कभी कभी ज़रा सी असावधानी भी बड़े-बड़े कामों का बेड़ा गर्क कर सकती है. क्षणिक आवेश में लिए गए फैसले बहुत बड़े काज का भट्ठा बिठा सकते हैं. ऐसी ही एक जानलेवा भूल के बारे में हम आपको बताएंगे जिसने एक जीती हुई बाज़ी को पलट दिया था. जिसने एक ऐसी पराजय की पटकथा लिखी, जिससे फलता-फूलता मराठा साम्राज्य पतन की गर्त में चला गया.
सदाशिवराव भाऊ
मराठों का दबदबा
बात है 1761 की. ये वो वक़्त था जब दिल्ली की मुग़लिया सल्तनत अपने साम्राज्य की हिफाज़त के लिए मराठों पर आश्रित थी. उत्तर भारत में मराठा सेना का दबदबा था. मुगलों का स्वर्णिम काल बीत चुका था और दिल्ली का तख़्त-ए-ताउस मराठों के भरोसे सांसे ले रहा था. ऐसे में अफगान लुटेरे अहमदशाह अब्दाली ने एक बार फिर हिंदुस्तान पर हमला कर दिया. पंजाब पर कब्ज़ा करने के बाद उसने अपने कदम दिल्ली की तरफ बढ़ा दिए. उसे रोकने की ज़िम्मेदारी एक बार फिर मराठा सरदारों के हवाले थी.अहमद शाह अब्दाली
सदाशिवराव भाऊ थे मराठा सेनापति
मराठों ने अपने असाधारण सेनानी सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में अब्दाली से दो-दो हाथ करने के लिए कूच किया. उनका जन्म 4 अगस्त 1730 को हुआ था. उनकी उम्र कोई ज़्यादा नहीं थी उस वक़्त. महज़ 31 साल के थे. उनके साथ बालाजी बाजीराव पेशवा के सबसे बेटे विश्वासराव भी थे, जिनकी उम्र महज़ 20 साल थी. विश्वासराव, जो अगले पेशवा होने वाले थे, इस युद्ध में मारे गए. और यहीं से जन्म लिया एक कहावत ने जो मराठी समाज का हमेशा के लिए हिस्सा बन गई.पानीपत का वो मशहूर संग्राम
सदाशिवराव भाऊ मराठों के जांचे-परखे योद्धा थे. हैदराबाद के निज़ाम को उदगीर की फेमस लड़ाई में हराने के बाद उनका कद बहुत उंचा हो गया था. उनकी सदारत में मराठा सेना का मनोबल सातवें आसमान पर था. पानीपत में दोनों सेनाएं आमने-सामने आ भिड़ीं. एक भीषण युद्ध शुरू हुआ. मराठा सेना संख्याबल में कम थी, लेकिन अफ़गान सेना पर भारी पड़ रही थी. और फिर आया वो घातक लम्हा.ऐतिहासिक भूलें ऐसी ही होती हैं
विश्वासराव को गोली लग गई. वो मैदान में गिर पड़े. भाऊ विश्वासराव से बहुत प्यार करते थे. जैसे ही उन्होंने उनको गिरते हुए देखा, मौके की नज़ाकत का ख़याल उनके ज़हन से निकल गया. वो अपने हाथी से उतरे और एक घोड़े पर सवार हो कर दुश्मनों के बीच घुस गए. अंजाम की परवाह किए बगैर. उनके पीछे उनके हाथी पर हौदा ख़ाली नज़र आ रहा था. उसे ख़ाली देख कर मराठा सैनिकों में दहशत फ़ैल गई. उन्हें लगा कि उनका सेनापति युद्ध में मारा गया. अफरा-तफरी मच गई. मनोबल एकदम से पाताल छूने लगा. अफ़गान सेना ने इसका फ़ौरन फायदा उठाया. वो घबराई हुई मराठा सेना पर नए जोश से टूट पड़े.बेरहमी से मराठा सेना का क़त्लेआम हुआ. हालांकि भाऊ अंतिम सांस तक लड़ते रहे. एक लंबे संघर्ष के बाद ही उनकी जान ली जा सकी. उनका बिना सिर वाला शरीर जंग के तीन दिन बाद लाशों के ढेर से बरामद हुआ. उनका पूरे रीतिरिवाजों के साथ अंतिम-संस्कार किया गया.अगले दिन उनका सिर भी बरामद किया गया. उसे एक अफ़गान सैनिक ने छुपाके रखा हुआ था. उसका भी अंतिम-संस्कार हुआ और अस्थियां विसर्जन के लिए काशी ले जाई गई.
इस हार के बाद मराठा साम्राज्य के बुरे दिन शुरू हो गए
इस युद्ध में हुई हार ने मराठी साम्राज्य की कमर तोड़ दी. पेशवाई का दबदबा धूल में मिल गया. पानीपत के पहले जो मराठा साम्राज्य सफलता की उंचाइयां छू रहा था, वो एकदम से कमज़ोर, दीन-हीन हो गया. छोटी सी गलती की बड़ी सज़ा का इससे बड़ा उदाहरण नहीं होगा इतिहास में.आपको एक दिलचस्प बात और बताते हैं. इस युद्ध के बाद से एक कहावत मराठी जनमानस का हिस्सा बन गई. अपने युवा पेशवा विश्वासराव की मौत का सदमा मराठी जनता के लिए बहुत भारी था. पूरा महाराष्ट्र हफ़्तों तक शोक मनाता रहा.
उसके बाद से जब भी कहीं ‘विश्वास’ का ज़िक्र आता है, मराठी आदमी अपने पेशवा को एक कहावत के ज़रिए याद करता है. अगर आप किसी मराठी आदमी से कहें कि वो आपका विश्वास करे और वो आप पर भरोसा करने का इच्छुक ना हो तो वो आपसे कहेगा, 'विश्वास तर गेला पानीपतच्या लढाईत.' (विश्वास तो पानीपत के युद्ध में ही मर गया था). इतिहास का ज्ञान ना रखने वाले लोगों तक को इस कहावत का इस्तेमाल करते सुना जा सकता है, जिन्हें पानीपत की लड़ाई के बारे में बिल्कुल भी पता नहीं.इतिहास विचित्र है. इतिहास सीखों से भरा हुआ है. ये हमें बताता है कि इसकी गलतियों से सबक लेना ही सीखने का सर्वोत्तम तरीका है.
1761 की 20 जनवरी का दिन था वो जब, सदाशिवराव भाऊ ने अपनी जान और मराठा सेना का सम्मान गंवाया था. महज़ एक लम्हे के लिए उनका विवेक से नाता टूट गया था और आगे का किस्सा इतिहास बन गया.