सुबह फिर नोटिफिकेशन की आवाज़ से नींद खुलती है. नए मोबाइल में fb अलार्म साउंड अॉफ करना भूल गया था. इन दिनों मैं फेसबुक से अघोषित छुट्टी पर हूं. मेरी पीढ़ी के लोग अक्सर ऐसा करते हैं. मेरे मित्र विनीत इसे 'सोशल मीडिया डीटॉक्स' कहते हैं. फेसबुक की दुनिया से बाहर, असल दुनिया में अपनी ठीक जगह तलाशने की कोशिश. थोड़ा झुंझला जाता हूं. फेसबुक एप्लिकेशन खोलता हूं. देखता हूं, पिता ने मुझे फिर अपनी एक पोस्ट में टैग कर दिया है. एक अौर किस्सा, जिसमें कहीं उनकी उंगली पकड़कर मेरा बचपन चला आया है. जिसके पीछे पचास से ज़्यादा टिप्पणियां हैं. कुछ उनके पुराने दोस्तों की, जो अब फेसबुक पर वापस जुड़ गए हैं. ज़्यादातर उनकी पूर्व विद्यार्थियों की, जो रोज़ सुबह 'सर की क्लास' में ऐसे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती हैं. मुझे फेसबुक की नई टिप्पणियों पर टिप्पणियां करनेवाली 'सुविधा' से सख्त चिढ़ है, क्योंकि उससे बातचीत का तारतम्य टूट जाता है. पिता हर टिप्पणी के जवाब में स्वतंत्र प्रति-टिप्पणी लिखते हैं. हर लाइक के जवाब में आभार. हर नमस्ते के जवाब में आशीर्वाद. यह उनकी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा है. फेसबुक पर यह उनका दूसरा साल है अौर अब तो memories के जरिये उनके पुराने किस्से वॉल पर लौटकर आने लगे हैं. वे उन्हें भी पूरे सम्मान से बैठाते हैं अौर एक पूरक टिप्पणी के साथ 'पिछले एक साल में नए जुड़े साथियों के लिए' दोबारा जारी कर देते हैं.
फादर्स डे स्पेशल: फेसबुक पर पिता
क्या आपके पिता फेसबुक पर हैं? क्या उन्होंने आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी? मेरे पिता ने भेजी..
वे सबकुछ लिख देते हैं. सब कुछ
. परिवार के व्हाट्सएप ग्रुप में इस पर चर्चा हो रही है कि उन्हें सबकुछ
नहीं लिखना चाहिए. इसमें खतरा हो सकता है. कुछ लोगों को शायद अपने बारे में लिखे जाने पर आपत्ति है, लेकिन वो इसे सीधे जाहिर नहीं करते. सुरक्षा का हवाला दिया जाता है. 'सोशल मीडिया एटिकेट्स' का हवाला दिया जाता है. मेरी मां परेशान हैं. उन्हें चिन्ता है कि लोग बुरा मान सकते हैं. वे झुंझलाकर हम बच्चों से कहती हैं कि पिता बिल्कुल 'बच्चों जैसे' हो गए हैं, हमेशा फोन से चिपके रहते हैं. परिवार की नज़र में मैं घर का 'सोशल मीडिया एक्सपर्ट' हूं. क्योंकि मेरे नाम पर एक किताब है, मुझे लेखक भी मान लिया जाता है. मुझसे शिकायत की जाती है. मुझसे उम्मीद की जाती है कि मैं उन्हें समझाऊं, कि ऐसे सबकुछ नहीं लिख दिया जाता...
किस्से हमेशा से उनकी पहचान रहे हैं. ज़िन्दादिल किस्से. किस्से, जो उन्होंने खुद गढ़े हैं या उन्हें विरासत में मिले हैं, हमें कभी पता नहीं चलता. किस्से, जो कितना सच हैं अौर कितना भरम, हम कभी ठीक ठीक नहीं जान पाते. हमारे वृहत परिवार में, यार-दोस्तों में, कैम्पस के विशाल सार्वजनिक वृत्त में वे अपने इन्हीं किस्सों के लिए मशहूर रहे हैं. यह किस्सागोई कितनी पुरानी है यह इसी से जानिए कि हमारी अम्मा बताया करती थीं, बचपन में उनके प्यार का संबोधन 'वकील साब' हुआ करता था. वजह, वो बातें बहुत अच्छी करते थे. अौर पचास के दशक के हिन्दुस्तान में जहां शहरी मध्यवर्गीय परिवारों के लक्षित पेशे 'डॉक्टर, इंजीनियर, वकील' में सीमित थे, अच्छा बोलनेवाले के लिए वकालत में उज्ज्वल भविष्य निश्चित था. आज भी हमारे घर में जिन दादी अम्माअों ने लम्बी उमर पाई है, उनके मुंह से हमारे पिता के लिए गाहे-बगाहे वही 'वकील साब' वाला सम्बोधन सुनाई दे जाता है.
लेकिन वे वकील नहीं बने. राजनीति विज्ञान उनका विषय था अौर वे अपने स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय अौर शहर के बेस्ट डिबेटर रहे. वो अच्छा समय था. जिस दिन उनका मास्टर्स का नतीजा आया, वे प्रथम श्रेणी पास हुए थे, उसके ठीक पंद्रहवें दिन उन्होंने शहर से दूर एक अपरिचित विश्वविद्यालय में अध्यापन के लिए जीवन का पहला साक्षात्कार दिया. उन्हें नौकरी मिल गई. वे 21 के थे. सफ़ल साक्षात्कार के बाद जब उनसे विभागाध्यक्ष ने पूछा, कब जॉइन कर सकते हो? उन्होंने कहा, 'फौरन'. उस वक्त तक उनकी शादी नहीं हुई थी. विभागाध्यक्ष ने फिर कहा, 'खादी के कपड़े पहनने होंगे!'. पिता ने सुनकर जवाब में कहा, 'फिर तो मेरा दर्जी बतायेगा कि मैं कौनसी तारीख़ को जॉइन कर सकता हूं.'
मेरे पिता ने जीवन में कोई दूसरा साक्षात्कार नहीं दिया. अौर यही खादी के कपड़ों वाला, पंचमुखी शिक्षा वाला, घोड़ा चलाती अौर ग्लाइडर उड़ाती लड़कियों वाला विश्वविद्यालय आगे जाकर मेरा घर बना. घर
, जीवन का सबसे ज़रूरी शब्द. घर, जिसमें मां थीं, ठोड़ी से पकड़कर मेरे बाल बनाती हुईं. घर, जिसमें पिता थे, साइकिल के डण्डे पर बैठाकर मुझे स्कूल छोड़ने जाते हुए. घर, जिसके भीतर मैं था अपने सबसे सरल रूप में. घर, जिसके भीतर मैं था, अौर फिर एक दिन वो खुद मेरे भीतर समा गया.
माता पिता, जैसा हमने उन्हें तस्वीरों में देखा
पिता ने जब मां के साथ मिलकर वो घर बनाया, वो 22 के थे. मां 18 की. साल था 1970. हमारी पीढ़ी के बच्चे, जो कुछ देर से आए, उन्होंने उस दौर को पिताजी के किस्सों में जिया है. उनकी नौकरी के तीन साल बाद का किस्सा है शायद. वे एक टीचर्स ट्रेनिंग कैंप के लिए महाराष्ट्र में नाशिक के पास हिल स्टेशन देवलाली में थे. वहीं उनके बम्बई से आए दोस्त ने उन्हें कहा, 'यार सुमन्त, एक नई फिल्म आई है इधर. नाम है रजनीगंधा. उसका जो हीरो है वो बिल्कुल तुम्हारी तरह दिखता है.' पापा ने रजनीगंधा नहीं देखी थी. रास्ते में बम्बई से होकर लौटते हुए उन्होंने पहली फुरसत में फिल्म देखी. बात में सच्चाई थी. हम बच्चे आज भी पापा की उस दौर की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों से पालेकर का छवि साम्य खोजते हैं. वैसे भी इस बात में एक understated सा थ्रिल है कि हमारे पिता की छवि महाप्रतापी 'एंग्री यंग मैन' के दौर में आए 'आम आदमी हीरो' की छवि से मिलती है. इसमें स्वयं विकल्प होने सा थ्रिल था. मुख्यधारा से भिन्न, दूसरी परम्परा के प्रतिनिधि होने का संतोष था.
शहरी सभ्यता से दूर उस निर्जन में बसे विश्वविद्यालय में उन्होंने अड़तीस साल नौकरी की. अनथक. लगातार. कितने ही मौके तो ऐसे थे जहां एक ही परिवार की तीन पीढ़ियों को उन्होंने पढ़ाया. अौर फिर एक दिन उन्हें कहा गया कि अब उन्हें जाना होगा. यही विश्वविद्यालय का नियम था. अचानक याद आया कि वे शहर में नहीं थे, अौर घर नौकरी से बंधा था. वहां ज़िन्दगी बितानेवालों की यही नियति थी. पिता की कथाअों में से ही एक अौर कथा याद आती है मुझे. यह उनके रिटायरमेंट से कुछ साल पहले की बात थी. विभाग में उनके सीनियर अौर बड़े भाई समान श्रीवास्तव अंकल ने उनका हाथ पकड़ा अौर पास बिठाकर कहा, "यार सुमन्त. आज मुझे सुभाष मिला था. उसका रिटायरमेंट है अगले हफ़्ते. मुझे कह रहा था कि रिटायरमेंट पर कुल छ: लाख रुपए मिलेंगे. तीन लाख इस जेब में अौर तीन लाख उस जेब में रखकर पूरे कैम्पस में घूमूंगा." पिता ने सुना अौर अंकल से पूछा, "लेकिन ब्रदर, ये आप मुझे क्यों बता रहे हैं?" श्रीवास्तव अंकल का जवाब था, "इसलिए क्योंकि अगले साल मेरा भी रिटायरमेंट है. मुझमें भी ऐसे पागलपन के लक्षण देखो तो संभाल लेना यार."
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की तरह पिता भी अपने किस्सों के सिर्फ़ वाचक होते हैं. किसी मनु की तरह, धरा पर निपट अकेली कथा के संरक्षक. यहां भी किस्सा एक धरोहर था. जो बात किस्से में नहीं थी वो ये कि सुभाष अंकल रिटायरमेंट के बाद सिर्फ़ छ: महीना अौर जिये. अौर श्रीवास्तव अंकल का दिल रिटायर होने के चार साल बाद ही जवाब दे गया. सृष्टि का पुराना नियम है. पौधे को ज़मीन से उखाड़कर दूसरी जगह लगाया जा सकता है. वृक्ष को नहीं. पिता के रिटायरमेंट के समय उनके साथ के तकरीबन सभी लोग कैम्पस से जा चुके थे. जब वो घर खाली हो रहा था, हमेशा के लिए, मैं वहां नहीं था. मैंने बहाना बना दिया था कि मैं बहुत व्यस्त हूं अौर घर नहीं आ सकता. दरअसल मेरी हिम्मत नहीं थी. मेरी जगह वहां मेरे बचपन के दोस्त थे, मां पिता की मदद करते. मैंने बस एक रात अपने सबसे प्यारे दोस्त को फोन किया अौर हम भाई फोन के दोनों अोर खूब रोये. दोस्त, उसके पिता उसे तब छोड़ गए थे जब वो ठीक से समझता भी नहीं था की पिता का जाना क्या होता है. मेरे पिता मेरे पास थे, लेकिन मैं डरा हुआ था. उनसे ज़्यादा. शायद सबसे ज़्यादा.
मैं शायद अभी भी वैसा ही हूं. डरा हुआ. लेकिन हमारे पिता ने नया रास्ता चुना. अभी कुछ दिन पुरानी ही तो बात है, इंडिया इंटरनेशनल में एक सेमीनार से निकलते हुए विभाग की एक सीनियर मिलीं, अौर पिताजी से फेसबुक पर हुई बातों के किस्से सुनाने लगीं. हम चार बच्चे थे घर के साथ में उस वक्त, अौर वो हमें बता रही थीं कि आप बहुत भाग्यशाली है कि आपको ऐसे पेरेंट्स मिले. "कितने आधुनिक हैं वो, अौर कितने अच्छे से बातें करते हैं हमारी पीढ़ी के लोगों से. हम नए लोगों को उनसे सोशल मीडिया की तमीज़ सीखनी चाहिए." मुझे नहीं पता इसका क्या मतलब समझा जायेगा, लेकिन मेरे मन में उस वक्त ठीक वैसी फीलिंग आ रही थी, जैसी किसी पैरेंट के सामने किसी अपरिचित द्वारा उसकी संतान के गुणों तारीफ़ की जा रही हो. अौर एक अच्छे पैरेंट की तरह, मैंने ये तारीफ़ उसके हकदार तक नहीं पहुंचायी.
अब एक साल से ऊपर हुआ उन्हें फेसबुक पर. अौर जैसा मैंने ऊपर बताया, वे सबकुछ लिख देते हैं यहां. अब उनकी क्लास चल निकली है यहां भी. हर दूसरे दिन वे सोशल मीडिया की उलझनों से दो-चार होते हैं. किसी दिन कैंडीक्रश की रिक्वेस्ट भेजनेवालों से विनती करते हैं उन्हें 'बक्श देने' की, किसी दिन इनबॉक्स में ऊलजुलूल मैसेज करनेवालों को डपटते हैं. मैं उन्हें दूर से देखता रहता हूं, अौर पढ़कर हल्के से मुसकुरा देता हूं. कभी भूले से लाइक करता हूं. टिप्पणी तो नहीं ही करता. रोज़ खुश होता हूं कि उन्हें मेरी टिप्पणी की ज़रूरत नहीं. कि उनकी ये बगिया आज मुझसे ज़्यादा समृद्ध है. ठीक यही, जो उन्होंने हमें सिखाया है, कि माता-पिता बच्चों की कामयाबियों के नहीं, असफ़लताअों के साथी होते हैं. वे तब उसके साथ खड़े होते हैं, जब बच्चा गलती करता है. उसे उसकी गलती का अहसास करवाते हैं, लेकिन उसकी उंगली कभी नहीं छोड़ते.
पिता आज भी मुझे फोन नहीं करते. मैं करता हूं तो मिनट बीतने से पहले ही मां को पकड़ा देते हैं. मुझे बड़े भाई से ईर्ष्या होती है, जिससे पिता घंटों बात करते रह सकते हैं. मैं बड़े भाई से घंटों फोन पर बात करता हूं. कई बार ऐसा लगता है जैसे मैं पिता से बात कर रहा हूं. फिर एक शाम वे अचानक मुझसे फोन पर बात करते हुए पूछते हैं, "तेरी मां कहती है कि ऐसे कुछ भी, किसी के भी बारे में मत लिखा करो. लोग बुरा मान सकते हैं. तू बता, क्या मैं गलत लिखता हूं? क्या नहीं लिखना चाहिए?" मुझे बहुत साल पहले सिरिफोर्ट अॉडिटोरियम में सुना 'टैक्सी ड्राइवर' के लेखक पॉल श्रेडर का लेक्चर याद आता है. लेखक होना पढ़नेवाले के सामने अपने सारे कपड़े उतारकर नंगा खड़ा होना है. कोई मोह माया नहीं, कोई दुराव बनाव नहीं. लिखना पब्लिक के सामने खुद को पूरी तरह एक्सपोज़ कर देना है. वैसे सच ये है कि मैं खुद उस इमोशनल स्टेटस में कम ही पहुंच पाता हूं जहां मैं बिना परवाह किये सब लिख दूं. मुझमें वो हिम्मत आज भी नहीं. इसलिए मैं जाने देता हूं. भूलने की कोशिश करता हूं.
लेकिन मैं पिता को सलाह देता हूं. "अगर लिखना है, तो इससे ऊपर उठना होगा कि कोई बुरा मानेगा. लेखक होना सिर्फ़ एक चीज़ के प्रति ईमानदार होना है, कही जा रही बात के प्रति. बाकी कुछ अौर नहीं." अौर फिर, "आप क्या लिखते हैं इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे बारे में, अपने बारे में, किसी भी अन्य के बारे में. लेकिन आप चाहे जो भी लिखें, मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं आपके साथ खड़ा हूं." यह कहकर मैं उन्हें 'पिता' की भूमिका से आज़ाद कर देता हूं. यही मेरा उन्हें दिया सबसे बड़ा समर्थन है. यह उन्हीं से सीखा है मैंने. ठीक वैसे ही, जैसे उन्होंने मुझे कभी एक बेटे की ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाने के लिए जज नहीं किया. बस आज़ाद कर दिया अपने बनाए रास्तों पर जाने के लिए. भले हमें मालूम ना पड़े, थोड़े से पिता हम सबके भीतर चले ही आते हैं.