बिंदेश्वर पाठक. वो शख्स, जिन्होंने लाखों लोगों को मैला ढोने की मजबूरी से आजाद किया. देश को सार्वजनिक शौचालयों का तंत्र बनाकर दिया. अमेरिका के आग्रह पर उसकी सेना को ख़ास तरह के शौचालय दिए. बीते मंगलवार 15 अगस्त 2023 को उनका निधन हो गया. सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक और पद्म भूषण पुरस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता बिंदेश्वर पाठक 80 साल के थे. सुलभ इंटरनेशनल के ऑफिस में तिरंगा फहराने के बाद उन्होंने बेचैनी की शिकायत की थी. तबियत बिगड़ी तो दिल्ली AIIMS ले जाया गया. जहां दोपहर करीब 2 बजे उन्होंने आख़िरी सांस ली. मृत्यु की वजह दिल का दौरा पड़ना बताया गया है.
देश के 'टॉयलेट मैन' बिंदेश्वर पाठक की कहानी, जिनसे अमेरिका तक ने मदद मांगी!
सुलभ शौचालय सुना देखा होगा. इस क्रांति को लाने वाले बिंदेश्वर पाठक नहीं रहे. पूरी कहानी रोंगटे खड़े करने वाली है.

बिंदेश्वर पाठक के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु सहित देश के तमाम लोगों ने अफ़सोस जताया. PM मोदी ने ट्वीट कर लिखा कि बिंदेश्वर पाठक का निधन देश के लिए बड़ी क्षति है. उन्होंने स्वच्छ भारत का निर्माण अपना मिशन बनाया. उनसे बातचीत के दौरान स्वच्छता के लिए उनका जुनून हमेशा दिखता था. तो आज आपको इन्हीं बिंदेश्वर पाठक की कहानी बताते हैं.
कौन थे बिंदेश्वर पाठक?मैला ढोना क्या होता है, नई पीढ़ी ने, आपने-हमने शायद सिर्फ सुना हो, बिंदेश्वर पाठक ने एक बड़े वर्ग को दो वक़्त की रोटी के लिए ये निहायत तकलीफ भरा काम करते देखा था. लेकिन, कुछ लोग बुराइयां सिर्फ देखते नहीं, ख़त्म करने की कोशिश भी करते हैं. बिंदेश्वर ऐसे ही थे. इस काम के लिए 70 के दशक में बिंदेश्वर ने बिहार में सुलभ इंटरनेशनल की नींव रखी थी.
सुलभ इंटरनेशनल एक नॉन-प्रॉफिट आर्गेनाइजेशन है. इसकी वेबसाइट के मुताबिक, डॉ. बिंदेश्वर की पैदाइश साल 1943 में रामपुर बाघेल गांव की है. ये बिहार के वैशाली जिले में आता है. पिता रमाकांत पाठक सामाजिक प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति थे. ये वो दौर था जब ग्रामीण इलाकों में घर में शौचालय होना अशुद्धता का प्रतीक माना जाता था. पक्के मकानों की तादाद बहुत कम थी. और इनमें भी शौचालय नहीं थे.
बिंदेश्वर के मुताबिक, बचपन में मेरे बड़े से घर में सब था, सिवाय एक शौचालय के. घर की महिलाओं को रोज तड़के करीब 4 बजे शौच के लिए बाहर जाते हुए देखता था. जिन घरों में शौचालय थे भी, उनसे मैला ढोना होता था. क्योंकि शौचालय, टैंक वाले नहीं होते थे. ये काम कथित अछूत वर्ग को करना होता था. और उस पर भी छुआ-छूत. जिसे समाज की बुराई नहीं शुचिता के कुतर्क के लिहाफ में लपेटकर एक जरूरत बताया जाता था.
बिंदेश्वर खुद बताते हैं कि उनके घर में एक महिला बांस की बनी चीजें बेचने आती थी. जब वो चली जाती तो बिंदेश्वर की दादी घर भर में पानी छिड़कतीं. ताकि घर शुद्ध हो जाए. लेकिन बिंदेश्वर उस महिला को छूकर देखते कि उनके शरीर में, रंग में कोई बदलाव होता है या नहीं. एक बार ऐसी ही 'हिमाकत' करते दादी ने देख लिया. घर में कोहराम मच गया. बिंदेश्वर को पवित्र करने के लिए गोबर खिलाया गया, गोमूत्र पिलाया गया. इस वक़्त बिंदेश्वर की उम्र सात साल थी.
बिंदेश्वर का बचपन सुखद नहीं बीता. इंडिया टुडे की एक खबर के मुताबिक, बिंदेश्वर जब 12 साल के थे, पेड़ से गिरे. बायां हाथ किसी तरह बचा. एक साल बीता, चाचा की हत्या हो गई. संयुक्त परिवार था. माली हालत भी बिगड़ती गई. स्कूली पढ़ाई के बाद, बिंदेश्वर ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया. कॉलेज में लेक्चरर लग जाते, लेकिन कुछ नंबर से चूक गए. परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक हो सके, इसलिए बिंदेश्वर ने एक जगह बतौर क्लर्क भी काम किया. 25 साल के आस-पास उम्र थी. बिंदेश्वर के दादाजी, घरेलू उपचार की आयुर्वेदिक दवाइयां बनाते थे. बिंदेश्वर 10 किलो की बोतलों में भरकर ये दवाएं बेचने निकलते.
सोच से शौचालय तक1968 का साल आया. बिंदेश्वर ने कॉलेज में समाजशास्त्र और थोड़ा-बहुत अपराधशास्त्र (सोशियोलॉजी और क्रिमिनोलॉजी) की पढ़ाई की थी. इन्हीं विषयों के साथ मास्टर्स करके CID या पुलिस की नौकरी करना चाहते थे. हाजीपुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेन में बैठ चुके थे. मास्टर्स के लिए कॉलेज में दाखिला लेने जा रहे थे. लेकिन ट्रेन सरकती, इसके पहले ही बिंदेश्वर का चचेरा भाई और उसका दोस्त मिला.
रीडर्स डाइजेस्ट में छपी अनु प्रभाकर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बिंदेश्वर बताते हैं,
"उन्होंने बिहार गांधी शताब्दी समारोह समिति में सेक्रेट्री की नौकरी दिलाने की बात कही और मेरे मना करने के बावजूद ट्रेन से मेरा सामान उतार लिया."
इस कमेटी में चार सेल थे. एक का मिशन था, मैला ढोने वालों की ‘मुक्ति’. बिंदेश्वर को वेतन वाली नौकरी तो नहीं मिली. लेकिन उन्होंने इस कमेटी में बतौर ट्रांसलेटर काम शुरू कर दिया. बिना पैसे लिए. कुछ दिन बाद उन्हें उसी 'सेल' में भेज दिया गया. इसी दौरान उन्हें बेतिया भेजा गया. यहां उन्होंने मैला ढोने वाले लोगों की दिक्कतों और खुले में शौच की समस्या के समाधान के लिए काम किया.
इसी दौरान साल 1969 में उन्होंने, शौचालय के लिए एक नई तकनीक विकसित की. ये पुराने तरीकों से अलग साफ-सफाई की तरफ एक नए कदम की तरह थी. इस तकनीक के तहत बिंदेश्वर ने दो गड्ढे वाले टॉयलेट बनाए. एक वक़्त में इनमें से एक ही गड्ढे (फ़्लश टैंक) का इस्तेमाल होता था. जब एक पूरी तरह भर जाता तो दूसरे का इस्तेमाल शुरू होता. और 2 साल में पहले गड्ढे का कचरा, खाद में बदल जाता, जिसे खेतों में बतौर खाद इस्तेमाल किया जा सकता था.
बिंदेश्वर बताते हैं,
"एक फ्लश में लगभग एक से डेढ़ लीटर पानी का इस्तेमाल होता था, जबकि सेप्टिक टैंक में 10 लीटर पानी की जरूरत होती थी. इसके अलावा इस टैंक में कोई गैस पाइप नहीं है, मीथेन गैस नहीं निकलती है. और इस टैंक को बनाना भी आसान है."
साल 1970 में बिंदेश्वर ने बिहार में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन शुरू किया. शुरुआत में बिंदेश्वर की फ्लश टॉयलेट वाली तकनीक को बहुत प्रोत्साहन नहीं मिला. लेकिन धीरे-धीरे लोगों को फर्क समझ आया. और बड़े पैमाने पर इस तकनीक के टॉयलेट बनाए गए. बिंदेश्वर ने पटना नगर निगम की मदद से देश का पहला पे-एंड-यूज़ पब्लिक टॉयलेट शुरू किया. पहले दिन पांच सौ लोगों ने इसका इस्तेमाल शुरू किया. इसके रख-रखाव का पैसा जनता से ही इकठ्ठा होता था. साल 1980 में उन्होंने मलमूत्र से बायो गैस बनाने का तरीका भी दिया. धीरे-धीरे देश भर में सुलभ शौचालय की स्वीकार्यता हो गई. देश के लगभग सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लाखों सुलभ शौचालय काम कर रहे हैं. करीब 30 लाख वॉलंटियर्स सुलभ ऑर्गेनाइजेशन से जुड़े हैं.
अमेरिका ने सैनिकों के लिए टॉयलेट मांगाबिंदेश्वर की संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने अफगानिस्तान में टॉयलेट बनाए. अमेरिका ने भी अपने सैनिकों के लिए टॉयलेट बनाने का आग्रह किया. साल 2016 में भारतीय रेलवे ने साफ-सफाई को लेकर सुलभ के साथ मिलकर काम शुरू किया. बिंदेश्वर को स्वच्छ रेल मिशन का ब्रांड एंबेसडर नियुक्त किया गया. बिंदेश्वर को पद्म भूषण के अलावा भी कई अवॉर्ड मिले. फ्रांस का लीजेंड ऑफ प्लैनेट अवॉर्ड, दुबई इंटरनेशनल अवॉर्ड, एनर्जी ग्लोब अवॉर्ड आदि. 2016 में न्यूयॉर्क में उनके नाम पर बिंदेश्वर पाठक डे सेलिब्रेट किया गया.
बिंदेश्वर कहते थे कि सरकार को पहले शौचालय बनवाना चाहिए और फिर पैसे बचे तो... स्मार्ट सिटी. क्योंकि शहरों के साथ-साथ गांवों का विकास भी जरूरी है. बिंदेश्वर जी को लल्लनटॉप की तरफ से भी श्रद्धांजलि.
वीडियो: गुजरात चुनाव 2022: लल्लनटॉप ने देखा कैसे बनते हैं कमोड, कैसे साधारण मिट्टी से कमाल होता है