'हमें अक्सर ये याद दिलाया जाता है कि शोषित और वंचित वर्ग की समस्या असल में एक सामाजिक समस्या है. और इसका हल राजनीति से नहीं, बल्कि कहीं और से ही निकलेगा. मुझे इस राय से सख्त ऐतराज है. मेरा साफ तौर पर मानना है कि वंचित वर्ग की समस्या तब तक हल नहीं होगी, जब तक राजनीतिक सत्ता इस तबके के हाथ में नहीं आती. मेरे ख्याल में शोषित और वंचित वर्ग की समस्या एक राजनीतिक समस्या है. और इसे इसी तरह से ही देखा भी जाना चाहिए.'
क्या आरक्षण सिर्फ 10 साल के लिए दिया गया था?
10 साल आरक्षण की बात पर आंबेडकर ने क्या कहा था?

साल 1930. लंदन में पहले गोलमेज सम्मेलन के मंच पर डॉ भीम राव आंबेडकर ने ये बात कही थी. समझने वाले समझ गए थे डॉ आंबेडकर का आगे का इरादा क्या है? ये इरादा था दलितों को सत्ता तक पहुंचाने का. रास्ता उन्होंने ढूंढ लिया था. जल्द ही उन्होंने सिफारिशों का एक लम्बा-चौड़ा दस्तावेज तैयार किया और ब्रिटिश हुकूमत को भेज दिया.
17 अगस्त, 1932 को अंग्रेजों ने आंबेडकर की कुछ सिफारिशों को हरी झंडी भी दिखा दी. इनमें सबसे बड़ी बात दलितों के लिए एक अलग निर्वाचक मंडल बनाने की थी. जो केंद्रीय विधायिका और प्रांतीय विधानमंडलों के लिए अपने सदस्य चुने. आंबेडकर के कहने पर दलित व्यक्ति को दो वोट देने का अधिकार दिया गया. एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि और दूसरे वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनते. इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों के ही वोट से चुना जाना था.
महात्मा गांधी उस समय पूना की यरवदा जेल में बंद थे. उन तक ये खबर पहुंची. वैसे तो गांधी जी दलितों के उत्थान के बड़े पक्षधर थे, लेकिन वो दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल और उनके दो वोट के अधिकार के प्रबल विरोधी थे. उन्हें लगता था कि इससे दलितों और सवर्णों के बीच खाई बढ़ेगी, हिंदू समाज बिखर जाएगा. उनका मानना ये भी था कि ये अंग्रेजी अफसरों की एक चाल है. जिससे हिंदू धर्म में ही बड़ी खाई पैदा हो जाए. जिसके एक तरफ सवर्ण हों और दूसरी तरफ दलित.

इसलिए गांधी जी ने इस फरमान के विरोध में जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया. उधर, डॉ आंबेडकर अंग्रेजों के फैसले में दलितों का उत्थान देख रहे थे, क्योंकि ये दलितों की सत्ता में मजबूत पकड़ बनाने जा रहा था. इसलिए वो अपनी सिफारिशों को लागू करवाने पर अड़े थे. अनशन की वजह से महात्मा गांधी की तबीयत लगातार बिगड़ने लगी. देश के कई हिस्सों में भीमराव आंबेडकर के पुतले जलाए जाने लगे. उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए. कई जगहों पर दलितों की बस्तियां जला दी गईं.
आखिरकार, बाबा साहब को झुकना पड़ा. 24 सितम्बर, 1932 को शाम पांच बजे यरवदा जेल में गांधी और डॉ. आंबेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ. बताते हैं कि आंबेडकर ने बड़े बेमन से इस पर साइन किए थे. इस समझौते में डॉ. आंबेडकर को अलग निर्वाचक मंडल और दो वोट का अधिकार छोड़ना पड़ा. लेकिन, उन्होंने पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 148 करवा ली.

इस घटना के 15 साल बाद देश आजाद हुआ. और संविधान बनना शुरू हुआ. भीम राव आंबेडकर के मन में दबा पूना पैक्ट वाला दर्द संविधान सभा में फिर बाहर आ गया. उन्होंने आजाद देश के नेताओं के सामने फिर अपनी सिफारिशें रखीं. संविधान सभा में इसे लेकर माहौल काफी गरमा गया. सरदार पटेल सहित अन्य नेताओं का इस पर क्या कहना था? फिर आरक्षण पर कैसे बात बनी? और क्या वाकई आरक्षण केवल 10 साल के लिए दिया गया था? आइये जानते हैं भारतीय संविधान के बनने के दौरान हुई सबसे गरम बहस के बारे में.
अलग निर्वाचक मंडल की मांग पर फिर घमासानआजादी के बाद भारत के संविधान बनाने की जिम्मेदारी संविधान सभा को दी गई. संविधान सभा में सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों की नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण पर बात आसानी से बन गई.
लेकिन, जब बात राजनीतिक यानी लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों के आरक्षण पर आई, तो जंग जैसे हालात बन गए. इसकी शुरुआत हुई मार्च 1947 में, जब भीम राव आंबेडकर ने फिर से दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग उठा दी. उनका तर्क था कि ब्रिटिश सरकार में मुसलमानों को एक अलग निर्वाचक मंडल मिला था. जिसकी दो वजहें थी, एक तो मुसलमानों का धर्म अलग था, दूसरा हिंदू-मुसलमानों के सामाजिक संबंध समाजिक भेदभाव पर आधारित थे. उनके मुताबिक देखा जाए इन कसौटियों पर दलित भी खरे उतरते हैं, इसलिए उनके लिए भी अलग निर्वाचक मंडल हो.

राजनीतिक लेखक क्रिस्टोफ जाफ्रलो ने भीमराव आंबेडकर की जीवनी लिखी है. क्रिस्टोफ लिखते हैं,
‘संविधान सभा में किसी कांग्रेसी नेता के लिए आंबेडकर की अलग निर्वाचक मंडल की मांग पर राजी हो जाना मुमकिन नहीं था. क्योंकि पूना पैक्ट के समय इसी बात को न मानने के लिए गांधी जी ने अपनी जान तक दांव पर लगा दी थी. अब इस बात पर सहमत होना, किसी कांग्रेसी के लिए गांधी की विचारधारा के साथ विश्वासघात करने जैसा होता. एक कारण ये भी था कि कांग्रेस पार्टी आजादी से पहले हिंदू-मुसलमान के बीच बढ़ी खाई की मुख्य वजह मुसलमानों के लिए बनाये गए अलग निर्वाचक मंडल को ही मानती थी.’
बहरहाल, ये मसला संविधान सभा की अल्पसंख्यक मामलों की समिति के सामने रखा गया. जिसके अध्यक्ष थे तत्कालीन उप-प्रधानमंत्री और गृहमंत्री बल्लभ भाई पटेल. पटेल ने आंबेडकर के प्रस्ताव का तीखा विरोध किया. उनका तर्क था कि दलित के लिए अलग निर्वाचक मंडल की व्यवस्था समाजवाद में अलगाववाद को बढ़ावा देगी. इससे सवर्ण और दलितों के बीच विभाजन हो जाएगा. जबकि भारत को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लिए विभाजन से कोसों दूर रखना होगा.

पटेल की सदस्य्ता वाली समिति में अलग निर्वाचक मंडल और लोकसभा एवं विधानसभाओं में आरक्षण के प्रस्तावों पर वोटिंग हुई. पहला प्रस्ताव खारिज हो गया, दूसरे को हरी झंडी मिल गई.
जब आंबेडकर ने संविधान सभा छोड़ने की धमकी दे दीकहा जाता है कि प्रस्ताव बहुमत से रिजेक्ट हो जाने और उसी दौरान भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की हिंसा को देखकर आंबेडकर ने अलग निर्वाचक मंडल की मांग छोड़ दी. इसके बाद संविधान सभा में आरक्षण को लेकर चीजें सही चलने लगीं. लेकिन, करीब डेढ़ साल बाद सरदार पटेल ने एक ऐसा फैसला लिया कि फिर बवाल मच गया. आंबेडकर, गांधी और पटेल पर कई किताबें लिख चुके लेखक राजा शेखर वुंडरू के मुताबिक,
'देश का बंटवारा हुआ और फिर महात्मा गांधी की हत्या. इन दो घटनाओं के बाद सरदार पटेल का मूड बदल गया. दिसंबर 1948 में सरदार पटेल ने एक बड़ा फैसला लिया. उन्होंने लोकसभा और विधासभाओं में आरक्षित की गईं सीटों को खत्म करने के लिए एक प्रस्ताव लाने की घोषणा कर दी. जबकि अगस्त 1947 में संविधान सभा आरक्षित सीटों पर अपनी सहमति जता चुकी थी. पटेल का फैसला सुनकर भीम राव आंबेडकर बेहद नाराज हो गए, उन्होंने सरदार पटेल के नए प्रस्ताव का जमकर विरोध किया. डॉ आंबेडकर ने ये भी कह दिया कि अगर आरक्षित सीटों को खत्म करने वाला प्रस्ताव वापस नहीं लिया गया, तो वे संविधान सभा को छोड़कर चले जाएंगे. करीब छह महीने तक गतिरोध चलता रहा. आखिरकार, मई 1949 में, सरदार पटेल ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया.'

क्रिस्टोफ जाफ्रलो के मुताबिक इस दौरान ये भी कहा गया कि राजनीतिक आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए ही होगी. दस साल पूरे होने पर दलितों की आबादी के अनुपात के हिसाब से आरक्षण की समय सीमा बढ़ा दी जाएगी.
क्या आरक्षण 10 साल के लिए दिया गया था?डॉ आंबेडकर के पोते हैं प्रकाश आंबेडकर. कुछ समय पहले उन्होंने भी अपने एक साक्क्षात्कार में कहा, 'बाबासाहेब ने केवल 10 सालों के लिए ही राजनीतिक यानी लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी/एसटी के लिए आरक्षण की व्यवस्था करवाई थी.'
कुछ लोग इस तरह का दावा भी करते हैं कि हर तरह का आरक्षण केवल दस साल के लिए ही दिया गया था. इस दावे में ये भी कहा जाता है कि डॉ भीम राव आंबेडकर ने खुद ऐसा करने को कहा था.

हावर्ड लॉ स्कूल से कानून की डिग्री ले चुके और जिंदल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अनुराग भास्कर ने इस मुद्दे पर एक रिसर्च किया है. उन्होंने अपने रिसर्च पेपर में लिखा है कि डॉ भीम राव आंबेडकर ने कभी भी ये नहीं कहा कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एससी/एसटी को केवल 10 साल के लिए ही आरक्षण दिया जाए. कई मौकों पर बाबासाहब ने साफ़ कहा था कि आरक्षण को टाइम लिमिट में नहीं बांधा जा सकता. साथ ही उन्होंने एक प्रस्ताव पेश किया था जिसमें बताया गया था कि राजनीतिक आरक्षण की समय सीमा को संविधान में संशोधन करके आगे बढ़ाया जा जाएगा. 25 अगस्त 1949 को संविधान सभा ने उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार किया था.
अनुराग भास्कर के मुताबिक 10 साल बाद रिव्यु की बात केवल राजनीतिक आरक्षण के लिए ही कही गई थी. सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग को दिए गए आरक्षण को किसी समय सीमा में नहीं बांधा गया था.

अब सवाल ये कि बीते सालों में रिजर्व सीट पर चुनकर आये नेता क्या अपने समाज और वर्ग की आवाज बुलंद कर पा रहे हैं? और क्या ये अपने सवर्ण वोटरों की इच्छा और पार्टी की अवमानना करके दलितों के हितों के मुद्दे उठा सकते हैं? तो क्या यही सब सोचकर डॉ आंबेडकर ने वो रास्ता सुझाया था जिसमें दलित ही दलित को चुनकर संसद भेजे.
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