2 अगस्त 2000, पहलगाम का नुनवान बेस कैंप, अमरनाथ दर्शन करने जा रहे यात्रियों का जमावड़ा लगा था. अचानक सुरक्षा घेरों को तोड़ते हुए आतंकवादी घुसे. गोलीबारी हुई, बम फूटे. 21 अमरनाथ यात्रियों की जान चली गई, साथ में 7 दुकानदार और कुली, और 3 सुरक्षाकर्मी भी मारे गए. लेकिन ये तो बस शुरुआत थी. इसी दिन, पहलगाम से 50 किलोमीटर दूर मीर-बाजार क़ाज़ीकुंड में 18 मजदूरों को मदद के बहाने रात में झोपड़ियों से निकाला गया और फिर सबकी गोली मार कर हत्या कर दी गई. ईंट-भट्ठे में काम करने वाले सात मजदूरों को भी मौत के घाट उतार दिया गया. ये सभी मजदूर यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश से मेहनत-मजदूरी के लिए आए थे.
कश्मीर अटैक पर बड़ी जानकारी, कैसे घुसते हैं आतंकी? बातचीत के लिए किस फोन का किया इस्तेमाल?
जम्मू कश्मीर आतंकी हमलों में पाकिस्तान आर्मी का कितना बड़ा हाथ?


इस काली रात की कहानी यहीं नहीं थमी. हिंसा की आंच ने पीर पंजाल की पहाड़ियां क्रॉस की, और कश्मीर संभाग से उठकर पहुंच गई जम्मू तक. डोडा ज़िले में एक दूर-दराज गांव में 11 लोगों को इस तरह चुन-चुन कर मारा गया. एक ही रात में 89 लोगों की मौत हो गई. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा
इसमें लश्कर-ए-तैयबा का हाथ है.
ये कश्मीर घाटी में हुआ पहला हमला था न आखिरी. अमरनाथ यात्रा, कश्मीरी पंडित, बाहर से आये मजदूर, सेना; सभी को निशाना बनाया गया. 22 अप्रैल को इसी पहलगाम में फिरसे दिल दहला देने वाला आतंकी हमला हुआ. जिसमें 26 बेक़सूर टूरिस्ट्स की जान गई. 17 लोग घायल हो गए. अपने परिजनों की जान की भीख मांगती महिलाओं को कहा गया, कि
जाओ मोदी से बोल दो.
समय बदला, आतंकी हमलों का दस्तूर सरीखा बन गया. आतंकी या तो बाहर के होते, या घर के. वो निशाना बनाते उन्हें, जिनके होने से आतंक की आँखों में किरकिरी हो रही थी. आतंकी हर उस शख्स की लाश गिराते, जिन्हें भारत अपना देश लगता. उनके हाथों में बंदूकें होतीं, उनके पास कई दिनों तक जंगल में गुजारने के लिए खाना होता. वो आतंकी कभी एक संगठन में होते, तो कभी किसी और ग्रुप में पनाह लेते. जो दहशतगर्द ज्यादा पैसे दे देता, वो उसके पैसे खाकर हिंसा करने लगते. लेकिन इन सभी आतंकियों और ग्रुप्स का माई-बाप एक ही होता - पाकिस्तान.
ये कोई फिल्मी लाइन नहीं है, हकीकत है. पाकिस्तान का नाम ऐसे ही नहीं सामने आता है. उसकी संलिप्तता है. खासकर पाकिस्तानी जासूसी एजेंसी Inter Services Intelligence उर्फ ISI की. भले ही वहां की इक्का-दुक्का सरकारों ने अपने देश में पल रहे आतंकियों के खिलाफ स्टैंड लिया था, लेकिन ISI ने स्टैंड को तोड़ दिया. हमेशा अपने मन की चलाई. आतंक के इकोसिस्टम को सींचा, और भेज दिया देश के पार. कत्ल-ए-आम करने के लिए.
ऐसे में सवाल है कि आखिर ये आतंकवादी संगठन इतने सालों से एक पैटर्न पर काम करने में कैसे कामयाब हो रहे हैं? वो भारत में एंट्री कैसे लेते हैं? एंट्री में लेने के बाद पाकिस्तान में मौजूद अपने हैंडलर्स से कैसे बातचीत करते हैं? साथ ही, दूसरे लोगों को कैसे अपने सिस्टम से जोड़ते हैं? एक-एक कर के समझते हैं…
कैसे घुसते हैं आतंकी?साल 1987 के मार्च में चलिए. इस साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए. चुनाव में NC और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 45 सीटों से चुनाव लड़ा था. इनमें से 40 सीटों पर वो जीती. कांग्रेस ने 31 सीटों में से 26 सीटों पर जीत पाई. उनकी सरकार तय हो गई थी. लेकिन इस चुनाव में पाकिस्तान की पक्षधर, फिरकापरस्त और अलगाववादी पार्टी Muslim United Front को बस चार सीटें मिलीं.

आरोप लगे कि चुनाव में फारूक अब्दुल्लाह और केंद्र में मौजूद राजीव गांधी ने जमकर धांधली की है. ऐसा कहना कुछ हद तक सही भी था. चर्चा थी कि राजीव गांधी किसी भी सूरत में नहीं चाहते थे कि MUF सत्ता में आए, और राज्य में अशांति हो. और फारूक अब्दुल्लाह से उनकी पारिवारिक दोस्ती जो थी, वो थी ही. उस चुनाव में गिनती के समय MUF के कार्यकर्ताओं को अरेस्ट भी कर लिया गया था. इस वजह से धांधली वाले प्वाइंट को बल मिला.
MUF का फाउंडर और उस समय कश्मीर का तीसरा सबसे बड़ा नेता माना जाने वाला युसूफ शाह भड़क गया. श्रीनगर के अमीराकदल से चुनाव लड़कर वो खुद हार गया था. चुनाव नतीजों का विरोध किया, तो जेल में डाल दिया गया. बाहर आया तो कसम खा लिया कि अब वो बंदूक उठाएगा. सैयद सलाहउद्दीन का नाम धारण किया, और एक आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन से जुड़ गया.
इस आतंकी संगठन से कश्मीर के युवा जुड़े. और साल 1989 आते-आते कश्मीर में मिलिटेंसी शुरू हो गई. बड़ी संख्या में स्थानीय लड़के भारत के खिलाफ हथियार उठाने लगे. पाकिस्तान ने इसे पोसना भी शुरू कर दिया. एक पूरा इकोसिस्टम बन गया. लड़के बॉर्डर क्रॉस करते, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में हथियारों की ट्रेनिंग लेते और वापिस आ जाते. और उनके साथ ही कुछ पाकिस्तान के लोग भी भारत में घुसते. कैसे?
हम जानते हैं कि भारत और पाकिस्तान आपस में दो तरह की सीमाएं शेयर करते हैं. International Boundary (अंतर्राष्ट्रीय सीमा) - जिस पर बॉर्डर सिक्युरिटी फोर्स तैनात है. Line of Control (नियंत्रण रेखा) जहां भारतीय सेना तैनात है, क्योंकि ये हमारे लिए आज भी एक फ्रंट है, न कि असल सीमा. अधिकारी बताते हैं कि अक्सर सीमा पार से आने वाले आतंकी और उग्रवादी भारत में एंट्री लेने के लिए पाकिस्तान आर्मी की फायरिंग का सहारा लेते हैं.
पाक आर्मी रह-रहकर फायर करती है. अगर सेना या BSF इंगेज हो गए, तो आतंकी इसी फायरिंग की आड़ में घुसने की कोशिश करते हैं. वहीं कई बार उन इलाकों से भी एंट्री की कोशिश की जाती है, जहां कंटीले तार नहीं हैं. जैसे- नदियां, बर्फीले पहाड़, झरने वगैरह. वहां लगातार गश्त कर रहे जवानों से नजर बचाकर घुसने की कोशिश की जाती है.
अधिकारी ये भी बताते हैं कि अब कश्मीरी युवा पहले से कम संख्या में पाकिस्तान जाते हैं. इस समय भारत में घुसपैठ करने वाले अधिकतर आतंकी वो पाकिस्तानी हैं, जो वहां की आर्मी की स्पेशल फोर्स विंग से जुड़े हुए हैं. ऐसा उनके फायर करने और काम करने के तरीकों को भी देखकर लगता है. क्योंकि अभी के आतंकी टारगेट करके हत्याएं कर रहे हैं और जंगलों में ज्यादा दिनों तक जिंदा रहने में माहिर हैं.
आतंकियों के हथियारकिसी भी आतंकवादी घटना को अंजाम देने वालों के लिए सबसे जरूरी हथियार, किसी फैक्ट्री में नहीं बनता. कहीं से स्मगल होकर नहीं आता, वो हथियार होता है इंटेलिजेंस इनपुट यानी सूचना. किस इलाके में अटैक होना है, वहां सुरक्षा एजेंसियों की कितनी तादाद है, सुरक्षा में क्या लूपहोल्स हैं. ये सभी जानकारियां हमले को और घातक बनाती हैं. इसके लिए आतंकवादियों के बीच लगातार और सिक्योर कम्युनिकेशन होता रहता है. इसके पीछे मकसद है कि जानकारियां इकट्ठा होती रहें और सुरक्षा एजेंसियों को भनक न लगे. जैसे 2016 ऊरी बेस कैंप पर अटैक. जानकार कहते हैं कि इस अटैक से पहले आतंकवादियों को कैंप की टाइमिंग और वहां होने वाली एक्टिविटीज़ की अच्छी जानकारी थी. तभी उन्होंने हमला करने के लिए सुबह 5:30 का समय चुना.

स्ट्रेटेजिक एनालिसिस नाम का एक जर्नल है. इसमें 2003 में एक रिपोर्ट छपी. “Terrorists' Modus Operandi in Jammu and Kashmir”. इसके मुताबिक संचार या कम्युनिकेशन आतंकवाद की रीढ़ था. आतंकवादी संगठनों ने LOC के दोनों तरफ एक मजबूत संचार तंत्र बना रखा था. POK में शक्तिशाली ट्रांसमिटिंग स्टेशन बनाये गए थे. ये स्टेशन आतंकी कमांडर्स के लिए कंट्रोल रूम की तरह काम करते थे. जबकि सीमा के इस पार बैठे आतंकियों के पास छोटे हैंड-हेल्ड सेट होते थे. इसके अलावा डिवीजनल और एरिया कमांडरों को सैटेलाइट फोन दिए जाते थे.

सूरनकोट के हिल काका में ऑपरेशन के दौरान आतंकियों के सैटेलाइट फोन बरामद हुए थे . इनसे वे न केवल LOC के पार अपने आकाओं से बात करते थे बल्कि अलीगढ़, मल्लापुरम(केरल) और अहमदाबाद, जैसे शहरों में अपने साथियों से भी बात किया करते थे. समय के साथ इस तकनीक की काट खोज ली गई. और भारतीय सेना की सिगनल्स कोर आतंकियों और उनके हैंडलर्स के बीच की बातचीत सुनने में सफल हो गई. सैटेलाइट फोन भी आसानी से इंटरसेप्ट कर लिए जाते थे, रेडियो सेट्स तो छोड़ ही दीजिए.
ऐसे में आतंकियों ने अब नई टेकनीक पर काम करना शुरू किया. उन्होंने स्पेशल फोन्स का इस्तेमाल शुरू किया. रक्षा सूत्र बताते हैं कि आतंकियों के पास अब जो फोन्स मौजूद हैं, उनमें कोई भी नंबर नहीं डाला जा सकता है. न सिम की मदद से, न ही ई-सिम की मदद से. साथ ही इन फोन्स को बिना इंटरनेट के एक्टिवेट किया जाता है. अधिकारी बताते हैं कि इन फोन्स के एक्टिव होने के बाद इन फोन्स में ऑफलाइन मैप डाले जाते हैं. इन मैप्स की मदद से जंगलों-पहाड़ों में रास्ता खोजने में आसानी होती है. साथ ही आतंकी YSMS नाम की एनक्रिप्टेड कम्युनिकेशन सर्विस का इस्तेमाल करते हैं. इसमें बिना सिम के फ़ोन को रेडियो वेव की मदद से कनेक्ट किया जाता है. इसके बाद इन फोन्स को बहुत थोड़े समय के लिए फ़ोन टावर से जोड़ा जाता है. और उसी समय के दौरान के बर्स्ट में ढेर सारे संदेश भेज दिए और रिसीव कर लिए जाते हैं. ये सब सुनने में थोड़ा कठिन लगेगा, लेकिन आतंकी ऐसा कर रहे हैं. इतनी कठिन टेकनीक का इस्तेमाल करना, इस बात की ओर फिर से इशारा करता है कि इन आतंकियों के लोनवुल्फ़ या लोकल रिक्रूट होने की संभावना कम, पाक स्पेशल फ़ोर्स का सोल्जर होने की संभावना ज्यादा है .

एक-दूसरे के साथ संपर्क में रहने के अलावा ये आतंकवादी, लोगों का नेटवर्क तैयार करते हैं जो इन्हे ख़ुफ़िया जानकारी लाकर देते हैं. इसे उदाहरण से समझिए. स्ट्रेटेजिक एनालिसिस में छपी ये रिपोर्ट बताती है कि आतंकियों के इन सहयोगियों के घरों में चिनार के सूखे पत्तों को जलाया जाता था. इससे उठता धुआं दूर से दिखता था जो आतंकियों के लिए संकेत था कि सिक्योरिटी फोर्सेज कोई मूवमेंट करने वाली हैं. कश्मीर घाटी में पत्ते जलाना आम बात है, इसलिए कोई शक नहीं करता, लेकिन खास घरों में उठता धुआं आतंकियों के लिए इनफार्मेशन होती है.
इसके अलावा कुछ पुराने तरीकों का आज भी खतरनाक मकसद के लिए इस्तेमाल किया जाता है. जैसे रात में मशाल जलाकर संकेत देना या फिर केरोसिन लैंप को खंभों पर लटकाना, ऐसा करके भी सुरक्षाबलों की हलचल बताई जाती है. आतंकी स्थानीय लोगों से 5 किस्म की चीज़ों की मदद लेते हैं - पनाह, खाना, खबरें, गाइड या लोकल मिलिटेंट. आतंकियों की मदद करने वाले इन लोगों को कहते हैं overground workers (OGWs). लेकिन इन लोगों का समर्थन इतनी आसानी से नहीं मिलता, इसके लिए आतंकवादी संगठन कई पैंतरे आज़माते थे. जैसे धर्म के नाम पर उकसाना, गांववालों को डराना, उनके घर में लंबे समय तक पनाह लेना, और कई बार अपने संगठन में उनके बच्चों को जबरदस्ती शामिल कर लेना, ये सब आतंकियों के काम करने का आम तरीका हुआ करता था.
इसे ऐसे समझिए, आतंकी कमांडर गांवों में उन घरों को निशाना बनाते, जिनमे 15-17 साल के बच्चे हों. माता-पिता को धमकाकर उनसे 'जिहाद' के नाम पर बच्चा मांगा जाता. इसके बाद उन्हें बच्चे का ठिकाना तक नहीं बताया जाता. डरा-धमकाकर मां-बाप को पुलिस कंप्लेंट तक करने से रोका जाता. जब सुरक्षाबल पूछताछ करते, तो माता-पिता को कहना पड़ता कि उनका बच्चा गायब है या रिश्तेदारों के पास गया है.
बरगलाने के प्रयासपढ़े लिखे युवाओं को फंसाने के लिए झूठी कहानियों और प्रचार का सहारा लिया जाता. पाकिस्तान से आई फर्जी डाक्यूमेंट्री या सुरक्षाबलों के द्वारा की गई ज्यादतियों की झूठी कहानियां दिखाकर युवाओं के दिमाग में ज़हर घोला जाता. उन्हें मसूद अजहर जैसे कट्टरपंथी नेताओं के भड़काऊ भाषण, कुछ किताबें, और फिल्में दिखाई जातीं और 'पैन-इस्लामिक' आंदोलन का हिस्सा बनने का सपना दिखाया जाता. फिर ट्रेनिंग कैंपों में इन युवाओं को सिखाया जाता कि भारत 'काफिरों' का देश है और उनके खिलाफ जिहाद की बात कही जाती. ये सब प्रोपोगैंडा मैटेरियल होता था. 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम के अटैक में आतंकियों ने बॉडीकैम और हेलमेट कैम लगाए थे. लोगों की हत्या का वीडियो भी रिकार्ड किया था, जिसका इस्तेमाल लश्कर के प्रोपोगैंडा मैटेरियल में किए जाने आशंका रक्षा सूत्रों ने जताई है.
पैसा/शोहरतपैसा और शोहरत भी युवाओं को आतंकवाद की ओर खींचने का एक कारण बनता है. आतंकवाद कई गरीब युवाओं के लिए कमाई और परिवार चलाने का जरिया भी है. कुछ युवा बेहद गरीब परिवारों से थे, जिनका बचपन मुश्किलों में बीता और भविष्य अंधकारमय था. उन्हें आने-जाने के लिए पैसा मिलता, और अगर वे जिंदा न लौटे, तो उनके परिवार को भुगतान होता. जो जिंदा लौटते, उन्हें दूसरों को भड़काने के लिए 'हीरो' बनाकर पेश किया जाता. इसे उदाहरण से समझिये, कश्मीर घाटी में कोकरनाग के पास एक गांव था. रिपोर्ट का कहना है 1998 में एक लड़के ने अपनी प्रेमिका के पिता से बदला लेने के लिए आतंकवाद का रास्ता चुना. क्योंकि उसने अपनी बेटी की शादी से इनकार किया था. उसे लगा कि आतंकी बनकर वह हीरो बन जाएगा. तब उसकी शादी प्रेमिका से हो जाएगी.

बात आगे बढ़ाते हैं. साल 2019 में आर्टिकल 370 के निष्प्रभावी होने के बाद, सरकार और सेना ने आतंकवादियों के इस सिस्टम पर गहरी चोट पहुंचाने की कोशिश की, ऐसे दावे सामने आए. कुछ खबरें भी सुनाई दीं, जैसे
- पिछले 5 सालों में भारत ने लश्कर, जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों की फन्डिंग और भर्ती प्रक्रिया की कमर तोड़ी.
- अलगाववादी संगठनों यानी वो ग्रुप्स जो कश्मीर की आजादी की बात करते थे उन पर प्रतिबंध लगाया गया.
- कई चरमपंथी संगठनों को प्रतिबंधित सूची में डाल दिया गया.
- राज्य में सैकड़ों की संख्या में आतंकी और उनके हैंडलर मारे गए.
लेकिन इस दौर में एक और नया ट्रेंड भी बना है. पुराने बैन हुए, तो कुछ नए आतंकी संगठन पैदा हुए. प्रमुख नाम - कश्मीर टाइगर्स, कश्मीर रेसिस्टेंस और द रेजिस्टेंस फ्रंट यानी TRF. हम बात करेंगे TRF की, जिसका नाम 22 अप्रैल को हुए पहलगाम अटैक से जुड़ा है. इसके कमांडर का नाम है शेख सज्जाद गुल. साल 2019 में जब धारा 370 को निष्प्रभावी किया गया, तो लश्कर के कुछ स्लीपर सेल्स और कुछ ऑपरेटिव्स ने मिलकर एक नया ग्रुप बनाया. नाम दिया TRF. नया ग्रुप होता, तो नए सिरे से पैसा आता और नए तरीके से गतिविधि की जाती. खबरों के मुताबिक, ISI समर्थित पाक ऑक्युपाइड कश्मीर में बैठे हुए हैंडलर्स ने पैसा बहाया. और TRF में जान डालने की कोशिश की.

सूत्र ये भी बताते हैं कि TRF को मजबूत करने के पीछे पाकिस्तान की एक ख्वाहिश थी. उसका चाहना रहा कि भारत की फौजें ज्यादा से ज्यादा जम्मू और कश्मीर में इंगेज रहें, जिससे भारत अपने उस फ्रन्ट पर कम एक्टिव रह पाए, जहां चीन द्वारा अतिक्रमण की आशंका ज्यादा है. अगर फौजों का घनत्व कश्मीर में ज्यादा होता, तो चीन को अतिक्रमण का अच्छा मौका मिल सकता था, ऐसे विचार थे पाकिस्तान के. ऐसा एक हद तक देखा भी गया. क्योंकि ठीक इस समय चीन ने लदाख के इलाके में घुसपैठ की कोशिश की. लेकिन भारत ने दोनों ही मोर्चों पर परस्पर मोर्चेबंदी जारी रखी.
वापस TRF के काम करने के तरीकों पर वापिस आएं, तो इस संगठन ने पिछले कुछ सालों में अलग सा मॉडस ऑपरेंडी अपनाया है. TRF जैसे नए संगठन, कश्मीर में अन्य राज्यों से आने वालों को निशाना बनाते हैं. इसके अलावा ये "बाहरियों" को निशाना बनाने की बात कहते हैं, इसके लिए ये प्रवासी मजदूरों, कश्मीरी पंडित, सरकारी कर्मचारी, और गैर-मुस्लिम समुदायों को टारगेट करते हैं. उनका मकसद साफ़ है, डर फैलाना है ताकि "बाहरी लोग" कश्मीर छोड़ कर भागें.
ये ऐसे इलाकों को चुनते हैं जहां सुरक्षा व्यवस्था थोड़ी कमजोर हो. और पहली बार में न अंदाज लगे कि ऐसी जगह अटैक हो सकता है. जैसे पहलगाम के बैसरन का मैदान, जो जंगलों और पहाड़ों से घिरा हुआ है. अगर आप नक्शे के हिसाब से देखें, तो ये इलाका लाइन ऑफ कंट्रोल और इंटरनेशनल बॉर्डर से बहुत दूर हैं. ज्यादा पास हैं लदाख के. ऐसे में कहा जा रहा है कि आतंकियों ने अंदाज लगाया कि यहां पर फ़ोर्स ज्यादा नहीं होगी.

इसके अलावा उन्होंने बहुत दिनों तक की रेकी के बाद बैसारन का मैदान चुना. ये है तो पहलगाम टाउन से मात्र 6 किलोमीटर दूर. लेकिन पक्के रास्ते का अभाव, और खच्चर-घोड़े का एकमात्र सहारा इस जगह तक पहुंचना थोड़ा कठिन बना देता है. इसीलिए 22 अप्रैल को जब घटना घटी, तो आतंकियों को इस बात का भरोसा था कि जम्मू-कश्मीर पुलिस का स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (SOG) को तो आने में समय लगेगा ही. साथ ही अनंतनाग वाले ज़ोन में तैनात भारतीय सेना के चिनार कोर की विक्टर फ़ोर्स को भी आने में समय लगता. हथियारों से लैस आतंकियों का सामना करने के लिए यदि टुकड़ी पहली ही SOS कॉल पर मूव कर जाती, तो भी उन्हें दुर्गम पहाड़ और चिनार के जंगलों का सामना करना पड़ता. इस वजह से ही आतंकियों ने 20 मिनट से ज्यादा का वक्त इस इलाके में बिताया, और चुन-चुनकर, शिनाख्त कर, लोगों की जान ली और भाग गए.
आतंकियों के काम करने के तरीकों पर वापिस आएं, तो इनके संगठन छोटे-छोटे ग्रुप बनाकर हिट एंड रन की रणनीति अपनाते हैं. वे तेज़ी से हमला करते हैं, ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं, और तुरंत जंगलों में वापस चले जाते हैं. उनके पास ऐसी डिवाइसेस होती हैं, जिसमें सिग्नल की दिक्कत नहीं होती, इनमें ऑफलाइन मैप होते हैं. नतीजा ये कि सुरक्षाबलों को रिस्पॉन्ड करने का मौका नहीं मिलता या ज्यादा समय लगता है.
TRF के पाकिस्तान से संबंधों की बात इसकी सोशल मीडिया गतिविधियों से और स्पष्ट होती है. ये गतिविधियां न केवल लश्कर-ए-तैयबा जैसे समूहों के प्रति सहानुभूति दिखाती हैं, बल्कि इनका पता इस्लामाबाद और पाकिस्तान के अन्य शहरों से भी लगाया गया है. मार्च 2020 में पकड़े गए आतंकियों से पूछताछ में पता चला कि उन्हें टेलीग्राम पर "एंड्रयू जोन्स" और व्हाट्सएप पर "खान बिलाल" नाम के पाकिस्तानी ऑपरेटिव से निर्देश मिले थे.
वर्तमान में TRF टेलीग्राम, वर्डप्रेस, टैमटैम, डिस्कॉर्ड, हूप, फेसबुक, व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम पर सक्रिय है. ये चैनल टेक्स्ट, ऑडियो और वीडियो संदेशों के माध्यम से अपना प्रचार करते हैं. उदाहरण के लिए, जून 2020 की शुरुआत में, टीआरएफ ने अपने सोशल मीडिया मंचों पर खुलकर घोषणा की थी कि
जो भी भारतीय कश्मीर में बसने की मंशा से आएगा, उसे RSS का एजेंट माना जाएगा, न कि नागरिक, और उसके साथ उचित कार्रवाई की जाएगी.
ये बयान भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर के लिए नए डोमिसाइल कानून लागू करने के कुछ हफ्तों बाद आया था. एक अन्य मामले में, 29 अगस्त और 2 सितंबर 2020 को, TRF ने अपने सोशल मीडिया खातों पर 62 लोगों के नाम और विवरण वाली 'हिट लिस्ट' पब्लिश की, जिसमें नागरिक, कार्यकर्ता, राजनीतिक कार्यकर्ता और सुरक्षाबलों के कर्मी शामिल थे. जम्मू-कश्मीर पुलिस के आधिकारिक बयान के अनुसार, इस सूची को 'साइबर OGWs की मदद से तैयार किया गया था. साइबर ओवरग्राउंड वर्कर्स यानी वो जो डिजिटल प्लैटफॉर्म्स पर खबर फ़ैलाने के लिए आतंकवादियों की मदद करते हैं.
TRF जैसे संगठनों की गुरिल्ला वारफेयर, इंटरनेट और प्लैटफॉर्म्स पर उनकी पकड़ और साथ ही नए नवेले वेपन्स उन्हें कई हमलों में एज देता है. लेकिन हमारी फौज और सुरक्षा एजेंसियां लगी हुई हैं. वो हर मंसूबों की काट निकालने की कोशिश करती रहती हैं. पहलगाम में भी सर्च ऑपरेशन जारी है.
वीडियो: आसान भाषा में: आतंकी अपने नापाक मंसूबों में कैसे कामयाब हो जाते हैं? कैसे फैलाते हैं प्रोपोगैंडा?