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'भयानक' सा लगने वाला वो विलेन, जो हीरो तो छोड़िए दर्शकों को भी डरा देता था

जो बीमारी की हालत में मरा, तो पहचाना नहीं जा रहा था.

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फिल्म शुरू होती है. बिल्कुल पहला सीन. कोई हवेलीनुमा इमारत है. रात का अंधेरा. तीन चार लोग लाइन से खड़े हैं. और फिर मेन विलेन की एंट्री होती है. एंट्री भी ऐसी कि चेहरा बाद में दिखता है, पहले चीखता हुआ कौवा सुनाई पड़ता है. जैसे किसी अनिष्ट की आशंका से तमाम हाज़रीन को चेता रहा हो. फिर आतंकित करते बैकग्राउंड म्यूजिक के बीच परदे पर उभरती है एक खूंखार तस्वीर. मिलिट्री यूनिफॉर्म में नख-शिख तक सजा एक भयानक सा आदमी आपकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर देता है. स्वागत करने वाले के हाथ को नज़रअंदाज़ करते हुए वो इधर-उधर देखता है, और अपने पहले शब्द कहता है,
"यहां की हवा बता रही है, बहुत अमन और चैन है इस देश में. ज़हर घोल दूंगा इस हवा में."
रामी रेड्डी की डरावनी दुनिया में आपका स्वागत है. वो आदमी, जो महज़ अपनी हाज़िरी से लोगों को डराने की कुव्वत रखता था. ऊपर का डायलॉग जब आप इस आदमी की आवाज़ में सुनते हो, तो आपको यकीन हो जाता है कि ऐसा सरासर मुमकिन है. ये आदमी कुछ भी कर सकता है. हवा में ज़हर घोलना तो बड़ी मामूली बात होगी इसके लिए.
पहले वो वीडियो देख लीजिए फिर आगे बढ़ते हैं:
https://youtu.be/4ZcYP5GQ5Tk?t=36
दहशत का दूसरा नाम रामी रेड्डी, नाइंटीज़ के दौर की फिल्मों का एक जाना-पहचाना चेहरा था. ऐसा विलेन, जो विलेन लगता भी था. जिसकी परदे पर महज़ मौजूदगी भी लोगों की सांसें अटकाने के लिए काफी थी. ये वही शख्स था, जिसने परदे पर बेशुमार डराया लेकिन अपने अंतिम समय में जिसकी शक्ल तक पहचानना मुहाल था.

कलम के सिपाही से खूंखार विलेन तक

रामी रेड्डी का पूरा नाम गंगासानी रामी रेड्डी था. आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित वाल्मीकिपुरम गांव में उनकी पैदाइश हुई. रामी रेड्डी पढ़े लिखे आदमी थे. हैदराबाद की मशहूर उस्मानिया यूनिवर्सिटी से उन्होंने पढ़ाई की. जर्नलिज्म की डिग्री ली. यानी परदे पर लोगों की ज़िंदगी नर्क कर देने वाला ये शख्स असल में एक कलम का सिपाही था. पत्रकार था. उन्होंने हैदराबाद के मशहूर अखबार मुंसिफ डेली के लिए काफी अरसा काम किया. फिर उनकी फ़िल्मी दुनिया से मुठभेड़ हो गई.

फिल्मों में इंस्टेंट सफलता

ये वो दौर था, जब विलेन का विलेन लगना बहुत ज़रूरी हुआ करता था. आज जैसा नहीं कि हीरो-विलेन में कोई फर्क ही नहीं होता. बल्कि आजकल तो वैसी फ़िल्में ही बेहद कम दिखती हैं, जिनमें हीरो के मुक़ाबिल एक शैतानी किरदार फिल्म की पहली ज़रूरत हुआ करता था. अस्सी-नब्बे के दशक का दौर हिंदी/इंडियन सिनेमा में 'बदले' का दौर था. ज़्यादातर फिल्मों में एक सेट पैटर्न हुआ करता था. एक हैवान सा आदमी या तो हीरो के बाप का ख़ून करता था या उसकी बहन का बलात्कार. पूरी फिल्म में ये आदमी अपनी ज़लील हरकतों से हीरो पर हावी रहता था. हीरो का काम सिर्फ इतना होता था कि वो क्लाइमैक्स में विलेन को हराकर अपना बदला पूरा कर ले. एक से बढ़कर एक बुरे काम करने के लिए इंसान वैसा बुरा लगना भी चाहिए न! रामी रेड्डी इस काम के लिए बिल्कुल फिट आदमी थे.
जो पहला रोल उन्हें मिला, उसी में उन्होंने झंडे गाड़ दिए. 1989की तेलुगु एक्शन फिल्म अंकुसम में उन्हें मेन विलेन का रोल मिला. किरदार का नाम था, 'स्पॉट नागा'. नाम में लगे इस 'स्पॉट' की व्याख्या आगे करेंगे.
रामी रेड्डी की पहली फिल्म अंकुसम.
रामी रेड्डी की पहली फिल्म अंकुसम.

ये वही फिल्म थी जिसने तेलुगु सुपरस्टार राजशेखर के करियर के सेंसेक्स में ज़बरदस्त उछाल ला दिया था. कोडी रामकृष्णा द्वारा निर्देशित इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर आग लगा दी. फिल्म की शानदार सफलता में हीरो राजशेखर जितना ही हाथ विलेन रामी रेड्डी का भी था. उनका अंदाज़ेबयां लोगों ने हाथोहाथ लिया था. स्क्रीन पर उनकी डरावनी मौजूदगी से लोग मंत्रमुग्ध हो गए थे. फिल्म इतनी बड़ी सफल रही कि उसके तमिल, कन्नड़ और हिंदी में रीमेक बने. हर जगह हीरो बदल गया लेकिन विलेन वही रहा. ऐसा ही जलवा था उस किरदार का और उसे निभाने वाले रामी रेड्डी का.
आइए याद करते हैं रामी रेड्डी के हिंदी में तीन दमदार रोल:

# स्पॉट नाना (प्रतिबंध -1990)

ये वही फिल्म है जो रामी रेड्डी की डेब्यू फिल्म का हिंदी रीमेक थी. इस फिल्म से तेलुगु सुपरस्टार चिरंजीवी ने बॉलीवुड में एंट्री की थी. एक ईमानदार पुलिस अफसर की कहानी, जिसकी ज़िंदगी एक गैंगस्टर ने झंड करके रखी हुई है. गैंगस्टर, जिसका नाम स्पॉट नाना है. जो अड़ियल पुलिसवालों के साथ सिर्फ दो ही काम करता हैं. मूवमेंट या स्पॉट. मूवमेंट यानी ट्रांसफर. स्पॉट यानी जहां दिख जाए वहीं खल्लास. स्पॉट औरों का भी करता है. इसीलिए नाम ही 'स्पॉट नाना' है.
डर का दूसरा नाम स्पॉट नाना.
डर का दूसरा नाम स्पॉट नाना.

कौन भुला सकता है वो सीन जब पहली बार स्पॉट नाना इंस्पेक्टर सिद्धांत से मिलने पुलिस थाने जाता है. वो पूरा सीन ही दिलचस्प है. ख़ास तौर से नाना का वो कालजयी डायलॉग..
"नाना को ना सुनने की आदत नहीं है."
अंत में माथे के बीचोबीच गोली खाने के बावजूद स्पॉट नाना का थमकर दाढ़ी सहलाना और फिर आहिस्ता से गिरकर मर जाना डर की लहर पैदा करने वाला सीन था.

# कर्नल चिकारा (वक़्त हमारा है, 1993)

ये वही कर्नल चिकारा है जिसके इंट्रोडक्शन का सीन आप इस आर्टिकल की शुरुआत में पढ़ आए हैं. वही कर्नल चिकारा, जो इस मुल्क की हवा में ज़हर भरने आया है. कैसे भरेगा? क्रिप्टन बॉम्ब की मदद से. कर्नल चिकारा जो खुद को बिना साम्राज्य का सम्राट बताता है. इसी किंगडम की तलाश में इंडिया आया है. न जाने कहां से. जद्दोजहद के बाद क्रिप्टन बॉम्ब बन तो गया लेकिन गुर्गों की ग़लती से अपने हीरो लोगों की जीप में छूट गया है.
कर्नल चिकारा.
कर्नल चिकारा.

क्रिप्टन को  वापिस हासिल करने की कोशिश में कितने उल्टे-सीधे काम करने पड़ते हैं बेचारे चिकारा को. धमकी, मारपीट, अपहरण, रेप की कोशिश और न जाने क्या-क्या! ऐसे तूफानी डायलॉग भी मारने पड़ते हैं:
"तबाही की आंधी और बर्बादी के तूफ़ान का नाम है चिकारा."

# बाबा नायक (आंदोलन, 1995)

संजय दत्त और गोविंदा की फिल्म. वो फिल्म जिसमें पहले दिव्या भारती को होना था लेकिन जिनकी असामयिक मौत की वजह से उनकी जगह ममता कुलकर्णी ने ले ली. इस फिल्म में रामी रेड्डी ने एक बेरहम गुंडे बाबा नायक का रोल किया था. बाबा नायक, जो किसी उद्योगपति की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है. यूनियन लीडर का मर्डर करने से लेकर बस्ती में हिंदू-मुस्लिम दंगा करवाने तक कुछ भी कर सकता है. भाई के खूंखार हावभाव देखकर लगता भी है कि ये शख्स दुनिया के तमाम काले कारनामे सहजता से कर जाता होगा.
दंगाई बाबा नायक.
दंगाई बाबा नायक.

आंदोलन में दलीप ताहिल, दीपक शिर्के, मोहन जोशी जैसे खलनायक भी थे, लेकिन याद रहते हैं रामी रेड्डी ही.

# जब किसी हीरो से नहीं, बीमारी से हारा ये खलनायक

रामी रेड्डी अभी अपनी सफलता एन्जॉय ही कर रहे थे कि उन्हें बीमारियों ने आ घेरा. बीमारी भी ऐसी कि उसने इस दहशतनाक खलनायक को पहचान के काबिल भी न छोड़ा. पहले उन्हें लीवर कैंसर हुआ. उसने उन्हें अपने ही खोल में सिमट जाने पर मजबूर कर दिया. उन्होंने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया. लीवर के बाद किडनी की अलामतों ने भी आ घेरा. उसके बाद तो उनकी सेहत तेज़ी से गिरने लगी. इसीलिए जब वो अपने आखिरी दिनों में एक तेलुगु अवॉर्ड शो में नज़र आए, तो लोग सन्नाटे में आ गए. वो बिल्कुल पहचाने नहीं जा रहे. वो जलाल, वो कहर नदारद था. बिल्कुल दीन-हीन हो गए थे, एक वक़्त के ख़तरनाक विलेन रामी रेड्डी
तस्वीर ही देख लीजिए:
बीमारी के बाद के रामी रेड्डी.
बीमारी के बाद के रामी रेड्डी.

अपनी अंतिम घड़ियों में रामी रेड्डी महज़ हड्डियों का ढांचा रह गए थे. बहुत तकलीफें सहने के बाद 14 अप्रैल 2011 को उन्होंने हैदराबाद के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में दम तोड़ दिया. उनके अंतिम संस्कार में तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री के काफी लोग पहुंचे.
अंतिम सफ़र में शामिल हुए कई कलाकार.
अंतिम सफ़र में शामिल हुए कई कलाकार.

रेड्डी को भूलना नामुमकिन है

90 के दशक के सिनेमा के शौक़ीन लोगों के ज़हन से रामी रेड्डी का नाम निकल जाना लगभग नामुमकिन है. एक बड़ी वजह तो उनकी डायलॉग डिलीवरी ही है, जो अति-विशिष्ट थी. ख़ालिस साउथ इंडियन एक्सेंट वाली टोन में बोले उनके डायलॉग उनकी पहचान बन गए. एक ठंडी आवाज़, जो बिलाशक डराने की कुव्वत रखती थी. रामी रेड्डी उन चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं, जिनका कोई डायलॉग आप रेडियो पर भी सुन लें तो आपको बताने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी कि बोल कौन रहा है!
रामी रेड्डी अपनी ख़ास पहचान के साथ सिनेप्रेमियों के दिलो-दिमाग में बने रहेंगे इसमें कोई शक नहीं.


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