22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले (Pahalgam Terrorist Attack) के आसपास कुछ और भी खबरें नत्थी हुई हैं. मसलन -
LOC पर फायरिंग चालू, पाकिस्तानी अपना इतिहास देख लें तो बंदूक फेंककर पिचकारी खरीद लेंगे!
पाकिस्तानी आर्मी के जनरलों का दिमाग फ़िरा, लेकिन कुछ नहीं कर पाए
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# भारत ने पाकिस्तान की ओर जाने वाला पानी रोक दिया
# भारत ने पाकिस्तानी नागरिकों को दिया जाने वाला वीज़ा रोक दिया
# और पाकिस्तान ने जवाब में भारत के लिए अपना एयरस्पेस बंद कर दिया
लेकिन सूत्रों के हवाले से कुछ और खबरें आईं. कहा गया कि 22 अप्रैल को हुए हमले से दो दिनों पहले से ही पाकिस्तान की फ़ौज ने दोनों देशों के बीच मौजूद नियंत्रण रेखा (LOC) और इंटरनेशनल बॉर्डर (IB) सेक्टर वाले इलाक़ों में आर्टिलरी मूवमेंट शुरू कर दिया था. गोया, जंग होगी, इसका आभास पाकिस्तान को पहलगाम हमले के पहले ही हो गया था. साथ ही 29 अप्रैल को पाकिस्तान ने LOC के पास लगने वाले इलाकों, अखनूर, कुपवाड़ा और बारामुला में फायरिंग की. सीज़फायर का उल्लंघन किया. ऐसे में जंग की बात उठी. और फिर आया ज़िक्र उन चार पाकिस्तानी सैन्य अधिकारियों का, जिन्होंने मौक़े देखे और भारत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ी. और हर बार हारा हुआ चेहरा लेकर अपनी मुल्क की आवाम के बीच वापिस लौट गए.
हम उन्हीं चार अधिकारियों की कहानी सुनाएंगे. लेकिन पहले इतिहास का क्विक रीकैप.
साल 1947 - देश को आज़ादी मिली, और धर्म के आधार पर विभाजन हुआ. दो हिस्से में पाकिस्तान बना. एक - पश्चिमी पाकिस्तान, जो अब सिर्फ़ ‘पाकिस्तान’ के नाम से जाना जाता है. और दूसरा - पूर्वी पाकिस्तान, जो साल 1971 के बाद बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है.
विभाजन के समय दोनों मुल्कों की सीमा बनी. नाम दिया गया - रैडक्लिफ़ लाइन. लेकिन इसी साल कुछ समय बाद पाकिस्तान की सेना ने कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की नीयत से क़बीलाई लड़ाकों के साथ भारत पर हमला किया. और हमारी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके बैठ गए. जहां पर जंग रुकी, उसे कहा गया सीज़फ़ायर लाइन. आज इस जगह है LOC.
रिकैप ख़त्म. जनरलों से बात शुरू करते हैं.
फ़ील्ड मार्शल अय्यूब ख़ान
ये नाम इस लिस्ट में सबसे पहले आएगा, क्योंकि जनरल अय्यूब खान वो शख्स थे, जिन्होंने प्लान बनाकर भारत के खिलाफ जानबूझकर जंग छेड़ने की शुरुआत की थी. देश की आज़ादी के पहले ब्रिटिश आर्मी में थे, साल 1947 में भारत की आजादी और बंटवारे के बाद अय्यूब खान पाकिस्तान आर्मी में चले गए. और पूर्वी पाकिस्तान, जो बाद में बांग्लादेश बना, वहां तैनाती मिली. अक्टूबर 1958 में, उन्होंने इसकन्दर अली मिर्जा की गद्दी का तख्तापलट किया और पाकिस्तान में सेना का राज स्थापित हुआ. प्रेसिडेंट बने खुद अय्यूब खान. ये पाकिस्तान के इतिहास में होने वाला पहला सैन्य तख्ता पलट था. इसके बाद और भी अध्याय लिखे जाने थे. पाकिस्तान की राजनीति में बार-बार लोकतंत्र का स्वांग रचा जाना था. लेकिन वो कहानी कभी और.
तो जब अय्यूब खान पाकिस्तान की गद्दी पर बैठ रहे थे, भारत के फ्रन्ट पर काफी कुछ घट रहा था. जैसे, भारत का मुकाबिला करने के लिए पाकिस्तान को अमरीका से लंबी चौड़ी फंडिंग मिली थी. इस फंडिंग का उपयोग पाकिस्तान हथियार खरीदने के लिए कर रहा था.
साल 1960. अय्यूब खान और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वर्ल्ड बैंक की मध्यस्थता में सिंधु नदी जल समझौते पर हस्ताक्षर किये.

और इधर साल 1962 में कुछ ऐसा हुआ, जिससे भारतीय रक्षा तंत्र को फिर से दुरुस्त करने की जरूरत आन पड़ी. दरअसल, इस साल अक्टूबर से लेकर नवंबर के बीच भारत और चीन की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ. भारत की हार हुई. इसके बाद भारत ने अपनी सैन्य रणनीति पर फिर से काम शुरू किया. हथियारों से लेकर फौजियों की प्लेसमेंट तक, सबकुछ पर काम किया जाना था.
पाकिस्तान ने देखा कि अपने पूरे तंत्र की मरम्मत में जुटा हुआ है. लिहाजा अय्यूब खान ने एक खतरनाक प्लान बनाया. जनरल अय्यूब को लगा कि भारत की सेनाएं कमजोर स्थिति में हैं, लिहाजा इस समय कश्मीर में एक्शन किया जा सकता है. लेकिन सीधे फौज को घुसाने से ज्यादा सही लगा कि जम्मू-कश्मीर में अपराइज़िंग को बढ़ावा दिया जाए. अपराइज़िंग जिसमें स्थानीय मुस्लिम लोग भारत के खिलाफ विद्रोह पर उतर आते - ऐसा प्लान अय्यूब खान ने बनाया. इतिहास की किताब में इस प्लान का नाम लिखा गया - ऑपरेशन जिब्राल्टर.
साल 1965. इस साल पाकिस्तानी फ़ौजियों ने भारत से जुड़ी सरहद के पास गश्ती शुरू कर दी. भारत ने भी जवाब दिया. दोनों देशों ने एक दूसरे की चौकियों पर बमबारी की. लेकिन पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप के बाद सबकुछ शांत हो गया.

लेकिन अय्यूब ख़ान को जंग की चुल्ल मची हुई थी. सितंबर के महीने में उन्होंने कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ करवा दी. ये सैनिक राजौरी और गुलमर्ग के इलाक़ों तक पहुंच गये. लोगों से जानकारी लेने लगे. और उन्हें भारत के ख़िलाफ़ भड़काने लगे. भारत की फ़ौज को सूचना मिली, तो फ़ौरन हमला शुरू किया गया. पाकिस्तान की सेना पीछे खदेड़ दी गई. लेकिन अय्यूब ख़ान इस ग़लतफ़हमी के साथ इस जंग में उतरे थे कि भारत की सेना का मनोबल तोड़ने में सफल हो जाएंगे. कभी एक जगह से पीछे हटते, तो दूसरी जगह से भारत में एंट्री लेते. कुल जमा माहौल ऐसा हो गया था कि नीचे राजस्थान से लेकर ऊपर कश्मीर तक, पाकिस्तान की फ़ौज जहां तहां से एंट्री लेने की कोशिश करतीं. और भारत की सेना जवाब देती. और भारत की सेनाओं ने कश्मीर के इलाक़े में तो 1947 वाली सीज़फ़ायर लाइन फाँदकर कुछ चोटियों-चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया था. भारत और पाकिस्तान के सरहदी राज्यों में हफ़्तों तक बम बंदूक़ चलते रहे.
दोनों ओर से जानें गईं. जनरल अय्यूब को कुछ हाथ नहीं लगा. सोवियत यूनियन ने दोनों देश के सीज़ फ़ायर पर साईन लिये. और आख़िर में जाकर अमरीका और सोवियत यूनियन ने मिलकर 10 जनवरी 1966 को भारत और पाकिस्तान के बीच समझौता कराया. जिसे कहा गया - ताशकंद समझौता.
जनरल याह्या ख़ान
65 की लड़ाई में हाथ कुछ न लगने पर भी जनरल अय्यूब बहुत मायूस नहीं थे. उसी साल अपने देश में धांधली करके उन्होंने चुनाव में जीत पा ली थी. मोहम्मद अली जिन्ना की छोटी बहन फ़ातिमा जिन्ना को हरा दिया था.
उनके अपने ही नेता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, ताशकंद समझौते पर मुंह बनाए हुए थे. सरकार से इस्तीफ़ा देकर पार्टी बनाई - पाकिस्तान पीपल्स पार्टी. और फिर सड़कों पर अय्यूब ख़ान के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने लगे.
1969 आते-आते स्थिति काफ़ी बिगड़ गई, और अय्यूब ख़ान को इस्तीफ़ा देना पड़ा. लेकिन जाते-जाते उन्होंने तत्कालीन आर्मी चीफ़ अपने ख़ास जनरल याह्या ख़ान को राष्ट्रपति की कुर्सी सौंप दी. पाकिस्तान फिर से फ़ौज के शासन के अधीन चला गया.
जनरल याह्या को भी वही दिक़्क़त हो रही थी, जो उनके बॉस को थी. पड़ोस में शांति देखी नहीं जा रही थी. 1970 में पाकिस्तान में चुनाव होने थे. लेकिन चुनावों के साथ ही ईस्ट पाकिस्तान, जिसको अब बांग्लादेश कहते हैं, वहां शुरू हो गया विद्रोह. वहां मौजूद बांग्ला भाषी लोगों ने पाकिस्तान की सरकार के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू कर दिया.
इस विद्रोह के पीछे एक और कारण था साल 1970 में आया चक्रवाती तूफ़ान ‘भोला’. इस तूफ़ान ने पूर्वी पाकिस्तान में हज़ारों लोगों की जान ले ली थी. और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही. पूर्वी पाकिस्तान के लोगों को तब लगा कि ये उनके नागरिक अधिकारों का हनन है. आज़ादी और बंटवारे के समय से उनकी ये शिकायत थी कि पश्चिमी पाकिस्तान में बैठी हुई सरकार धर्म, भाषा और संस्कृति के आधार पर पूर्वी पाकिस्तान की अवाम के साथ भेदभाव कर रही. निज़ामों की बेवफ़ाई के इल्ज़ाम तब और मज़बूत होते, जब लोग ये देखते कि पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों को संसाधन सबसे पहले मुहैया कराए जा रहे हैं. साल 1970 में तूफ़ान के बाद इस्लामाबाद में बैठी सरकार ने कुछ काम नहीं किया, तो पूर्वी पाकिस्तान में रोष और बढ़ गया. विरोध शुरू हुआ, जो सड़कों और सरकारी संस्थानों तक चला आया.
देखते-देखते बंगाली लोगों की एक सशत्र मिलिशिया खड़ी हो गई. नाम - मुक्ति वाहिनी. मांग- बांग्लादेश की आज़ादी.

इस वाहिनी की बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखते हुए जनरल याह्या टेंशन में थे. उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में एक ऑपरेशन को हरी झंडी दी. इस ऑपरेशन को कहा गया - सर्चलाइट. इसके तहत पूर्वी पाकिस्तान वाले हिस्से में बंगाली विद्रोह को ख़त्म किया जाना था. 25 मार्च 1971 को इस ऑपरेशन की शुरुआत हुई. जनरल याह्या ने इसकी आड़ में विद्रोह ख़त्म करने के बजाय, क़त्ल-ए-आम शुरू कर दिया. पूरे देशभर में बांग्ला समुदाय के लोगों की हत्या की गई.
पाकिस्तानी फ़ौज के लोगों ने गांव-गांव घूमना शुरू किया. वहां मौजूद बंगाली और हिंदू परिवारों को चिन्हित शुरू किया. फिर उस गांव में छापा मारकर उन परिवारों की महिलाओं का सामूहिक बलात्कार शुरू किया जाता, और फिर पूरे परिवार की हत्या कर दी जाती. एक अनुमान के मुताबिक़ 8 महीने और 20 दिन तक चले इस हत्याकांड में पाकिस्तानी आर्मी ने 30 लाख के आसपास लोगों का क़त्ल किया. लाखों बंगाली लोगों ने भागकर भारत में पनाह ली थी.
लेकिन याह्या ख़ान की चिंता थी. वो अमरीका को चिट्ठी लिख रहे थे कि भारत की इंदिरा गांधी सरकार, मुक्ति वाहिनी के साथ खड़ी है. मदद कीजिए. ये बात कुछ हद तक सही भी थी. कहा जाता है कि भारत सरकार के निर्देश पर R&AW ने मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को ट्रेन किया और हथियार दिये थे. इसी ख़ब्त में याह्या ख़ान ने 3 दिसंबर 1971 को एक बड़ी गलती कर दी. इस दिन शाम के वक्त पाकिस्तान की एयरफ़ोर्स ने अमृतसर, अंबाला, अवंतिपुर, आगरा, बीकानेर, हलवाड़ा, जोधपुर, जैसलमेर, पठानकोट, भुज, उत्तरलाई और श्रीनगर में मौजूद भारतीय एयरफ़ोर्स के बेस पर हमला कर दिया. ये था पाकिस्तान का ऑपरेशन चंगेज़ ख़ान. प्लान था कि भारत के हवाई बेड़े को तबाह कर दिया जाए. हालांकि ऐसा हो नहीं पाया.
हमले के बाद शाम को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश के नाम संदेश जारी किया. वो कह रही थीं कि ये जंग का एलान है. कुछ ही घंटों में खबर आई कि भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान के ठिकानों पर हमले शुरू कर दिये. 1971 की भारत-पाकिस्तान जंग शुरू हो चुकी थी.

अगले 13 दिनों तक जनरल सैम मानेकशॉ की अगुवाई में भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में जमकर लड़ाई की. ज़मीन पर मुक्ति वाहिनी के लोग भारतीय सेना के साथ थे, तो आसमान और पानी में ख़ुद के बेड़े. पाकिस्तान की हालत ख़राब हो चुकी थी. इस समय पूर्वी पाकिस्तान में लेफ़्टिनेंट जनरल आमिर अदुल्लाह ख़ान नियाज़ी, चीफ़ मार्शल लॉ प्रशासक और आर्मी कमांडर की कुर्सी पर बैठे हुए थे. उन्हें पता लग गया था कि पश्चिमी पाकिस्तान से वक़्त रहते मदद नहीं आनी है. और भारतीय फ़ौज दरवाज़े पर खड़ी है. जनरल याह्या ख़ान का सपना टूट गया था. सरेंडर करने का शर्मनाक फ़ैसला लेना अब उनकी मजबूरी थी.
16 दिसंबर 1971. ढाका में मौजूद रमना रेस कोर्स मैदान में इतिहास लिखा जा रहा था. एक मेज़ पर दो लोग बैठे थे. दाहिनी ओर तो थे पाकिस्तान के लेफ़्टिनेंट जनरल नियाज़ी. और बाईं ओर बैठे थे भारत के कमांडिंग अफ़सर लेफ़्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा. सामने था काग़ज़, जिस पर लिखा हुआ था - Instrument of Surrender. पाकिस्तान ने आत्मसमर्पण किया. 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया गया. ये वही 93 हज़ार की संख्या है, जो आप हाल फ़िलहाल खबरों में सुनते रहते हैं. पूर्वी पाकिस्तान आज़ाद देश बना. नाम पड़ा - बांग्लादेश.

हार का असर ये हुआ जनरल याह्या ख़ान की तानाशाही का अंत हो गया. जनता का भरोसा बना भुट्टो पर.
फिर 2 जुलाई 1972 को हिमाचल प्रदेश के शिमला में भुट्टो और इंदिरा गांधी की मुलाक़ात हुई. दोनों देशों ने फिर से एक भंगुर शांति समझौते पर दस्तख़त किए. इसे ही कहा गया शिमला समझौता.
जनरल परवेज़ मुशर्रफ़
लेकिन इस लिस्ट में अगला नाम बस निज़ाम की गद्दी पर ही नहीं बैठा था, बल्कि उस पर इल्ज़ाम थे कि उसने पाकिस्तान की पूरी सत्ता को अंधेरे में रखा हुआ था. 1965 वाली जंग में SSG कमांडो टीम में था, और 1971 वाली जंग में तो अपनी कमांडो बटालियन का कंपनी कमांडर था. बांग्लादेश जाने के लिए तैयार था, लेकिन भारतीय सेनाएं आगे बढ़ गईं, तो नहीं गया. ये शख़्स 6 अक्टूबर 1998 को पाकिस्तानी आर्मी चीफ़ की कुर्सी पर बैठा. नाम - जनरल परवेज़ मुशर्रफ़.
गद्दी पर बैठते ही जनरल मुशर्रफ ने कारगिल युद्ध की पृष्ठभूमि लिखना शुरू कर दिया. इसी महीने में स्कर्दू और गिलगिट में तैनात फ्रंटियर डिविजन के जवानों की छुट्टियां रद्द कर दी गईं. पैरामिलिट्री फ़ोर्स नॉर्दन लाइट इंफेट्री को ऑपरेशन कोह-ए पैमा के लिए तैयार किया गया. जी हां, ये ही इस ऑपरेशन का नाम था. कोह-ए-पैमा. यानी वो जो पर्वतों को नाप सकता है.
शुरुआत में प्लानिंग थी कि कारगिल के पास LOC में जहां-जहां गैप्स हैं. वहां पाकिस्तान कब्ज़ा कर लेगा. लेकिन फिर एक ऐसी घटना हुई, जिसने इस ऑपरेशन का दायरा बढ़ा दिया. नवम्बर 1998 की बात है. पकिस्तान की खुफिया एजेंसियों ने रिपोर्ट दी कि कारगिल सेक्टर में भारतीय फ़ौज की असामान्य हलचल देखी जा रही है. सेना के एक ब्रिगेडियर मसूद असलम ने कारगिल सेक्टर में सर्वे किया, और पाया कि भारत की चौकियों पर बर्फ जमी हुई है. और सैनिक नहीं हैं. ये उस समय आम था क्योंकि इतनी ऊंचाई पर बर्फ पड़ने पर भारतीय सैनिक कारगिल के इन इलाकों में मौजूद अपनी चौकियों को छोड़कर निचले इलाके में चले आते थे. इस बार भी वैसा हुआ था. वापस लौटकर ब्रिगेडियर मसूद ने रिपोर्ट फाइल की. ये रिपोर्ट देखकर मुशर्रफ़ ने फैसला किया - कारगिल पर क़ब्ज़ा करना है.

सिर्फ चार लोग थे, जो इस “ऑपरेशन कोह-ए पैमा” के बारे में जानते थे. आर्मी चीफ जनरल मुशर्रफ, चीफ ऑफ़ जनरल स्टाफ जनरल अजीज, 10वीं डिविजन के कोर कमांडर जनरल महमूद, नॉर्दन इन्फेंट्री फोर्स के इंचार्ज ब्रिगेडियर जावेद हसन. इन चारों की जोड़ी को उस पाकिस्तान आर्मी के भीतर 'गैंग ऑफ़ फोर' के नाम से जाना जाता था.
लेकिन जब पाकिस्तान की सेना अपने एंड पर ये सब प्लान कर रही थी, उस समय नवाज़ शरीफ़ की सरकार क्या कर रही थी? पाकिस्तान की सरकार, भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ वार्ता में लगे हूँ थे. संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली में दोनों की मीटिंग हुई. बस सेवा शुरू करने को लेकर सहमति बनी. और कुछ दिनों बाद 20 फरवरी, 1999 को वाजपेयी बस लेकर लाहौर पहुंचे.
कहा जाता है कि इस वक़्त तक नवाज़ शरीफ़ को कोह-ए पैमा के बारे में कोई जानकारी नहीं थी.

मई के महीने में इस्लामाबाद में एक मीटिंग हुई. इसमें गैंग ऑफ़ फोर ने पीएम शरीफ़ को अपने प्लान के बारे में पहली बार बताया. लेकिन इसमें एक बात छुपा ली गई थी कि पाकिस्तानी सेना भी LOC पार करके आएगी. नवाज़ शरीफ़ को तो बस इतना बताया गया कि पाकिस्तानी सेना कश्मीर में घुसपैठ करवाने में मदद करेगी. नवाज़ शरीफ़ का भरोसा हासिल करने के लिए मुशर्रफ़ की टीम ने ‘जिन्ना का सपना’, ‘कश्मीरी भाइयों का दर्द’, ‘कश्मीर की आज़ादी’ और ‘मुस्लिम लीग का ख़ाब’ जैसे जुमले इस मीटिंग में फेंक दिये. नवाज़ शरीफ़ फिसल गये. “आगे बढ़ो और फ़तह हासिल करो” - जैसा कोई जुमला उन्होंने भी फेंका और कार में बैठकर चले गए.
बाद में उन्हें पता चला कि पाकिस्तानी सैनिक LOC पार करके भारत में घुस गए हैं, उन्होंने इसमें भी सहमति दे दी. कहा जाता है कि अप्रैल 1999 बीतते-बीतते पाकिस्तान ने भारत की डेढ़ सौ चौकियों पर क़ब्ज़ा कर लिया था. LOC पार करके आये थे पाकिस्तानी सैनिक, लेकिन पाकिस्तान पर सीधे युद्ध भड़काने के आरोप न लगें, इसलिए इन सैनिकों ने मुजाहिदों का भेष धर रखा था.
मई के महीने में भेड़ें और बकरियाँ चराने गए गुज्जर-बकरवाल चरवाहों के समूह ने देखा कि भारत की चौकियों पर जो लोग बैठे हुए हैं, वो जाने-पहचाने नहीं लग रहे हैं. चरवाहों ने नीचे लौटकर भारतीय सेना को इत्तिला किया. धीरे-धीरे रेकी शुरु हो गई. और फिर शुरू हुआ ऑपरेशन विजय.
ऑपरेशन के कुछ ही दिनों में ये भारतीय सेना ने साफ कर दिया कि ये मुजाहिद के भेष में छुपे हुए पाकिस्तानी सेना के लोग हैं. क्योंकि मारे गए इन बहुरूपिये सैनिकों की जेबों से पाकिस्तानी आर्मी से जुड़े दस्तावेज़ बरामद होते थे. इनके रेडियो इन्टरसेप्शन से भी ये बात स्थापित होती थी. लेकिन पाकिस्तान लगातार अपनी फौज की संलिप्तता नकारता रहा. युद्ध हुआ. बहुत सारे भारतीय फौजियों ने शहादत दी. और आखिर में 26 जुलाई के दिन कारगिल के इस दो महीने तक चले युद्ध की समाप्ति की आधिकारिक घोषणा की गई. भारत की सेना ने ऐलान किया कि पाकिस्तान से जुड़े सैनिक और लड़ाकों ने भारत की सरहद छोड़ दी है. इस क़रारी शिकस्त के बाद दो महीने बाद नवाज़ शरीफ़ ने मुशर्रफ़ के प्लेन की लैंडिंग रोक दी, मुशर्रफ़ की सेना ने शरीफ़ को बंदी बना लिया. और पाकिस्तान में एक और सैन्य तख्तापलट के बाद जनरल परवेज़ मुशर्रफ मुल्क के वज़ीर-ए-आज़म बने.
जनरल आसिम मुनीर
ये शख़्स इस लिस्ट में अगला नाम न होता, अगर हरकतें इतनी नोटोरियस ने होतीं. और हरकतों पर नज़रें इनायत करें, उसके लिए ये वीडियो देखिए.
ये वीडियो आया है 22 अप्रैल को हुए पहलगाम आतंकी हमले से एक हफ़्ते पहले आया है. और बोल रहे स्पेशलिस्ट का नाम है- जनरल आसिम मुनीर. पाकिस्तान के चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ (पाकिस्तान सेना प्रमुख). वो तू नेशन थ्योरी का ज़िक्र कर रहे हैं. वो कश्मीर में 'आज़ादी' की लड़ाई लड़ रहे हैं लोगों के साथ, ऐसा भी दावा कर रहे हैं. ध्यान रहे कि ये हो वो बयान है, जिसकी बिनाह पर स्वस्थ समीकरण बनाए जा रहे हैं कि पहलगाम में हुए आतंकी हमले में पाकिस्तान की सेना का हाथ है.
साल 1986 में आसिम मुनीर का सैन्य करियर शुरु हुआ. पाकिस्तानी सेना की फ्रन्टीयर फ़ोर्स रेजीमेंट की 23वीं बटालियन में कमीशन मिला. ध्यान दें कि वो फ्रन्टीयर फ़ोर्स रेजीमेंट ही है, जिससे हमारी भारतीय सेना का 1965 और 1971 के युद्ध के समय सामना हुआ था.
तमाम ऑफिस पॉलिटिक्स का हिस्सा रहे आसिम मुनीर को साल 2016 में फायदे वाली कुर्सी मिली. कुर्सी पाकिस्तान की मिलिट्री इंटेलिजेंस के प्रमुख की. मुनीर दो सालों तक इस कुर्सी पर रहे. फिर साल 2018 में और बड़ी कुर्सी मिली. ऐसी कुर्सी, जिस पर बैठने वाला शख्स पाकिस्तान की सत्ता को कंट्रोल करता है. आतंकियों और मिलिटेन्ट गतिविधियों को अंजाम देता है. दहशतगर्दों को पनाह देता है. लेकिन नाम मिलता है जासूसों के बॉस का. ये कुर्सी थी पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी Inter-Services Intelligence यानी ISI के डायरेक्टर जनरल की.

ये वो समय था जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे इमरान खान. कहा जाता है कि आसिम मुनीर पर उनकी खास कृपादृष्टि थी. इस वजह से ISI चीफ की कुर्सी दी गई थी. लेकिन साल 2019 में हुई एक घटना ने आसिम मुनीर की रुखसती का प्लॉट लिख दिया.
फरवरी 2019. जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में CRPF जवानों के कॉन्वॉय पर सुसाइड बॉम्बर ने हमला किया. इसमें CRPF के 40 जवानों की मौत हो गई. इसे ही पुलवामा हमला कहा गया.

इस हमले के बाद भारत ने 26 फरवरी, 2019 को पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय सीमा के अंदर मौजूद बालाकोट में एरियल स्ट्राइक की थी. इस हमले में पुलवामा हमले के जिम्मेदार संगठन जैश-ए-मोहम्मद के ट्रेनिंग कैंप पर गोलाबारी की गई. कई आतंकवादियों की मौत का दावा भी सामने आया. भारत के इस अटैक के बाद पाकिस्तान की बहुत किरकिरी हुई. इससे बचने के लिए पाकिस्तान ने विदेशी पत्रकारों का दौरा भी करवाया. ये ज़ाहिर करने की कोशिश की कि भारत के इल्जाम बेबुनियाद हैं.
लेकिन पाकिस्तान की साख गिरती ही रही. 27 फरवरी को पाकिस्तानी वायुसेना के जेट बालाकोट स्ट्राइक का बदला लेने भारत में घुसे. प्लान था कि बॉम्ब गिराया जाएगा. लेकिन भारतीय वायुसेना ने भांप लिया, और मिग-21 बाइसन एयरबॉर्न हुए. इस इंगेजमेंट के दौरान भारत का विमान पाकिस्तानी सेना के अंदर क्रैश हुआ और उसमें सवार विंग कमांडर अभिनंदन वर्धमान युद्धबंदी बना लिए गए. 1 मार्च को उन्हें पाकिस्तान ने रिहा कर दिया. और अभिनंदन भारत वापिस आ गए.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक जिस समय ये सारा कुछ घट रहा था, उस समय पाकिस्तान में ISI के DG की कुर्सी पर बैठे थे आसिम मुनीर. कहा जाता है कि आसिम मुनीर की अध्यक्षता वाली एक कमिटी ने ही सेनाओं को ये सुझाव दिया था कि बालाकोट का बदला इंडिया पर हमला करके लिया जाए. जिसके बाद ये पूरा घटनाक्रम सामने आया.

22 मार्च, 2019 को भारत और पाकिस्तान ने शांति समझौता कर लिया. और कुछ ही महीनों बाद यानी जुलाई 2019 में मुनीर को ISI DG की कुर्सी से तत्कालीन पाकिस्तान प्रधानमंत्री इमरान खान ने हटा दिया.
उस दौरान इमरान और आसिम मुनीर में बहुत खटपट हुई थी. कहा गया कि मुनीर को इसलिए हटाया गया, क्योंकि वो इमरान की पत्नी बुशरा बीबी पर लगे भ्रष्टाचार के इल्ज़ामों की जांच करवाना चाहते थे. इमरान ने इस आरोप का खंडन भी किया. लेकिन ISI चीफ को 8 महीने बाद ही कुर्सी से उतारकर पंजाब में कोर कमांडर बना देना, और उसके बाद रावलपिंडी के सेना हेडक्वॉर्टर में सप्लाई ऑफिस देखने बैठा देने का मतलब लोगों ने निकाल लिया.
चुनाव हुए. कुछ ही दिनों बाद कुर्सी पर बैठे शहबाज़ शरीफ़. उन्होंने अपने बड़े भैया और पाकिस्तान के पूर्व पीएम नवाज़ शरीफ़ से सलाह मशविरा किया, और आसिम मुनीर को उनके रिटायरमेंट के ठीक तीन दिन पहले पाकिस्तानी आर्मी का प्रमुख बना दिया.
जैसे ही आसिम मुनीर को आर्मी चीफ की कुर्सी मिली, वो समय आ गया, जब एक अलग ढंग से पाकिस्तान से घुसपैठ शुरू हुई. एक नया तरीका अपनाया गया. अब के पहले तक आतंकी संगठनों में कश्मीर के स्थानीय युवाओं की भर्ती की जाती थी. लेकिन सूत्र बताते हैं कि आसिम मुनीर ने पाकिस्तान की आर्मी से रिटायर हुए लोगों की भर्ती की जमीन तैयार की. इसमें स्पेशल फोर्सेज़ के भी जवान शामिल रहे हैं, जो सीमा पार करके भारत आते हैं, और भारतीय लोगों पर टारगेट करके हमले करते हैं.
वीडियो: आसान भाषा में: भारत-पाकिस्तान में जंग हुई तो क्या होगा? पाकिस्तानी सेना में कितनी ताकत है?