"मुफ़लिस के बदन को भी है चादर की ज़रूरत अब खुल के मज़ारों पे ये ऐलान किया जाए"
एक 'औरंगज़ेब' ऐसा भी, जिसे सब पसंद करते हैं
अपनी आसान लेकिन असरदार शायरी से दिल में बस जाने वाला शायर.

इससे आसान लफ़्ज़ों में और कोई क्या समझाएगा कि इबादत और कुछ नहीं, इंसान के काम आना भर है. यही आसानियत तो ख़ासियत है क़तील शिफ़ाई साहब की. आम आदमी का आम सा शायर. आम से लहजे में आम सी बातें समझाता आम आदमी. लेकिन फिर भी ख़ास. बहुत ख़ास. आखिर कितनों को ये फ़न मयस्सर होता है कि वो ज़िंदगी की गहरी बातों को इस अदा से रख सकें कि हर ख़ासो-आम उसे आसानी से समझ पाएं! क़तील साहब के यूं आसान होने ने ही उनको सालों साल शायरी के कद्रदानों के दिलों पर राज करवाया. ज़रा बानगी तो देखिये, ग़ज़ल हो, नज़्म हो या फ़िल्मी गीत. उनका काम हर विधा में शानदार रहा है. फिर तेरी कहानी का गीत याद कीजिये,अब जिसके जी में आए वही पाए रौशनी हमने तो दिया जला के सरेआम रख दिया
तेरे दर पर सनम, चले आए तू ना आया तो हम, चले आए
अपने होठों पर सजाना चाहता हूं आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूं
करन जौहर की फिल्म से अरसा पहले उनकी लिखी ये ग़ज़ल, किसी भी ब्रेक-अप-सॉंग से ज़्यादा प्रभावशाली है. क्यों कि इसमें 'जज़्बात' हैं.सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूं मैं लेकिन ये सोचता हूं कि अब तेरा क्या हूं मैं
दर्द से मेरा दामन भर दे, या अल्लाह फिर चाहे दीवाना कर दे, या अल्लाह
अभी तो बात करो हमसे दोस्तों की तरह फिर इख्तिलाफ़ के पहलू निकालते रहना
अपनी ज़बां तो बंद है तुम ख़ुद ही सोच लो पड़ता नहीं है यूं ही सितमगर किसी का नाम
चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी वगरना हम ज़माने को समझाने कहां जाते
गिरते हैं समंदर में बड़े शौक से दरिया लेकिन किसी दरिया में समंदर नहीं गिरता
जब भी आता है मिरा नाम तेरे नाम के साथ जाने क्यों लोग मिरे नाम से जल जाते हैं
क्यों शरीक-ए-ग़म बनाते हो किसी को ऐ 'क़तील' अपनी सूली अपने कांधे पर उठाओ, चुप रहो
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उसकी अदा क़तील मुझको सताए कोई तो उसको बुरा लगे
तुम आ सको तो शब को बढ़ा दूं कुछ और भी अपने कहे में सुब्ह का तारा है इन दिनों तुम्हारी बेरुख़ी ने लाज रख ली बादा-खाने की तुम आंखों से पिला देते तो पैमाने कहां जाते क्या मसलहत-शनास था वो आदमी क़तील मजबूरियों का जिसने वफ़ा नाम रख दिया दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था जो भी आता है बताता है नया कोई इलाज बंट ना जाए तेरा बीमार मसीहाओं मेंन जाने कौन सी मंज़िल पे आ पहुंचा है प्यार अपना न हमको ऐतबार अपना, न उनको ऐतबार अपना
वो मेरा दोस्त है सारे जहां को है मालूम दगा करे वो किसी से तो शर्म आए मुझे
सदा जिए ये मेरा शहर-ए-बेमिसाल जहां हज़ार झोंपड़े गिरते हैं इक महल के लिए
राब्ता लाख सही काफ़िला-सालार के साथ हमको चलना है मगर वक़्त की रफ़्तार के साथ