सियाचिन ग्लेशियर दुनिया का सबसे ऊंचा बैटलफील्ड है. भारत और पाकिस्तान के बीच 1984 से ये ही लड़ाई का मुद्दा रहा है.
एक गलत मैप ने नाराज किया, फिर भारतीय सैनिक चढ़ गए सियाचिन पर
माइनस 40 डिग्री टेंपरेचर में सैनिक खड़े रहते हैं, हमले से ज्यादा ठंड का खतरा रहता है.

ये फोटो सियाचिन के जाबांजों को ट्रिब्यूट देते एक वीडियो से ली गई है.
13 अप्रैल 1984 को भारतीय सेना ने सियाचिन में तिरंगा फहराया था. इस मिशन को नाम दिया गया था 'ऑपरेशन मेघदूत'. सियाचिन वो जगह है, जहां जीवन का कोई अंश नहीं है. फिर वहां सेना क्यों तैनात की गई? इसके पीछे खतरनाक कहानी है.

फरवरी, 2016 में भारतीय सेना के 10 जवान बर्फ में दफन हो गए
क्या था 'ऑपरेशन मेघदूत'?
कैप्टन संजय कुलकर्णी की अगुवाई में 4 कुमाऊं प्लाटून ने बिलाफॉन्ड ला (तितलियों का रास्ता) के पास ग्लेशियर के पास तिरंगा फहराया था. 'ऑपरेशन मेघदूत' इस कार्रवाई का कोडवर्ड था.
ये ऑपरेशन दो फेज में पूरा हुआ था. पहला फेज शुरू हुआ था मार्च 1984 में. जब ग्लेशियर के पूर्वी बेस पर कुमाऊं रेजीमेंट की एक टुकड़ी पहुंच गई. इसको लीड कर रहे थे, लेफ्टिनेंट कर्नल डी. के. खन्ना. इस ऑपरेशन में कम सैनिक ही ले जाए गए थे, ताकि ये मूवमेंट पाकिस्तानी रडार की पकड़ से बाहर रहे.

वहां पर घेरने के बाद दूसरी यूनिट अप्रैल में आगे बढ़ी. इसने साल्टोरो रिज तक जाने वाले सिया ला और बिलाफॉन्ड ला (तितली पकड़ने का रास्ता) पर अपनी पकड़ बना ली. जिससे पाकिस्तान की सियाचिन तक पहुंच वाले रास्ते बंद हो गए. और 13 अप्रैल को वहां तिरंगा लहराने लगा.
फरवरी 2016 की बात है. सियाचिन में तैनात लांसनायक हनुमथप्पा 6 दिनों तक बर्फ में दबे रहे थे. जब रेस्क्यू किया गया तो पूरा देश इनकी सलामती के लिए एकजुट था. लेकिन हनुमथप्पा को बचाया नहीं जा सका. बर्फ में 10 और जवान दबे हुए थे. तूफान इस कदर भयानक था कि उनमें से एक को भी नहीं बचाया जा सका.
इस ऑपरेशन के बाद भारत ने न केवल सियाचिन बल्कि आस-पास के सारे ग्लेशियरों, दर्रों और साल्टोरो रिज पर अपना नियंत्रण कर लिया.

सियाचिन का मसला है क्या?
1949 में भारत-पाकिस्तान के बीच कराची एग्रीमेंट हुआ था. ये कश्मीर को लेकर 1947-48 में हुए युद्ध के बाद हुआ था. इस एग्रीमेंट में भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर लाइन डिसाइड की गई थी. 1972 में हुए शिमला एग्रीमेंट के तहत ये सीजफायर लाइन, लाइन ऑफ कंट्रोल में बदल दी गई. लेकिन एनजे 9842 के पार की बाउंड्री पर कुछ क्लियर बातें नहीं हो पाईं.

भारतीय सेना के एक मेजर जनरल ने 'दि डिप्लोमैट' को बताया था,
वो इलाका इतना खराब था कि 1972 में इंडिया- पाकिस्तान में से किसी ने भी जरूरी नहीं समझा कि यहां बाउंड्री बनाई जाए. वहां न तो प्राकृतिक सम्पदा थी, न रहने लायक जगह, न ही उस वक्त तक इसका कोई नीतिगत महत्त्व था.लेकिन भारत का ये परसेप्शन कुछ सालों में ही बदल गया. 70 के दशक के आखिरी में अमेरिकी सरकार के एक डॉक्यूमेंट समेत दुनिया भर में कई डॉक्यूमेंट सामने आने लगे, जिसमें सियाचिन को पाकिस्तान की सीमा में दिखाया जा रहा था. यहां तक कि ऐसा सुनने में आया कि पाकिस्तान ने इस इलाके में सैलानियों को माउंटेनियरिंग करने की इजाजत देना शुरू कर दिया था.

80 के दशक की शुरूआत में भारत को पता चला कि पाकिस्तान ऊंचाई पर वार करने वाले हथियार खरीद रहा है. सियाचिन पर प्रभाव जमाने की पाकिस्तान की इस चाल को भांपते हुए भारत ने 1984 में सैनिकों को भेज दिया.
तब से दोनों देशों ने अपने सैनिक उस इलाके में लगा रखे हैं. भारत सियाचिन और साल्टोरो पर काबिज है, पाकिस्तानी सेना उससे कम ऊंचाई वाली जगहों पर काबिज है.
दोनों ही देश शिमला एग्रीमेंट में इस्तेमाल हुए टर्म 'ग्लेशियर के उत्तर में' को अपने-अपने तरीके से इंटरप्रेट करते हैं. पाकिस्तान के लिए इसका मतलब है, NJ 9842 से सीधी लाइन जो कि उत्तरपूर्व की दिशा से होते हुए काराकोरम दर्रे तक जाती है, इस हिसाब से सियाचिन उसका है. जबकि भारत का मानना है कि NJ 9842 से लेकर बाउंड्री लाइन साल्टोरो रिज से होकर गुजरनी चाहिए. जिसका मतलब है कि सियाचिन भारत का है.
सियाचिन मतलब मौत का कुआं
सियाचिन जैसी खतरनाक जगह पर खराब मौसम से कई जानें जा रही हैं. यहां तापमान हमेशा शून्य से 40 डिग्री नीचे ही रहता है. बर्फीली हवाओं का थपेड़ा 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलता रहता है. ऑक्सीजन तो बहुत ही कम रहती है. हर बार सांस लेना जीने के लिए जंग लड़ने जैसा है. ऐसे हालात में वहां रहने वाले सैनिकों को डिप्रेशन, याददाश्त कमजोर होना, बोलने में दिक्कत आना जैसी मुश्किलें होना आम हैं.

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