बिहार में इस साल के अंत में चुनाव होने हैं. चुनाव से पहले कांग्रेस (Congress) ‘पलायन रोको, रोजगार दो’ यात्रा निकाल रही है. यात्रा की सदारत कन्हैया कुमार (Kanhaya Kumar) कर रहे हैं. इसकी शुरुआत 16 मार्च को हुई थी. तब से अब तक बिहार कांग्रेस में काफी कुछ बदल चुका है. कहा जा रहा है कि ये बदलाव राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के इशारे पर हुई है. जो इस पदयात्रा का हिस्सा बनने साल में तीसरी बार बिहार आए हैं. शुरुआती दो बार जब वो बिहार पहुंचे तो उस दौरान के घटनाक्रम इस तरह के संकेत दे रहे थे कि कांग्रेस दलित वोटरों के ज़रिए अपनी खोई विरासत वापस पाना चाहती है. लेकिन इस बार के पड़ाव बेगूसराय ने पार्टी की रणनीति का एक और पहलू सबसे सामने ला दिया.
कन्हैया कुमार के घर बेगूसराय जाकर पदयात्रा कर राहुल क्या हासिल करना चाहते हैं?
साल 2010 आखिरी चुनाव था जब Congress अपने दम पर चुनाव लड़ी थी. और NDA की लहर के बावजूद 8 फीसदी वोट पाने में सफल रही थी. Rahul Gandhi और उनके सिपहसालारों को इस चीज का इल्म है. और इसके दम पर वो राजद से ज्यादा से ज्यादा सीट बारगेन करने की कोशिश कर रहे हैं.

पिछले महीने कांग्रेस ने राजेश कुमार को अध्यक्ष बनाया. जोकि दलित समुदाय से आते हैं. उनके जरिए कांग्रेस दलित वोटों में अपना पैठ बनाना चाहती है. इसको बिहार के दलित समीकरण और उसमें राजेश कुमार की जाति की स्थिति समझने से और स्पष्ट होगा. दलितों में पासवान का झुकाव लोजपा यानी चिराग पासवान की तरफ है. मांझी (मुसहर) वोटर्स जीतन राम मांझी के साथ हैं. पासवान वोटर्स की संख्या बिहार में पांच फीसदी के आसपास है. जबकि मुसहर जाति की आबादी लगभग 3 फीसदी है. पासवान के बाद राज्य में सबसे बड़ी दलित आबादी रविदास (चमार) जाति की है. इनकी संख्या भी पांच फीसदी के आसपास है. राजेश कुमार इसी जाति से आते हैं. इस जाति का कोई सर्वमान्य नेता नहीं हैं. बीजेपी में जनक राम, राजद में शिवचंद्र राम और जेडीयू में आलोक सुमन बड़े कद के नेता हैं. लेकिन इनकी पहचान पैन बिहार पहचान नहीं है. लेकिन कांग्रेस ने राजेश कुमार की नियुक्ति से ये संदेश दे दिया है कि वो समुदाय को पार्टी का नेतृत्व करते हुआ देखती है. लेकिन पार्टी के लिए राह इतनी आसान भी नहीं हैं, क्योंकि कुछ खास पॉकेट्स में रविदाय समुदाय लेफ्ट को भी वोट करता रहा है. लेकिन लोकसभा चुनाव में बिहार की सासाराम सीट से पार्टी को एक संकेत मिला. रविदास बहुल इस सीट पर कांग्रेस और बीजेपी के रविदास नेताओं में टक्कर थी. जिसमें बाजी कांग्रेस के मनोज कुमार के हाथ आई.
इसके अलावा कांग्रेस की नजर पासी वोट बैंक पर भी है. जदयू के अशोक चौधरी और राजद के उदय नारायण चौधरी इस समुदाय से हैं. साल की शुरुआत में राहुल गांधी जगलाल चौधरी की जयंती मनाने बिहार आए थे. जगलाल चौधरी इसी समुदाय से आते थे. इस जाति की संख्या बिहार में एक फीसदी है.
अब बिहार में कांग्रेस के जातीय समीकरण को समझ लीजिए जब राज्य में पार्टी मजबूत स्थिति में हुआ करती थी. कांग्रेस दलित, सवर्ण और मुस्लिम गठजोड़ के जरिए 1990 तक राज्य की सत्ता में रही. शुरुआत में तो ओबीसी तबका भी उनके साथ था. लेकिन सोशलिस्ट राजनीति के उभार और हिस्सेदारी में उपेक्षा के चलते कांग्रेस से दूर हो गया. इस समीकरण के टूटने की शुरुआत 1989 के भागलपुर दंगे के बाद हुई. जब मुस्लिम कांग्रेस से छिटककर लालू यादव के साथ चले गए. फिर मंडल के बाद के दौर में कांग्रेस जब लालू यादव से जुड़ी तो सवर्ण वोटर्स बीजेपी की ओर चले गए. इसके अलावा दलितों में भी नए नेतृत्व का उभार हुआ. जिसमें रामविलास पासवान का नाम सबसे उल्लेखनीय है.
कांग्रेस एक बार फिर अपने पुराने समीकरण को जीवित करने की फिराक में हैं. राहुल गांधी दलितों में उन जातियों पर फोकस कर रहे हैं, जिनका स्वतंत्र नेतृत्व विकसित नहीं हो पाया है. राजद के साथ रहते मुस्लिम वोटर्स के समर्थन को लेकर कांग्रेस नेतृत्व आश्वस्त है.
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से जुड़े पुष्पेंद्र बताते हैं,
कांग्रेस सामाजिक न्याय की ताकतों के उभार के चलते सत्ता से बाहर हुई थी. ऐसे में पार्टी का टार्गेट सामाजिक न्याय के स्पेस में हस्तक्षेप करना है. इसके लिए इन्होंने लीडरशिप में चेंज किया. और एक दलित व्यक्ति को राज्य का अध्यक्ष बनाया. क्योंकि मुख्यधारा की बाकी पार्टियों के बरअक्स ओबीसी नेतृत्व डेवलप करना इनके लिए अभी थोड़ा मुश्किल होगा. इसके लिए इनकी निर्भरता अभी राजद पर ही है.
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कन्हैया को आगे करने की पीछे क्या रणनीति?अब बचे सवर्ण वोटर्स जो मंडल की राजनीति के बाद बीजेपी की ओर मूव कर गए हैं. सवर्णों में भूमिहार लंबे समय तक कांग्रेस के विश्वस्त वोटर रहे हैं. पार्टी के पहले सीएम श्रीकृष्ण सिन्हा इसी जाति से थे. उसके बाद के सालों में भी महेश प्रसाद सिन्हा, रामजतन सिन्हा और रामाश्रय प्रसाद सिंह जैसे नेता कांग्रेस से जुड़े रहे हैं. बेगूसराय भूमिहार बहुल इलाका माना जाता है. कन्हैया को आगे करके राहुल गांधी की कोशिश भूमिहार वोट को तोड़ने की है. जिसके भरोसे बीजेपी का किला मजबूत माना जाता है. वरिष्ठ पत्रकार मनोज मुकुल कहते हैं,
अखिलेश प्रसाद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष से हटाने के बाद कन्हैया को आगे करना उसी रणनीति का हिस्सा है. कन्हैया की स्वीकार्यता समाज में कितनी हो पाएगी ये भविष्य के गर्भ में है. लेकिन कांग्रेस एक नया नेतृत्व आगे करने में जुटी है.
बेगूसराय का रण कन्हैया के लिए नया नहीं है. साल 2019 में वो यहां से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं. उस चुनाव में कन्हैया को गिरिराज सिंह से हार का सामना करना पड़ा था. हालांकि उस चुनाव में कन्हैया को राजद का सपोर्ट नहीं मिला था. और उस समय उन्होंने CPI के टिकट पर चुनाव लड़ा था. कन्हैया की रिलॉन्चिंग को लेकर पुष्पेंद्र का मानना है,
अपर कास्ट वोट का बहुत बड़ा हिस्सा NDA को जाता है. और इन वोटर्स की राजद से एक दूरी भी दिखती है. ऐसे में कांग्रेस कन्हैया को आगे कर रही है. क्योंकि अपर कास्ट खासकर भूमिहारों में कन्हैया की वाकपटुता, हाजिरजवाबी और तर्क वितर्क करने की जो क्षमता है उसका एक आकर्षण है. कांग्रेस इसका फायदा उठाना चाहती है.
बेगूसराय की राजनीति को लंबे समय से कवर कर रहे स्थानीय पत्रकार महेश भारती इस मामले में अलग राय रखते हैं. उनका मानना है,
कांग्रेस ने एक युवा नेता कन्हैया कुमार को बिहार में पलायन रोको नौकरी दो यात्रा के जरिए आगे किया है. यह बिहार की राजनीति का एक जरूरी मुद्दा है. राज्य की करोड़ों की आबादी बिहार के बाहर के राज्यों में मजदूर है. वो अपमान, हिकारत और हीनता झेलते हैं. उनमें जाति धर्म से ज्यादा पेट, परिवार और रोजगार की चिंता है. इस यात्रा से बिहार में जातिवादी राजनीति को केंद्र बनाने वाले लोगों पर संकट बढ़ेगा. कन्हैया यदि इस आंदोलन को चुनावी दृष्टिकोण से अलग मुद्दा बनाने में सफल रहते हैं तो बिहार और कांग्रेस की राजनीति में नई करवट दिखेगी.
कांग्रेस अपने पुराने जनाधार को बैक कर रही है. जहां अपर कास्ट, दलित और मुस्लिम वोटर्स पार्टी के साथ थे. लेकिन इस बार राहुल गांधी ने इसमें एक महत्वपूर्ण बदलाव किया है जिसकी ओर पुष्पेंद्र इशारा करते हैं. उनके मुताबिक पहले इस समीकरण में अपर कास्ट का वर्चस्व होता था. और दलित वोटर्स सपोर्टिव भूमिका में रहते थे. भोला पासवान शास्त्री के जरिए एक बार उनको नेतृत्व सौंपा गया लेकिन वो सांकेतिक ज्यादा था. इस बार राहुल गांधी ने सचेत रूप से इसका ध्यान रखा है कि अपर कास्ट की भूमिका हो, लेकिन ये भूमिका सपोर्टिव ही रहे. ताकि पार्टी पर अपर कास्ट की पार्टी होने का ठप्पा न लगे.
ज्यादा सीटों पर दावेदारी का मसलाराजद महागठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी है. पिछला विधानसभा चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा गया था. लेकिन कांग्रेस ने अब तक सार्वजनिक तौर पर तेजस्वी के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव में जाने को लेकर कोई बयान नहीं दिया है. कांग्रेस प्रभारी कृष्णा अल्लावरु और प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम दोनों इस पर आपसी सहमति से निर्णय का राग अलापते नजर आए हैं. इसके पीछे भी कांग्रेस की रणनीति है. दरअसल कांग्रेस को पता है कि उनको तेजस्वी के नेतृत्व में ही चुनाव में जाना है. पार्टी अभी अकेले अपने दम पर चुनाव में जाने की स्थिति में नहीं है. लेकिन साथ में पार्टी खुद को रिवाइव भी करना चाहती है. इसका एक मात्र उपाय है ज्यादा से ज्यादा सीटों की दावेदारी.
राजद से जुड़े सूत्रों के मुताबिक उनकी चाहत कांग्रेस को 40 से 50 सीटों के भीतर समेटने की है. इसके पीछे कांग्रेस के पिछले विधानसभा चुनावों के प्रदर्शन का हवाला दिया जा रहा है. जब पार्टी 70 सीटों में से 18 ही जीत पाई थी. लेकिन कांग्रेस से जुड़े सूत्रों की माने तो पार्टी 90 सीटों पर दावेदारी कर रही है. इसके पक्ष में कांग्रेस के अपने तर्क हैं. लोकसभा चुनाव में राजद 23 सीट लड़कर 4 ही सीट जीत पाई थी. वहीं कांग्रेस 9 सीटों पर लड़कर 3 सीट जीती. पप्पू यादव की सीट भी पार्टी अपने खाते में ही मानकर चल रही है. सूत्र बता रहे हैं कि पार्टी की प्लानिंग 90 सीटों की दावेदारी पेश कर 75 सीटों के आसपास समझौता करने की है.
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गठबंधन पर सहमति नेतृत्व पर नहींपिछले दिनों दिल्ली में बिहार कांग्रेस की मीटिंग हुई थी. इस मीटिंग में राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी मौजूद रहे. यहां फैसला हुआ कि पार्टी राजद के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ेगी. लेकिन इस मीटिंग के बाद प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम ने साफ किया कि महागठबंधन के नेतृत्व को लेकर फैसला बाद में लिया जाएगा. हालांकि पूर्व अध्यक्ष अखिलेश प्रसाद ने कहा कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में ही महागठबंधन चुनाव में जाएगी. यानी इस पर पार्टी की राय बंटी हुई है. प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद 5 अप्रैल को पहली बार राजेश कुमार ने पटना में तेजस्वी यादव से मुलाकात की है. वहीं 6 अप्रैल को कृष्णा अल्लावरु ने दिल्ली में लालू यादव की सेहत का हालचाल लिया. और अगले दिन यानी 7 अप्रैल को राहुल गांधी पटना पहुंचे. खबर है कि अंदरखाने कन्हैया और राजेश राम की जोड़ी को भी राजद की सहमति मिल गई है. क्योंकि कांग्रेस जिन वोटों पर फोकस कर रही है वो परंपरागत तौर पर राजद के वोटर नहीं माने जाते. और कांग्रेस की सक्रियता राजद से ज्यादा बीजेपी के आधार वोट को डेंट करेगी.
साल 1998 में पहली बार राजद और कांग्रेस के बीच गठबंधन हुआ था. इसके बाद कांग्रेस और राजद साथ साथ चुनाव लड़े तब उनकी स्थिति क्या रही इस पर एक नजर डालते हैं.
साल | चुनाव | कांग्रेस | राजद |
1998 | लोकसभा | 4 | 17 |
1999 | लोकसभा | 2 | 7 |
2004 | लोकसभा | 3 | 22 |
2005 | विधानसभा | 9 | 54 |
2014 | लोकसभा | 2 | 4 |
2015 | विधानसभा | 27 | 80 |
2019 | लोकसभा | 1 | 00 |
2020 | विधानसभा | 19 | 75 |
2024 | लोकसभा | 3 | 4 |
कांग्रेस अकेले चुनाव में जाए इसकी संभावना बहुत कम है लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है. ऐसे में कांग्रेस के पिछले प्रदर्शन को देखते हैं जब पार्टी अपने दम पर चुनाव लड़ी थी. साल 2010 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 243 सीटों पर मैदान में थी. इस चुनाव में कांग्रेस को 8.4 फीसदी वोट के साथ 4 सीटों पर जीत मिली. वहीं राजद भी इस चुनाव में 22 सीट ही जीत पाई थी. कांग्रेस और राजद का चुनावी गठबंधन पहली बार 1998 में हुआ. हालांकि इसके बाद भी दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ीं. एक नज़र उसपर.
साल | चुनाव | कांग्रेस | राजद |
2000 | विधानसभा | 23 | 124 |
फरवरी 2005 | विधानसभा | 10 | 75 |
2009 | लोकसभा | 4 | 2 |
2010 | विधानसभा | 4 | 22 |
कांग्रेस 1990 तक अधिकतर समय सत्ता में रही. लेकिन इस दौरान पार्टी का नेतृत्व अधिकतर सवर्ण नेताओं के हाथ में ही रहा. पार्टी राज्य में ओबीसी नेतृत्व के उभार को भांप नहीं पाई. या फिर पार्टी के सवर्ण नेताओं ने जानबूझकर इसकी अनदेखी की. मंडल की राजनीति के दौर में लालू यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे नेताओं का उभार हुआ. इससे कांग्रेस बैकफुट पर जाती गई. वहीं 1989 में कांग्रेस के राज में हुए भागलपुर दंगे के बाद मुस्लिम वोट उनसे छिटक गया, जो लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद लालू यादव की ओर शिफ्ट कर गया. वहीं कांग्रेस का आधार रहे सवर्ण वोटर्स बीजेपी की तरफ चले गए. 1990 की हार के बाद कुछ समय तक तो कांग्रेस अपने दम पर चुनाव लड़ी, लेकिन फिर लालू यादव के पीछे चलना मंजूर किया.
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राहुल गांधी की कवायद का मैसेज क्या है?साल 2010 आखिरी चुनाव था जब कांग्रेस अपने दम पर चुनाव लड़ी थी. और एनडीए की लहर के बावजूद 8 फीसदी वोट पाने में सफल रही थी. राहुल गांधी और उनके सिपहसालारों को इस चीज का इल्म है. और इसके दम पर वो राजद से ज्यादा से ज्यादा सीट बारगेन करने की कोशिश कर रहे हैं. साथ ही पदयात्रा और संविधान यात्रा के जरिए उनकी कोशिश एक बार फिर से पब्लिक मेमोरी में कांग्रेस को जिंदा करने की है. उनकी इस कोशिश में कन्हैया फौरी तौर पर चेहरा ज़रूर हैं. लेकिन उनकी भूमिका बैक बेंचर की ही रहेगी. क्योंकि राहुल गांधी ने कांग्रेस के पुराने समीकरण के डायनेमिक्स बदल दिए हैं. इसकी एक झलक पटना में दिए उनके भाषण से भी मिलती है. कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक में अब बहुजन समुदाय नेतृत्व में रहेगा. और सवर्ण समुदाय की सपोर्टिव भूमिका रहेगी.
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