आज ही के दिन यानी 16 अगस्त 1958 को पाथेर पांचाली को वैंकूवर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में बेस्ट फ़िल्म सहित 5 अवार्ड मिले थे. हालांकि इससे पहले ही ये फ़िल्म कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी छाप छोड़ चुकी थी. कान सहित गोल्डन ग्लोब जैसे कई बड़े अवार्ड इसे पहले ही मिल चुके थे. बोड़ो पिशी क़िस्से की शुरुआत इसी फ़िल्म के एक सीन से,
पड़ोस से अमरूद चुराकर दुर्गा उसे अपनी ‘बोड़ो पिशी’ यानी बड़ी बुआ इंदिर ठाकुरन की मटकी में रख देती है. मां को पता चलता है तो मां शर्म-ओ-लिहाज़ की दुहाई देती है. दुर्गा चुपचाप अमरूद वापस लौटा देती है. ठाकुरन ने अभी-अभी खाना खाया है. पिता घर से दूर हैं. ग़रीबी और लाचारी की हालत है. और मां को चिंता है, ठाकुरन इतना खाएगी तो घर कैसे चलेगा.ज़रूरत, शर्म और इज्जत. ये तीन शब्द मिलकर इस फ़िल्म की थीम बनाते हैं. देखा जाए तो सत्यजीत की सारी फ़िल्मों में इंसानी ज़रूरतों और उससे पैदा होने वाली लाचारी की झलक मिलती है. और ये केवल फ़िल्म की थीम ही नहीं थी. फ़िल्म बनाने के दौरान भी ‘रे’ को पैसों की ज़रूरत और कमी जैसे मसलों से रूबरू होना पड़ा.

फ़िल्म का एक दृश्य (तस्वीर: IMDB)
पाथेर पांचाली बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय के इसी नाम के एक उपन्यास पर आधारित है. 1943 में जब रे ने इस उपन्यास को पढ़ा, तब फ़िल्म बनाने का ख़्याल उनके दिमाग़ में नही था. 1950 में जब वे एक ऐड एजेंसी के काम से लंदन गए, उन्होंने वहां 'विट्टोरियो डी सीका’ की महान फ़िल्म ‘बाइसिकिल थीव्ज़’ देखी. वे इस फ़िल्म से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने पाथेर पांचाली पर फ़िल्म बनाने का निर्णय कर लिया. उन्होंने तय किया कि जब भी अपनी फ़िल्म बनाएंगे तो उसमें ऐसे ही नेचुरल लोकेशंस और अज्ञात एक्टर्स होंगे. लंदन प्रवास के दौरान उन्होंने कुल 99 फ़िल्में देखीं. उन दिनों इटली का सिनेमा नव-यथार्थवाद (Neo-realism) के दौर से गुजर रहा था. जिसमें गरीब और वर्किंग क्लास की कहानियां दिखाई जाती थी. रे इससे बहुत प्रभावित थे और पाथेर पांचाली के निर्देशन में भी इसी नव-यथार्थवाद की झलक मिलती है.
1949 में फ़्रेंच फ़िल्म निर्माता ‘जीन रेन्वा’ एक फ़िल्म की शूटिंग के सिलसिले में कलकत्ता आए. रे फ़िल्म की लोकेशन ढूंढने में उनकी मदद कर रहे थे. उसी दौरान ‘रे’ ने रेन्वा को पाथेर पांचाली के बारे में बताया. रेन्वा ने उनसे कहा कि उन्हें ज़रूर इस कहानी पर एक फ़िल्म बनानी चाहिए. लेकिन फ़िल्म बनाने को पैसे चाहिए थे, और तब कोई प्रोडक्शन हाउस तो था नहीं. रे ने डिसाइड किया कि वो खुद ही फ़िल्म को प्रोड्यूस भी करेंगे. इसके लिए उन्होंने अपनी LIC को गिरवी रखा. अपने LP रिकॉर्ड बेचे. यहां तक कि उनकी पत्नी को अपने गहने भी गिरवी रखने पड़े. शूटिंग की शुरुआत फ़िल्म की शूटिंग शुरू हुई 1952 में. फ़िल्म के लिए एक अदद स्क्रिप्ट भी मौजूद नहीं थी. फ़िल्म की शूटिंग के दौरान रे ने सिर्फ़ कुछ नोट्स और ड्रॉइंग्स की मदद ली. फ़िल्म का बजट भी कम था. इसलिए लोकेशन और कलाकारों पर ज़्यादा खर्च नहीं किया गया. फ़िल्म में प्रोफेशनल एक्टर के नाम पर सिर्फ़ एक व्यक्ति था. अपु का किरदार निभाने वाले सुबीर बैनर्जी भी रे के पड़ोस में ही रहते थे.
बजट की कमी के कारण शूटिंग को दो बार रोकना पड़ा. इसमें पूरे 18 महीने बर्बाद हो गए. राधा और अपु का किरदार निभाने वाले ऐक्टर उम्र में छोटे थे. इस उम्र में 1-2 साल में ही आवाज़ और चेहरे में बहुत अंतर आ जाता है. रे को डर था कि फ़िल्म की शूटिंग अगर वक्त पर पूरी नहीं हुई, तो दुर्गा और अपु की उम्र और आवाज़ में अंतर आ जाएगा. जिसकी वजह से फ़िल्म में डिस्कन्टिन्यूइटी आ जाएगी. इसके अलावा इंदिर ठाकुरन का किरदार निभाने वाली ऐक्टर भी बहुत बूढ़ी थीं. उनका नाम था चुन्नीबाला देवी. वो छोटे-मोटे रोल करने वाली एक स्टेज ऐक्ट्रेस थी जिन्होंने बहुत सालों से काम नहीं किया था. रे के कहने पर वो इस रोल के लिए झट से तैयार हो गईं. मेहनताने के तौर पर उन्हें सिर्फ़ बीस रुपए प्रतिदिन और शाम की चाय के साथ अफ़ीम की खुराक चाहिए थी.

इंदिर ठाकुरन के रोल में चुन्नीबाला देवी (तस्वीर: IMDB)
फ़िल्म की शूटिंग दुबारा चालू हो, इसके लिए ‘सत्यजीत रे’ ने कई प्रयास किए. लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली. तब किसी ने उन्हें सलाह दी कि वो बी.सी. रॉय से मिलें. रॉय उन दिनों बंगाल के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. ‘सत्यजीत रे’ ने उनसे मुलाक़ात कर उन्हें फ़िल्म की कुछ फ़ुटेज दिखाई. फ़िल्म के सीन्स, ख़ासकर रोड वाले सीन्स को देखकर उन्हें लगा कि फ़िल्म का सब्जेक्ट गांव की सड़कों के विकास के ऊपर है. ख़ासकर फ़िल्म के टाइटल को देखकर. तब रॉय ने ‘होम पब्लिसिटी डिपार्टमेंट’ से फ़िल्म की फ़ंडिंग जुटाने को कहा. फ़िल्म की शूटिंग के लिए 2 लाख रुपए दे दिए गए. और इस तरह बंगाल सरकार फ़िल्म की ऑफ़िशियल प्रोड्यूसर बन गई. इसके बाद फ़िल्म बनकर तैयार हुई और 26 अगस्त 1956 को रिलीज़ भी हो गई.
लेकिन इसके रिलीज़ होने से पहले ही चुन्नीबाला देवी, जिन्होंने इंदिर ठाकुरन का किरदार निभाया था, वो चल बसीं.
फ़िल्म में एक सीन है, जिसमें इंदिर ठाकुरन, राधा की मां के तानों से तंग आकर कहती है,
‘मुझसे पहले जो लोग आए, वो जा चुके हैं. बस मैं पीछे छूट गई हूं. एक भिखारन, जिसके पास एक भी कौड़ी नहीं है. देखो मेरा बटुआ भी खाली है. ईश्वर! दिन ख़त्म हो गया है और शाम आ गई है. अब मुझे भी पार लगाकर उस किनारे पहुंचा दे.’यूं तो ये सिर्फ़ फ़िल्म का डायलॉग था. लेकिन आयरनी देखिए कि फ़िल्म की शूटिंग पूरी होते ही ये पुकार सुन ली गई. रे कहते हैं कि ये लगभग एक चमत्कार था कि चुन्नीबाला फ़िल्म की शूटिंग पूरी होने तक किसी तरह बची रहीं. अंतिम दिनों में उनकी हालत इतनी ख़राब थी कि रे ने उनके लिए स्क्रीनिंग का इंतज़ाम उनके घर पर ही करवाया. लोगों का रिएक्शन फ़िल्म जब सिनेमाघरों में लगी, पहले तीन हफ़्ते सुस्त पड़ी रही. लेकिन उसके बाद फ़िल्म ने ज़बरदस्त रफ़्तार पकड़ी. 2 लाख रुपये लगाने वाली बंगाल सरकार ने फ़िल्म से कई गुना पैसे कमाए. जिसमें से 9 लाख की कमाई तो विदेशों से हुई थी. 1958 में जब फ़िल्म न्यू यॉर्क में रिलीज़ हुई तो फ़िफ़्थ एवेन्यू सिनेमा में आठ हफ़्तों तक लगी रही. फ़िल्म को लेकर लोगों के अलग-अलग रिस्पॉन्स थे. कुछ को फ़िल्म बहुत अच्छी लगी, तो कुछ ने फ़िल्म की स्लो स्पीड को लेकर शिकायत की.

सत्यजीत रे और पंडित रविशंकर (तस्वीर: Wikimedia)
इस दौरान कुछ अजीब वाक़िये भी हुए. कुछ अमेरिकी लोग पहली बार कोई भारतीय फ़िल्म देख रहे थे. फ़िल्म में जब खाने का सीन आया तो कुछ लोग बीच फ़िल्म से उठकर चले गए. कारण था कि फ़िल्म में लोग अपनी उंगलियों से खाना ख़ा रहे थे. ये देखकर उन्हें बहुत अजीब लगा क्योंकि वे पहली बार किसी को ऐसा करते हुए देख रहे थे.
1956 में पाथेर पांचाली कान में प्रदर्शित हुई. फ़िल्म की स्क्रीनिंग का टाइम आधी रात को रखा गया था. तब तक ज्यूरी के लोग 4 फ़ीचर फ़िल्म देख चुके थे. भारतीय फ़िल्मों के प्रति वैसे ही कुछ उत्साह न था. तो ज्यूरी के अधिकतर लोगों ने सोचा, चलो इसे स्किप कर दिया जाए. फिर भी कुछ लोग फ़िल्म देखने को रुके रहे. उन्हें फ़िल्म इतनी पसंद आई कि उन्होंने अगले दिन फ़िल्म की एक और स्क्रीनिंग रखवाई. जिसके बाद पूरी ज्यूरी ने इसे देखा और फ़िल्म को ‘best human document’ का विशेष पुरस्कार दिया गया.
इसके अलावा फ़िल्म ने भारत में नैशनल अवार्ड फ़ॉर बेस्ट फ़ीचर फ़िल्म भी जीता. इसके बाद सत्यजीत रे ने इसी कड़ी में दो और फ़िल्में बनाईं. ‘अपराजितो’ और ‘अपुर संसार’. इन तीन फ़िल्मों को ‘अपु ट्रिलॉजी’ के नाम से जाना जाता है. सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म ब्रिटिश फ़िल्म इतिहासकार 'पनैलपी ह्यूस्टन' ने पाथेर पांचाली देखकर 1963 में कहा था,
‘सत्यजीत का सिनेमा ही आगे चलकर भारत का सिनेमा होगा’.लेकिन ना ‘विट्टोरियो डी सीका’ की ‘बाइसिकिल थीव्ज़’ इटली के सिनेमा को बदल सकी. ना उनसे प्रेरणा पाने वाले सत्यजीत भारतीय सिनेमा को बदल पाए.
जैसा कि अमूमन भारत की सभी महान हस्तियों के साथ होता है. ‘पाथेर पांचाली’ चाहे हमने देखी हो या ना देखी हो, लेकिन ‘सत्यजीत रे’ का काम हमें छाती फुलाने का मौक़ा देता है. देखो! 'मार्टिन स्कॉरसेज़ी' ने एक भारतीय फ़िल्मकार को महान कहा.

सत्यजीत रे और अकिरा कुरोसावा (तस्वीर: wikimedia)
मार्टिन स्कॉरसेज़ी, अमेरिका के एक बड़े निर्देशक हैं, जिन्होंने ‘टैक्सी ड्राइवर’ और ‘गुडफैलाज' जैसी महान फ़िल्में बनाई हैं. 2002 में दिए गए एक इंटरव्यू में स्कॉरसेज़ी ने बताया कि उनके अनुसार ‘सत्यजीत रे’ 20वीं सदी के शीर्ष-10 डायरेक्टर्स में से एक हैं. जब पाथेर पांचाली रिलीज़ हुई तब स्कॉरसेज़ी 15 साल के थे. उन्होंने ये फ़िल्म TV में देखी थी. उनका कहना था –
'मैं कामगार लोगों के परिवार से आता हूं और मेरे घर में किताबें वगैरह नहीं होती थीं. ऐसे में मुझे भारतीय संस्कृति से परिचय करवाने वाली फ़िल्म यही थी. और सिसिलियन अमेरिकी परिवार से आने के बावजूद मैंने पाया कि मैं इस फ़िल्म में दिख रहे भारतीय परिवार से ख़ुद को रिलेट कर पा रहा हूं.'जापान के महान निर्देशक ‘अकिरा कुरोसावा’ ने ‘सत्यजीत रे’ की फ़िल्मों के लिए कहा है,
‘रे की फ़िल्में ना देखना ऐसा है जैसे आप बिना चांद और सूरज को देखे दुनिया से चले जाएं'रीसेंट हिस्ट्री की बात करें तो 2019 में 'क्रिस्टोफर नोलन' जब अपनी फ़िल्म ‘टेनेट’ की शूटिंग के लिए भारत आए तो उन्होंने कहा,
‘मुझे ‘पाथेर पांचाली’ देखने का मौक़ा मिला. मुझे लगता है कि ये फ़िल्म कला का बेहतरीन नमूना है. शायद ये अब तक बनाई गई सभी फ़िल्मों में सबसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म है.’‘सत्यजीत रे’ ने 5 डाक्यूमेंट्री और दो शॉर्ट फ़िल्मों सहित कुल 36 फ़िल्में डायरेक्ट की हैं. अब ज़रा सोचिए भारतीय फ़िल्मों की लिस्ट में सबसे ऊंचे स्थान पर आने वाली इन फ़िल्मों में से आपने कितनी देखी हैं?