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रणवीर इलाहाबादिया और समय रैना पर अश्लीलता फैलाने का केस तो हो गया, लेकिन सजा नहीं मिलेगी?

Ranvir Allahabadia Samay Raina Controversy: समय रैना और रणवीर इलाहाबादिया पर FIR हो चुकी हैं. दोनों के ऊपर अश्लीलता फैलाने के आरोप हैं. लेकिन अश्लीलता के बारे में कानून क्या कहता है? वो इसे कैसे परिभाषित करता है? इस तरह के अलग-अलग मामलों में अदालतों में क्या बहस हुई है?

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India's Got Latent के सेट पर Ranvir Allahbadia (बाएं) और Samay Raina (दाएं). (फोटो: सोशल मीडिया)

उर्दू के महान लेखक सादत हसन मंटो अपने लेखन के लिए विवादों में रहे. उनके ऊपर कई बार अश्लीलता फैलाने के आरोप लगे. एक बार तो उनको अदालत में भी घसीट लिया गया. बात 1944 की है. आरोप लगे कि मंटो ने अपनी लघु कथा 'बू' के जरिए समाज में अश्लीलता फैलाई है.

अदालत में एक शख्स ने बयान दिया. कहा कि मंटो ने अपनी कहानी में महिलाओं के स्तनों का जिक्र किया है. मंटो बोले कि स्तनों को स्तन ही लिखा जाएगा, वो उन्हें मूंगफली तो नहीं लिख सकते. मंटो ने ये मुकदमा जीत लिया. हालांकि, कोर्ट की अवमानना का दोषी ठहराए जाने से वो बाल-बाल ही बचे थे.

मंटो ने अपनी रचनाओं में अपने समय के समाज को जस का तस रख दिया. लोगों को सोचने के लिए मजबूर किया. साहित्य जगत में उनकी पहचान एक बेहद ही प्रगतिशील रचनाकार के तौर पर होती है.

1944 में मंटो का केस और अब कॉन्टेंट क्रिएटर्स समय रैना और रणवीर इलाहाबादिया का मामला. मंटो के साथ समय रैना और रणवीर इलाहाबादिया का नाम लिखने का मतलब यह नहीं है कि हम उन्हें मंटो के बराबर बिठा रहे हैं. हमारा उद्देश्य बस इतना है कि अश्लीलता को लेकर भारतीय कानून में क्या प्रावधान हैं, उसके बारे में आपको बता सकें.

कानूनी तौर पर अश्लीलता क्या है?

रणवीर इलाहाबादिया और समय रैना के खिलाफ जो FIR हुई हैं, उनमें भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 294 और 296 का जिक्र है. इसके साथ ही आईटी एक्ट की धारा 67 भी लगाई गई है. BNS की धारा 294 उन लोगों को दोषी ठहराती है, जो किसी तरह के अश्लील मैटेरियल को बेचते, प्रचारित या उससे मुनाफा कमाते हैं. वहीं अगर अश्लील मैटेरियल की बात करें तो ये किसी भी फॉर्म में हो सकता है. मसलन, कोई किताब, पेंटिंग, कोई व्यक्ति या फिर इलेक्ट्रॉनिक फॉर्म में कोई कॉन्टेंट.

धारा में अश्लीलता को और अधिक परिभाषित करने की कोशिश की गई है. लिखा गया है कि ऐसी कोई भी सामग्री जो एकदम सीधे और खुले तौर पर कामुकता का प्रदर्शन कर रही है, और जिसमें यह संभावना है कि यह इसे देखने और पढ़ने वाले का चरित्र भ्रष्ट कर सकती है, उसे अश्लील माना जाएगा.

इसी धारा में सजा का भी जिक्र है. कहा गया है कि अश्लीलता फैलाने के दोषी पाए गए व्यक्ति को दो साल तक की जेल हो सकती है और साथ ही साथ 5 हजार रुपये तक का जुर्माना देना पड़ सकता है.

अश्लील कॉन्टेंट को ऑनलाइन प्रसारित करने पर साल 2000 के आईटी एक्ट की धारा 67 के तहत भी कार्रवाई हो सकती है. इस धारा के तहत भी अश्लीलता की परिभाषा वही है, जो BNS की धारा 294 में है. हालांकि, इसमें सजा का प्रावधान थोड़ा ज्यादा कड़ा है. मसलन, दोषी पाए गए व्यक्ति को 3 साल तक की जेल हो सकती है और 5 लाख रुपये तक का जुर्माना देना पड़ सकता है.

अदालतों में क्या बहस हुई?

भारत में अश्लीलता को लेकर बहस कोई आज की बात नहीं है. समय-समय पर मामले अदालतों में भी गए हैं. चाहे AIB का मामला हो या सेलेब्स रणवीर सिंह और उर्फी जावेद का. और बहस ज्यादातर समय इस बात पर ही केंद्रित रही है कि अश्लीलता और अभद्रता के बीच बस एक महीन सी ही लाइन है. कुछ मुकदमों पर नजर डालते हैं.

पहला ऐसा बड़ा मामला रणजीत उदेशी बनाम महाराष्ट्र सरकार का है. मामला सुप्रीम कोर्ट में गया था और कोर्ट ने उस समय IPC की धारा 292 को उचित ठहराया था. तब यही धारा अश्लीलता के बारे में बात करती थी. रणजीत उदेशी बनाम महाराष्ट्र सरकार का मामला जुड़ा था अंग्रेजी लेखक डी एच लॉरेन्स की एक किताब ‘लेडी चैटर्लेज लवर्स’ से. इस किताब को विवादित माना गया था. आरोप थे कि इसमें सेक्सुअल एक्ट्स का सीधे तौर पर वर्णन है. इस किताब के खिलाफ कई देशों में मुकदमे चले थे.

साल 1964 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जब इस किताब को अश्लीलता फैलाने वाला बताया तो इसमें 1868 के एक मामले का जिक्र किया. यह मामला ब्रिटेन का था. क्वीन बनाम हिकलिन. इसी मामले से हिकलिन टेस्ट निकला था, जिसके जरिए लंबे समय तक यह निर्धारित किया जाता रहा है कि कोई सामग्री अश्लील है या नहीं.

यह टेस्ट कहता है कि कोई सामग्री केवल तब ही अश्लील कही जा सकती है, जब वह उन लोगों का चरित्र भ्रष्ट कर रही हो, जो उस सामग्री को देख या पढ़ या सुन रहे हों. इसी टेस्ट में एक जरूरी बात का भी जिक्र है. कहा गया है कि जो लोग इस सामग्री को देख और पढ़ रहे हों, वो आसानी से उस सामग्री से प्रभावित भी होने चाहिए.

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बातें और भी हुईं 

अब यह तय करना तो कोई आसान काम है नहीं कि कोई किसी सामग्री से प्रभावित हो रहा है या नहीं. इसलिए धीरे-धीरे इस टेस्ट का महत्व कम होने लगा. कोई सामग्री अश्लील है या नहीं, इसके लिए अदालतें एक्सपर्ट्स का रुख करने लगीं. धीरे-धीरे कहा जाने लगा कि किसी सामग्री को तब ही अश्लील माना जाएगा, जब वो दिमागी तौर पर मजबूत और तर्कशील लोगों को प्रभावित करने लगे. और साथ ही साथ उस सामग्री को उसकी पूर्णता में भी देखा जाना चाहिए.

लेकिन फिर सवाल खड़ा हो गया कि यह कैसे तय किया जाएगा कि कोई व्यक्ति दिमागी तौर पर मजबूत है या कमजोर? इसका जवाब दिया गया कि यह हर मामले में जजों के विवेक पर निर्भर करेगा. जजों के विवेक की बात इसलिए की गई क्योंकि उनके पास इस तरह के मामले सुनवाई के लिए आते रहते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में एक मामले की सुनवाई की. पूर्व जर्मन टेनिस प्लेयर बोरिस बेकर और उनकी मंगेतर की एक सेमी-न्यूड फोटो सामने आई थी. इस मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने हिकलिन टेस्ट खत्म कर दिया. कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा,

"यह तय करते हुए कि कोई किताब, लेख या फोटो अश्लील है, उस समय के नैतिक मूल्यों और मानकों का ज्यादा ख्याल रखना चाहिए, ना कि किसी समूह या इस तरह की सामग्री के प्रति खुद को संवेदनशील बता रहे लोगों की आपत्तियों का."

कोर्ट ने कहा कि बोरिस बेकर और उनकी मंगेतर की तस्वीर को संदर्भ से ना काटकर उसकी पूर्णता में देखना चाहिए. यह देखना चाहिए कि फोटो के जरिए क्या संदेश दिया जा रहा है. कोर्ट ने कहा कि यह तस्वीर अश्लीलता नहीं फैला रही है क्योंकि बोरिस बेकर के हाथों के चलते उनकी मंगेतर के स्तन छिपे हुए हैं.

इसी केस में कोर्ट ने हिकलिन टेस्ट की जगह रोथ टेस्ट को तवज्जो दी. यह टेस्ट 1957 के एक अमेरिकी मुकदमे से निकला था. टेस्ट के तहत यह निर्धारित किया गया था कि जब तक कोई सामग्री इसे देखने, सुनने और पढ़ने वालों को यौन रूप से उत्तेजित नहीं कर रही है, तब तक इसे अश्लील नहीं माना जा सकता है.

हालांकि, कोर्ट ने यह साफ नहीं किया कि आखिर किसी के अंदर यौन भावनाएं जगाने में आपराधिक क्या है? यह अभी भी विवाद का ही विषय है.

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