अजित सिंह IIT खड़गपुर से पढ़कर निकले थे. फिर अमेरिका के इलिनोइस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से भी पढ़ाई की और अमेरिका में ही नौकरी करने लगे. चौधरी चरण सिंह ने उन्हें भारत वापस बुलाकर सियासत में उतार दिया. 1986 में बरास्ते राज्यसभा. अजित सिंह भारतीय राजनीति में उतरने वाले पहले आईआईटीयन बन चुके थे. 1987 में चौधरी चरण सिंह नहीं रहे. और उसके बाद से लेकर अब तक अजित सिंह ने कितनी पार्टियां तोड़ी, कितनी बनाईं, कब-कब किस-किस सरकार में मंत्री रहे - शायद ये सब एक सिक्वेंस में उन्हें भी याद न हो. आज पॉलिटिकल किस्से में हम कोशिश करेंगे अजित सिंह की सियासी ज़िंदगी से, उनकी शख़्सियत से, आपको रूबरू करवाने की.
12 फरवरी 1939 को चौधरी चरण सिंह और गायत्री देवी के घर में अजित सिंह (लाल घेरे में) का जन्म हुआ था. (फोटो- India Today Archive)
अजित की एंट्री और लोकदल में टूट 1987 का साल और मार्च का महीना था. लोकदल के अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह बिस्तर पर पड़े थे. सेहत नासाज़ थी. हेमवती नंदन बहुगुणा को चौधरी साहब ने लोकदल का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया था. लेकिन इसी बीच लोकदल में अंदरूनी लड़ाई तेज हो चुकी थी. एक तरफ थे बहुगुणा, दूसरी तरफ थे सियासत में नए-नए कदम रखने वाले चौधरी साहब के साहबजादे अजित सिंह. अब अजित सिंह पार्टी पर नियंत्रण चाहते थे. लेकिन पार्टी में बाकी लोगों मसलन बहुगुणा, कर्पूरी ठाकुर, नाथूराम मिर्धा, चौधरी देवीलाल और UP विधानसभा में विपक्ष के नेता मुलायम सिंह यादव को यह मंजूर नहीं था. विवाद बढ़ा. लोकदल के अधिकांश विधायकों ने अजित सिंह के इशारे पर बैठक बुलाई. बैठक में मुलायम सिंह को नेता विपक्ष के पद से हटा दिया गया. उनकी जगह अजित सिंह के करीबी सत्यपाल सिंह यादव को अपना नेता चुन लिया. सत्यपाल सिंह यादव विधानसभा में विपक्ष के नेता बन गए. पार्टी में फूट पड़ने लगी.
इसी बीच 29 मई 1987 को पार्टी अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह का देहांत हो गया. इसके बाद पार्टी भी टूट गई. लोकदल (अ) और लोकदल (ब) में. अजित गुट और बहुगुणा गुट. देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, मुलायम सिंह, शरद यादव और नाथूराम मिर्धा जैसे बड़े नेता बहुगुणा के साथ चले गए. लेकिन UP के अधिकतर विधायक अजित सिंह के साथ रहे. इस बीच अजित सिंह 'अध्यक्ष जी' की शरण में जाने की तैयारी करने लगे.
अजित सिंह के लोकदल अध्यक्ष बनने की प्रक्रिया काफी विवादित रही थी. (फोटो- India Today)
चंद्रशेखर से साथ और अलगाव ये वो दौर था, जब जनता पार्टी के अंदरूनी हालात भी कमोबेश लोकदल जैसे ही थे. जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के बीच पार्टी पर कब्जे की रस्साकशी चरम पर थी. हेगड़े का पॉलिटिकल करियर उन दिनों काफी चमक रहा था. पार्टी और पार्टी के बाहर के उनके खुशामदियों ने उन्हें दिल्ली में 'टॉप जॉब' की दावेदारी का सपना दिखा दिया. लेकिन इस राह में सबसे बड़ी बाधा उनके 'अध्यक्ष जी' यानी चंद्रशेखर ही थे. इसी बीच राजस्थान में हुआ रूप कंवर देवराला सती कांड. इस कांड का जनता पार्टी के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष कल्याण सिंह कालवी ने समर्थन कर दिया. उनके इस समर्थन को लेकर जनता पार्टी में बवाल मच गया और कालवी के खिलाफ कार्रवाई की मांग की जाने लगी. लेकिन तब चंद्रशेखर, कालवी के बचाव में उतर गए. नतीजतन मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीस, सुरेन्द्र मोहन, जयपाल रेड्डी, बीजू पटनायक सब चंद्रशेखर के खिलाफ हो गए. उनपर अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा. तभी चंद्रशेखर ने अपना दांव चल दिया. उन्होंने अजित सिंह के नेतृत्व वाले लोकदल (अ) को जनता पार्टी में मर्ज करवा दिया. कुछ समय में ही अजित सिंह को पार्टी प्रेसिडेंट बना दिया.
इसी दौर में बोफ़ोर्स का बवाल भी सामने आ गया. कांग्रेस से निकाले गए वी पी सिंह और उनके जनमोर्चा के साथियों (अरूण नेहरू, विद्याचरण शुक्ल, आरिफ मोहम्मद खान वगैरह) को जनता के बीच जबरदस्त समर्थन मिलने लगा. लेकिन उनके साथ दिक्कत यह थी कि आगामी चुनाव में इस जनसमर्थन को वोट में बदलने के लिए कोई संगठन नहीं था. जनता पार्टी और लोकदल के बीच यह सहमति बनने लगी कि 'क्यों न वीपी सिंह के नेतृत्व में एकजुट होकर एक दल बना लिया जाए.' लेकिन इन दोनों दलों में चंद्रशेखर ही अकेले थे, जो वीपी सिंह को नेता मानने के सख्त खिलाफ थे. इस मुद्दे पर अजित सिंह भी चंद्रशेखर का साथ छोड़ गए. अंततः चंद्रशेखर को भी झुकना पड़ा. 11 अक्टूबर 1988 को बैंगलोर में जनता पार्टी, जनमोर्चा और लोकदल के मर्जर से जनता दल का गठन हुआ. वीपी सिंह को जनता दल का अध्यक्ष और अजित सिंह को प्रधान महासचिव बनाया गया. लेकिन अजित सिंह के इस पाला बदल पर चंद्रशेखर ने उन्हें माफ नहीं किया. अजित बनाम मुलायम 1989 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव. 425 सदस्यों की विधानसभा में जनता दल को 208 सीटें मिली थीं. यानी बहुमत के आंकड़े से केवल 5 कम. इतने का जुगाड़ तो निर्दलीयों से भी हो जा रहा था. चुनाव के बाद जनता दल अध्यक्ष वीपी सिंह ने एक फ़ार्मूला सुझाया. इस फार्मूले के तहत उत्तर प्रदेश में अजित सिंह को मुख्यमंत्री और मुलायम सिंह को उप-मुख्यमंत्री बनाने की बात कही गई. लेकिन मुलायम सिंह कहां मानने वाले थे. उन्हें तो ढ़ाई साल पहले वाला अपना अपमान अब भी याद था, जब अजित सिंह ने बड़े बे-आबरू कर उन्हें विपक्ष के नेता पद से हटाया था.
मुलायम सिंह ने विधायक दल के नेता पद के लिए चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. नतीजतन वीपी सिंह ने मामला मैनेज करने के लिए दिल्ली से 3 ऑब्जर्वर भेजे. प्रोफेसर मधु दंडवते, मुफ्ती मोहम्मद सईद और चिमनभाई पटेल. तीनों ने मुलायम को मनाने की बहुत कोशिशें की. लेकिन मुलायम नहीं माने. अंततः 3 दिसंबर की दोपहर लखनऊ के तिलक हाॅल में तीनों ऑब्जर्वर्स की उपस्थिति में जनता दल विधायक दल की बैठक शुरू हुई. दोपहर 2 बजे से विधायकों का तिलक हॉल पहुंचना शुरू हुआ. जनता दल के सभी 208 विधायक और 7 विधान पार्षद बैठक में पहुंचे. सीक्रेट बैलेट से वोटिंग कराई गई. मुलायम को 115 और अजित सिंह को 110 वोट मिले. मुलायम सिंह विधायक दल के नेता के चुनाव में अजित सिंह को पटखनी दे चुके थे. और ढ़ाई साल पहले के अपमान का बदला भी ले चुके थे.
5 दिसंबर 1989 को वे यूपी के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन प्रधानमंत्री और जनता दल अध्यक्ष वीपी सिंह ने अजित सिंह को निराश नहीं किया. उन्हें भी 5 दिसंबर को ही केन्द्र में कैबिनेट मंत्री बना दिया. वे उद्योग मंत्री बनाए गए.
अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के बीच की सियासी खींचतान UP के सियासी गलियारों में ख़ासी चर्चित रहती है. (फाइल फोटो- India Today)
अजित के एफर्ट का क्रेडिट नरसिंह राव ले गए वीपी सिंह सरकार में उद्योग मंत्री अजित सिंह नई इंडस्ट्रियल पाॅलिसी लेकर आए. इस इंडस्ट्रियल पॉलिसी में लाइसेंस-परमिट राज की समाप्ति का पूरा खाका खींचा गया था. इस इंडस्ट्रियल पॉलिसी में खतरनाक केमिकल और विस्फोटकों से जुड़े 8 उद्योगों को छोड़कर सभी तरह की इंडस्ट्रीज खोलने के लिए लंबी-चौड़ी कानूनी और विधायी अड़चन को एक झटके खत्म कर देने का प्रस्ताव किया गया था. अजित सिंह के निर्देश पर इस पाॅलिसी को तैयार करने में उस वक्त के इंडस्ट्री सेक्रेटरी अमरनाथ वर्मा और अन्य एक्सपर्ट्स ने पूरी मेहनत की थी. लेकिन जनता दल पूरी तरह से समाजवादियों का जमावड़ा था. इसमें वीपी सिंह और अरूण नेहरू जैसे कांग्रेसी और अमेरिका में बतौर कंप्यूटर इंजीनियर लंबा वक्त बिता चुके अजित सिंह जैसे चंद लोग ही नॉन सोशलिस्ट बैकग्राउंड के थे. लिहाजा उनकी इंडस्ट्रियल पाॅलिसी का क्या हश्र होना था, यह कहने की जरूरत नहीं है. अप्रैल 1990 में लोकसभा के पटल पर जैसे ही अजित सिंह ने नई इंडस्ट्रियल पॉलिसी रखी, हंगामा शुरू हो गया. हंगामा करने वाले लोग विपक्ष के नहीं, बल्कि उनकी अपनी ही पार्टी जनता दल और सहयोगी लेफ्ट फ्रंट के थे. नतीजतन अजित सिंह की इंडस्ट्रियल पॉलिसी ठंडे बस्ते में चली गई.
कुछ महीने बाद वीपी सिंह की सरकार मंडल और कमंडल के चक्कर में क़ुर्बान हो गई और उनकी जगह चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए. लेकिन 8 महीने बीतते-बीतते वह भी भूतपूर्व हो गए. इसके बाद पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. नरसिंह राव ने इंडस्ट्री सेक्रेटरी रहे अमरनाथ वर्मा को अपना प्रिंसीपल सेक्रेटरी बनाया. तब अमरनाथ वर्मा ने नरसिंह राव को समझाया,
"सर, अब और देर मत करिए. पूरा ड्राफ्ट तैयार पड़ा है. अर्थव्यवस्था को भी ऑक्सीजन देने की जरूरत है, इसलिए तत्काल इंडस्ट्रियल पॉलिसी को संसद की मंजूरी दिलाइए."इस पर राव के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भी अपनी सहमति दे दी. और तब जाकर जुलाई 1991 में (ऐतिहासिक बजट के चंद रोज पहले) नरसिंह राव सरकार ने बिल्कुल यही इंडस्ट्रियल पाॅलिसी लोकसभा के पटल पर रखी. इस बार भी हंगामा हुआ. कांग्रेस के अंदर और विपक्ष, दोनों जगह से. लेकिन राव डटे रहे और इंडस्ट्रियल पॉलिसी को मंजूरी दिलाई. इसके बाद देश उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में प्रवेश कर गया. लेकिन अजित सिंह की मेहनत का क्रेडिट उन्हें किसी ने नहीं दिया और सारा क्रेडिट नरसिंह राव ले उड़े. जब कांग्रेस में आए अजित सिंह 1991 के लोकसभा चुनाव में जनता दल महज 59 सीटों पर सिमट गई. वीपी सिंह राजनीति से दूर हटने लगे और जनता दल में एक नया पावर सेंटर डिवेलप हो गया. इस पावर सेंटर में शरद यादव, रामविलास पासवान और लालू यादव सबसे ताकतवर हो गए. लिहाजा कई नेता जनता दल छोड़कर अलग हो गए. 20 सांसदों के साथ अजित सिंह ने भी पार्टी छोड़ दी और पार्टी के सिंबल पर दावा ठोक दिया. नतीजतन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने जनता दल का चुनाव चिन्ह 'चक्कर' को फ्रीज कर दिया. जनता दल (अ) यानी अजित गुट को कलम-दवात जबकि जनता दल (ब) यानी बोम्मई गुट को कप-प्लेट छाप चुनाव चिन्ह अलाॅट किया गया.
लेकिन अजित सिंह अपने गुट को एकजुट नहीं रख सके और नरसिंह राव ने उनके गुट में सेंध लगा दी. इसी बीच जुलाई 1993 में नरसिंह राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया गया. इस अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार बचाने के लिए नरसिंह राव ने अजित सिंह को अपने पाले में लाने की कोशिश की. लेकिन अजित सिंह इस मामले पर विपक्ष के साथ चले गए. उनके इस रुख़ पर अजित सिंह के गुट के सांसद रामलखन सिंह यादव नाराज हो गए. रामलखन सिंह यादव पुराने कांग्रेसी थे और नरसिंह राव से उनकी गहरी छनती थी. अंततः रामलखन सिंह यादव जनता दल (अ) के 7 सांसदों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए और सरकार बच गई. इसके कुछ महीनों के बाद अजित सिंह भी अपनी बची-खुची पार्टी समेत कांग्रेस में चले गए और नरसिंह राव ने उन्हें खाद्य मंत्री बना दिया. मौसम वैज्ञानिक बनने का दौर यूं तो भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान को सबसे बड़ा 'मौसम वैज्ञानिक' कहा जाता है. लेकिन अजित सिंह भी इस मामले में पासवान से कम नहीं हैं. और इसका सबूत उन्होंने 1996 में ही दे दिया था. जब नरसिंह राव के हाथ से सत्ता फिसलते ही उन्होंने कांग्रेस पार्टी से हाथ जोड़ लिए. मतलब यहां से भी राम-राम हो गई. इसके बाद भारतीय किसान कामगार पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाई और कुछ महीनों बाद अपनी ही छोड़ी बागपत सीट से उपचुनाव जीतकर फिर लोकसभा पहुंचे. इस नई पार्टी को भारतीय किसान यूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत का भी समर्थन मिला था. टिकैत ने अजित सिंह के साथ मिलकर कई किसान रैलियां भी की थी. उनकी नई पार्टी संयुक्त मोर्चे का हिस्सा बन गई. लेकिन अफसोस, अजित सिंह को मंत्री नहीं बनाया गया.
आगे चलकर उनकी पार्टी का नाम राष्ट्रीय लोकदल हो गया और इसी पार्टी के टिकट पर 1998 का चुनाव वे भाजपा के सोमपाल शास्त्री से हार बैठे. यह उनकी पहली चुनावी हार थी. लेकिन 13 महीने बाद ही मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई और उन्हें फिर लोकसभा जाने का मौका मिल गया. लोकसभा पहुंचने के बाद एक-डेढ़ साल तो वे ऐसे ही रहे. लेकिन 2001 में NDA संयोजक जार्ज फर्नांडीस उन्हें एनडीए में लेकर आ गए. वाजपेयी सरकार में उन्हें कृषि मंत्री बना दिया गया.
अजित सिंह की एक वक्त आडवाणी से भी नज़दीकियां रहीं. वे NDA सरकार में मंत्री भी बने. (फाइल फोटो- PTI)
मुलायम से दोस्ती 2003 आते-आते अजित सिंह और मुलायम सिंह दोस्त बन गए. दोनों के बीच दोस्ती कराने में अहम रोल अदा किया चंद्रशेखर ने. इसके बाद अगस्त 2003 में 'दोस्त' मुलायम को मुख्यमंत्री बनाने के लिए अजित सिंह ने एनडीए और सरकार - दोनों छोड़ दी. उस दौर में उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के 14 विधायक थे. अजित सिंह ने इन विधायकों की तरफ से मुलायम सिंह को समर्थन देने की चिट्ठी राजभवन पहुंचा दी. मुलायम तीसरी बार मुख्यमंत्री बन गए. इसके बाद अजित सिंह और मुलायम सिंह की दोस्ती 2004 के लोकसभा चुनाव तक कायम रही. अजित सिंह एक बार फिर बागपत से लोकसभा पहुंचे. लेकिन धीरे-धीरे अमर सिंह से उनकी दूरी बढ़ने लगी. एनडीए और यूपीए में दौड़ा-दौड़ी यह 2008 का साल और जुलाई का महीना था. लेफ्ट फ्रंट न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले चुका था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सदन में विश्वास मत हासिल करना था. यूपीए के मैनेजर्स बहुमत के जुगाड़ में लग गए. 39 सांसदों वाली सपा का समर्थन उन्हें मिल भी गया. लेकिन अभी कुछ और सांसदों का जुगाड़ करना था. ऐसे में अजित सिंह से संपर्क किया गया. उनकी पार्टी के 3 सांसद थे. इसी बीच आनन-फानन में लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट का नाम बदलकर चौधरी चरण सिंह एयरपोर्ट किया गया. लेकिन अजित सिंह तब भी नहीं मानें. उन्होंने साफ-साफ कहा,
"कांग्रेस को अमर सिंह चला रहे हैं. इसलिए ऐसी सरकार जिसे अमर सिंह चलाएं, उसे मैं सपोर्ट नहीं कर सकता."फिर भी यूपीए सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया. इसके बाद 2009 के चुनावों में RLD ने भाजपा के साथ गठबंधन कर 7 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटें हासिल की. इसी चुनाव में बेटे जयंत चौधरी को भी लॉन्च किया. जयंत ने भी मथुरा सीट जीती. लेकिन फिर 2011 आते-आते अजित सिंह यूपीए के साथ थे. दिसंबर 2011 में मनमोहन सिंह सरकार में उन्हें नागरिक उड्डयन का महकमा भी मिला.
तमाम बार की ना-नुकुर के बाद आख़िरकार 2011 में अजित सिंह UPA का भी हिस्सा बने. मंत्री पद भी मिला. (फाइल फोटो- PTI)
मुजफ्फरनगर दंगों ने सियासत चौपट की चौधरी चरण सिंह की सियासी चौधराहट का सबसे बड़ा आधार था जाट-मुस्लिम समीकरण. अजित सिंह ने भी इस समीकरण को टूटने नहीं दिया था. लेकिन 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने पूरा खेल पलट दिया. जाट-मुस्लिम एकता पूरी तरह दरक गई. और साथ ही दरक गई अजित सिंह की सियासी जमीन. 2014 में बाप-बेटे को हराने के लिए अमित शाह ने दांव चला. बागपत में अजित सिंह के खिलाफ लड़ाया मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह को जबकि बेटे जयंत के खिलाफ मथुरा में हेमा मालिनी को उतार दिया. नतीजा यह हुआ कि दोनों बाप-बेटे अपनी अपनी सीट हार गए. यहां तक कि 2019 में भी संभल नहीं पाए.
अजित सिंह का 6 मई 2021 को कोविड-19 के चलते निधन हो गया.