ऑन योर फ़िंगर-टिप्स दुनिया एक मेला है. चहुओर दुकानें हैं. अलग-अलग दुकानों में अलग-अलग आइटम. ‘भगवान-रूपी कस्टमर’ को सब कुछ झटपट चाहिए. मैगी की तरह, दो मिनट में. हालांकि, मैगी दो मिनट में नहीं बनती. अच्छा कॉन्टेंट, क्वॉलिटी कॉन्टेंट भी नहीं बनता. मगर दुकानदार क्वॉलिटी के चक्कर में रहा, तो कस्टमर बढ़ लेगा. दूसरी दुकान चला जाएगा. ऐसा क्यों है? एक रिसर्च में पता चला है कि कस्टमर का मन चंचल है और दिमाग़ 'पॉपकॉर्न'.
किसी चीज़ में मन नहीं लगता? इसका गुनाहगार आपका 'पॉपकॉर्न दिमाग़' है!
दुनिया की आबादी का लगभग 60% सोशल मीडिया पर है, और औसतन दिन भर में 2 घंटे 23 मिनट सोशल मीडिया पर बिताता है.
अंतरराष्ट्रीय मीडिया संगठन मेट्रो से बात करते हुए क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर डेनियल ग्लेज़र ने बताया कि एक चीज़ होती है, ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’. हमारे ध्यान और एकाग्रता की एक प्रवृत्ति, जिसमें हमारा ध्यान फट-फट एक से दूसरी चीज़ पर चला जाता है. जैसे मक्के के दाने फूटते हुए छिटकते हैं.
ये कोई नया शब्द नहीं है. पहली बार 2011 में वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता और 'नो टाइम टू थिंक' किताब के लेखक डेविड लेवी ने इसका इस्तेमाल किया था. मगर 2011 के बाद से दुनिया में बहुत कुछ बदल गया है. कितनी सरकारें आई-गईं, नीतियां बनीं-फेल हो गईं, अदालतों ने कितने ऐतिहासिक फ़ैसले दिए-कितने फ़ैसलों को ‘ऐतिहासिक’ बता भर दिया गया. इंटरनेट जीवन का लगभग अभिन्न हिस्सा बन गया. ज़्यादातर सर्वे और स्टडी इस बात पर सहमत हैं कि दुनिया की आबादी का लगभग 60% सोशल मीडिया पर है, और औसतन दिन भर में 2 घंटे 23 मिनट सोशल मीडिया पर बिताता है.
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भारत में भी. पैसे के लेन-देन से लेकर टिकट कराने या नून-सब्ज़ी ख़रीदने के लिए बस फ़ोन उठाना है. लब्बोलुआब ये कि इंटरनेट के फैलाव से आदतें बदली हैं. इंटरनेट इस्तेमाल करने की आदतें भी. यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया ने एक रिसर्च के ज़रिए पता लगाया है कि इंसान का 'अटेंशन स्पैन' (ध्यान बनाए रखने की अवधि) बहुत तेज़ी से घटा है. स्क्रीन पर एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी चीज़ देखने में जो आदमी 2004 में ढाई मिनट ख़र्चता था, वो 2012 तक सवा मिनट ख़र्चने लगा और अब एक आदमी एक चीज़ को मात्र 47 सेकंड तक देखता है. औसतन. नहीं पसंद आया तो समय नहीं लगाता कि रुक कर देखते हैं, आगे कुछ अच्छा ही निकल आए. 47 सेकेंड में चैनल चेंज.
मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि समय के साथ इस बदलाव से मानसिक बेचैनी पैदा होती है. दिमाग़ इधर-उधर उछल-कूद करने लगता है, क्योंकि एक ठीक-ठाक समय तक किसी एक चीज़ या काम पर ध्यान लगाए रखना मुश्किल काम है. बिना चित्रों वाली किताब पढ़ना मुश्किल है. एक कहानी के ज़रिए अपनी कल्पना की कलई खोलना मुश्किल काम है. इसीलिए 47 सेकेंड में चैनल चेंज.
डिजिटल मीडिया के लिक्खाड़ों अथवा कॉन्टेंट राइटर्स को एक बुनियादी फ़ॉर्मुला दिया जाता है, 13-3-30. 13 सेकेंड, 3 मिनट, 30 मिनट. मुराद ये कि पढ़ने-देखने वाला शुरुआती 13 सेकेंड में तय करेगा कि वो अगले 3 मिनट तक अपना समय अमुक कॉन्टेंट को देगा या नहीं. फिर अगले 3 मिनट में तय करता है कि उसके अगले 30 मिनट रुकेगा या नहीं. इसीलिए ये फ़ॉर्मुला, कि लिखे या दिखने वाले कॉन्टेंट ऐसा हो कि पाठक-दर्शक शुरू से फंसा रहे और अंत तक रहे.
कई बहुत ही अच्छे, नए, ज़रूरी आइडियाज़ इस फ़ॉर्मुले के हाथों मारे जाते हैं. क़लमजीवियों के हाथ में स्याही सूख जाती है. वो अपने मन का, अपने ज़ेहन से निकला नहीं लिख पाते. फिर बहुत बाद में किसी इंटरव्यू में कहते पाए हैं, 'हम तो हमेशा से ही ये बनाना चाहते थे. मगर हाय फ़ॉर्मुला!'
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न्यू यॉर्क पोस्ट की रिपोर्ट के मुताबिक़, मनोवैज्ञानिक डेनिएल हैग ने बताया कि ऐसा क्यों होता है? सोशल मीडिया पर स्क्रोल करते हुए जो नए पोस्ट्स हमें दिखते हैं, नोटिफ़िकेशन आते हैं, विज्ञापन दिखते हैं, इससे हमारे अंदर डोपामीन रिलीज़ होता है. एक ऐसा हारमोन, जो इंसानों को ख़ुशी, संतुष्टि और प्रेरणा की फ़ीलिंग देता है. (यही है असल समस्या की जड़.)
और, बटर पॉपकॉर्न की तरह ही पॉपकॉर्न ब्रेन भी आपकी सेहत के लिए हानिकारक है. इससे सीधे तौर पर आपके दिमाग़ी परफ़ॉर्मेंस पर असर पड़ता है. शोध से पता चलता है कि निरंतर दिमाग़ के बटे रहने की वजह से हमारी सोच-समझ वैसी ही ढलती जा रही है. इसी वजह से किसी भी कॉन्टेंट के साथ गहराई तक जुड़ नहीं पाते. सतही सुख को ही अंतिम सुख मानने की आदत पड़ रही है. ये हमारी सीखने, स्मृति और संवेदनाओं की नींव को झकझोड़ सकता है. व्यग्रता और मानसिक अवसाद जैसी समस्याओं को बढ़ा सकता है.
क्या आपने बिना चित्र वाला, बहुत सारे विज्ञापनों वाला ये लेख पूरा पढ़ा? ध्यान से ध्यान लगाया, या बहुत जतन किया? चलिए, जाइए. रील्स देख लीजिए.