जम्मू-कश्मीर (Jammu Kashmir). सतत आतंकवाद और घुसपैठ. पहलगाम में हुआ आतंकी हमला (Pahalgam terror attack) एक नया हिंसक अध्याय है. क्या आपने कभी गौर किया कि ये समस्या कितनी पुरानी है? कितनी बड़ी है? और कौन था वो राजीव गांधी और फारूक अब्दुल्लाह का कट्टर दुश्मन, जिसने कश्मीर में आतंक का बीजारोपण किया. आज आपको ये पूरी कहानी सुनाते हैं.
कश्मीर में आतंकियों का असली बॉस! कैसे भागा पाकिस्तान? कैसे बनाया खूंखार टेरर ग्रुप?
जब राजीव गांधी ने जम्मू-कश्मीर की सरकार गिराई, और शुरू हो गई कश्मीर में आतंकवादियों की एंट्री!
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और कहानी शुरू होती है साल 1947 से. देश को आजादी मिली, और तब के हुक्मरानों को लगा कि धर्म के आधार पर मुल्क के टुकड़े कर देने चाहिए. सो वैसा ही हुआ. दो टुकड़े हुए. और पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया. बंटवारे के समय पाकिस्तान और भारत के बीच एक सीमा बनाई गई, जिसे कहते हैं रेडक्लिफ़ लाइन.
लेकिन देश के बंटवारे के समय से ही पाकिस्तान की ग्रंथि जम्मू-कश्मीर में अटकी रही. उसका कहना था कि इस राज्य की आबादी मुस्लिमबहुल है, इसलिए इसका हक पाकिस्तान को मिलना चाहिए. और भारत इसको छोड़ना नहीं चाहता था. आखिर में सारी बात आकर टिक गई थी जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह पर. राजा साहब इस पशोपेश में थे कि वो भारत के साथ जाएं या पाकिस्तान के साथ. या एक अलग देश बनें. आखिरी फैसला उनका ही था.
लेकिन राजा हरि सिंह को बहुत वक्त नहीं मिला. बंटवारे के कुछ ही महीनों बाद पाकिस्तान की आर्मी से समर्थित पश्तून कबीलाई लड़ाकों ने जम्मू-कश्मीर पर कब्जे के लिए अटैक कर दिया. हरि सिंह ने भारत में शामिल होने के काग़ज़ों पर दस्तखत किये, तब जाकर भारतीय सेना ने मोर्चा सम्हाला. और पाकिस्तान का सामना किया.

इस युद्ध में पाकिस्तान की सेना तो रेडक्लिफ लाइन पार करके भीतर घुस आई थी. इंडियन आर्मी ने खदेड़ना शुरू किया. पाकिस्तान पीछे हटा, लेकिन वो अपनी अंतरराष्ट्रीय सीमा यानी रैडक्लिफ़ लाइन से आगे बढ़कर भारत के अंदर घुसकर बैठा रहा. भारत और पाकिस्तान ने युद्ध रोकने का फ़ैसला लिया.

पाकिस्तान, भारत के जितने हिस्से पर क़ब्ज़ा करके बैठा हुआ था, युद्ध रुकने के बाद वहां पर सीज़फ़ायर लाइन बनी. 1972 में शिमला में भारत और पाकिस्तान इस सीज़फ़ायर लाइन को कुछ बदलावों और फेरबदल के साथ लाइन ऑफ़ कंट्रोल कहने पर राज़ी हुए. तब से लेकर अब तक इस नियंत्रण रेखा की वजह से भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमा के कई हिस्से अभी तक पाकिस्तान के क़ब्ज़े में हैं. उसी हिस्से को हम आम भाषा में पाक ऑक्युपाइड कश्मीर कहते हैं.
जब भी जम्मू-कश्मीर में चुनाव होते थे, तो कुछ सीटें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लिए रिज़र्व रखी जाती थीं. ये एक तरह की मैसेजिंग थी, जिससे भारत कहता कि कब्जे वाला कश्मीर हमेशा हमारा है. समय और परिसीमन के साथ इन रिज़र्व सीटों की भी संख्या कम ज्यादा हुई. फिलहाल ऐसी कुल 24 सीटें हैं. इन सीटों पर चुनाव नहीं हो पाते हैं, लेकिन विधानसभा में इनकी जगह आज भी खाली रहती है.
चुनावों की बात करते हैं. जम्मू-कश्मीर में समय-समय पर चुनाव होते रहते थे. लेकिन साल 1987 के हुए चुनाव ने सब बदलकर रख दिया था. कैसे? जानने के लिए इस चुनाव से एक साल पहले चलते हैं. बात करते हैं 1986 की.
चुनाव के नतीजे आए, लड़कों ने हथियार उठा लिएइस समय केंद्र में राजीव गांधी वाली कांग्रेस की सरकार थी. और जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे गुलाम मुहम्मद शाह. फारूक अब्दुल्लाह के जीजा, शेख अब्दुल्ला के दामाद. लेकिन अपने ससुराल वाली पार्टी नैशनल कॉन्फ्रेंस में नहीं थे.
1984 में उन्होंने अपने ही साले की सरकार गिरा दी थी. 12 विधायकों को साथ लेकर नैशनल कॉन्फ्रेंस से अलग हो गए थे. और कांग्रेस से जाकर मिल गए थे. लेकिन कांग्रेस के साथ गुलाम मुहम्मद शाह की दोस्ती ठीक से चल नहीं रही थी. खबरें बताती हैं कि राजीव गांधी मौका ढूंढ रहे थे कि किसी बहाने गुलाम शाह की सरकार को हटा दिया जाए. इस साल राजीव गांधी सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया था. अयोध्या में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया था. इसे लेकर भारत में कई जगह दंगे हुए. कश्मीर शांत था. एक अनंतनाग को छोड़कर. इस अनंतनाग के साथ एक खास बात जुड़ी थी- मुफ्ती मुहम्मद सईद. महबूबा मुफ्ती के पापा. और राज्य में कांग्रेस के बड़े नेता.
तो मुफ्ती मुहम्मद सईद के इलाके अनंतनाग में मंदिरों पर हमले हुए. कश्मीरी पंडितों पर हमले हुए. कुल मिलाकर हालात काफी हिंसक थे. कहते हैं कि ये हिंसा सईद के इशारों पर भड़काई गई थी. सईद माने कांग्रेस. इस हिंसा को बहाना बनाकर कांग्रेस ने शाह की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया. राज्यपाल ने राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया. यानी केंद्र सरकार के लिए ये हिंसा राज्य को अपने कब्जे में लेने का बहाना बनी. 7 मार्च, 1986. राज्य में गवर्नर रूल लगाया गया.

लेकिन 8 महीने बाद ही एक अलग घटनाक्रम ने जन्म लिया. फारूक अब्दुल्लाह ने कहा कि वो राज्य की सरकार बनाना चाहते हैं. उनकी पार्टी नैशनल कॉन्फ्रेंस को कांग्रेस का साथ मिल गया था. राज्यपाल ने मंजूरी दे दी. फारूक अब्दुल्ला सूबे के सीएम बने.
लेकिन कुछ ही महीनों के अंतराल पर राज्य में विधानसभा चुनाव होने थे. साल 1987. नैशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया. लोगों को लगा - दो ताकतवर पार्टियां एक हो गई हैं, अब लोग कहाँ जाएंगे.
लेकिन लोग गलत थे. NC कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ एक कट्टरपंथी शक्ति खड़ी हो रही थी. दरअसल कश्मीर के इस्लामिक संगठनों ने मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बना लिया था. नाम - मुस्लिम यूनाइटेड फ्रन्ट (MUF). वो NC-कांग्रेस फ्रन्ट के खिलाफ खुली मुखालफत पर उतर आए थे. MUF के सीन में आने से चुनाव की तस्वीर ही बदल गई. कश्मीरियों को जो चुनाव थका-हारा लग रहा था, अब चुनाव में जान आ गई थी. युवाओं में MUF के लिए खूब सपोर्ट दिख रहा था. उनकी रैलियों में खूब भीड़ जुटती थी. MUF का चुनाव चिह्न था कलम और दवात.
इस चुनाव में शामिल उम्मीदवारों की लिस्ट में एक नाम ऐसा भी था, जो आज की तारीख में दुनिया के सबसे बड़े आतंकियों में गिना जाता है. लेकिन तब उस चुनाव में आतंकी मंसूबों के बारे में किसी को जानकारी नहीं थी. व्यक्ति का नाम - यूसुफ शाह.

चलिए 18 फरवरी 1946 को. श्रीनगर से सटे जिले बडगाम में सैयद मोहम्मद यूसुफ शाह का जन्म हुआ. यूसुफ बड़ा हुआ तो कुछ दिन तक मेडिसिन की पढ़ाई की. फिर सिविल सर्विसेज़ में जाने का मन हुआ. होता भी क्यों नहीं, क्योंकि कश्मीर के युवाओं में तब ये सबसे ज्यादा चाहा जाने वाला पेशा था. ग्राउंड मजबूत हो, इसके लिए वो कश्मीर यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस पढ़ने लगा.
और यूनिवर्सिटी में ही वो जमात-ए-इस्लामी में शामिल हो गया. ये कश्मीर का एक संगठन था, जो क्रांति के जरिए इस्लामी राज के स्थापना की वकालत करता था. यूसुफ भी इसका हिस्सा बना. प्रचार शुरू किया - कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है.
यूसुफ ने नेतागिरी की लाइन पकड़ ली थी. भाषण देता, तो युवाओं की भीड़ लग जाती. लोग उसकी तकरीरों को ध्यान से सुनते. यूसुफ़ का कामधाम सही चल रहा था. ऐसे में जब साल 1987 के चुनाव में MUF की लामबंदी सामने आई, तो यूसुफ़ ने पर्चा फ़ाइल किया. सीट - श्रीनगर की अमीराकदल. यूसुफ का सीधा मुकाबिला - NC के गुलाम मोहिउद्दीन शाह से. 23 मार्च, 1987 को वोटिंग का दिन तय था. खबरें चली कि चुनाव के पहले ही MUF के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया गया. MUF के लोगों को प्रचार से रोका गया, ये भी कहा गया. बहरहाल, वोटिंग हुई. और बम्पर वोटिंग हुई. कश्मीर के जानकार बताते हैं कि वोटिंग वाले दिन ही शाम को फ़ारूक़ अब्दुल्लाह को पहले ही सूचना मिल गई थी - आप चुनाव हार रहे हैं.

अब कश्मीर के इतिहास में वो होने वाला था, जिसने इस राज्य में आतंकवाद की नींव रख दी. कहा जाता है कि फारूक अब्दुल्लाह ने हार को जीत में बदलने के लिए चुनाव काउंटिंग में गड़बड़ी का प्लान बनाया. इधर MUF के यूसुफ को अपनी जीत पर भरोसा था. गिनती के दिन जब वोट गिने जाने लगे तो कुछ राउंड वो आगे भी चला. लेकिन तभी गिनती रोक दी गई. आरोप लगाए गए कि यूसुफ ने जीतने के लिए बूथ कैप्चरिंग करवाई थी. गिनती पूरी होने के एक हफ्ते बाद रिज़ल्ट डिक्लेयर किये गए. NC के गुलाम मोहिउद्दीन शाह को विजयी घोषित कर दिया गया. और पूरे चुनाव का नतीजा कुछ यूं रहा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 45 सीटों से चुनाव लड़ा था. इनमें से 40 सीटों पर वो जीती. कांग्रेस ने 31 सीटों में से 26 सीटों पर जीत पाई. MUF को मिलीं बस चार सीटें. इन नतीजों पर किसी को यकीन नहीं हुआ. सबको लग रहा था कि MUF के पक्ष में तो भर-भरकर वोट डाले गए हैं, वो कैसे हार सकते हैं. जनता को लग रहा था कि उनसे साथ चीटिंग की गई है. लोकतंत्र और चुनाव के नाम पर उनका मजाक उड़ाया गया है. धांधली की कहानियों ने कश्मीर को काफी मायूस किया. उस समय के अखबारों ने इस घटनाक्रम की बहुत सारी कहानियाँ छापीं. अलग-अलग तरीकों से राजीव-फ़ारूक़ के गठजोड़ को दोषी बनाया गया था.
जेल से निकलकर दिया भाषण!MUF के तमाम समर्थकों के साथ यूसुफ ने इसके खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया, हिंसा हुई. पुलिस ने यूसुफ़ को पकड़ कर जेल में डाल दिया. इस घटना ने कश्मीर युसूफ को हमेशा के लिए बदल दिया. साथ ही कश्मीर के हजारों युवाओं को भी. जब यूसुफ दो साल बाद जेल से निकला, तो उसने अपना नाम बदला - सैयद सलाहुद्दीन. सलाहुद्दीन बडगाम में अपने गांव पहुंचा. लोगों ने गर्मजोशी से उसका स्वागत किया. लोगों के बाद उसने अपने एक हाथ में बंदूक उठाई, और सामने मौजूद जनता से चीखकर कहा -
‘हम अमन के रास्ते विधानसभा में जाना चाहते थे, लेकिन हमें ऐसा नहीं करने दिया गया. कश्मीर के लिए हथियार उठाने के अलावा अब हमारे पास कोई चारा नहीं.’
ऐसे में सलाहुद्दीन पर एहसान दार की नजर पड़ी. एहसान दार 1987 के चुनाव से रुष्ट होकर पाकिस्तान चला गया था. वहाँ जाकर लोगों से ट्रेनिंग ली. और जब 1990 में वो कश्मीर लौटा था, तो उसने एक संगठन खड़ा किया. नाम - हिजबुल मुजाहिदीन. सलाहुद्दीन इसी हिजबुल से जुड़ गया. एक्टिविटीज़ में हिस्सा लेने लगा. और नवंबर 1991 में सलाहुद्दीन इस संगठन का मुखिया बन गया.
अब सलाहुद्दीन बेखौफ सरगना हो चुका था. वो अखबारों की बिक्री पर रोक लगाता. वो पाकिस्तान से पैसे मँगवाकर लोकल लड़कों की भर्ती करता. उन्हें ट्रेनिंग देता और दिलवाता. उन्हें पैसे बांटता. और साल 1993 में उसने कह दिया कि वो अब कश्मीर में इस्लाम के खिलाफत आंदोलन की स्थापना करेगा. ये कुछ-कुछ ISIS वाली लाइन थी.
पाकिस्तान भाग गया, और वहां से चलाई आतंक की दुकानलेकिन साल 1993 में उसने बयान ही नहीं दिया, एक और काम किया. अपने खास लोगों को पकड़ा, और नियंत्रण रेखा को क्रॉस करके पाकिस्तान भाग गया. तय किया कि अब कश्मीर का सारा काम, वो पाकिस्तान में रहकर ही करेगा.
और एक हद तक वो सफल भी रहा. उसने कश्मीर के युवाओं को हिजबुल से जोड़ना जारी रखा. युवा हिजबुल से जुड़ते. उन्हें नियंत्रण रेखा पार करवाकर पाकिस्तान वाले हिस्से में ट्रेनिंग दी जाती. फिर वापिस कश्मीर भेज दिया जाता. जहां इन मिलिटेंट्स को साफ निर्देश होते कि उन्होंने कश्मीर में तैनात भारतीय सेना पर हमले करने हैं.
इन फुटकर आतंकियों के ही दम पर हिजबुल चुनाव बहिष्कार की धमकी देता था. इनके ही दम पर सलाहुद्दीन पाकिस्तान में बैठकर हिजबुल की सालाना रिपोर्ट जारी कर के सेना पर हुए हमलों की ज़िम्मदारी लेता रहा. उसे पाकिस्तान की सेना और वहाँ की खुफिया एजेंसी इंटरसर्विसेज़ इंटेलिजेंस से सहयोग मिला. उसने पाकिस्तान की सेना से लोगों को ट्रेनिंग और हथियार दिलवाए.
अब भारत के अभिन्न अंग जम्मू-कश्मीर में वो शुरू हो चुका था, जिससे सालों तक हमारी सुरक्षा एजेंसियां जूझती रहीं. ये था निपट आतंकवाद.
वीडियो: तारीख: कश्मीर में आतंक की वो कहानियां जिनसे सिहर उठा देश