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जब इंदिरा की जिद पर नेहरू ने गिराई दुनिया की पहली डेमोक्रेटिक कम्युनिस्ट सरकार

57 बरस पहले का अजब किस्सा.

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31 जुलाई 1959 को भारत में कुछ ऐसा हुआ, जो किसी ने कभी सोचा नहीं था. देश के महान सोशलिस्ट और दूरदर्शी नेता प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने केरल में सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया. केरल की वो सरकार दुनिया की पहली निर्वाचित 'कम्युनिस्ट' सरकार थी. कम्युनिस्ट कहीं भी चुनाव नहीं लड़ते थे उस वक़्त. ये प्रयोग भारत में ही हुआ था. नेहरू ने इस प्रयोग की ऐसी-तैसी कर दी. और देश में राष्ट्रपति शासन लगाने की ऐसी लत लगा दी कि इंदिरा गांधी ने एक कदम आगे बढ़कर देश में इमरजेंसी ही लगा दी. कहा जाता है कि राजीव गांधी तो चाय पीते-पीते सरकार बर्खास्त कर देते थे. भारत की आजादी के ठीक दस साल बाद 1957 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार बनी. किसी तरह जीत गई थी बस. लेकिन उस वक्त इस जीत ने दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. वो वक़्त था जब 'कोल्ड वॉर' चरम पर था. इतना कि पांच साल बाद अमेरिका ने कम्युनिस्ट देश क्यूबा में मिसाइल दागने का प्लान कर लिया था. और रूस अमेरिका पर न्यूक्लियर हमला करने का मन बना चुका था. ऐसे में एक कम्युनिस्ट सरकार का जनता के वोट से चुन कर आना सबको हैरान कर गया था. ये 'कमाल' इंडिया में ही हो सकता था. चीफ मिनिस्टर बने ई एम एस नम्बूदरीपाद. काबिल आदमी. कई किताबों के लेखक. जनता के नेता. नेहरू को उस वक़्त तक कोई दिक्कत नहीं थी. नेहरू खुद भी इस प्रयोग को देखना चाहते थे.
दिक्कत तब शुरू हुई जब नम्बूदरीपाद ने राज्य में एजुकेशन बिल पेश किया. बिल में प्रस्ताव था कि प्राइवेट स्कूल और कालेजों में काम करने वाले टीचर को बेहतर पैसा और इंतजाम मिले. लेकिन बहुत सारे स्कूल चलाने वाले कैथेलिक चर्च को लगा कि ये उनके 'अधिकारों' का हनन है. इसी तरह धनी 'नायर' समुदाय जिसके बहुत सारे स्कूल-कॉलेज थे, भी चिढ़ गए. इनको लगा कि मुख्यमंत्री बहुत काबिल बन रहे हैं.
मौके की मासूमियत भरी कुंठा को लोकल कांग्रेस नेता भांप गए. अभी-अभी चुनाव हारे थे. मौका मिल गया. सबको इकट्ठा किया और आंदोलन शुरू कर दिया. आंदोलन को नाम दिया, स्वतंत्रता संघर्ष. एक नायर लीडर मन्नत पद्मनाभा पिल्लई को समझा-बुझा के नेता बना लिया गया. पिल्लई बहुत ही ईमानदार थे. उनकी इमेज एकदम महात्मा गांधी वाली थी. उनको भी 'संत' कहा जाना लगा. उनको लगा कि कुछ बहुत बड़ा काम हो रहा है. ये नहीं समझ पाये कि बाबा बनाकर मामा बनाया जा रहा है. पूरे राज्य में दंगे का माहौल हो गया. लोग जत्था बनाकर निकलते. चिल्लाते हुए. नहीं समझ आता कि क्या चिल्ला रहे हैं. सरकार घबरा गई. लाठीचार्ज का फरमान जारी हुआ. दुनिया में कम्युनिस्ट सरकारों का जो रवैया था, उससे कम ही था ये. डेढ़ लाख के करीब लोग जेल में ठूंस दिए गए. लाठी-डंडे की मार में ढाई सौ लोग दुनिया छोड़ गए. नेहरू को बड़ी तकलीफ हुई. उनके अपने दिमाग से एजुकेशन बिल में कोई दिक्कत नहीं थी. साथ ही वो हिंसा को बिल्कुल समर्थन नहीं देते थे. इतना कि चीन से लड़ाई होने पर भी लड़ना नहीं चाहते थे. तो उन्होंने अपनी पूरी कोशिश इसमें लगाई कि नम्बूदरीपाद और कांग्रेस के कार्यकर्ता, दोनों को काबू में लाया जाए. पर कोई कड़ा डिसीजन नहीं ले पाए. कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने इसे 'कम्युनिज्म के प्रति षड़यंत्र' बना दिया. वहीं कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिल गया. ये स्थिति कहानी बन गई. जो आज तक केरल में गाई जाती है. उसी वक़्त देश-दुनिया में अलग हालात भी बन रहे थे. भारत ने शुरुआत तो कम्युनिज्म के छोटे भाई सोशलिज्म से शुरू की थी. पर दुनिया में कम्युनिज्म का हश्र देखकर नेहरू अब इस विचारधारा से निराश हो चले थे. कम्युनिस्ट देशों चीन और रूस में विकास की जगह क़त्ल-ए-आम ज्यादा हुए थे. बराबरी के नाम पर सबको पटक के मारा जाता था. प्रधानमंत्री नेहरू को 'विदेश' की घटनाएं बड़ा प्रभावित करती थीं. उनके दिल पर बड़ा ही गहरा असर पड़ा. तभी केरल में एक अजीब वाकया हुआ. केरल की पुलिस ने एक प्रेग्नेंट औरत को 'गलती' से मार दिया. गलती से कभी कोई बड़ा नेता नहीं मरता. औरतें किसी भी गलती का शिकार बन जाती हैं. फिर इस बात पर 'बड़े लोगों' के अंदर का 'आदमी' जाग जाता है. तो 'बड़े लोगों' ने केरल की सरकार को गिराने का फैसला कर लिया. कहते हैं कि नेहरू का मन नहीं था, पर इंदिरा गांधी का दबाव था. वहीं इंदिरा के पति फिरोज गांधी तो इस बात पर भड़क गए. वो सरकार गिराने के पक्ष में बिल्कुल भी नहीं थे.
सबने यही कहा कि ये 'आदर्शों' की लड़ाई है. नम्बूदरीपाद, पिल्लई और नेहरु तीनों लोग बड़े ही 'उच्च आदर्शों' वाले थे. पर तीनों की झंझट में ऐसा कुछ हुआ, जिसने भारत की राजनीति को 'ब्रह्मास्त्र' दे दिया. राष्ट्रपति शासन. 1975-79 के बीच 21 बार लगा और 1980-87 के बीच 18 बार. जिसको जब मन आया, लगा दिया. केंद्र और राज्य के बीच मालिक-नौकर का संबंध हो गया. इसका नतीजा हमने कश्मीर के आतंकवाद के रूप में भोगा है. अभी हाल-फिलहाल में अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में ऐसा ही कुछ हो रहा था.
इस घटना के बाद नेहरू की 'ईमानदार' राजनेता वाली छवि टूट गई. इसके साथ ही नम्बूदरीपाद और पिल्लई की भी. जबकि तीनों अपने शानदार इरादों के लिए जाने जाते थे. पर यही होती है राजनीति. सबको घुटने पर ला देती है. कोई नहीं जानता, कब, कहां और कैसे.