कब आओगे, जिस्म से जान जुदा होगी, क्या तब आओगे? देर ना हो जाए, कहीं देर ना हो जाए.इंतज़ार कर रही नायिका थीं अश्विनी भावे. फिल्म थी ‘हिना’. अधीर होती नायिका की मनोदशा शायद इससे बेहतर कोई और गीत नहीं दिखा पाता. जिसे कागज़ पर उतारा दिवंगत रविंद्र जैन ने. और गीत को साधने का काम किया था गायक सईद साबरी, फरीद साबरी और लता मंगेशकर ने. सईद साबरी और उनके दोनों बेटों, फरीद और अमीन साबरी ने जब साथ मिलकर गाना शुरू किया. तब संगीत जगत को ‘साबरी ब्रदर्स’ नामक सौगात मिली.

'देर ना हो जाए कहीं' का एक स्टिल. फोटो - ट्विटर
लेकिन 06 जून, 2021 को ‘साबरी ब्रदर्स’ को आघात पहुंचा. जब फरीद और अमीन के वालिद और मशहूर कव्वाल सईद साबरी का निधन हो गया. वे जयपुर के रामगंज इलाके से ताल्लुक रखते थे. बीते रविवार को आए हार्ट अटैक की वजह से उनका देहांत हो गया. इसी साल 21 अप्रैल को फरीद साबरी का निमोनिया बिगड़ने की वजह से देहांत हो गया था. सईद साबरी के शव को घाटगेट स्थित कब्रिस्तान में सुपुर्द-ए-खाक किया गया. कुछ के लिए सईद साहब के निधन की खबर शायद किसी आम समाचार की तरह हो. लेकिन संगीत में डूबकर उससे प्रेम करने वालों के लिए ये बड़ा शोक था. ‘साबरी ब्रदर्स’ के कुछ किस्सों के जरिए जानेंगे कि क्यों सईद साहब का जाना संगीत जगत के लिए बड़ी क्षति है. # ‘जूतियां भी रगड़ जाएं, तो भी इस घर का एहसान नहीं उतार सकता’ सुर में ईश्वर बसता है. ऐसा मानना था सईद साबरी का. तभी उन्हें जाननेवाले पाते हैं कि उनके संगीत में एक किस्म की रूहानियत थी. लेकिन उनके संगीत को ऐसी रूहानियत बख्शने का श्रेय उनके परिवार को भी जाता है. उनके वालिद समेत उनके मामा और नाना का संगीत से पुराना वास्ता था. घर की हवा में शुरू से संगीत का माहौल था. इसी के चलते बचपन से ही सईद साहब की रुचि भी बढ़ने लगी.
उन्हें सही तालीम हासिल करने के लिए डागर परिवार भेजा गया. वो ध्रुवपद गायक इमामुद्दीन खान डागर के सुपुर्द हो गए. बचपन में ही उनसे शास्त्रीय संगीत सीखना शुरू कर दिया. सईद को बचपन में एक सीख मिली थी. जिसका उन्होंने पूरी ज़िंदगी पालन किया. कि बेअदब आदमी कुछ नहीं कर सकता. सईद जब तक जिए, अपने आप को हमेशा डागर परिवार के घर का शागिर्द मानते. जब भी उस घर में जाते, तो कभी भी बराबर में नहीं बैठते. हमेशा ज़मीन पर बैठते. डागर परिवार की बेटी शबाना डागर बताती हैं कि घर के सदस्य लाख बार समझाते. फिर भी वो उठकर ऊपर नहीं बैठते थे. कभी-कभी तो घर की दहलीज पर ही बैठ जाया करते थे. वो अपने आप को अपने गुरु के घर का गुलाम मानते. कहते,
मेरी जूतियां भी रगड़ जाएं, तो भी मैं इस घर का एहसान नहीं उतार सकता.सईद साबरी के इस किस्से के लिए सर्वेश भट्ट और किरन कुमारी किंडो का साधुवाद.