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इंडोनेशिया में पायलट को किडनैप कर अजीब मांग रख दी!

वेस्ट पापुआ की पूरी कहानी क्या है?

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सुसी एयर प्लेन (प्रतीकात्मक तस्वीर - AFP)

7 फ़रवरी की दोपहर सुसी एयर का एक प्लेन जब इंडोनेशिया के जंगलों के बीच बनी हवाई पट्टी पर उतरा, तब उसे अपनी नियति का कोई अंदाजा नहीं था. जैसे ही इंजन बंद हुआ, हथियारबंद लड़ाके प्लेन को घेरकर खड़े हो गए. फिर उनमें से एक प्लेन के अंदर घुसा. पड़ताल की. फिर साथियों को बताया कि अंदर 6 लोग हैं. पांच यात्री और एक पायलट. इसके बाद एक अजीब चीज देखने को मिली. लड़ाकों ने सभी यात्रियों को बिना कोई नुकसान पहुंचाए जाने दिया. लेकिन उन्होंने पायलट को रोक लिया. वे उसे अपने साथ ले गए. बंधक बनाकर. वो पायलट न्यू ज़ीलैंड का था. कुछ समय बाद एक ऐलान हुआ. किडनैपर्स की तरफ़ से. ‘अगर पायलट ज़िंदा चाहिए तो पापुआ को आज़ाद करो.’

अब आपके मन में दुविधा हो रही होगी. पापुआ न्यू गिनी तो सुना था, पापुआ क्या है? वो आज़ादी क्यों मांग रहा है? और, इसके लिए न्यू ज़ीलैंड के पायलट को उठाने की क्या ज़रूरत थी? दरअसल, पापुआ इंडोनेशिया का एक प्रांत है. इसी नाम से मिलते-जुलेत कुछ प्रांत और हैं. इन्हें पूरा मिलाकर वेस्ट पापुआ कहा जाता है. इन प्रांतों में ख़ूब सारी पहाड़ियां और जंगल है. ये प्रांत पापुआ न्यू गिनी नाम के देश की पश्चिमी सीमा से लगे हुए हैं. वेस्ट पापुआ में रहने वाली अधिकांश आबादी मूलनिवासियों की है. वे अपनी पहचान को इंडोनेशिया से अलग करके देखते हैं. और, वे अपने नियम-कानूनों वाली व्यवस्था चाहते हैं. इस मांग को लेकर वहां पिछले छह दशक से विद्रोह चल रहा है. इंडोनेशिया की सरकार पर विद्रोह को कुचलने और मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते हैं. लेकिन वो किसी भी कीमत पर विद्रोहियों के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं है. कई मीडिया रपटों में ये भी कहा गया है कि, वेस्ट पापुआ वो दुखती हुई रग है, जिसे इंडोनेशिया दुनिया को नहीं दिखाना चाहता.

तो आइए जानते हैं,

- वेस्ट पापुआ की पूरी कहानी क्या है?
- वो इंडोनेशिया से आज़ादी क्यों चाहता है?
- और, पायलट को बंधक बनाकर वेस्ट पापुआ को क्या मिलेगा?

पहले ये नक़्शा देखिए.

क्रेडिट - गूगल मैप 

ऑस्ट्रेलिया के ऊपर समंदर में कुछ छोटे-छोटे आईलैंड्स दिखते हैं. एक टुकड़े में पूरब की तरफ़ पापुआ न्यू गिनी है. इस टुकड़े को न्यू गिनी आईलैंड्स कहते हैं. इसके पश्चिम में पापुआ और वेस्ट पापुआ नज़र आते हैं. इसी नाम के इर्द-गिर्द चार और प्रांत हैं. ये सभी इंडोनेशिया का हिस्सा हैं. हालांकि, यहां के मूल लोग सभी प्रांतों को वेस्ट पापुआ का नाम देते हैं. इन प्रांतों के साथ इंडोनेशिया की सीधी कनेक्टिविटी नहीं है. वेस्ट पापुआ तक पहुंचने के लिए हवाई रास्ते का इस्तेमाल करना पड़ता है. पापुआ वाला इलाका इंडोनेशिया से लगभग साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर दूर है. इसके अलावा, यहां पूरे समय अशांति की आशंका भी बनी रहती है. इसके बावजूद इंडोनेशिया ने ख़ूब सारी सेना और संसाधन खर्च कर इस इलाके पर नियंत्रण बनाए रखा है. इसकी वजह आगे बताएंगे.

उससे पहले इतिहास समझ लेते हैं.

 

न्यू गिनी आईलैंड पर यूरोप के औपनिवेशिक देशों का आना 18वीं सदी में शुरू हो चुका था. हालांकि, उन्हें ये जगह बहुत काम की नहीं लगी. इसलिए, उन्होंने पूरे आईलैंड पर क़ब्ज़ा करने की बजाय तटीय इलाकों पर कंट्रोल रखा. इस इलाके पर ब्रिटेन, डच, जर्मनी और जापान ने शासन किया.

फिर 1945 का साल आया. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद वर्ल्ड ऑर्डर तेज़ी से बदला. कॉलोनियां आज़ाद होने लगीं. इनमें इंडोनेशिया भी था. उसका कंट्रोल डच के हाथों में था. उस इलाके में डचों के पास जो कुछ भी था, उसको उन्होंने इंडोनेशिया के हवाले कर दिया. एक को छोड़कर. वो था, वेस्ट पापुआ. उसको उस समय वेस्ट इरियन के नाम से जाना जाता था. 1949 में नीदरलैंड्स ने इंडोनेशिया की आज़ादी को मान्यता दे दी. लेकिन वेस्ट पापुआ पर बात नहीं बनी. तब एक समझौता किया गया. इसमें कहा गया कि, वेस्ट पापुआ पर एक साल बाद फिर से बात की जाएगी. तब तक इसका कंट्रोल नीदरलैंड्स की सरकार के पास रहेगा. एक साल बाद कोई बात नहीं हुई. इंडोनेशिया को लगा कि नीदरलैंड्स का यहां से जाने का कोई मन नहीं है. वो अपनी मर्ज़ी थोप रहा है.

ऐसे में 1954 में इंडोनेशिया वेस्ट पापुआ का मसला यूनाइटेड नेशंस में ले गया. इंडोनेशिया ने कहा कि वो ज़मीन ऐतिहासिक तौर पर हमारी है. नीदलैंड्स बोला, वेस्ट पापुआ की अपनी अलग पहचान है, उन्हें अपनी किस्मत का फ़ैसला ख़ुद करने देना चाहिए.

यूएन में साल दर साल बहस होती रही. लेकिन कोई हल नहीं निकल रहा था. इस बीच इंडोनेशिया और नीदरलैंड्स के बीच तल्खी बढ़ती जा रही थी. दिसंबर 1961 में मामला तब हाथ से निकल गया, जब इंडोनेशिया ने वेस्ट पापुआ में अपनी सेना उतार दी. इससे नीदरलैंड्स नाराज़ हुआ. उसने यूएन से ऑब्जर्वर फ़ोर्स भेजने के लिए कहा. लेकिन यूएन ने मना कर दिया. ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि, उस समय तक एक अमेरिकी कंपनी ने वेस्ट पापुआ से सोना और तांबा निकालने की डील कर ली थी. यानी, वेस्ट पापुआ से अमेरिका का हित जुड़ गया था. इससे भी पहले सोवियत संघ ने इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी को हथियार देना शुरू कर दिया था. वो कोल्ड वॉर का दौर था. अमेरिका को डर हुआ कि कहीं इंडोनेशिया कम्युनिस्ट ब्लॉक का हिस्सा ना बन जाए. ऐसे में उसने नीदरलैंड्स को शांति बरतने के लिए मना लिया. उसने उन्हें इस बात के लिए भी राज़ी कर लिया कि, जब तक वेस्ट पापुआ का कोई हल नहीं निकलता, तब तक यूएन निगरानी रखेगा.

फिर 1969 में यूएन की निगरानी में रेफ़रेंडम कराया गया. उस समय वेस्ट पापुआ की आबादी लगभग आठ लाख थी. लेकिन रेफ़रेंडम में सिर्फ 01 हज़ार 26 लोगों को वोट डालने दिया गया था. ये वोटर्स कबीलों के नेता थे. इंडोनेशिया में परंपरा रही है कि. कबीले के नेता की राय को पूरे कबीले की राय माना जाता है. इसी के आधार पर वेस्ट पापुआ का भविष्य भी तय होने वाला था. वोटर्स को दो विकल्प दिए गए. पहला, इंडोनेशिया के साथ हैं तो एक. ख़िलाफ़ में हैं तो दो. सबने पहला विकल्प चुना. इस तरह वेस्ट पापुआ को इंडोनेशिया का हिस्सा मान लिया गया. इसे ‘ऐक्ट ऑफ़ फ़्री चॉइस’ का नाम दिया गया था. लेकिन इस वोटिंग में फ़्री चॉइस का कितना ध्यान रखा गया था, इस पर हमेशा संदेह बना रहा.
इसकी दो बड़ी वजहें थीं,

- पहली, जनमत-संग्रह में आबादी के एक प्रतिशत से भी कम लोगों की राय ली गई थी. इसे बहुमत की पसंद बताना किसी भी तरह से सही नहीं था.
- दूसरी वजह ये थी कि वोटिंग इंडोनेशिया की सेना की निगरानी में कराई गई थी. इंडोनेशिया में आज़ादी के बाद से ही तानाशाही शासन चल रहा था. ऐसी सरकार की नाक के नीचे किसी विरोधी नतीजे की कोई गुंजाइश नहीं थी.

इसके कारण जनमत-संग्रह की वैधता को लेकर ख़ूब सवाल उठे. यूएन से मांग की गई कि इस जनमत-संग्रह को मान्यता ना दी जाए. लेकिन यूएन ने इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया. ये आगे चलकर एक बड़े आंतरिक विद्रोह की बीज रखने वाला था. यही हुआ भी. वेस्ट पापुआ में 1969 से ही इंडोनेशिया के ख़िलाफ़ आंदोलन चल रहे हैं. कई गुटों ने हथियार भी उठा रखा है. उनकी एक ही मांग है, इंडोनेशिया से आज़ादी.
इसके तीन बड़े कारण हैं.

- नंबर एक. ऐक्ट ऑफ़ नो चॉइस. इंडोनेशिया सरकार 1969 के जनमत-संग्रह के आधार पर वेस्ट पापुआ पर शासन करती है. लेकिन अधिकांश आबादी उसको अवैध मानती है. उनका मानना है कि उन्हें कभी अपनी पसंद बताने का मौका दिया ही नहीं गया.

- नंबर दो. धार्मिक विभेद. इंडोनेशिया एक मुस्लिम-बहुल आबादी वाला देश है. लगभग 87 प्रतिशत आबादी इस्लाम को मानती है. इसके बरक्स अधिकतर वेस्ट पापुआ वाले ईसाई धर्म को मानते हैं. 1969 के बाद से इंडोनेशिया ने वेस्ट पापुआ में लाखों मुस्लिमों को बसाया है. 1960 से पहले तक पापुआ में पापुआ के मूलनिवासियों का हिस्सा 97 प्रतिशत था. 2000 में ये आंकड़ा घटकर 50 प्रतिशत पर आ गया. मतलब ये कि वेस्ट पापुआ में मुस्लिम आबादी का आकार बढ़ता जा रहा है. मूलनिवासियों को डर है कि एक दिन उनकी अपनी पहचान गौण कर दी जाएगी.

- नंबर तीन. नस्लभेद. इंडोनेशिया की बहुसंख्यक आबादी वेस्ट पापुआ के लोगों को अपने से अलग मानती है. उन्हें बंदर कहकर अपमानित किए जाने की कई घटनाएं सामने आ चुकीं है. इसके ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट भी हुए हैं. लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ.

अब सवाल ये आता है कि, इंडोनेशिया की वेस्ट पापुआ में इतनी दिलचस्पी क्यों है?

इसकी भी तीन बड़ी वजहें नज़र आती हैं.

- नंबर एक. ज़मीन. वेस्ट पापुआ के पास इंडोनेशिया की कुल ज़मीन का 24 प्रतिशत हिस्सा है. इसकी तुलना में आबादी में उसकी हिस्सेदारी दो प्रतिशत से भी कम है. इंडोनेशिया के कई बड़े शहरों में आबादी कंट्रोल से बाहर होती जा रही है. उनके पास ज़मीन कम पड़ रही है. आने वाले समय में वेस्ट पापुआ ये कमी पूरी कर सकता है.

- नंबर दो. पैसा. वेस्ट पापुआ में ग्रासबर्ग खदान है. यहां दुनिया के सबसे बड़े सोने के भंडार हैं. इसी प्रांत में तांबे की विशालकाय खदानें भी हैं. इसके अलावा, दूसरे प्राकृतिक संसाधनों की भी भरमार है. ये संसाधन इंडोनेशिया की कमाई का एक बड़ा साधन हैं. अगर वेस्ट पापुआ उनके हाथ से निकलता है तो उनकी कमाई रुक जाएगी.

- नंबर तीन. प्रतीक. डचों ने इंडोनेशिया पर लगभग 350 सालों तक शासन किया. इंडोनेशिया ने लड़कर आज़ादी हासिल की. वेस्ट पापुआ को हासिल करने के लिए उन्हें और ख़ून बहाना पड़ा. इसलिए, ये उनकी स्वतंत्र पहचान का एक हिस्सा बन गया है. वे इस प्रतीक को किसी भी स्थिति में नहीं छोड़ना चाहेंगे.

अब बात ये आती है कि वेस्ट पापुआ का भविष्य क्या है?

वेस्ट पापुआ में हिंसक संघर्ष दशकों से चला आ रहा है. हालांकि, इसका खामियाजा सबसे ज़्यादा आम लोगों को भुगतना पड़ता है. विद्रोही गुट छिटपुट हमला करके सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश करते हैं. बदले में सेना पूरे इलाके को निशाना बनाती है. इस संघर्ष में अभी तक हज़ारों लोग मारे गए हैं, जबकि लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. वेस्ट पापुआ में ग़रीबी और बेरोज़गारी की समस्या भी है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके हितों की बात करने वाले भी कम है. सोलोमन आईलैंड्स और वैनाउटु जैसे देशों ने यूएन में वेस्ट पापुआ का मुद्दा उठाया ज़रूर, लेकिन उन्हें पर्याप्त समर्थन नहीं मिला. इस इलाके का सबसे बड़ा देश ऑस्ट्रेलिया, वेस्ट पापुआ के मुद्दे पर इंडोनेशिया के साथ है. ऑस्ट्रेलिया सरकार वेस्ट पापुआ में मिलिटरी ऑपरेशन चलाने वाली आर्मी यूनिट्स को ट्रेनिंग भी देती है.

ऐसी स्थिति में वेस्ट पापुआ की जनता के सामने दो ही रास्ते बचते हैं. पहला, अपनी नियति स्वीकार कर लेना. या दूसरा, अपना संघर्ष जारी रखना. एक ऐसा संघर्ष, जिसका छोर किसी को पता नहीं है.

आज हम ये कहानी क्यों सुना रहे हैं?

जैसा कि हमने शुरुआत में बताया, पापुआ में न्यू ज़ीलैंड के एक पायलट को किडनैप कर लिया गया है. किडनैपर्स ने बाद में प्लेन में आग लगा दी. इसकी ज़िम्मेदारी वेस्ट पापुआ लिबरेशन आर्मी ने ली है. ये फ़्री पापुआ ऑर्गेनाइजे़शन (OPM) का मिलिटरी विंग है. OPM की स्थापना 1965 में हुई थी. इसमें वेस्ट पापुआ की आज़ादी के लिए लड़ने वाले कई संगठन शामिल हैं.

पायलट को किडनैप करने के बाद गुट के प्रवक्ता ने कहा,

‘हम तब तक बंधक को नहीं छोड़ेंगे, जब तक कि पापुआ को आज़ाद नहीं कर दिया जाता. हमने पायलट को इसलिए पकड़ा है, क्योंकि न्यू ज़ीलैंड भी इंडोनेशिया को सैन्य मदद देता रहा है.’

इंडोनेशिया ने पायलट की तलाश के लिए अपनी टीम रवाना की है. न्यू ज़ीलैंड के प्रधानमंत्री ने भी पायलट को बचाकर निकालने की बात कही है. लेकिन अभी तक पायलट का कोई पता नहीं चल सका है. मीडिया रपटों के अनुसार, बाकी के पांच यात्री पापुआ के मूलनिवासी थे. इसलिए, उन्हें आराम से जाने दिया गया.

जहां तक मांग की बात है, जानकारों का कहना है कि, इंडोनेशिया सरकार विद्रोहियों की मांग किसी भी कीमत पर नहीं मानेगी. ये उनकी स्टेट पॉलिसी के ख़िलाफ़ है. राष्ट्रपति जोको विडोडो कई दफे दोहरा चुके हैं कि वेस्ट पापुआ में सिर्फ और सिर्फ इंडोनेशिया का शासन चलता है. हालांकि, इस किडनैपिंग ने इंडोनेशिया को और सख्त होने का बहाना ज़रूर दे दिया है.

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