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जानिए हिंदू पंचाग क्यों दुनिया का सबसे साइंटिफिक कैलेंडर है

राहु-केतु, ग्रह-नक्षत्रों पर सबसे धांसू जानकारी पढ़ने का शुभ मुहूर्त यही है.

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लेफ़्ट में राहु की प्रतिमा (थाईलैंड)
जिससे बात करो, वो 2020 को भुला देना चाहता है और 2021 का दिल से स्वागत करना चाहता है. हालांकि नए वर्ष का स्वागत कोई नई बात नहीं है, लेकिन अबकी ये इंतज़ार कुछ ज़्यादा ही दिख रहा है. कारण हम सभी जानते हैं.
डर ये भी है कि जिस कारण के चलते 2020 को ज़ल्द से ज़ल्द बिता देना चाहते हैं, न जाने वो नए वर्ष में बदले न बदले. वैसे नए वर्ष में कुछ बदले न बदले, एक चीज़ ज़रूर बदलेगी. और वो है ‘कैलेंडर’. और आज हम इसी कैलेंडर की बात लेकर आपके सामने आए हैं. लेकिन हम बात करेंगे हिंदू कैलेंडर की, ग्रेगोरियन कैलेंडर की नहीं. ग्रेगोरियन कैलेंडर माने जनवरी, फरवरी वाला कैलेंडर. जिसे हम सब यूज़ करते हैं.
कारण ये कि ग्रेगोरियन कैलेंडर के बारे में तो हम सब जानते हैं, लेकिन हिंदू कैलेंडर से बहुत कम लोग ही पूरी तरह परिचित हैं. हालांकि इसके लिए न तो दोष कैलेंडर का है न हम लोगों का. क्यूं?
इसे ऐसे समझिए, सेंसर बोर्ड द्वारा U, A, U/A वग़ैरह के अलावा एक और तरीक़े का सर्टिफिकेट भी दिया जाता है, ’S सर्टिफिकेट’. ये सर्टिफिकेट ऐसी फ़िल्मों को दिया जाता है, जो सिर्फ़ किसी स्पेसिफ़िक कैटेगरी या प्रफ़ेशन के लोगों को दिखाने के लिए बनाई जाती हैं. जैसे डॉक्टर्स के रेफ़रेंस के लिए किसी क्रिटिकल ऑपरेशन का वीडियो. अब इसे कुछ और लोग देख लें, और थोड़ी बहुत समझ भी जाएं तो किसी को क्या ही दिक्कत है. ठीक ऐसे ही हिंदू कैलेंडर भी है. मतलब, सभी कैलेंडर्स के बीच S सर्टिफिकेट प्राप्त.
तो ये कहना कि हिंदू कैलेंडर सिर्फ़ पंडितों, हिंदू त्योहारों और भविष्यवक्ताओं तक सीमित रह गया है, अनुचित होगा. हां, ऐसा ज़रूर कहा जा सकता है कि ग्रेगोरियन कैलेंडर की तरह आसान न होने के चलते, इसके सारे डायमेंशन हर एक के समझ में नहीं आते. लेकिन इसमें न ही इस कैलेंडर का और न ही इसे न समझने वाले का दोष है.
और जैसा S सर्टिफिकेट प्राप्त फ़िल्मों के साथ है कि वो ख़ूब रिसर्च के बाद और ज़्यादातर वैज्ञानिक आधार पर बनाई गई होती हैं. रोज़मर्रा की चीज़ों को आसान करने के लिए या एंटरटेनमेंट के लिए नहीं, गूढ़ चीज़ों को समझने-समझाने के लिए बनाई जाती हैं. वैसा ही कुछ हिसाब-किताब हिंदू कैलंडर का भी है.
भारत में सेंसर बोर्ड एक S तरीक़े का भी सर्टिफिकेट देता है. भारत में सेंसर बोर्ड एक S तरीक़े का भी सर्टिफिकेट देता है.


तो सवाल ये कि, क्या इसे दुनिया का सबसे साइंटिफिक ‘टाइम कीपिंग’ यंत्र कहा जा सकता है. इस मामले में सबकी राय अलग-अलग हो सकती है, लेकिन जितनी रिसर्च मैंने की है, मेरी निजी राय में इसका उत्तर ‘हां’ है.
तो चलिए जानते हैं हिंदू कैलेंडर के बारे में सब कुछ, लेकिन U सर्टिफिकेट के साथ. बोले तो आसान भाषा में.

पंचांग

अभी तक जिस ‘टाइम कीपिंग’ यंत्र को हम ‘हिंदू कैलेंडर’ कह रहे थे, उसका नाम बताने का ‘मुहूर्त’, ‘नक्षत्र’, या ‘घड़ी’ आ गई है. और इसे कहते हैं, पंचांग. पंचांग क्यूं? क्यूंकि इसके पांच अंग हैं. इनके बारे में बताएंगे पर पहले पंचांग के कुछ बिल्डिंग ब्लॉक्स जान लेते हैं.
# 1) साल के 365 दिन, और चांद की 16 कलाएं
पृथ्वी सूरज के चारों ओर अपना चक्कर 365 दिन (टू बी प्रिसाईस, 365 दिन 6 घंटे और 9 मिनट) में पूरा करती है. इतने दिनों में हिंदू पंचांग में एक साल पूरा हो जाता है. ये बिलकुल ग्रेगोरियन कैलंडर की तरह ही है.
लेकिन दिक्कत और असली कैल्कुलेशन इसके बाद शुरू होती है. क्या दिक्कतें ? वही जो दो वैरिएबल वाले इक्वेशन्स को सॉल्व करने में होती है. क्यूंकि जहां ये ग्रेगोरियन कैलंडर मुख्यतः सूर्य की गति पर आधारित होता है, हिज़्री कैलंडर मुख्यतः चांद की गति पर आधारित होता है, वहीं पंचांग में चांद और सूरज दोनों को ही बराबर वरीयता दी जाती है. यानी ये चान्द्रसौर पद्धति पर चलते हैं.
चंदा मामा दूर के. (तस्वीर: इंडिया टुडे) चंदा मामा दूर के. (तस्वीर: इंडिया टुडे)


अब देखिए चांद की अपनी गतियां हैं, सूरज की अपनी, पृथ्वी की अपनी. इन सब को एक निश्चित समय (एक दिन, दो दिन, डेढ़ साल) के लिए तो एक साथ स्टडी और ट्रैक किया जा सकता है, लेकिन पंचांग एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें स्टडी रिअकरिंग यानी रिपीट मोड में होती है. इस आर्टिकल में हम ये समझने की कोशिश करेंगेते कि पंचांग ये कैसे करता है. ये जान लीजिए कि ऋग्वेद में लिखा है कि महीने चंद्र गति पर निर्भर होंगे और साल सूर्य की गति पर. हालांकि यहां पर ‘सूर्य की गति’ सापेक्षिक है. मतलब सूर्य तो पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता नहीं, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है. तो जब भी सूर्य की गति की बात हो तो अर्थ है कि सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष गति या फिर पृथ्वी की गति.
# 2) चांद की 27 पत्नियां
चांद पृथ्वी के चारों ओर चक्कर लगाता है. और उसे पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करने में 27 (स्पेसिफ़िकली 27.32) दिन लगते हैं. यूं पृथ्वी से देखने पर चांद इन 27 दिनों में अलग-अलग तारों या तारों के समूहों के साथ दिखेगा, लेकिन 28 वें दिन फिर से उसी तारे के पास दिखेगा जिस तारे के पास पहले दिन था. इन 27 तारों (या तारों के समूह) को ही नक्षत्र कहा जाता है. इसे ही आसान भाषा में समझाने के लिए उस वक़्त किसी विद्वान ने न्यूमोनिक्स का सहारा लेकर इन्हें चांद की 27 पत्नियां कह दिया होगा. और अपने स्टूडेंट्स को बताया होगा कि चांद हर 27 दिन के अंतराल में अपनी पहली पत्नी के पास वापस आ जाता है.
हालांकि कुछ विद्वानों ने चांद के 28 नक्षत्र माने हैं, शायद .32 वाले फ़िगर के चलते. पर चलिए हम चीज़ों को जितना हो सके उतना आसान बनाते हुए चलते हैं.
सन्1871-72 का पंचांग. सन् 1871-72 का पंचांग.


# 3) महीने में साढ़े उनतीस दिन-
पंचांग में महीने की गणना, चांद की पृथ्वी के चारों ओर की कक्षीय गति के आधार पर की जाती है. लेकिन फिर भी एक महीना होता है औसतन, लगभग साढ़े 29 (स्पेसिफ़िकली 29.53 या 29 दिन 12 घंटे 44 मिनट और 3 सेकेंड) दिन का.
अब लॉजिकल सवाल ये कि, ‘महीना तो फिर 27.32 दिन का होना चाहिए था 29.53 दिन का नहीं?’ इसका उत्तर ये है कि इस पंचांग को बनाने वाले प्रिसिशन के क़ायल थे. ऐसे ही थोड़े न इसे ‘सबसे ज़्यादा वैज्ञानिक’ टाइम कीपिंग कह रहे हम.
तो होता क्या है कि बेशक चांद 27.32 दिनों में धरती का एक चक्कर काट लेता है लेकिन फिर भी दो पूर्णमासी या दो अमावस्या या दो तृतीयाओं…. के बीच औसतन 29.53 दिनों का अंतर रहता है. वो इसलिए क्यूंकि पृथ्वी भी तो सूरज के चक्कर लगा रही है न, और वो अपनी कक्षा की एक दिन में एक डिग्री के क़रीब की यात्रा कर लेती है. (360/365 = .98 या क़रीब 1 डिग्री) यूं पृथ्वी का एक चक्कर 27.32 दिन में ही पूरे कर लेने के बावज़ूद चांद को सूरज और पृथ्वी के साथ सिंक होने में ढाई दिन और लगते हैं.
देखिए, चांद आज किस नक्षत्र के क़रीब है, ये तो सिर्फ़ चांद की गति पर निर्भर करेगा. लेकिन उससे आनी वाली रोशनी, उसपर बनने वाला प्रतिबिंब वग़ैरह तो सूरज, पृथ्वी और चांद तीनों पर निर्भर करेंगे न.

तो यूं, हर सत्ताईस दिन में चांद पृथ्वी का एक चक्कर लगा लेता है, इसे ‘नक्षत्र मास’ कह सकते हैं. लेकिन दो पूर्णमासी के बीच फिर भी साढ़े उनतीस दिन का अंतर होता है, इसे ‘चंद्र मास’ कह लीजिए. यूं हिंदू पंचांग में महीना ‘चांद का पृथ्वी के चारों ओर एक चक्कर’ लगा लेने यानी 'नक्षत्र मास’ पर नहीं बल्कि ‘चांद को फिर से अपनी उसी कला में वापस आने में लगे दिन’, यानी ‘चंद्र मास’ के आधार पर तय होता है.
अब चूंकि चांद की कलाएं, उसकी कक्षीय गति से सिंक नहीं करतीं तो, हर महीने चांद की पूर्णमासी, तृतीया, अमावस्या वाले दिन का नक्षत्र पिछले या अगले महीने इन्हीं दिनों के नक्षत्र से अलग होता है.
# 4) पक्ष-
एक महीने में दो पखवाड़े (फ़ोर्टनाइट) होते हैं, इन्हें पक्ष कहते हैं. यूं दो पक्ष हुए, कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष. हर पक्ष 15-15 दिन का होता है. कृष्ण, काले का पर्यायवाची है और शुक्ल सफ़ेद का. इनके नाम ऐसे इसलिए हैं क्यूंकि, कृष्ण पक्ष के दौरान चांद धीरे-धीरे घटना शुरू होता है और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन अमावस्या होती है, जबकि शुक्ल पक्ष के दौरान चांद धीरे-धीरे बढ़ना शुरू होता है और इसके अंतिम यानी पंद्रहवें दिन पूर्णमासी होती है. यूं पंचांग में दिनों की काउंटिंग 28,29,30 या 31 दिन तक नहीं सिर्फ़ पंद्रह दिनों की/तक होती है.
# 5) ’तिथि’ और ‘दिवस’ में भी अंतर है-
पंचांग में तिथियां भी लूनर (चंद्र आधारित) होती हैं और हर तिथि 24 घंटे की नहीं, 20 घंटे से लेकर 27 घंटे तक कुछ भी हो सकती है. (औसतन, 23 घंटे 36 मिनट). वैदिक खगोलशास्त्रियों को पता था कि पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा की कक्षा अण्डाकार (इलिप्टिकल) है. यूं एक तिथि (लूनर-डे) औसतन बेशक 23 घंटे 36 मिनट में बदले, लेकिन पंचांग बनाने वालों ने औसत लेने का शॉर्ट-कट न अपनाते हुए व्यवस्था रखी कि तिथि की लंबाई 20 घंटे से लेकर 27 घंटे कितनी भी हो सकती है, डिपेंड करता है कि चांद पृथ्वी के चारों ओर का कितना चक्कर लगा चुका है.
एक चक्कर 360 डिग्री का होता है, और एक चंद्र माह में 30 तिथियां होते हैं. यूं एक चंद्र दिवस मतलब, चांद पृथ्वी के सापेक्ष 12 डिग्री (360/12) की गति कर चुका है. यूं पश्चिमी टाइम-कीपिंग के उलट पंचांग में तिथि कभी भी बदल सकती है, ज़रूरी नहीं कि वो रात 12 बजे या फिर रोज़ एक ही वक्त पर बदले.
2018 का प्रथम सूर्योदय. (तस्वीर: PTI/भयंदर चौपटी, मुंबई) 2018 का प्रथम सूर्योदय. (तस्वीर: PTI/भयंदर चौपटी, मुंबई)


दूसरी ओर तिथि के अलावा पंचांग में दिवस का भी कॉन्सेप्ट है. दिवस मतलब एक सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्योदय तक का समय. मतलब 24 घंटे. अब इस तरह आपके समझ आ गया होगा कि चांद पृथ्वी के चारों ओर का एक चक्कर 30 ‘तिथियों’ और 29.53 ‘दिवसों’ में पूरा करती है.
# 6) वृद्धि तिथि, क्षय तिथि-
पंचांग में दिवस 8 प्रहरों में बांटा गया है, लेकिन तिथि बदलने में उसका कोई योगदान नहीं. हां वार बदलने में हैं. मतलब तिथियां चंद्र गतियों के हिसाब से बदलेंगी और प्रहर और वार सूर्य (के इर्द गिर्द पृथ्वी की) गति के आधार पर. सूर्य के हिसाब से आठ प्रहर हैं: पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकाल, निशिथ, त्रियामा, उषा. और सात वार हैं: सोम, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, रवि.
वैदिक शास्त्रों के अनुसार हिंदू कैलेंडर प्रणाली में ‘सप्ताह’ की कोई अवधारणा नहीं थी. ये सात दिनों की या सप्ताह की अवधारणा को तीसरी शताब्दी के आसपास यूनानियों से कॉपी किया गया था. इसलिए ही सप्ताह के हिंदू नाम अन्य इंडो-यूरोपीय कैलेंडर वाले नामों से मिलते जुलते हैं. उदाहरण के लिए सोमवार के लिए लैटिन नाम लूने है, जिसका अर्थ चंद्र है और संस्कृत में भी चांद को सोम कहते हैं.
हालांकि औसतन हर चंद्र-दिवस 23 घंटे 36 मिनट का होता है लेकिन जैसा कि आपको पता है, पंचांग में उसकी लंबाई वास्तविक रखी जाती है. मतलब तिथि की लंबाई 20 घंटे से लेकर 27 घंटे तक कुछ भी हो सकती है. और तिथि (लूनर डेज़) और दिवस (सोलर डेज़) को सिंक में रखने के लिए क्षय तिथि और वृद्धि तिथि का कॉन्सेप्ट है.
# वृद्धि तिथि- हमने आपको बताया था कि तिथि दिन में कभी भी बदल सकती है, लेकिन उसे पंचांग में कैसे लिखा जाए, इसके लिए ये नियम है कि सूर्योदय के समय क्या तिथि थी. अब अगर आज के सूर्योदय के समय द्वितीया थी और वो 24 घंटे से कुछ ज़्यादा लंबी होने के चलते कल के सूर्योदय के समय भी रही थी तो पंचांग में दोनों दिन द्वितीया लिखा हुआ होगा. यूं दो दिन द्वितीया तिथि होने के चलते द्वितीया एक वृद्धि तिथि कहलाएगी.
# क्षय तिथि- इसे उदाहरण से समझिए. अगर आज सूर्योदय के वक्त चतुर्थी है, और आधे घंटे बाद पंचमी हो जाती है तो भी आज के दिन चतुर्थी ही कहलाएगी. अब मान लीजिए कि पंचमी सिर्फ़ 23 घंटे की है तो कल सूर्योदय से पहले ही षष्ठी हो जाएगी. यूं कल सूर्योदय के वक्त षष्ठी होने के चलते कल को षष्ठी होगी. इस तरह आपको पंचांग में पंचमी लिखा नहीं दिखेगा और कहा जाएगा कि पंचमी का क्षय हो गया.
# 7) 75 साल का कैलेंडर-
अब इतनी बातें जान लेने के बाद सोचिए, अगर हर महीना 29.34 ‘दिवस’ का होगा फिर तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी, क्यूंकि 12 महीनों में सिर्फ़ एवरेज 354.2672 दिन में ही समा पाएंगे. बचे क़रीब 11 दिवसों का क्या?
चांद के 27-28 नक्षत्र हैं तो सूर्य की 12 राशियां. (तस्वीर: medium.com) चांद के 27-28 नक्षत्र हैं तो सूर्य की 12 राशियां. (तस्वीर: medium.com)


और इन्हीं बचे हुए दिनों के चलते तो हिज़्री कैलेंडर ग्रेगोरियन कैलेंडर से हर वर्ष कुछ-कुछ दिन पीछे खिसकता जाता है. क्यूंकि हिज़्री कैलेंडर, मुख्य रूप से चांद की गति पर बेस्ड है और ग्रेगोरियन कैलेंडर मुख्य रूप से चांद सूर्य (के इर्द गिर्द पृथ्वी) की गति पर. इस तरह मार्च में आई ईद कुछ सालों बाद जनवरी में आ जाती है.
तो पंचांग में इसका क्या इलाज है. पंचांग बनाने वाले मानो कहते हों, ज़रूरी नहीं है पृथ्वी, सूर्य, चांद की सभी गतियों को रोज़-रोज़ सिंक किया जाए. जब ज़रूरत होगी तब करेंगे. लेकिन करेंगे वैज्ञानिक आधार पर ही. वैसे ही जैसे तिथि और दिवस को सिंक किया गया था.
और इसलिए ही हिंदू त्योहार भी ग्रेगोरियन कैलेंडर की नज़र से देखने पर हर साल अलग-अलग दिन में आते हैं. लेकिन जहां हिज़्री कैलेंडर के त्योहार ग्रेगोरियन कैलेंडर में पीछे की ओर जाते चले जाते हैं, वहीं पंचांग के या हिंदू कैलेंडर के त्योहार सिर्फ़ दोलन सा करते हैं. मतलब दिवाली कभी अक्टूबर में हो रही तो कभी नवंबर में. लेकिन फिर भी हर साल अक्टूबर-नवंबर में में दीवाली आ ही जाती है. तो सिंक रखने के लिए की गई व्यवस्था भी बड़ी इंट्रेस्टिंग है.
देखिए हिंदू पंचांग के हिसाब से 12 चंद्र-माह में सिर्फ़ 355 दिन कवर हो पा रहे थे. इसलिए हर 28 वें से 36 वें महीने के दौरान (औसतन हर 32.5 महीने में) एक एक्स्ट्रा महीना (29.53 दिन) जोड़ दिया जाता है. इसे ही मल-मास या अधिमास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं. लेकिन इससे त्योहार अधिक प्रभावित न हो, इसके लिए जिस महीने में इसे जोड़ा जाना है उसमें मल-मास  का आधा भाग उससे पहले और आधा भाग उसके बाद जोड़ दिया जाता है. मल-मास या पुरुषोत्तम मास वाली बात ऋग्वेद के श्लोक में भी मिलती है-
वेद मासो धृतव्रतो द्वादश प्रजावतः, वेदा य उपजायते. (I/25:8)
मने: नियम धारक वरुणदेव प्रजा के उपयोगी बारह महीनों को जानते हैं, और तेरहवें मास (पुरुषोत्तम मास) को भी जानते हैं.
हस्तलिखित ऋग्वेद, उन्नीसवीं सदी से. हस्तलिखित ऋग्वेद, उन्नीसवीं सदी से.


आप देख रहे होंगे कि हमने 28 वें से 36 वें महीने के दौरान कहा, स्पेसिफ़िक कौन सा महीना, ये नहीं बताया. क्यूंकि हर बार दो मलमास के बीच गैप बदलता रहता है. अब आप कहेंगे कि ग्रेगोरियन कैलेंडर की तरह ही औसत निकाल कर एक साल में या चार साल में कुछ दिन क्यूं नहीं जोड़ लेते?
क्यूंकि जहां ग्रेगोरियन कैलेंडर ‘रूल ऑफ़ थंब’ के आधार पर चलता है, वहीं पंचांग ग्रहों की गति के आधार पर. मतलब ग्रेगोरियन कैलेंडर का सिंपल फ़ंडा है कि अगर 4 साल बीतने पर हम एक दिन पीछे हो जा रहे हैं तो हर चार साल में 1 दिन जोड़ दो. साल को 12 महीनों में बांट दो. सिंपल. और इसलिए ही तो ‘रूल ऑफ़ थंब’ के हिसाब से तारीख़ 12:00 मिडनाइट पर बदल जाती है, लेकिन तिथियां नहीं. वो आज 11 बजे रात को बदल रही है तो कल 11:30 और परसों बदल ही नहीं रही, नरसों ऐसी तेज़ी से बदल रही कि एक तिथि को स्किप की कर दे रही. ये सब पंचांग में संभव है, जैसा हम ऊपर समझ ही चुके हैं.
ऐसा ही महीनों का भी हिसाब किताब है. मतलब, हो सकता है कि किसी ग्रेगोरियन महीने में दो अमावस्या या दो पूर्णमासी आ जाएं, ये भी हो सकता है कि किसी साल की फ़रवरी में एक भी अमावस्या या एक भी पूर्णमासी न हो. क्यूंकि ग्रेगोरियन कैलेंडर में महीने रेंडम आधार पर कुछ गणितीय समीकरणों को संतुष्ट करते हुए बना दिए गए हैं. लेकिन पंचांग में बिना एक पूर्णमासी के, बिना एक अमावस्या के और बिना दो पक्षों के महीना संभव नहीं. साथ ही जैसे चांद के 27 नक्षत्र हैं वैसे ही सूर्य के 12 नक्षत्र हैं और इसी से पंचांग का एक सौरमास काउंट होता है. सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है. यह मास भी 28 से लेकर 31 दिन का होता है. हालांकि इसे सौरमास या सोलर-मंथ नहीं आमतौर पर ‘राशि’ कहते हैं. यूं राशियां, ग्रेगोरियन कैलेंडर से ‘लगभग’ 100% सिंक में रहती है. क्यूंकि पंचांग की राशियों और ग्रेगोरियन कैलेंडर के महीने दोनों सूर्य के इर्द गिर्द पृथ्वी की गति पर निर्भर करते हैं.
© Nepal Panchanga
 (
नेपाल का पंचांग, जो विक्रम संवत पर आधारित है)


इसलिए ही तो, दिवाली, होली जैसे त्योहार जो विशेष रूप से चांद की गति पर निर्भर हैं इनकी डेट्स इधर-उधर होती रहती हैं, लेकिन उत्तरायनी जैसे हिंदू त्योहार, जो पूरी तरह से सूर्य (के इर्द गिर्द पृथ्वी) की गति पर निर्भर हैं, वो हमेशा ग्रेगोरियन कैलेंडर से सिंक में रहते हैं. और अगर किसी साल सिंक नहीं हो रहे तो जानिए कि शुद्ध ‘सोलर कैलेंडर’ होने के बावज़ूद दिक्कत ग्रेगोरियन कैलेंडर में है, न कि पंचांग में. क्यूंकि रूल ऑफ़ थंब वाले हिसाब-किताब के चलते उसमें सिर्फ़ गुणा भाग करके चीज़ें परफ़ेक्ट बनाई गई हैं, लेकिन पंचांग में सूर्य-वर्ष काउंट करने के लिए भी उसका 12 ग्रहों या 12 तारों के समूहों से विशेष समय में गुज़रना ज़रूरी है. मतलब ये कि अगर पंचांग सिर्फ़ सूर्य की गति पर ही निर्भर रहता, तो भी ज़रूरी नहीं कि हर साल हिंदू नव वर्ष 1 जनवरी को ही आता, या उसी दिन आता जिस दिन पिछले वर्ष आया था.
पंचांग 2021 (पूरा PDF देखने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.)
पंचांग 2021 (पूरा PDF देखने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.)


बहरहाल इस तरह औसतन हर 32 महीने बाद एक एक्स्ट्रा महीना (लूनर मंथ) जुड़ जाता है. और हर महीना ऐसा, जिसमें चांद की सारी कलाएं होंगी.
अब इस एक महीने को जोड़ देने से साल में 366 दिन हो जा रहे थे. इसलिए हर 30 साल में एक महीना घटा दिए जाने की व्यवस्था हुई. लेकिन इससे भी 90 सालों में 5 दिन का अंतर आ रहा था. इसे रेक्टीफ़ाई करने के लिए, हर 90 साल बाद ऐसे पांच वर्ष मनाने की व्यवस्था की गई, जिनमें एक दिन अधिक होगा. यूं 95 सालों का एक सेट तैयार हुआ. और इस तरह अगर ये कहें कि एक हिंदू पंचांग 95 सालों में अपना सर्किल पूरा करता है तो ग़लत नहीं होगा.
शतपथ ब्राह्मण (यजुर्वेद, 1000-1400 ई.पू.) के छठवें काण्ड में इस 95 वर्षों की गणना को ‘अग्निचयन विधि’ कहा गया है.

पंचांग का इतिहास

तिथि और नक्षत्र जैसे कॉन्सेप्ट वैदिक खगोल विज्ञान का हिस्सा थे. इन दिनों जो पंचांग चलन में हैं उसे 5 वीं शताब्दी के आर्यभट्ट जैसे कई खगोलविदों द्वारा परिष्कृत करके बनाया गया है. लेकिन इसका आधार भी शतपथ ब्राह्मण की ‘अग्निचयन विधि’ ही है. हालांकि वर्तमान पंचांग सूर्य और चंद्रमा की वास्तविक स्थितियों की गणना करते हैं.
तो वैदिक इतिहास को छोड़ दिया जाए तो, ऊपर के नियमों के आधार पर ही विक्रम सम्वत् बना. लेकिन जैसा बाद में राजाओं के नाम पर सिक्के चला करते थे, वैसे ही उस दौर में राजा अपने नाम पर कैलेंडर चलाते थे. इसलिए बाद में शक वंश के शालिवाहन के राजा ने जब विक्रमादित्य को युद्ध में हराया तो शक सम्वत् अस्तित्व में आया. हो सकता है कि इस कैलेंडर में कई चीज़ें समय के साथ जोड़ घटा दी गई हों. लेकिन मूल में वही गणित और ग्रहों की दशाएं और दिशाएं हैं.
भारत सरकार भी शक सम्वत् के आधुनिक वर्जन को ‘ऑफ़िशियल’ मानती है. 22 मार्च, 1957 से. इसका उपयोग भारत सरकार द्वारा ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ सरकारी गैजेट में भी किया जाता है. इसका नव-वर्ष 22 मार्च, और अगर ग्रेगोरियन कैलेंडर में लीप इयर हुआ तो 21 मार्च, से शुरू होता है.
हिंदू शक कैलेंडर का प्रारंभ 78 ईसवीं में हुआ. यह पंचांग ज्यादातर हिंदुओं द्वारा अनदेखा किया जाता है क्योंकि वे पारंपरिक पंचांगों का पालन करते हैं. जैसे उत्तर भारत में पारंपरिक हिंदू नव वर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (प्रथमा) से शुरू होता है. और विक्रम संवत के हिसाब से चला जाता है. यह विक्रम संवत के अनुसार वर्ष 2078 है. मज़े की बात ये कि भारत सरकार भी शक कैलेंडर कैलेंडर का पालन नहीं करती. इसे सिर्फ़ प्रकाशित भर कर दिया जाता है, अन्यथा सभी आधिकारिक कार्यों के लिए भारत सरकार ग्रेगोरियन कैलेंडर का ही अनुसरण करती है.

ग्रेगोरियन कैलेंडर का इतिहास

ग्रेगोरियन कैलेंडर की शुरुआत रोम से हुई मानी जा सकती है. 'कैलेंडर' शब्द भी दरअसल रोमन कैलेंडर के पहले महीने, ’कलेंडिया’, का ही परिवर्तित रूप है.
ग्रेगोरियन कैलेंडर (बड़ा करके देखने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.)
ग्रेगोरियन कैलेंडर 2021 (बड़ा करके देखने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.)

इस रोमन कैलेंडर में जूलियस सीज़र ने 46BC में काफ़ी सुधार किए और जो कैलेंडर बना, वो जूलियन कैलेंडर कहलाया. पहली बार एक सौर वर्ष की लंबाई 365.25 दिन इसी कैलेंडर से मान्य हुई.
लेकिन जूलियस सीज़र ने माना कि पिछली भूल सुधार के लिए पहले वर्ष में 80 दिन एक्स्ट्रा रखें जाएंगे. इसी के चलते 46 BC को, ‘द इयर ऑफ कन्फ्यूजन’ कहा जाने लगा था. लेकिन गुणा भाग थे कि सही होने का नाम ही नहीं ले रहे थे. और जूलियन कैलेंडर 8 AD के आते-आते ही परफ़ेक्ट हो पाया.
उसके बाद 730 AD में हुई एक और मिसकैल्क्यूलेशन के चलते जूलियन कैलेंडर में 14 दिनों को आगे बढ़ा दिया गया.
बहरहाल, 1582 में कैलेंडर को फ़ाइन ट्यून कर लिया गया. लेकिन ऐसा करने के लिए 10 दिन घटा दिए गए. जिससे 4 अक्टूबर, 1582 के अगले दिन 15 अक्टूबर, 1582 हो गया.
इन सभी कारणों के चलते गैर-कैथलिक देश नए ग्रेगोरियन कैलेंडर को अपनाने के पक्ष में नहीं थे. इंग्लैंड ने इसे 1752 में और रूस और ग्रीस ने इसे बीसवीं सदी आते-आते अपनाया.
अब नए साल को 25 मार्च की बजाय 1 जनवरी को स्थानांतरित किया जाना था. लेकिन ईसाइयों को भी इस कैलेंडर से दिक्कत थी, क्यूंकि ईस्टर रविवार को ही मनाया जाना था. यूं बाद में यह फैसला किया गया कि स्प्रिंग-इक्वेनॉक्स के बाद आने वाली पूर्णिमा के बाद वाले रविवार को ईस्टर संडे मनाया जाएगा. अपने वर्तमान स्वरूप में भी ग्रेगोरियन कैलेंडर दोषमुक्त नहीं है. क्यूंकि इसका पहला दिन ईसा मसीह के जन्मदिवस के दिन होना था लेकिन बाइबल और अन्य स्रोतों से पता चलता है कि उनका जन्म 8-4 ईसा पूर्व के बीच हुआ था.
ग्रेगोरियन कैलेंडर के कुछ बहुत पुराने प्रिंटेड एडिशन में से एक. (1582 में प्रकाशित) ग्रेगोरियन कैलेंडर के कुछ बहुत पुराने प्रिंटेड एडिशन में से एक. (1582 में प्रकाशित)

पंचांग के पांच अंग

‘…महीनों में मैं ही मार्गशीर्ष हूं’ गीता में श्रीकृष्ण के इस कथन से लेकर हिंदुस्तानी पॉपुलर कल्चर की कोई भी स्ट्रीम हो उसमें हिंदू कैलेंडर, ख़ास तौर पर उसके महीनों का ज़िक्र आ ही जाता है-
‘पूस की रात’, ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘जेठ की दुपहरी में पांव जले है’, ‘मेरे नैना सावन-भादो’, ‘फागुन’.
और कई बार इसके बाक़ी एलिमेंट्स, जैसे ‘घड़ी’, ‘नक्षत्र’, ‘वार’ वग़ैरह का भी.
लेकिन इन सब में से पांच चीज़ें अति आवश्यक हैं जो पंचांग के पांच अंग कहे जाते हैं: वार, तिथि, नक्षत्र, योग, करण. इनमें से हम वार, तिथि और नक्षत्र को तो पहले ही समझ चुके हैं. आइए अब योग और करण भी समझ लेते हैं.
# योग: जब सूर्य और चन्द्रमा की गति में 13.33 डिग्री का अन्तर पड़ता है तो एक योग बनता है. यूं कुल योगों की संख्या हुई 360/13.33 = 27.
# करण: एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में. कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न.
चलिए इसके अलावा बोनस में हिंदू टाइम-कीपिंग के कुछ और एलिमेंट्स भी फटाफट जान लिए जाएं.
हिन्दू समय चक्र ‘सूर्य सिद्धांत’ के पहले अध्याय में आते हैं. जिनके अनुसार: छः श्वास से एक विनाड़ी बनती है. साठ श्वासों से एक नाड़ी बनती है. साठ नाड़ियों से एक दिवस बनता है. इसे थोड़ी आसान से फ़ॉर्मूला में लिख लेते हैं-
24 घंटे (पश्चिम वाले) = 1 दिवस (तिथि नहीं, वो छोटी होती है) 1 दिवस = 60 घड़ी = 60 नाड़ियां 1 घड़ी = 60 पल = 60 श्वास 1 पल = 60 विपल 1 विपल = 30 क्षण 1 क्षण = 2 लव
यूं 1 दिवस = 60 घड़ी = 3,600 पल = 2,16,000 विपल = 64,80,000 क्षण = 1,29,60,000 लव
1000 वर्ष = 1 सहस्राब्दी 432 सहस्राब्दी = 1 युग 10,000 युग = 1 कल्प
यूं, 1 कल्प = 10,000 युग = 43,20,000 सहस्राब्दी = 4,32,00,00,000 वर्ष = 4.32 अरब वर्ष

वैज्ञानिकता पर ‘स्यूडो साइंस’ का ‘ग्रहण’

कोई भी चीज़ अपने जन्म के वक़्त सबसे ज़्यादा प्योर होती है. फिर वो कोई जीव हो, कोई कॉन्सेप्ट, कोई विचार या कोई राजनीतिक पार्टी. जैसे हिंदू धर्म में वेद एक प्योर ज्ञान है, लेकिन इसके बाद आए पुराण, दरअसल वेदों, ऋचाओं को समझाने के लिए बनाए गए ‘मेड ईज़ी’ सरीखे थे. जिसमें क्लिष्टता के साथ-साथ सत्यता और ज्ञान भी डायल्यूट होता चला गया.
पुराणों के अनुसार विष्णु ने समुद्र मंथन के बाद, अमृत बांटने के दौरान राहु-केतु का सर, धड़ से अलग कर दिया था. पुराणों के अनुसार विष्णु ने समुद्र मंथन के बाद, अमृत बांटने के दौरान राहु-केतु का सिर, धड़ से अलग कर दिया था.


ऐसे ही कुछ पंचांग के साथ भी हुआ. जब इसमें से ज्योतिषी का निर्माण हुआ तो चीज़ें कुछ आसान लेकिन ज्ञान कुछ डायल्यूट होता चला गया. हो सकता है कि ज्योतिषी का शुरुआती वर्जन फिर भी शुद्ध रहा हो लेकिन अब जो इसका वर्जन दिखाई देता है, वो बहुत सारे स्यूडो-साइंस से प्रदूषित हुआ लगता है. और जब नदी का पानी प्रदूषित दिखा तो लोगों को लगा स्रोत भी प्रदूषित होगा.
जैसे अगर राहु और केतू को लेकर आप पंचांग को ‘भ्रामक’ मानते हैं तो जानिए कि, वैदिक खगोलशास्त्र ख़ुद कहता है कि राहु और केतू ठोस ग्रह नहीं हैं. चंद्रमा, पृथ्वी के इर्द गिर्द और पृथ्वी, सूर्य के इर्द गिर्द अण्डाकार (इलिप्टिकल) कक्षा में गति करता है. साथ ही इनकी कक्षाएं एक दूसरे से 5 डिग्री झुकी होती हैं. न झुकीं होतीं तो हर अमावस्या को सूर्य ग्रहण और हर पूर्णमासी को चंद्र ग्रहण होता.
तो ये अण्डाकार कक्षाएं एक दूसरे को दो बार काटती हैं. और चन्द्रमा की कक्षा के आरोही (एसेंडिंग) और अवरोही (डिसेंडिंग) केंद्र का निर्माण करती हैं. ये केंद्र ही राहु और केतु के रूप में जाने जाते हैं. चाइना में इसे ड्रैगन का सिर और पूंछ कहते हैं. मतलब जैसे चांद की 27 या 28 पत्नियां सिर्फ़ समझने भर के लिए थीं, वैसे ही राहु, केतु का भी हिसाब-किताब है. इन बिंदुओं का प्रभाव ग्रहों के प्रभाव सरीखा होने के कारण इन्हें भी ग्रह मान लिया है. कैसा प्रभाव? सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण होने में इनका बहुत बड़ा रोल होता है.
राहु केतु को छाया ग्रह कहते हैं. इस फोटो को देखकर आपको कन्फ्यूज़न हो सकता है कि सूर्य कैसे धरती के चक्कर लगा रहा. लेकिन पंचांग को समझने के लिए हम पृथ्वी को स्टैटिक मानते हैं और सूर्य के सापेक्ष उसकी गति को सूर्य की गति मानकर स्टडी करते हैं. इसलिए ये ऐसा है.


वैदिक काल में राहु और केतु को ‘छद्म ग्रहों’ के रूप में माना जाता था. जो भारतीय ज्योतिष और खगोल-विज्ञान के नवग्रहों का हिस्सा थे. इनमें सात दृश्य ग्रह (सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि) और दो अदृश्य ग्रह (राहु और केतु) शामिल थे.
कहने का अर्थ ये कि यक़ीनन आज जिस ज्योतिषी को आपके सामने परोसा जाता है उसमें सब नहीं भी तो अधिकतर चीज़ें स्यूडो-साइंस की कैटेगरी में आती हैं. लेकिन इसका स्रोत हिंदू कैलेंडर या पंचांग विशुद्ध वैज्ञानिक कॉन्सेप्ट था, है. साथ ही अगर कोई नीम हकीम S सर्टिफिकेट वाली वीडियो देखकर ग़लत ऑपरेशन करने लगे तो दोष वीडियो का नहीं, ऑपरेशन करने वाले का है. इसलिए पंचांग के कथित 'टॉर्च बियरर’ की अयोग्यता से, पंचांग को मत नकारिए. शायद अतीत में यही करने के कारण हम-आप इसके वैज्ञानिक पहलू को न जान पाए थे.
तो, सबसे शुद्ध स्रोत को ढूंढिए. साथ ही, ये बताना भी ज़रूरी है कि चीज़ों के बारे में मेरी राय ग़लत या अलग लग सकती है आपको. लेकिन फ़ैक्ट्स आपके सामने हैं. राय का क्या है, वो वेद थोड़ी न है, पुराण है जिसमें राक्षस के 20 सिर और देवता के पिचहत्तर हाथ हैं और राहु-केतु समुद्र मंथन का कोलैटरल डैमेज.