तालिबान और पाकिस्तान के बीच चल रही तकरार एक कदम आगे बढ़ गई है. 15 जुलाई 2023 की सुबह पाकिस्तान के डिफ़ेंस मिनिस्टर ख़्वाजा आसिफ़ ने एक ट्वीट किया. लिखा, तालिबान दोहा एग्रीमेंट का पालन नहीं कर रहा है. हम सख़्त जवाब देंगे. इस पर तालिबान बिफर गया. बोला, हमने दोहा एग्रीमेंट अमेरिका के साथ किया था, पाकिस्तान के साथ नहीं. इसलिए, हम पर ऊंगली उठाना बंद करें.
पाकिस्तान ने तालिबान को सख्त कार्रवाई की धमकी दी, तालिबान ने गुस्से में क्या सुना दिया?
पाकिस्तान ने तालिबान को क्यों धमकाया?
आइए जानते हैं,
- दोहा एग्रीमेंट की पूरी कहानी क्या है?
- और, पाकिस्तान की नाराज़गी की वजह क्या है?
ट्वीट उर्दू में है. हम हिंदी अनुवाद बता देते हैं.
‘अफ़ग़ानिस्तान पड़ोसी और दोस्त होने का धर्म नहीं निभा रहा है. वो दोहा एग्रीमेंट का पालन नहीं कर रहा है. 50-60 लाख अफ़ग़ान नागरिकों को पाकिस्तान ने 40-50 साल से शरण दी है. इसके बरक्स, जो आतंकवादी पाकिस्तानियों का ख़ून बहाते हैं, उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में शरण मिल रही है. इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. पाकिस्तान अपनी ज़मीन और अपने लोगों की सुरक्षा के लिए हर संभव कदम उठाएगा.’
पाकिस्तान के आरोप पर तालिबान का बयान आया. प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने बीबीसी पश्तो को कहा कि हमने दोहा एग्रीमेंट अमेरिका के साथ किया था. अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल पाकिस्तान के ख़िलाफ़ नहीं हो रहा है. पाकिस्तान हमारा दोस्त मुल्क है. अगर हमें सबूत दिया गया तो हम कार्रवाई करेंगे.
17 जुलाई को ख़्वाजा आसिफ़ ने एक और ट्वीट किया. लिखा कि हम अपने इरादे पर कायम हैं. भले ही तालिबान आतंकियों के प्रति सहानुभूति रखता हो, लेकिन हम उन्हें उखाड़ फेंकेंगे.
इससे पहले पाकिस्तान आर्मी ने भी तालिबान पर गंभीर आरोप लगाए थे. कहा था कि अफ़ग़ान नागरिक पाकिस्तान में हो रहे आतंकी हमलों में शामिल रहे हैं. अगर उन्हें नहीं रोका गया तो हम जवाबी कार्रवाई करेंगे. दरअसल, 12 जुलाई को बलूचिस्तान में पाक सेना पर दो हमले हुए थे. इसमें 12 सैनिक मारे गए थे. तब आर्मी चीफ़ असीम मुनीर ने घटनास्थल का दौरा किया था.
इसके बाद मिलिटरी के मीडिया विंग ने तालिबान को दोहा एग्रीमेंट का पालन करने के लिए कहा था. ख़्वाजा आसिफ़ भी यही चीज़ दोहरा रहे हैं.
लेकिन ये दोहा एग्रीमेंट है क्या औऱ तालिबान ने क्या वादा किया था? दोहा, क़तर की राजधानी है. इसी जगह पर 29 फ़रवरी 2020 को अमेरिका और तालिबान के बीच एक शांति समझौता हुआ था. इस डील के तहत, अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में वॉर ऑन टेरर खत्म करने का फ़ैसला लिया था. इस डील को चार हिस्सों में बांटा गया था.
> नंबर एक. युद्धविराम.
अमेरिका और तालिबान ने हिंसा कम करने का फ़ैसला किया. कहा कि पूर्ण संघर्षविराम पर बाद में बात होगी.
> नंबर दो. अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी.
अमेरिका ने अपने और सहयोगी देशों के सभी सैनिकों को बाहर निकालने के लिए 14 महीने की डेडलाइन तय की.
> नंबर तीन. तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार के बीच बातचीत.
तालिबान ने तत्कालीन अशरफ़ ग़नी की सरकार से नेगोशिएट करने की बात कही. इस बातचीत में अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान के प्रतिनिधि शामिल होने वाले थे.
> नंबर चार. आतंकी हमलों से सुरक्षा का भरोसा.
तालिबान ने वादा किया, कि वो अपनी ज़मीन का इस्तेमाल अमेरिका और उसके मित्र देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा. अपनी ज़मीन पर आतंकियों को पनाह नहीं देगा.
इन सबके अलावा, अमेरिका ने महिलाओं के बुनियादी अधिकारों की रक्षा का वादा भी लिया था.
इस डील का नतीजा क्या निकला?> युद्धविराम कभी सफ़ल नहीं हो सका. तालिबान ने कहा था कि अगर 14 महीने के अंदर विदेशी सैनिक बाहर नहीं गए तो वो उन पर हमला शुरू कर देगा. डेडलाइन का वादा पूरा नहीं हो पाया. मई 2021 में अमेरिका ने नई डेडलाइन दी. अगस्त 2021 की. उससे पहले ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के अधिकतर प्रांतों पर कब्ज़ा कर लिया था. 15 अगस्त 2021 को तालिबान ने काबुल को अपने कंट्रोल में ले लिया. अफ़ग़ानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी पहले ही देश छोड़कर भाग चुके थे. यही वजह रही कि इंट्रा-अफ़ग़ान यानी तालिबान और अफ़ग़ानिस्तान सरकार के बीच समझौता पूरा नहीं हो पाया.
> डील के मुताबिक, 30 अगस्त 2021 को आख़िरी विदेशी सैनिक ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ दिया.
> दोहा एग्रीमेंट का जो चौथा हिस्सा था, उस पर सबकी नज़र बनी रही. तालिबान ने वादा किया था कि वो अपनी ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा. इसी को आधार बनाकर 2001 में अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से हटाया था. उस समय तालिबान पर 9/11 हमलों के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को शरण देने का आरोप लगा था.
अगस्त 2021 में तालिबान का दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ. इससे दुनिया के अधिकतर देश नाराज़ थे. उन्हें आतंकी हमलों के बढ़ने का डर था. लेकिन पड़ोसी पाकिस्तान में खुशी का माहौल था. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान ख़ान बोले कि तालिबान ने ग़ुलामी की बेड़ियां तोड़ दी हैं.
सितंबर 2021 में पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI के मुखिया फैज़ हमीद ने काबुल का दौरा किया. उन्होंने तालिबान की इंटरनल मीटिंग्स में भी हिस्सा लिया.
पाकिस्तान सरकार ने इंटरनैशनल फ़ोरम्स में तालिबान का पक्ष रखा. तालिबान को मान्यता दिलाने की भरपूर कोशिश की. ऐसा लग रहा था कि वो तालिबान को अपनी छत्रछाया में रखने का प्लान बना रहा है.
इसके पीछे पाकिस्तान के तीन बड़े मकसद थे. पहला, डूरंड लाइन को मान्यता. नवंबर 1893 में ब्रिटिश भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच एक सीमा रेखा खींची गई. इसको डूरंड लाइन का नाम दिया गया. जिस समय समझौता हुआ था, उस समय भारत और पाकिस्तान एक ही थे. 1919 में अफ़ग़ानिस्तान ब्रिटेन के कंट्रोल से निकल गया. फिर 1947 में भारत का विभाजन हो गया. पाकिस्तान नाम का नया मुल्क़ बना. इसके बाद डूरंड लाइन भारत की बजाय पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच की सीमा बन गई. 1947 के बाद से अफ़ग़ानिस्तान ने डूरंड लाइन को कभी मान्यता नहीं दी. उसका कहना था कि ये दो भाईयों के बीच खड़ी नफ़रत की एक दीवार है. पाकिस्तान को उम्मीद थी कि समर्थन के बदले तालिबान डूरंड लाइन को मान्यता दे देगा.
दूसरा, बारगेनिंग पावर.इंटरनैशनल डिप्लोमेसी में आशंकाओं को हमेशा से मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है. जैसे, कोल्ड वॉर में सोवियत संघ का डर दिखाकर अमेरिका ने कई देशों को अपने पाले में खींचा था. 2003 में केमिकल हमले का डर दिखाकर अमेरिका ने इराक़ पर हमला किया था. और, उसे पश्चिमी देशों का समर्थन भी मिला था.
तालिबान एक आतंकी संगठन है. भले ही अमेरिका ने उससे समझौता कर लिया हो, लेकिन उसका डर हमेशा बरकरार रहेगा. क्योंकि तालिबान की शह में रहकर ही अलक़ायदा और लादेन ने 9/11 जैसा भीषण हमला किया था. अमेरिका, तालिबान पर नज़र तो रखेगा. लेकिन फिर से अफ़ग़ानिस्तान में सेना उतारने से बचेगा. किसी भी देश ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है. यानी, सीधे तौर पर तालिबान से उनकी बातचीत नहीं है. पाकिस्तान की इच्छा थी कि वो इस वैक्यूम को भरे. किसी भी देश को तालिबान तक अपनी बात पहुंचानी हो या किसी तरह का दबाव डालना हो तो वो पाकिस्तान होकर जाए.
TTP को पाकिस्तान ने आतंकी संगठन घोषित किया हुआ है. TTP को पाकिस्तानी तालिबान भी कहते हैं. ये संगठन पूरे पाकिस्तान में शरिया कानून लागू करना चाहता है. उसके और भी मकसद हैं, जिन पर पाकिस्तान सरकार राज़ी नहीं है. इसको लेकर दोनों धड़ों में लड़ाई होती रहती है. 2015 में पाक आर्मी ने ऑपरेशन चलाकर TTP को खत्म करने की कोशिश की थी. लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली. TTP के लड़ाके भागकर अफ़ग़ानिस्तान में छिप गए. उन्हें तालिबान का संरक्षण मिला.
पाकिस्तान को उम्मीद थी कि तालिबान के आने से TTP की समस्या को सुलझा लिया जाएगा. एक तो तालिबान ने दोहा एग्रीमेंट में वादा किया था. दूसरा, पाकिस्तान उसको अपना दोस्त मानता था. उसको लगा कि अब सब कंट्रोल में होगा.
मगर जल्दी ही पाकिस्तान के हसीन सपने ध्वस्त होने लगे थे. पाकिस्तान लंबे समय से डूरंड लाइन पर फ़ेंस लगा रहा है. मकसद ये कि इससे आतंकियों की घुसपैठ को रोका जाएगा. तालिबान के आने के बाद उसने फ़ेंसिंग का काम आगे बढ़ाया. लेकिन इस बार तालिबानी सैनिकों ने काम रुकवा दिया. धमकी भी दी कि अगर फ़ेंसिंग की तो बुरा नतीजा भुगतना होगा. तब से दोनों पक्षों के बीच क्रॉस-बॉर्डर फ़ायरिंग की कई घटनाएं हो चुकी हैं. कई बार बॉर्डर पर ताला भी लगाना पड़ा है. दोनों तरफ़ के कई सैनिक और आम लोग भी मारे गए हैं.
पाकिस्तान की दूसरी और संभवत: सबसे बड़ी उम्मीद TTP से जुड़ी थी. लेकिन ये भी टूट गई. पहले तो तालिबान ने अपनी मध्यस्थता में TTP और पाकिस्तान के बीच डील कराई. मगर अक्टूबर 2022 में TTP ने संघर्षविराम समझौता छोड़ दिया. उसके बाद से TTP ने पाकिस्तान में कई बड़े आतंकी हमले किए हैं.
द सेंटर फ़ॉर रिसर्च एंड सिक्योरिटी स्टडीज़ (CRSS) की रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी से जून 2023 के बीच पाकिस्तान में हुए आतंकी हमलों में 267 सैनिक मारे गए. इनमें से अधिकतर हमलों के पीछे TTP का हाथ था. CRSS ने लिखा कि अगर यही ट्रेंड चलता रहा तो साल के अंत तक हताहतों की संख्या दोगुनी हो सकती है.
जिस तरह के संकेत दिख रहे हैं, उस हिसाब से ये संख्या कई गुणा ऊपर जा सकती है. 12 जुलाई को पांच आतंकियों ने बलोचिस्तान में आर्मी के एक बेस में घुसपैठ की कोशिश की. फिर मुठभेड़ हुई. इसमें पांचों आतंकी मारे गए. पाक आर्मी को 09 सैनिकों का नुकसान हुआ. एक आम नागरिक भी मारा गया. इसकी ज़िम्मेदारी तहरीक़-ए-जिहाद पाकिस्तान ने ली. इसका संबंध TTP से बताया जाता है.
उसी रोज़ एक औऱ आतंकी हमले में तीन और पाक सैनिक मारे गए. इसी के बाद आर्मी चीफ़ असीम मुनीर ने हिंसा वाले इलाकों का दौरा किया. सेना ने हमलों में अफ़ग़ान नागरिकों के शामिल होने का आरोप लगाया था. अपील की थी कि तालिबान दोहा एग्रीमेंट का पालन करे.
इसके बाद ही ख्वाजा आसिफ़ ने भी वही अपील दोहराई है.
जैसा कि हमने शुरुआत में बताया, दोहा एग्रीमेंट में तालिबान ने वादा किया था, कि वो अपनी ज़मीन का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा. तालिबान कहता है कि उसने अपने वादे का पालन किया है. मगर पाकिस्तान का आरोप है कि तालिबान ने TTP को शरण दी है. और, आतंकी हमले करने में मदद भी कर रहा है.
तालिबान कहता है, सबूत दो तब मानेंगे.
यही बात उसने लादेन वाले मामले में भी कही थी. सबूत दोगे तब सौंपेंगे. लेकिन उसी बीच में अमेरिका ने हमला कर दिया था. ये अलग बात है कि उसे 20 बरस बाद हारकर बाहर निकलना पड़ा.
अब सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान TTP को खत्म करने के लिए अफ़ग़ानिस्तान पर हमला करेगा? जानकारों का कहना है कि इसकी संभावना बहुत कम है. पाकिस्तान, तालिबान से मोर्चा लेने के लिए तैयार नहीं है. पहली बात, वो तालिबान में बची-खुची उम्मीद नहीं खोना चाहता. दूसरी बात, आर्थिक संकट के दौर में वो युद्ध का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है.
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