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'वन नेशन-वन इलेक्शन' पर एक-एक बात जान लीजिए! पक्ष-विपक्ष, अब तक क्या-क्या, आगे क्या होना है?

है क्या One Nation-One Election? क्यों होने चाहिए एक साथ चुनाव? क्यों नहीं होने चाहिए एक साथ चुनाव? एक क्लिक में सारे जवाब.

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'एक देश-एक चुनाव' मतलब सभी राज्यों के चुनाव और आम चुनाव एक साथ कराए जाएं. (फ़ोटो - रॉयटर्स)

बुधवार, 18 सितंबर को नरेंद्र मोदी सरकार के महत्वाकांक्षी प्रस्ताव ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को केंद्रीय कैबिनेट से मंज़ूरी मिल गई. एक दिन पहले ही गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि सरकार के इसी कार्यकाल में वन नेशन, वन इलेक्शन लागू कराया जाएगा. मात्र 24 घंटों के भीतर केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस के ज़रिए कैबिनेट बैठक और इसमें पास हुए प्रस्तावों पर विस्तार से जानकारी दी.

कैबिनेट मंज़ूरी के बाद इसे संसद से पास कराना होगा, फिर इसे लागू कराया जा सकेगा. इसीलिए आज हम 'वन नेशन, वन इलेक्शन' का ककहरा जानेंगे. हर बेसिक सवाल. पहले — 

है क्या वन नेशन-वन इलेक्शन?

एक पंक्ति में: सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं. एक चुनावी बूथ में दो मशीनें हों और वोटर एक मशीन में सांसद चुने, दूसरी में विधायक. 11 घंटे की वोटिंग में प्रधानमंत्री भी तय हो जाएगा और सारे मुख्यमंत्री भी.

दरअसल, जब आज़ादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे, तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे. इसके बाद तीन और टर्म्स - 1957, 1962 और 1967 - में यही क्रम रहा. एक अपवाद के साथ, जब 1959 में केरल की तत्कालीन नंबूदरीपाद सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया गया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा. बाक़ी जगह क्रम बरक़रार हुआ. भंग हुआ 1967 में हुए चुनाव के बाद. 1968 और 1969 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं भंग कर दी गईं और आख़िर में साल 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई. यहां से चुनाव अलग-अलग होने लगे.

इसके साथ ही कई मौक़ों पर कई राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगे. हिंदुस्तान टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़, साल 1966 से लेकर 1977 के बीच देश में कुल 39 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया. माने चुनाव का क्रम टूट गया और तब से लोकसभा और विधानसभा चुनाव, जो दो अलग-अलग पटरियों पर एक गति से चलने वाली ट्रेनों की मानिंद थे, आगे-पीछे हो गए.

क्यों होने चाहिए एक साथ चुनाव?

जो इस धारा के पक्ष में है, उनका बेसिक तर्क: ख़र्च कम होगा, सुविधा होगी और काम में बाधा नहीं होगी.

# देश में जब भी, जहां भी चुनाव होते हैं, तब एक आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है. मतलब चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद सरकार किसी प्रोजेक्ट की घोषणा नहीं कर सकती, नई स्कीमें नहीं शुरू कर सकती, कोई वित्तीय मंज़ूरी या नई नियुक्ति नहीं कर सकती है. अब हर साल ही कोई न कोई चुनाव पड़ता है, तो हर साल ही आदर्श आचार संहिता लागू की जाती है. प्रशासन तो काम में बझता ही है, नेता जी लोग भी प्रचार में ही जुटे रहते हैं. चुनांचे, ज़रूरी नीतिगत फ़ैसले नहीं लिए जाते और कई योजनाओं को लागू करने में समस्या आती है. माने सीधे-सीधे विकास कार्य प्रभावित होते हैं.

इसलिए कहा जाता है कि अगर देश में एक ही बार में लोकसभा और विधानसभा चुनाव हो जाएं, तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी. इसके बाद धड़ल्ले से ‘विकास ही विकास’ होगा. ऐसा कहा जाता है.

फिर देश में चुनाव के दौरान शिक्षकों और सरकारी मुलाज़िमों की सेवाएं ली जाती हैं. भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती होती है. ऐसा भी कहा जाता है कि अगर सभी चुनाव साथ होंगे, तो सरकारी मुलाज़िमों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी. उनका समय बचेगा, वो अपनी ड्यूटी ठीक से कर पाएंगे.

# भारत में चुनाव होते हैं, तो दुनिया का मीडिया हऊवाया रहता है. ‘डांस ऑफ़ डेमोक्रेसी’ टाइप हेडिंग चलती हैं. मगर इस नृत्य में ख़र्च बहुत आता है. पिछले कुछ सालों में चुनाव कराना और महंगा ही हुआ है. सेंटर फ़ॉर मीडिया स्टडीज़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, 1951-52 में भारत के पहले चुनाव के दौरान कुल 68 चरण हुए थे और लागत आई थी, 10.5 करोड़ रुपये. 2019 में यही लागत बढ़कर 50,000 करोड़ पहुंच गई और 2024 के लिए इसी रिपोर्ट में 1.35 लाख करोड़ का अनुमान बताया गया है. इसके आलावा, प्रति मतदाता ख़र्च भी बढ़ा है. जो 1951 में प्रति मतदाता 6 पैसे था, 2014 में 46 रुपये हो गया है.

एक देश-एक चुनाव के पक्षकार कहते हैं कि जितनी बार चुनाव होता है, देशवासियों का उतना ही पैसा ज़ाया होता है. सरकारी ख़ज़ाने पर आर्थिक बोझ बढ़ता है. इसीलिए एक बार में चुनाव हो जाए, तो एक ही बार ख़र्चा होगा.

क्यों नहीं होने चाहिए एक साथ चुनाव?

इस प्रस्ताव के विरोधियों की दलील है कि एक साथ चुनाव करवाने से देश के संघीय ढांचे पर सीधा असर पड़ेगा, क्षेत्रीय मुद्दे नज़रअंदाज हो जाएंगे और जनता के प्रति जवाबदेही पर ख़तरा होगा.

# भारत में 7 राष्ट्रीय पार्टियां और 50 से ज़्यादा क्षेत्रीय पार्टियां हैं. चुनावी ट्रेंड्स के आधार पर कहा जा सकता है कि जनता आम चुनाव और विधानसभा चुनाव में अलग-अलग मांगों, अलग-अलग एजेंडे के लिए वोट करती है. राष्ट्र के मुद्दे अलग हैं, राज्य के अलग, हर राज्य के भी अलग. आम चुनावों के दौरान विदेश नीति, आयकर या राष्ट्रीय सुरक्षा की चर्चा होती है. जबकि लोकल बॉडीज़ और प्रदेश के चुनावों के दौरान पानी, सड़कों और ऐसी सुविधाओं से जुड़े मुद्दे एजेंडे पर हावी रहते हैं.

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इसी का हवाला देते हुए विपक्षी दल - ख़ासकर क्षेत्रीय दल - ऐसा कहते हैं कि अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ करवाए गए, तो राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे ढक जाएंगे. राज्य स्तर पर बार-बार चुनाव होने से क्षेत्रीय मुद्दों पर जो ध्यान दिया जाता है, वो केवल राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित हो जाएगा. राष्ट्रीय पार्टियां भर-भर के डबल इंजन वाली सरकार का हवाला देंगी और इससे क्षेत्रीय पार्टियों के वोटर बंटेंगे. राज्य सरकारों की स्वायत्ता पर असर पड़ेगा. सीधे-सीधे केंद्र सरकार में जो भी प्रमुख पार्टी होगी, एक नीतिगत फ़ैसले की आड़ में उसे ज़्यादा फ़ायदा हो सकता है.

# समय-समय पर चुनाव होते रहने की वजह से जनप्रतिनिधियों को लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है. कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता. चुनाव निकालना है, तो बस प्रचार से तो चलेगा नहीं. उसके लिए काम भी करवाना पड़ेगा. लेकिन अगर एक ही पार्टी को प्रभुत्व मिल जाए या एक नेता को ये भरोसा हो जाए कि ‘वो नहीं तो कौन?’ इससे निरंकुशता की आशंका बढ़ जाएगी.

एक देश, एक चुनाव के अनेक प्रयास 

साल 1983 में पहली बार केंद्रीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया. कारण वही - ख़र्च और सुविधा. हालांकि, तब ये रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई. 

कुछ सालों तक सब ऐसा चलता रहा. साल 1999 में जाकर इस बहस ने फिर तूल पकड़ी. जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में लॉ कमीशन ऑफ़ इंडिया ने अपनी 170वीं रिपोर्ट जारी की. कमीशन ने रिपोर्ट में कहा:

  • जिन वजहों से राष्ट्रपति शासन लगाए गए, उनका आकलन पहले से तो नहीं किया जा सकता. लेकिन इसी वक़्त में राज्य के विधानसभा चुनाव कराना एक अपवाद हो, नियम नहीं. नियम ये होना चाहिए कि हर पांच साल में एक लोकसभा चुनाव हो और हर राज्य के विधानसभा चुनाव हों.
  • ऐसा एक रात में नहीं हो सकता. लेकिन चुनावी कैलेंडर में कुछ बदलाव और संविधान में संशोधन करके एक साथ चुनाव करने की ओर बढ़ा जा सकता है. कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाने या घटाने पर भी विचार किया जा सकता है, बशर्ते राज्य सरकारें और पार्टियां सहमत हों.
  • लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराए जाएं, लेकिन जब तक विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म न हो, तब तक उसके नतीजे को गुप्त रखा जाए.

इसके बाद 2015 में संसदीय स्थाई समिति ने भी अपनी 79वीं रिपोर्ट में लिखा कि चुनाव साथ कराएं, तो ख़र्च बहुत कम किया जा सकेगा.

फिर 2017 में नीति आयोग ने अपने पर्चे “Analysis of Simultaneous Elections : the What, Why and How?” में भी बार-बार हो रहे चुनावों के बारे में उन्हीं दो सूचकांकों पर बात की - ख़र्च और आदर्श आचार संहिता.

फिर 2018 में लॉ कमीशन ने एक ड्राफ़्ट रिपोर्ट छापी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व-जस्टिस बीएस चौहान की अध्यक्षता वाले कमीशन ने भी माना कि साथ चुनाव करने से पैसों की बचत होगी. सुरक्षाबलों और प्रशासनिक अमलों पर से बोझ कम होगा. उन्होंने मौजूदा संवैधानिक ढांचे के साथ एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं, उचित संशोधन करने होंगे. लेकिन साथ चुनाव कराने की अनुशंसा करने के पहले राजनीतिक पार्टियों और तमाम स्टेकहोल्डर्स से संवाद करना होगा.

इस कमीशन ने साथ चुनाव कराने के लिए तीन ऑप्शन दिए:

  1. कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव या तो कार्यकाल ख़त्म होने से पहले कराए जाएं या तो समाप्ति की सीमा के बाद.
  2. 13 राज्यों के विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराए जाएं, और बचे हुए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के चुनाव ढाई साल बाद (यानी जब लोकसभा का कार्यकाल आधा बीता हो).
  3. एक साल में पड़ने वाले सभी चुनावों को एक साथ ही कराया जाए, अलग-अलग मौक़ों पर नहीं.

साल 2022 में लॉ कमीशन ने भी 2018 की इस ड्राफ़्ट रिपोर्ट का हवाला दिया और कहा कि एक साथ चुनाव कराना हर तरीक़े से आदर्श है. माने बात साफ़ है कि सभी कमीशन और कमिटियों ने कहा है कि ऐसा किया जाना चाहिए. 

कोविंद पैनल

नरेंद्र मोदी सरकार ने विशेष सत्र में 'वन नेशन, वन इलेक्शन' का प्रस्ताव पेश किया. इसके बाद सितंबर, 2023 में एक कमीशन का गठन किया गया. आठ सदस्यीय कमेटी और अध्यक्ष, पूर्व-राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद. इस पैनल में गृह मंत्री अमित शाह, गुलाब नबी आजाद, फाइनेंस कमीशन के पूर्व-चेयरमैन एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल सुभाष कश्यप, सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे और पूर्व चीफ़ विजिलेंस कमिश्नर संजय कोठारी थे.

इस साल के मार्च में 191 दिनों की रिसर्च के बाद कोविंद पैनल ने 18,626 पन्नों की रिपोर्ट जमा की. रिपोर्ट्स के मुताबिक़, उन्होंने साल 2029 में एक साथ चुनाव कराने की सिफ़ारिश की थी. इसके लिए संविधान के अंतिम पांच अनुच्छेदों में संशोधन की सिफ़ारिश की है. इसमें लोकसभा, विधानसभा और लोकल लेवल चुनाव के लिए एक वोटर लिस्ट रखने की बात भी सामने आई है. वहीं, एक चुनाव के लिए संविधान में संशोधन की सिफ़ारिश की भी संभावना है.

कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक़, पहले चरण में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं. वहीं, दूसरे चरण में 100 दिन के अंदर स्थानीय निकायों के चुनाव कराए जा सकते हैं. 

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रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि वन नेशन वन इलेक्शन पर 47 राजनीतिक दलों ने कमेटी को अपनी राय दी. इसमें से 32 ने पक्ष में, जबकि 15 विपक्ष में मत रखा है. हालांकि, कमेटी और कमिशन केवल सुझाव दे सकता है. लागू सरकार ही करवाएगी.

अब एक सीधी समझ कहती है कि कैबिनेट से मंज़ूरी मिलने के बाद अगला चरण होगा इसे सदन से पास कराना. इसमें लोकसभा और राज्यसभा का नंबर गेम अहम होगा. अब भाजपा लोकसभा में बहुमत में तो है नहीं. गठबंधन सरकार के सहयोगियों को मनाना होगा. अब जैसे 16 सीटों वाली TDP ने अपने विचार ज़ाहिर नहीं किए थे. वो एक क्षेत्रीय दल है, जो अपने प्रदेश की सत्ता में है.

अगर NDA सरकार नंबर्स मैनेज कर लेती है, तो भी नइया पार होने में एक पेच रह जाता है. चूंकि मामला संविधान की व्याख्या से जुड़ा हुआ है, तो सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पास भी जा सकता है.

वीडियो: वन नेशन वन इलेक्शन की चुनौतियों पर अब चुनाव आयोग ने क्या कह दिया?