपन्यास:-
1.) फांस, ये उपन्यास वाणी प्रकाशन से साल 2015 में आया था.
2.)सूत्रधार, महान लोक कलाकार भिखारी ठाकुर से सम्बंधित ये किताब साल 2002 में आई थी.
3.) सावधान! नीचे आग है, ये किताब 1986 में राधाकृष्ण प्रकाशन से आई थी.
कहानी संग्रह –
1.)तीस साल का सफरनामा, 2.)डायन और अन्य कहानियां, 3.)प्रेतमुक्ति, 4.)ब्लैक होल, 5.) गली के मोड़ पर सूना-सा कोई दरवाजा
हमने संजीव के लिखे से बात शुरू की थी. उन्हीं के लिखे के साथ आपको छोड़ जाते हैं,
"ढोल-नगाड़े, घरी-घंट, तुरही पता नहीं कैसी-कैसी आवाजें ! मनहूसियत और आतंक से भरा दिन। गड़गड़ाते बादल और उन्मत्त धर्मार्थी भीड़. उसे पता नहीं चल रहा था कि उसे हांक कर कहां ले जा रहे थे लोग. वह गिरती-पड़ती फिर संभाल ली जाती और एक तरह से भीड़ के धक्के से आगे ठेल दी जाती. चिता तक यह क्रिया जारी रही. तब भी भादों की शाम थी. पिछली रात को जम कर बारिश हुई थी. माटी बिल्कुल गल गयी थी.
सती मैया की जय ! सती मैया की जय! वह लद-लद गिरती और बार-बार उठा कर हांकी जाती. चिता पर पति की लाश को गोद में लेकर बैठाये जाने पर भी उस नीम बेहोशी में-'मोरे बप्पा', 'मोरे भैया' सारी बची-खुची शक्ति को बटोर कर उभरी चीख, पिता का ओझल होता चेहरा, झकाझूम चक्रवाती हवा और बारिश की बौछारें ! सब कुछ धुंध में समाता गया. समाता गया सारा आलम. धर्म के पीछे धुन्धुआती, चीखती, पागल, पिलपिलाती भीड़ और तमाशबीन... कितना चंदन, कितना देशी घी ताकि चिता बुझने न पावे. हवा पागलों सी घूम गयी और तभी उन्मत्त नारों के बीच बगल का पीपल अर्रा कर गिरा जलती चिता पर और सावित्री उछाल दी गयी. आकाश से टूटी चिरीं ने जैसे लोक लिया, सावित्री को. शायद हुआ कुछ दूसरी तरह से हो, वह होश में कहां थी.
होश आया तो मैं इस मड़ई में थी. अनमोल की माँ मुझे सितुही से गर्म दूध पिला रही थी. एक कराह के साथ मेरी आँख खुली.
'कैसी हो बिटिया ?' जवाब में फिर वही कराह।
'तुम हो कौन, कैसे बह गयी नदी की धार में और वो भी इस ?' वह एकटक मेरा मुँह निहारे जा रही थी।
'बताती क्यों नहीं.'
'सती.'
''अरे बाप.' दूध की कटोरी के साथ अनमोल की मां छिटक और थरथर कांपने लगी. मैंने पूछा, 'माता जी दर्पणी है ?' अनमोल मेरे हाथ में दर्पणी थमा दी. अपना चेहरा देख कर मेरे मुख से चीख नकल गयी, 'अरी मोरी माई!' यह किसका चेहरा था! झुलसा हुआ स्याह! जले बाल, फफोलों, खून से भरा हुआ चेहरा, हाथ से छूकर जाना, पूरी तरह नंगी हूँ, सिर्फ जहां-तहां दो-एक गहने अटके पड़े थे. कुछ-कुछ सोच पा रही थी. उछाल खाने के बाद शायद नदी में गिरी, पानी के रेले के साथ बहते-बहते शायद उस जाल में आ फैसी जिसे मल्लाह लकड़ी छानने के लिए नदी में ताना करते हैं. उस दिन काफी पेड़ गिरे थे, कुछ बह रहे थे नदी में. बाद में अनमोल ने बताया कि मेरी कोई भी आवाज सुनायी नहीं पड़ रही थी, सिर्फ जयकारे थे और बादलों की दिल को कैंपा देने वाली गड़गड़ाहट. इन्हें ऊपर से लकड़ियों से तोप दिया गया और आग छुआ दी गयी चिता को. पंडित लोग जोर-जोर से मंत्र उच्चार रहे थे और जब आसमान से आग की लकीर के साथ उखड़ गये पीपल का पेड़ चिता पर अर्रा कर गिरा तो जो जहाँ था वहीं से प्राण लेकर भागा... वो आंधी वो पानी, हहास मारती हवा और ज्वालाओं की लपटें!"
“कभी-कभी मन में आता है कोर्ट में जाकर खड़ी हो जाऊं; मैं हूं रानी सावित्री कुंअर. मैं ही अपनी मजार पर दीया जलाती हूं. मैं ही ! कैसा लगता है अपनी ही मजार पर दीया जलाना, अपनी ही पूजा करना, अपनी ही निराजना करना, कैसा नाच है यह, कब तक इस झूठ को ढोती फिरुंगी? कितनी बार मरूंगी? कितना अजीब लगता है खुद का रोज-रोज जलना! कभी-कभी तो लगता है, तब से लेकर आज तक लगातार जलती ही रही हूँ मैं. एक दिन तो मुझे परदे के बाहर आना ही पड़ेगा.”
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