क्या है रायगड किले की कहानी?
महाराष्ट्र के महाड शहर में बसा ये किला सह्याद्रि पर्वत श्रृंखला में पड़ता है. इस किले का पुराना नाम रायरी हुआ करता था. 12वीं सदी में ये पालेगर वंश की संपत्ति हुआ करता था. पंद्रहवीं सदी में ये किला निजामशाही शासकों के हाथ में आया. उनके बाद सत्रहवीं सदी में शिवाजी महाराज के पास. उन्होंने इसके कई हिस्से दुबारा बनवाए. और फिर इसे अपने मराठा साम्राज्य की केंद्र राजधानी बना लिया. ये हुआ साल 1674 में. किला उंचाई पर स्थित है. नीचे पाचड और रायगडवाड़ी नाम के दो गांव हैं. पाचड से ही किले तक जाने का रास्ता शुरू हो जाता है. पाचड में शिवाजी महाराज अपने कई सैनिक रखा करते थे. ताकि घुसपैठ या आक्रमण करने वालों से नीचे ही निबटा जा सके.

क्या है इस किले की खासियत?
तकरीबन 1700 सीढ़ियां हैं, किले तक पहुंचने के लिए. रोपवे, यानी रस्सी वाली ट्रैम भी चलती है. इस किले में घुसने का एक ही मुख्य रास्ता है, जिसे महा दरवाजा कहा जाता है. अब यह किला पूरी तरह से खंडहर हो चुका है. लेकिन फिर भी अवशेषों के ज़रिए इसका गौरव भरा इतिहास झलक ही जाता है. मुख्य किले में रानी का कमरा, और छह दूसरे कमरे थे. तीन निगरानी बुर्ज (वॉच टावर) भी थे, जिनमें से एक ढह चुका है. राजा और लश्कर के लिए पालकी दरवाज़ा, रानियों और उनके साथ की महिलाओं के लिए मीना दरवाजा जो रनिवास तक जाता था. तीसरा सीधे दरबार तक. इसका नक्शा तैयार करने वाले थे हिरोजी इंदुलकर.
इस किले में ही छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था और हिन्दवी स्वराज की नींव रखी गई. यहीं पर शिवाजी महाराज को छत्रपति की पदवी मिली थी. 1,300 एकड़ में फैला ये किला आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के तहत आता है.

कहानी हिरकनी बुर्ज की
इस किले में हिरकनी नाम का एक बुर्ज है. इसके पीछे की कहानी भी बेहद रोचक है. पास के गांव से हिरकनी नाम की एक महिला किले में रहने वाले लोगों को दूध बेचने आया करती थी. तब सूर्यास्त के समय महा दरवाजा बंद कर दिया जाता था. एक दिन हिरकनी को वहां देर हो गई. सूर्यास्त हुआ, और महा दरवाजा बंद कर दिया गया. अब वो नीचे नहीं जा सकती थी. लेकिन रात होते-होते हिरकनी से रहा नहीं गया. उसका बच्चा भूख से रो रहा होगा, ये चीज़ उसके दिमाग में घूम रही थी. वो अपने बच्चे के पास जाने के लिए उस ऊंची चोटी से अंधेरे में उतर गई. बिना किसी सहारे के. उसने छत्रपति शिवाजी महाराज के सामने ये दुबारा करके दिखाया. उसके सम्मान में शिवाजी ने ये बुर्ज बनवाया और इसका नाम हिरकनी बुर्ज रख दिया.
1680 के अप्रैल में शिवाजी महाराज की मृत्यु हुई. उनकी मृत्यु के बाद उनके छोटे बेटे राजाराम को गद्दी पर बिठाया गया. लेकिन बड़े बेटे संभाजी ने आकर अपना उत्तराधिकार जमाया. और राजाराम को गद्दी से उतार खुद शासक बन बैठे लेकिन ज्यादा समय तक संभाजी वहां बने नहीं रह सके. उनको पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया गया. मुगलों द्वारा. इसके बाद फिर से राजाराम छत्रपति वहां के शासक बने. मुगलों से लोहा लिया. 1681 से ही औरंगज़ेब ने मराठा साम्राज्य पर हमले शुरू किए. 1684 में औरंगज़ेब के जनरल शहाबुद्दीन खान ने रायगड पर हमला किया, लेकिन किला बचा लिया गया.

इन्हीं हमलों में था 1689 में हुआ रायगड का युद्ध. औरंगज़ेब ने अपने जनरल ज़ुल्फ़िकार खान को रायगड पर कब्ज़ा करने भेजा. मुगलों ने किले पर कब्ज़ा तो कर लिया. लेकिन राजाराम छत्रपति वहां से बच निकले. 1700 में उनकी मृत्यु हुई.
साल 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लेफ्टिनेंट कर्नल प्रॉथर ने मराठा किलों पर हमले शुरू किए. वहां पर बाजीराव द्वितीय की पत्नी वाराणसीबाई उस वक़्त मौजूद थीं. उन्होंने किला छोड़कर जाने के बजाए लड़ना बेहतर समझा. लेकिन अधिक समय तक किला टिक नहीं पाया. गोलीबारी के बीच रायगड ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन आ गया.
कई जगहों पर ऐसा लिखा मिलता है कि ब्रिटिशों द्वारा की गई इस गोलीबारी में तोप के एक गोले से किले में भयंकर आग लग गई. इस वजह से पूरा किला बर्बाद हो गया. क्योंकि उसका मुख्य ढांचा कई जगह लकड़ी का बना था.

लेकिन 2018 में की गई ASI की एक खुदाई में कुछ और ही पता चला. जहां से ब्रिटिश ट्रूप्स ने गोलीबारी की थी, उसके ठीक सामने मौजूद जगह पर दो फीट नीचे से पूरा ढांचा निकला है. जिसमें जलने के कोई निशान नहीं पाए गए. इस साइट पर कुछ कमरे और एक बड़ा बरामदा मिला है खुदाई में. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी रिपोर्ट
के मुताबिक़ साइंटिस्ट्स का मानना है कि किले के जल कर राख होने की कहानी शायद लोककथाओं का हिस्सा रही. इसमें सच्चाई होने की संभावना कम है. उनका मत है कि 1818 में हुए युद्ध के बाद अधिकतर लोग किला छोड़ कर चले गए थे. इस वजह से लकड़ी के ढांचे बिना इस्तेमाल और रख-रखाव के खराब होते गए. अचानक से इसके बर्बाद होने के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते.
इससे पहले भी किले के पुनर्निर्माण और संरक्षण के लिए फंड दिया गया था. अब उद्धव ठाकरे के आदेश के बाद वहां काम कितना तेज़ होता है, ये देखना है.
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