फ्रांस के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 जुलाई को ‘बास्तील डे परेड’ में बतौर चीफ गेस्ट हिस्सा लिया. ऐसा आमतौर पर नहीं होता. फ़्रांस बहुत कम ही किसी विदेशी मेहमान को बास्तील डे पर बुलाता है. ऐसे में दिलचस्प बढ़ती है कि बास्तील डे फ्रांस के लिए इतना खास क्यों है और इसका इतिहास क्या है.
गवर्नर का सिर कलम कर रखी गई थी फ्रांसीसी क्रांति की बुनियाद, क्या है बास्तील की परेड का इतिहास?
फ्रांस के दौरे पर गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 जुलाई को ‘बास्तील डे परेड’ में बतौर चीफ गेस्ट हिस्सा लिया.
एक कहानी सुनिए
रानी ने सुना, ‘जनता की थाली में रोटी नहीं है.’
रानी ने जवाब दिया, 'रोटी नहीं है तो क्या हुआ? उन्हें कहो कि वे केक खाएं.'
पॉपुलर कल्चर में इस पंक्ति को 18वीं सदी में फ़्रांस की महारानी रहीं क़्वीन मैरी अंतोनिए से जोड़ा जाता है. हालांकि, इतिहासकार इसको लेकर एकमत नहीं हैं. कई मानते हैं कि उनसे काफ़ी पहले ये कथन अस्तित्व में आ चुका था.
दरअसल, फ़्रांस में अनाज की कमी को लेकर दंगों का रेकॉर्ड काफ़ी पुराना था. एक कहानी 1529 की है. जब ल्योन शहर में हज़ारों लोगों ने शहर के रईसों को लूट लिया. फिर सरकारी खज़ाने में जमा अनाज को गलियों में बिखेर दिया.
18वीं सदी में इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी गई. फ़्रांस में अनाज की पैदावार की तुलना में आबादी काफ़ी बढ़ गई थी. राजा ने दरबारियों की सलाह पर अनाज के दाम बढ़ा दिए. उन्हें लगा कि इससे बेकाबू हो रही स्थिति को कंट्रोल किया जा सकता है. लेकिन इसका उलटा असर हुआ. अनाज की कमी और महंगाई से नाराज़ जनता ने बग़ावत कर दी. 1775 में तीन हफ़्ते के दौरान 300 से अधिक दंगे रेकॉर्ड किए गए. इस घटना को ‘फ़्लॉर वॉर’ (आटे की जंग) कहा जाता है.
फिर आया 1788 का साल. फसल खराब हुई. पूरे देश में अकाल फैला. रोटी की कीमतें आसमान छूने लगीं. एक समय औसत जनता अपनी कमाई का लगभग 88 प्रतिशत हिस्सा रोटी खरीदने पर खर्च कर रही थी. इससे आक्रोश पैदा हुआ. दंगे बढ़ने लगे. ये फ़्रांस के राजा लुई 16वें का दौर था. उसके पहले फ़्रांस के राजा रहे लुई 15वें ने ऑस्ट्रिया की विरासत की लड़ाई में हिस्सा लिया और लुई 14वें ने तो लगातार कई युद्ध लड़े थे. इस कारण शाही कोष काफी हद तक खाली हो चुका था.
फिर लुई 16वें के दौर में ही अमेरिका में आजादी की लड़ाई जारी थी. फ्रांस ने उसका साथ दिया था. लेकिन फंड करने के चलते उस पर भारी कर्ज आ गया. उधर फ़्रांस के संपन्न लोग टैक्स नहीं दे रहे थे. ये बोझ भी आम जनता पर था. जंग में मसरूफ़ियत के अलावा लुई को अपने पुरखों से विरासत में आरामतलबी भी मिली. वो आम जनता से कटे हुए, खुद में अलमस्त थे.
जब दंगों का संकट खड़ा हुआ तो लुई 16वें ने वित्तीय सलाहकारों से मशवरा किया. आर्थिक संकट दूर हो इसलिए विशेषाधिकार प्राप्त लोगों (कुलीन लोग) से टैक्स मांगा गया. लेकिन राजा का ये प्रयास सफल नहीं हुआ. उच्च वर्ग ने अपने ऊपर कर लगाने की बात नहीं मानी. इसके बाद लुई ने एस्टेट्स-जनरल की बैठक बुलाई. ये एक तरह की संसद थी जो राजा की मर्ज़ी से काम करती थी. एस्टेट्स-जनरल को तीन हिस्सों बांटा गया था- चर्च, कुलीन और आम लोग. थर्ड एस्टेट 97 प्रतिशत आम जनता का प्रतिनिधित्व करती थी. मगर उनका दर्जा चर्च और कुलीन एस्टेट से नीचे था. उनकी राय को आसानी से दरकिनार किया जा सकता था. 1789 की बैठक में उन्होंने शक्तियां बढ़ाने की मांग की. लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गई. उल्टा एस्टेट्स-जनरल का दरवाज़ा बंद कर दिया गया.
बास्तील का पतन20 जून 1789. थर्ड एस्टेट के प्रतिनिधि पास के टेनिस कोर्ट में इकट्ठा हुए. उन्होंने खुद को राष्ट्रीय सभा घोषित कर दिया और नया संविधान और नई संसद बनाने की शपथ ली. कहा कि हम कभी अलग नहीं होंगे. और जब तक संविधान नहीं बन जाता, तब तक साथ बने रहेंगे. इसे टेनिस कोर्ट की शपथ के नाम से जाना जाता है. बाद में चर्च और कुलीन धड़े के कई सांसदों ने थर्ड एस्टेट को जॉइन कर लिया. हारकर राजा को राष्ट्रीय सभा को मान्यता देनी पड़ी. लेकिन राजा अपना वर्चस्व छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे. उन्होंने पेरिस में आर्मी बुला ली और सुधार का इरादा रखने वाले मंत्रियों को बर्खास्त करना शुरू किया. इनमें सबसे ख़ास थे वित्तीय मामलों के मंत्री नेकर'. जनता इन्हें अपना समर्थक मानती थी.
12 जुलाई को जनता के सब्र का बांध टूट गया. उन्होंने सरकारी दफ़्तरों में आग लगा दी. हथियार लूट लिए. फिर उनका ध्यान बास्तील के किले की तरफ़ गया. खबर फ़ैली कि यहां राजा ने शस्त्रों का भंडार बना रखा है. इस किले को 14वीं सदी में ब्रिटेन से चल रहे युद्ध के दौरान बनाया गया था. 15वीं सदी में इसे शाही जेल में बदल दिया गया जिसमें कई जाने-माने राजनैतिक क़ैदियों को रखा गया.
लुई का शासन आते-आते जेल को बंद करने का आदेश जारी हो चुका था. जुलाई 1789 में पूरी जेल में 7 क़ैदी बचे थे. मगर आम लोग इसे तानाशाही के प्रतीक के तौर पर देखते थे. 14 जुलाई को उन्होंने बास्तील की तरफ़ कूच किया. उन्होंने किले की चाबी सौंपने की मांग की. लेकिन बास्तील के गवर्नर ने फ़ायरिंग कर दी. इससे लोग भड़क गए. उन्होंने अंदर घुसकर किले पर कब्ज़ा कर लिया. कैदियों को आजाद कर दिया गया. बाद में भीड़ ने गवर्नर की हत्या कर दी.
16 जुलाई को पेरिस में ब्रिटेन के राजदूत लॉर्ड डॉरसेट ने रिपोर्ट भेजी. लिखा,
“14 जुलाई की सुबह वेटरन सैनिकों के रिटायरमेंट होम पर कब्ज़ा हो चुका था. वहां रखे तोपों और दूसरे हथियारों को ज़ब्त कर लिया गया. शाम में दो तोपों के साथ भीड़ बास्तील गई. उन्होंने वहां जमा हथियारों को सौंपने के लिए कहा. शांति का पैगाम अंदर भेजा गया और वहां से जवाब भी आया. इन सबके बावजूद गवर्नर ने गोलीबारी की. इसमें कई लोग मारे गए. इससे लोग आक्रोशित हो गए. वे किले के दरवाज़े को तोड़ने की कोशिश करने लगे. फिर गवर्नर ने कुछ लोगों को अंदर आने की इजाज़त दी. इस शर्त पर कि कोई हिंसा नहीं करेगा. लेकिन समझौते का पालन नहीं हुआ. लोगों की हत्या की गई. जिसके बाद लोगों की नाराज़गी इतनी बढ़ी कि गवर्नर को सरेंडर करना पड़ा. कुछ देर तक चले ट्रायल के बाद गवर्नर का सिर कलम कर दिया गया. अगर ठीक-ठीक कहा जाए तो इस घटना में बहुत कम जानें गईं. इस क्षण से हमें मान लेना चाहिए कि फ़्रांस एक आज़ाद मुल्क़ बन चुका है; राजा की शक्ति सीमित हो चुकी है और कुलीन लोग आम जनता के बराबर हो चुके हैं."
फ़्रांस की क्रांति का अंतिम नतीजा आने में कई महीने बाकी थे. लेकिन बास्तील के पतन ने सांकेतिक तौर पर क्रांति की नींव रख दी थी. इसीलिए 14 जुलाई की तारीख़ को फ़्रांस में आज़ादी की सालगिरह के तौर पर सेलिब्रेट किया जाता है. 1880 के बाद से हर साल इस मौके पर मिलिट्री परेड निकलती है. पब्लिक हॉलिडे होता है. इस रोज़ होने वाली आतिशबाजी भी काफ़ी चर्चित है. लेकिन इस बार दंगों के कारण पटाखों की खरीद पर रोक लगा दी गई है.
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