जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir) के पहलगाम में हुए आतंकी हमले (Pahalgam Terror Attack) के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) 24 अप्रैल को बिहार (Bihar) के मधुबनी में एक जनसभा को संबोधित कर रहे थे. इस रैली में उन्होंने पहलगाम में मारे गये लोगों को श्रद्धांजलि दी.
PM मोदी का इशारा समझे? ‘Mossad स्टाइल’ में चुन-चुनकर मारे जाएंगे आतंकी!
इज़रायल का ऑपरेशन, 20 साल तक चुन-चुनकर मारा, फोन के नीचे लगा दिया था बम!
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साथ ही उन्होंने एक बात और कही, जिसके बाद चर्चा थोड़ी गंभीर हो गई. पीएम मोदी ने कहा -
“मैं दुनिया से कहना चाहता हूं, भारत हर आतंकी और उनको समर्थन देने वालों की पहचान करेगा, पीछा करेगा और सजा देगा. हम धरती की छोर तक उनका पीछा करेंगे.”
जैसे ही ये स्टेटमेंट सामने आया, सुरक्षा एजेंसियों के सामने एक घटनाक्रम घूम गया. घटनाक्रम, जिसकी नींव पड़ी साल 1972 में. और इज़रायल ने अपने नागरिकों के हत्यारों को बीस साल तक ढूंढ-ढूंढकर मारा था. चाहे वो दुनिया के किसी भी कोने में छुपे रहे हों. क्योंकि तब भी इजरायल ने यही कहा था - हमारे नागरिकों के हत्यारों को हम चुन-चुनकर मारेंगे. और कुछ लोगों की लाशें गिराई भी थीं. क्या है ये पूरी कहानी, आइए समझते हैं.
मास्टर चाबी से घुसे थे आतंकी!कहानी की शुरुआत होती है साल 1970 से. इस साल सितंबर के महीने में जॉर्डन देश के राजा हुसैन और पैलेस्टाइन लिबरैशन आर्मी (PLO) के बीच संघर्ष हुआ. इस संघर्ष में बहुत सारे फिलिस्तीनी उग्रवादियों की जान चली गई. और जॉर्डन के राजा ने अपने यहाँ आर्मी का शासन लगा दिया. इस संघर्ष से टूटे हुए फिलिस्तीनी उग्रवादियों ने एक नया ग्रुप बनाया. नाम रखा - ब्लैक सेप्टेम्बर ऑर्गनाइज़ेशन (BSO). कहा जाता है कि ये ग्रुप एक सीक्रेट ग्रुप था, जिसके मेम्बर सभी उग्रवादी नहीं बन सकते थे. चंद ही लोगों को इसमें काम करने के लिए चुना जाता था. इस ग्रुप के दो ही दुश्मन थे - जॉर्डन और इजरायल.
साल 1972. इस साल जर्मनी को ओलंपिक मेजबानी का मौका मिला था. इसके पहले 1936 में ही अडोल्फ़ हिटलर के समय ही जर्मनी में ओलंपिक खेल हुए थे. साल 1972 में फिर से मौका मिला, तो जर्मनी को मौका मिला कि वो दुनिया को दिखा सके कि अब उसके देश में चीजें बदल गई हैं. जर्मनी के शहर म्यूनिख में ये खेल आयोजित थे. इजरायल से भी खिलाड़ियों का जत्था इन गेम्स में हिस्सा लेने पहुंचा हुआ था.
5 सितंबर 1972. सुबह चार बजे का वक्त. म्यूनिख के ओलंपिक विलेज में उस फ्लैट के बाहर हलचल शुरू हुई, जहां इज़रायली खिलाड़ी रुके हुए थे. फिलिस्तीन चरमपंथी समूह ब्लैक सेप्टेम्बर के उग्रवादी इस फ्लैट की बाड़ डाक रहे थे.

सुबह सवाल चार बजे. हमलावरों ने अपने पास पहले से मौजूद एक मास्टर चाबी से उस गलियारे को खोला, जिससे इज़रायली खिलाड़ियों तक पहुंचा जा सकता था. जैसे ही वो हमलावर आगे बढ़े, वहां मौजूद इज़रायली एथलीटों से उनकी हाथापाई हुई. इसके बाद ब्लैक सेप्टेम्बर के अटैकर ने दो एथलीट्स को मौके पर मार डाला. और 9 इजरायली और कुछ कोचों को बंधक बना लिया. फ़लस्तीनी चरमपंथी बंधकों को शहर के एक एयरपोर्ट पर ले गए.
"हम आतंकियों की कोई मांग नहीं मानेंगे"कुछ ही देर में खबर आग की तरह फैल गई. सामना हुआ तो हमलावरों ने कहा - अगर अपने नागरिक जिंदा वापिस चाहिए, तो इजरायल पहले उन 200 फिलिस्तीनी कैदियों को रिहा करे, जो इजरायल की जेल में बंद हैं. मेजबान देश जर्मनी के सामने मुसीबत थी. वहां की चांसलर विली ब्रांट ने इजरायल की प्रधानमंत्री गोल्डा मीर को फोन मिलाया और होस्टेज क्राइसिस की जानकारी दी. गोल्डा इजरायल की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं. उन्होंने कह दिया - “इजरायल आतंकियों की मांग नहीं मानता. चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े.”
इधर जब ये बातचीत हो रही थी, एयरपोर्ट पर जर्मन सुरक्षा बलों ने एक रेस्क्यू ऑपरेशन की कोशिश की. इजरायल में हर कोई इस ऑपरेशन की खबर जानना चाह रहा था. पहले खबर आई कि खिलाड़ियों को बचा लिया गया है. लेकिन धुआं छटा तो पता चला कि चरमपंथियों ने सभी नौ खिलाड़ियों को मार दिया था. साथ ही एक जर्मन अधिकारी को भी मौत के घाट उतार दिया था. इस कार्रवाई में जर्मन ऑफिसर्स ने पाँच चरमपंथियों को भी मार गिराया था, तीन को बंधक बना लिया गया. उनके नाम - अदनान अल गाशे, जमाल-अल गाशे और मोहम्मद सफादी.

इजरायल की जनता बौखलाई हुई थी. वहां बस एक ही आवाज गूंज रही थी - इंतक़ाम.
इजरायल ने जर्मनी से मांग की कि वो तीनों चरमपंथियों को सौंप दे. जर्मनी में इसकी तैयारी शुरू हुई. लेकिन इधर बीच एक और घटना घट गई. अक्टूबर 1972. लुफ़्थांसा की फ्लाइट 615, सीरिया से जर्मनी आ रही थी. दो फिलिस्तीनी चरमपंथियों ने इस फ्लाइट को हाईजैक कर लिया. और मांग की कि ब्लैक सेप्टेम्बर के पकड़े गए तीनों आतंकियों को रिहा किया जाए. जर्मनी तैयार हो गया. हमलावर रिहा कर दिए गए. और फिर वो गए लीबिया, जहां के तानाशाह मुआमार गद्दाफ़ी ने तीनों का सम्मान किया.
मोसाद को मिली काम लगाने की जिम्मेदारीइज़रायली पीएम गोल्डा मीर ने तुरंत आला अधिकारियों की एक मीटिंग बुलाई. इस मीटिंग में तय हुआ कि ब्लैक सेप्टेम्बर के एक-एक व्यक्ति को ढूंढकर मारा जाएगा. चाहें वो जहां भी हों. इस काम को अंजाम देने के लिए एक ख़ुफ़िया कमिटी का गठन हुआ - कमिटी एक्स.
इस कमिटी ने सबसे पहले एक लिस्ट बनाई. इसमें वो नाम थे, जिनका काम लगाना था. और काम भी इस तरह से होना था कि इसमें इजरायल का नाम किसी तरह से न आए. ऐसा इसलिए क्योंकि ये लोग सिर्फ एक देश में नहीं थे. अलग-अलग जगहों पर फैले हुए थे. इसलिए आधी दुनिया में घूम-घूमकर किया जाने वाला ऑपरेशन था. ऐसे में एक ही एजेंसी थी, जो इस काम को अंजाम दे सकती थी. एजेंसी का नाम - मोसाद. मोसाद के अधिकारियों को ब्रीफिंग दी गई. अधिकारी तैयार हुए. ऑपरेशन को मिला चिरपरिचित नाम - Wrath of God. यानी ईश्वर का क्रोध.
मोसाद ने जो टीम बनाई, उसके लीड करने का जिम्मा उठाया इजरायल के जाने-माने जासूस माइक हरारी ने. उन्होंने ऑपरेशन के लिए 5 टीमें बनाईं.
1 - अलिफ़ - इस टीम में दो ट्रेंड किलर थे.
2 - बेट- दो एजेंट, जो बाकी टीम की फ़र्ज़ी पहचान का इंतज़ाम करते
3 - हेट- दो एजेंट, जिनका काम होटल कार आदि का इंतज़ाम करना था
4 - अयिन- 6 एजेंट, जिनका काम निशानदेही और टीम के लिए एस्केप रूट तैयार करना था
5 - कोफ़ - 2 एजेंट, जो कम्युनिकेशन का जिम्मा संभालते
16 अक्टूबर 1972. इस दिन रोम से इस wrath of god की शुरुआत हुई. रोम में एक अपार्टमेंट में गोलियां तड़तड़ा रही थीं. जब शोर थमा, तो अपार्टमेंट के अंदर वेल जेवेतर नामक शख्स की गोलियों से बिंधी हुई लाश पड़ी थी. जेवेतर फिलिस्तीनी अनुवादक थे और फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात के चचेरे भाई थे. इजरायल के लिए वो ब्लैक सेप्टेम्बर के रोम प्रमुख. दो अज्ञात हमलावरों ने उनके शरीर में 11 गोलियां उतार दी थीं.
अगला नंबर था महमूद हमशारी का. वह फ्रांस में Palestine Liberation Organization (PLO) के प्रतिनिधि थे. और इजरायल का मानना था कि वो फ्रांस में ब्लैक सेप्टेंबर के लीडर थे. 8 दिसंबर, 1972 - महमूद हमशारी के डेस्क के नीचे एक धमाका हुआ और वे घायल हो गए. और कुछेक हफ्ते बाद उनकी मौत हो गई.
फिर आई 6 अप्रैल, 1973 की तारीख. पेरिस की एक गली में बासिल-अल-कुबैसी नाम के शख्स को गोलियों से मार दिया गया. लेबनान के अखबारों ने खबर छापी कि कुबैसी, पॉपुलर फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑफ पेलेस्टाइन (PFLP) के सदस्य और एक अमरीकन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे. इजरायल ने कहा - वो ब्लैक सेप्टेम्बर के लीडर थे.
गुलदस्ता भेजकर बताया - तुम्हारी मौत होने वाली हैएकाध सालों में मिडिल ईस्ट और यूरोप के देशों में एक के बाद एक लाशें गिरने लगीं. लोगों को समझ तो आ गया कि ये मोसाद का काम है, लेकिन कोई सीधे इल्जाम नहीं लगा सकता था. कुछ जगह ब्यौरे मिलते हैं कि इजरायल ने अखबारों में शोक संदेश छपवाना शुरू कर दिया. उन्हें देखकर ये समझ आ जाता कि उनका अगला निशाना कौन है. ये मोसाद का बढ़ा हुआ आत्मविश्वास था. उसके एजेंट्स ने अपने टारगेट्स को गुलदस्ता भेजना शुरू कर दिया. गुलदस्ते में नोट होता - हम न भूलते हैं, न माफ करते हैं.
लगातार हो रही हत्याओं से ब्लैक सेप्टेम्बर और PLO से जुड़े लोग डरे हुए थे. ऐसे में PLO के तीन नेताओं मोहम्मद यूसुफ अल-नज्जर, कमाल अदवान और कमाल नसीर ने बेरुत में एक घर के अंदर खुद को बंद कर लिया. मोसाद ने उन्हें मारने के लिए एक नया ऑपरेशन लॉन्च किया - ऑपरेशन स्प्रिंग ऑफ यूथ. इस ऑपरेशन के लिए इजरायली नेवी और एयरफोर्स का इस्तेमाल हुआ. स्पीड बोट के जरिए इजरायली स्पेशल फ़ोर्स के कमांडोज़ लेबनान पहुंचे. यहां उनकी मुलाक़ात मोसाद एजेंट्स से हुई. एक अधिकारी ने औरत का भेष धरा. और रातों रात बिल्डिंग में घुसे, तीन लोगों को मारकर लौट गए.

इजरायल खुलेआम हत्याएं कर रहा था, और कोई भी अंकुश लगाने वाला नहीं था. लेकिन 21 जुलाई 1973 को कुछ ऐसा हुआ, जब इजरायल की पोल खुल गई. मोसाद ने नॉर्वे में एक व्यक्ति की हत्या की, ये सोचकर कि वो उनका टारगेट अली हसन सलामेह है. लेकिन धुआं छटा तो पता चला कि जिस आदमी को मोसाद ने मारा, वो एक आम रेस्तरां वेटर था, न कि उनका टारगेट. मोसाद के कुछ एजेंट्स को हिरासत में ले लिया गया. इजरायल की कलई खुल गई. असली अली हसन सलामेह अगले कई सालों तक छुपता-फिरता रहा. अंत में जनवरी 1979 में मोसाद ने उसकी कार में बम लगाकर उड़ा दिया.
म्यूनिख के असल अपराधियों को नहीं मार पाया मोसाद?किरकिरी होने के बाद भी इजरायल ने रैथ ऑफ गॉड पर कोई रोक नहीं लगाई. मोसाद एजेंट्स ने काम जारी रखा. ब्लैक सेप्टेम्बर के लोगों की हत्याएं जारी रहीं. कभी किसी को गोली से मारा जाता, तो कभी बम धमाके से. और इसी क्रम में मोसाद ने म्यूनिख ओलंपिक के तीन हमलावरों में से दो की हत्या का दावा किया. कौन से दो? अदनान अल गाशे और मोहम्मद सफादी. हालांकि इस दावे को चैलेंज किया गया. कुछ ने कहा कि दोनों की मौत हो गई है, उसमें मोसाद का कोई रोल नहीं है. और कुछ ने कहा - दोनों जिंदा हैं, और स्वस्थ हैं.
तीसरा बचा हुआ हमलावर जमाल अल गाशे अफ्रीकी देश ट्यूनीशिया में जाकर छुप गया था. आख़िरी बार केविन मैक्डॉनल्ड की 1999 में आई डाक्यूमेंट्री ‘वन डे इन सेप्टेम्बर’ में देखा गया. इसमें गाशे मुंह छुपाकर आया था, और कहा - "म्यूनिख में मैंने जो किया उस पर मुझे गर्व था. क्योंकि इसने फिलिस्तीनी आंदोलन की काफी मदद की."
20 सालों तक इजरायल का ये ऑपरेशन चला. इस पर सवाल उठे. कुछ ने कहा कि ये अपनी आत्मरक्षा और देशप्रेम का बेजोड़ उदाहरण है. अन्य ने कहा कि ये तमाम नियमों-कानूनों का उल्लंघन और इजरायल की मनमानी है.

लेकिन इस पूरे ऑपरेशन की सबसे बड़ी आलोचना इजरायल के भीतर से हुई. इज़रायली पत्रकार और लेखक एरन जे क्लेन ने साल 2005 में अपने इंटरव्यूज़ में कहा कि इस ऑपरेशन में मारे गए अधिकांश लोग म्यूनिख अटैक से नहीं जुड़े थे. वो ब्लैक सेप्टेम्बर के छोटे लेवल के आपरेटिव थे. म्यूनिख अटैक से सीधे तौर पर जुड़े लोग तो अपने बॉडीगार्ड्स के साथ जाकर छुप गए थे. एरन जे क्लेन ने ऐसा क्यों कहा था? क्योंकि उनका दावा था कि मोसाद के कुछ अधिकारियों से उनकी बात हुई है, और अधिकारियों ने ये बातें साझा की हैं.
साल 2006 में मोसाद के पूर्व चीफ ज़्वि जमीर ने एक इंटरव्यू में कहा कि हमारे लिए म्यूनिख से जुड़े लोगों को सज़ा देने से ज्यादा जरूरी था कि यूरोप में आतंक के नेटवर्क को तोड़ा जाए. कुछ और इंटरव्यूज में म्यूनिख में मारे गए इज़रायली एथलीटस के घरवालों ने रोष ज़ाहिर किया था . कहा था कि उन्हें भरोसा नहीं हो रहा है कि उन्हें न्याय दिलाने की लड़ाई में इजरायल साइड ऑपरेशन चलाएगा.
साल 1984 में इस ऑपरेशन पर कनाडा के पत्रकार जॉर्ज जोनास ने म्यूनिख और रैथ ऑफ गॉड पर 'वेनजेन्स' नाम से एक किताब लिखी. साल 2005 में स्टीवन स्पीलबर्ग ने इस किताब के आधार पर एक फिल्म बनाई. नाम - म्यूनिख. अगर देखना हो तो ये मूवी फिलहाल प्राइम वीडियो पर उपलब्ध है. आप चाहें तो देख सकते हैं.
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