63 बरस के हो चुके अकबर की हालत ठीक नहीं थी. बहुत दिन से पेट की किसी बीमारी ने पस्त कर रखा था. तमाम नुस्खे और दवाइयां बादशाह को ठीक नहीं कर पा रहे थे. कमजोरी इतनी कि बिस्तर से उठना मुश्किल था. ये साल था 1605, महीना था अक्टूबर का और जगह थी आगरा. बादशाह अकबर फिलहाल ‘जनाना महल’ में थे. कुछ रोज पहले ही अकबर का जन्मदिन गुजरा था. जन्मदिन के तकरीबन 10 दिन बाद, एक रात उस जनाना महल से रोने की आवाजें आने लगीं. ये आवाजें दुनिया को बता रही थीं, कि बादशाह अब नहीं रहे.
अकबर की हड्डियां खोदकर आग में जलाने वाला जाट, कहानी राजाराम जाट की
मुगल बादशाह अकबर की मौत के बाद एक ऐसा वक्त आया, जब उनकी हड्डियां कब्र से निकालकर आग में झोंक दी गईं. ये काम किया था- एक जाट योद्धा ने. कहानी राजाराम जाट की जिन्होंने मुगलों की नींव हिला दी थी.

इतिहास में तारीख दर्ज हुई- 27 अक्टूबर, 1605. आगे एक तथ्य- अकबर की मौत. और जैसा कि शाही रिवायत है, अकबर के मृत शरीर को मकबरे में दफन कर दिया गया. ये मकबरा ‘सिकंदरा’ में है. आगरा शहर से करीब चार किलोमीटर दूर. जानकार बताते हैं कि इस मकबरे को बनवाने का काम खुद अकबर ने शुरू कराया था. लेकिन, इसका काम पूरा होने से पहले ही अकबर की मौत हो गई. बाद में, अकबर के बेटे जहांगीर यानी सलीम ने इसे पूरा करवाया. उसने कुछ हिस्सों को तोड़कर मकबरे को दोबारा डिजाइन करवाया.
लेकिन, तब किसे पता था कि अकबर की मौत के 83 बरस बाद, अकबर की हड्डियों को कब्र से निकालकर आग में झोंक दिया जाएगा. किसने किया था ऐसा? कौन था वो जाट नेता, जिसने अकबर की हड्डियों को मकबरे से निकालकर आग में फेंक दिया था? इस नेता का नाम था- ‘राजाराम जाट’.
मगर राजाराम जाट की कहानी से पहले, हमें गोकुला के बारे में जानना होगा. गोकुला, जाटों के वीर योद्धा और तिलपत के सरदार थे. तिलपत, हरियाणा में है. लेकिन, कुछ सोर्स बताते हैं कि उनका जन्म सिनसिनी गांव में हुआ था. ये गांव राजस्थान के भरतपुर जिले में है. कहा जाता है कि गोकुला क्रांतिकारी सोच वाले व्यक्ति थे. उन्होंने मुगलों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों और धार्मिक दमन के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका. और, तिलपत से निकलकर कई और क्षेत्रों में गए.
1669 में गोकुला और उसके अनुयायियों ने, मथुरा में मुगल फौजदार अब्दुन्नवी खां को मार गिराया. अब्दुन्नवी खां, मथुरा के इलाकों में जबरदस्ती कर वसूलने और मंदिरों को तोड़ने के लिए कुख्यात था. अपने नेता के मरते ही मुगल सैनिक भाग खड़े हुए. ये घटना औरंगजेब के लिए एक बड़ा झटका थी.

जब गोकुला के नेतृत्व में जाट विद्रोह और तेज हुआ. तो औरंगजेब खुद आगरा और मथुरा क्षेत्र की स्थिति देखने आया. उसने इस विद्रोह को कुचलने की जिम्मेदारी अपने सेनापति हसन अली खां को सौंपी. फिर हसन अली खां ने विशाल सेना संग तिलपत की ओर कूच किया. और यहां करीब तीन दिनों तक चले युद्ध के बाद गोकुला को बंदी बना लिया गया.
इसके बाद उसे आगरा लाया गया और औरंगजेब के सामने पेश किया गया. Vijay Kumar Pal अपनी किताब Invaders & Hidden Facts में लिखते हैं,
औरंगजेब ने गोकुला पर इस्लाम कबूल करने का दबाव डाला, लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया.
कई सोर्स और किस्सागो तो यहां तक कहते हैं कि गोकुला ने औरंगजेब का मखौल उड़ाने के उद्देश्य से उसकी बेटी का हाथ तक मांग लिया था. इस गुस्ताखी से औरंगजेब बौखला गया और गोकुला को 1 जनवरी, 1670 को आगरा की कोतवाली पर सरेआम फांसी दे दी गई. गोकुला का विद्रोह औरंगजेब के खिलाफ जाटों की पहली सशस्त्र बगावत थी.
‘राजाराम जाट’ ने जाटों की सेना बनाईइस घटना के 15 साल बाद, जाटों को एक और क्रांतिकारी नेता मिला. नाम- राजाराम जाट. राजाराम सिनसिनी गांव से थे. भज्जा सिंह के बेटे थे और सिनसिनवार जाटों के सरदार थे. उन्होंने दो प्रमुख जाट गुटों ‘सिनसिनवार’ और ‘चाहर’ को एकजुट किया. और, बिखरे हुए जाटों को एक सेना का रूप दिया. उन्हें रेजीमेंट्स में संगठित किया. फायरआर्म्स जैसे बंदूक, तोप और पिस्टल से लैस किया. उन्हें इस तरह प्रशिक्षित किया कि वो अपने कप्तानों का आदेश मानें.
इतिहासकार Kalika Ranjan Qanungo अपनी किताब History of the Jats: A Contribution to the History of Northern India में राजाराम जाट के बारे में लिखते हैं,
उन्होंने (राजाराम जाट) घने जंगलों के बीच रणनीति के लिहाज से छोटे-छोटे किले बनवाए. जिन्हें गढ़ी कहा जाता था. और इन्हें मिट्टी की इतनी मजबूत दीवारों से घेरा कि वो तोपों से भी नष्ट नहीं हो सकती थीं.

इसके बाद, राजाराम ने अपनी जाट सेना के साथ आगरा जिले में मुगलों की सत्ता को चुनौती दी. उन्होंने सड़कों पर कब्जा कर आवाजाही ठप्प कर दी और कई गांवों में लूटपाट की. हालात इतने बिगड़ गए कि आगरा का गर्वनर सफी खान लगभग घेराबंदी में फंस ही गया था. वहीं भारी संघर्ष के बाद, आगरा के फौजदार मीर अबुल फजल ने सिकंदरा स्थित अकबर के मकबरे को राजाराम के हमले से किसी तरह बचाया.
इसके बाद तो जाटों ने और अधिक साहस दिखाया. उन्होंने राजस्थान के धौलपुर में मशहूर तूरानी योद्धा अघर खान के शिविर पर अचानक हमला बोल दिया. इस हमले में जाटों ने उसकी बैलगाड़ियां और घोड़े लूट लिए. महिलाओं को भी बंदी बना लिया गया. जब अघर खान ने अपने साथियों के साथ लुटेरों का पीछा किया. तो वो अपने दामाद और 80 अनुयायियों समेत मारा गया.
स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए औरंगजेब ने पहले ही, मई 1686 में, जाटों के खिलाफ अपने एक वरिष्ठ सेनापति ‘खान-ए-जहां बहादुर जफर जंग कोकलताश’ को भेजा था. लेकिन, राजाराम को लगातार मिल रही सफलता और खान-ए-जहां की विफलता ने उसकी चिंता और बढ़ा दी.
दिसंबर में, औरंगजेब ने अपने बेटे आजम शाह को आदेश दिया कि वो खुद जाकर जाटों के खिलाफ सैन्य अभियान का नेतृत्व करे. लेकिन, आजम सिर्फ बुरहानपुर तक ही पहुंच पाया था, तभी औरंगजेब ने उसे वापस बुला लिया. क्योंकि, गोलकुंडा में मुगलों की प्रतिष्ठा बचाने की ज्यादा जरूरत थी.
औरंगजेब ने बेटे के बाद पोते को कमान सौंपीइसके बाद, औरंगजेब ने अपने सबसे बड़े पोते, और आजम के बेटे बीदर बख्त को दिसंबर 1687 में जाट विद्रोह के दमन का सर्वोच्च सेनापति नियुक्त किया. तब बीदर बख्त मात्र 17 साल का था. खान-ए-जहां को उसका एडवाइजर बनाया गया. लेकिन, बीदर बख्त के पहुंचने से पहले ही जाटों ने अपने आक्रमण तेज कर दिए.

अब कैलेंडर में साल बदल चुका था. 1688 आ गया था. इस साल की शुरुआत में, हैदराबाद के मीर इब्राहिम, जो पंजाब के वायसराय के रूप में जा रहे थे, वो जब सिकंदरा के पास यमुना नदी के किनारे डेरा डाले हुए थे. तभी राजाराम ने अचानक उन पर हमला कर दिया. लेकिन, लंबी और कठिन लड़ाई के बाद जाटों को पीछे हटना पड़ा. इस लड़ाई में जाटों के करीब 400 सैनिक मारे गए. वहीं मुगलों के लगभग 190 सैनिक हताहत हुए.
राजाराम और उनकी सेना पीछे जरूर हटी थी. लेकिन, उनका विद्रोह थमा नहीं था. वो जल्द ही वापस लौटे. उस वक्त शाइस्ता खां को आगरा का नया सूबेदार नियुक्त किया गया था. लेकिन, वो आगरा पहुंचा नहीं था. राजाराम ने इस मौके का फायदा उठाया. और अकबर के मकबरे को लूट लिया.

लूटपाट की शुरुआत, कांसे के विशाल दरवाजों को तोड़कर की गई. कीमती रत्न, सोने-चांदी के बर्तन, कालीन और लैंप वगैरह लूट लिए गए. और, जो चीजें वो लूट नहीं सके, उन्हें नष्ट कर दिया. उन्होंने अकबर की हड्डियों को कब्र से बाहर निकाला. गुस्से में उन्हें आग में फेंककर जला दिया. उन्होंने मकबरे को भी खूब नुकसान पहुंचाया. और, कोई भी इसे रोकने के लिए कुछ न कर सका.
राजाराम जाट की मौत कैसे हुई?इसी समय, शेखावत और चौहान राजपूतों के बीच भूमि को लेकर गंभीर गृहयुद्ध छिड़ा हुआ था. इस संघर्ष में राजाराम ने चौहानों का समर्थन किया. वहीं शेखावतों को मेवात के मुगल फौजदार की सैन्य सहायता मिली. बिजल गांव के पास दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ. जिसे 'Battle Of Bijal कहा जाता है.
इसी युद्ध के दौरान, एक पेड़ के पीछे छिपे मुगल बंदूकधारी ने राजाराम को गोली मार दी. और 4 जुलाई 1688 को उनकी मौत हो गई. और, जहां तक बात अकबर के मकबरे की है. तो, वो आज भले ही वास्तुकला और इतिहास का प्रतीक हो. लेकिन, संभावना यही है कि उसमें अकबर की असली हड्डियां मौजूद नहीं हैं.
वीडियो: तारीख: मुगलों की नींव हिलाने वाले राजाराम जाट की कहानी